Maharshi Durvasa Aur Sati Anusuiya ki Katha in Hindi Motivational Stories by Hindi Kavita Shayari books and stories PDF | महर्षि दुर्वासा और सती अनुसुइया की कथा

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महर्षि दुर्वासा और सती अनुसुइया की कथा

महर्षि दुर्वासा ऋषि अत्री और सती अनुसुइया के पुत्र थे. वे स्वाभाव से बहुत ही क्रोधी थे. वे सतयुग, द्वापर और त्रेता तीनों ही युगों में रहे. ऋषि दुर्वासा एक महान तपस्वी थे और तपोबल से उनमें असीम शक्तियां थीं. उनकी कही गयी बात कभी भी खाली नहीं जाती थी. महर्षि दुर्वासा का आश्रम उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले के फूलपुर में स्थित है.

माता अनुसुइया एक पतिव्रता स्त्री थीं और उन्हें इस बात का विश्वास था कि उनसे बड़ी पतिव्रता इस संसार में कोई नहीं है. जबकि तीनों देवियों मां लक्ष्मी, मां सरस्वती अकुर मां पारवती ने कहा कि उनसे बड़ी पतिव्रता कोई नहीं हो सकता

इसी विषय पर विवाद चल रहा था. तब तीनों ही देवताओं ने माता अनुसुइया की परीक्षा लेने की सोची और उनकी परीक्षा लेने भगवान ब्रह्मदेव, भगवान शिव और भगवान नारायण उनके पास आये. तीनों ही देवताओं ने भिक्षुक का रूप बनाया और माता अनुसुइया से भिक्षा की मांग की और जब सती अनुसुइया मिक्षा लेकर आयीं तो उन्होंने यह शर्त रख दी कि वे तभी भिक्षा ग्रहण करेंगे जब वे पूर्ण रूप ने निर्वस्त्र होकर भिक्षा देंगी.


यह मांग बहुत ही विचित्र थी और इससे सती अनसुइया का पतिव्रत टूट जाता . सती अनुसुइया को इसमे अवश्य ही कोई कारण समझ आया. तब उन्होंने अपने पतिदेव महर्षि अत्री को यह बात बताई और जब महर्षि अत्री ने ध्यान लगाया तो देखा कि तीनों ही देवता भिक्षुक बन कर आये हुए हैं.

तब ऋषि अत्री ने कहा कि इसमें कुछ भी गलत नहीं है आप उन्हें भिक्षा दे दो. उसके बाद जब सती अनसुइया भिक्षा लेकर आयीं और उन्होंने कहा कि आप लोग बालक बन जाएँ और उनके पतिव्रत के तेज से तीनों ही देवता बालक बन गए.

अब इधर तीनों ही देवियाँ बड़ी परेशान होने लगीं कि आखिर तीनों देवता वापस क्यों नहीं आये और जब उन्हें ढूढते हुए वे महर्षि अत्री के आश्रम में आयीं तो देखा तीनों ही देवता बालक बने खेल रहें हैं.

उन तीनों ही देवियों ने अपने अपने पतियों को सती अनसुइया से माँगा तब सती अनसुइया ने कहा कि नहीं अब ये तीनों बालक यहीं रहेगे...हाँ यह अवश्य होगा की तीनों देवताओं के मूल स्वरुप आपके साथ रहें लेकिन यह बालक स्वरुप अब यही रहेंगे. तीनों देवियों को उनकी गलती का एहसास हो गया था. उन्होने सती अनसुइया की बात को मान लिया. तीनों ही रूपों में भगवान महेश के स्वरुप ही महर्षि दुर्वासा हुए.

वे एक महान तपस्वी थे. उनके तपोबल में इतनी शक्ति थी कि उनके द्वारा कही गयी बात को विधाता भी टाल नहीं सकते थे. एक बार की बात है जब शिव जी के विवाह का निमंत्रण मिलाने पर माता अनुसुइया दुर्वाषा जी के साथ कैलाश पर गयीं जहां उन्हें महर्षि दुर्वासा के साथ देख नारद मुनि ने सती अनुसुइया से कहा की आप दुर्वाशा जी के साथ आई हैं कहीं ये अपने क्रोध के कारण कोई अनिष्ट ना कर दें.

इस पर सती अनुसुइया ने कहा कैसी बात कर रहे हैं मुनिवर....दुर्वाशा भगवान भोले के अनन्य भक्त हैं और वे ऐसा कुछ भी नहीं करेंगे जिससे किसी को कुछ परेशानी हो...लेकिन हुआ वही जिसका नारद जी को डर था. सब कुछ बहुत ही सुखद चल रहा था. सभी देवी देवता आपसी मतभेदों को भुलाकर पुरे हर्ष और उल्लास से महादेव की बरात में शामिल होने पहुंचे थे.

सभी विधियां एक एक कर संपन्न की जा रही थीं. महादेव का पहले भस्म फिर दूध और फिर जल से अभिषेक किया गया और इसके उपरांत भगवान नीलकंठ को भांग का भोग लगाया गया और यही प्रसाद वहाँ मौजूद अन्य लोगों को दिया गया.

इस प्रसाद को ग्रहण करने के बाद वहाँ का माहौल एकदम से बदल गया और सभी लोग भांग के नशे में झुमने लगे और इसी बीच भगवान के शिव के किसी गण ने महर्षि दुर्वासा से अभद्र व्यवहार कर दिया.

उसके बाद महर्षि दुर्वासा अत्यन्त क्रोधित हो गए और श्राप दे दिया की तुम लोगों ने जिस रूप में मेरा अपमान किया है इस रूप को देखकर कन्यापक्ष के लोग मूर्छित हो जायेंगे और भगवान शिव का इस वैरागी रूप में विवाह नहीं होगा.

तब देवर्षि नारद ने उन्हें इस श्राप का एहसास करवाया...तब उनका क्रोध शांत हुआ और उन्होंने भगवान शिव से क्षमा मांगी. उन्होंने कहा हे भगवन मैंने क्रोध में आकर इतना बड़ा अनर्थ कर दिया मुझें क्षमा करें दीनदयाल....क्षमा करें. तब भगवान श्री नारायण ने कहा कि यह सब नियति का खेल है. आप तो मात्र एक साधन हैं. यह नियति ने पहले सी ही तय कर रखा था.

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