Aouraten roti nahi - 5 in Hindi Women Focused by Jayanti Ranganathan books and stories PDF | औरतें रोती नहीं - 5

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औरतें रोती नहीं - 5

औरतें रोती नहीं

जयंती रंगनाथन

Chapter 5

शाम ढलने लगी थी। बस जरा सी देर में अंधेरा हो जाएगा, तो पांव को पांव नहीं सूझेगा। झरने के पार पहुंचने के बाद श्याम असमंजस में खड़े हो गए, अब आगे कैसे जाएंगे? बहुत दूर उन्हें रोशनी सी नजर आ रही थी। टिमटिमाता हुआ दीया। वे उसी दिशा में चल पड़े। पास गए, तो देखा आठ-दस युवक थे। हाथ में लाठी-भाला लिए। कइयों की दाढ़ी बढ़ी हुई। श्याम डर गए। कौन हो सकते हैं? डाकू-लुटेरे? इनसे जाकर कैसे पूछें कि रास्ता बताओ।

श्याम को पास आता देख वे युवक खुद ही चुप हो गए। एकदम नजदीक जाने के बाद श्याम ने देखा कि उनमें से एक युवक जमीन पर चित पड़ा था। पैर में घाव। खून के थक्कों के बीच लेटा बेजान युवक। श्याम सकते में आ गए। कुछ हकलाते हुए पूछा, ‘‘मैं रास्ता भटक गया हूं। बता सकते हैं क्या?’’

उन युवकों के चेहरे पर गुस्सा था। तमतमाया हुआ चेहरा। एक ने कुछ चिढ़कर कहा, ‘‘नहीं पता। यहां मरने क्यों चले आए?’’

उसे शांत किया एक लंबे कद के शालीन युवक ने, ‘‘इन पर गुस्सा होकर क्या मिलेगा तुम्हें? अरे भाई रास्ता तो जरा टेढ़ा है। सामने टीले तक सीधे जाओ, फिर ढलान से उतर जाओ। बाईं तरफ से होकर सीधे निकल जाना...।’’

श्याम ने सिर हिला दिया, पर समझ कुछ नहीं आया। वे अचानक पूछ बैठे, ‘‘ये...इन्हें क्या हुआ? घायल कैसे हो गए?’’

किसी ने तुरंत कोई जवाब नहीं दिया। श्याम नीचे बैठकर घायल युवक की नब्ज टटोलने लगे। सांस बाकी थी। स्कूली दिनों में डॉक्टर बनने की उत्कट इच्छा थी। दूर के चाचा थे भी डाक्टर। उनके साथ कई बार श्याम हो लेते थे मरीज को देखने। यहां तक कि छोटे-मोटे ऑपरेशन करने भी।

नीचे बैठते ही वे भांप गए कि युवक को गोली लगी है। टांग में। पता नहीं क्या हुआ उन्हें, झटपट पैंट खींचकर उतारा और उसे कसकर जांधों में बांध दिया। घुटने के नीचे लोथड़ा सा निकल आया था। अगर कहीं से गर्म पानी और चाकू मिल जाता तो कुछ कर लेते। अचानक उन्हें मंदिर का ख्याल आया। बालक नित्यानंद वहीं होगा। उन्होंने कुछ रौबीली आवाज में कहा, ‘‘इसे उठाकर मेरे साथ मंदिर तक आओ। वर्ना ये बचेगा नहीं।’’

पाा नहीं क्या बात थी उनकी आवाज में कि उनके हुक्म की तुरंत तामील हुई। उस युवक को कंधे पर लाद जैसे ही श्याम मंदिर के अहाते में पहुंचे, नित्यानंद भागता हुआ आ गया, ‘‘क्या हो गया? आप काहे फिर आ गए? गुरुजी को तो होश ही नहीं आया अभी तलक।’’

श्याम ने कुछ जोर से कहा, ‘‘चल बकवास छोड़। एक बड़े बर्तन में पानी गर्म कर ला। सुन... बच्चे, सब्जी काटने वाला चाकू है न, उसे आग में तपाकर ले आ। कुछ कपड़े पड़े हों तो लेते आना।’’

अगले एक घंटे में शाम ने एक व्यक्ति की जिंदगी की डूबती नब्ज में नए सिरे से प्राण फूंक दिया। थककर पस्त हुए, तो किसी ने उनके हाथ चाय की प्याली पकड़ा दी। तब जाकर उन्होंने पाया कि रात घिर आई है। हवा चलने लगी है। नित्यानंद ने मंदिर में दीये जला दिए। हल्की रोशनी।

सभी युवक पस्त से हो चले थे। उनमें से एक श्याम के पास आ बैठा। लंबे कद का शालीन युवक प्रवीर। अपने हाथ की जली सिगरेट श्याम को थमाता हुआ बोला, ‘‘यू आर लाइक गॉड सैंड। हम सोच भी नहीं सकते थे कि विनोद को बचा पाएंगे।’’

श्याम ने सिगरेट का कश लिया। अच्छे ब्रांड की सिगरेट थी। तंबाकू की सुगंध से उनके नथुने फड़कने लगे। इस वक्त उन्हें किसी की चिंता नहीं थी। न घर लौटने की, न शोभा की, न अंधेरे की। अच्छा लग रहा था इस तरह अनजाने युवकों के साथ एक अनजानी सी जिंदगी जीना।

वे युवक नक्सली थे। महाराष्ट्र से भागकर यहां पहुंचे थे, छिपते-छिपाते। बीस साल के युवक। देश की तस्वीर को बदल देने का जज्बा रखने वाले गर्म खून से लबालब।

‘‘यू आर सो इग्नोरेंट।’’ प्रवीर ने कुछ जज्बाती होकर कहा, ‘‘आपको पता है देश लहूलुहान हो चुका है? हर तरफ न्याय की गुहार लगाने वालों का गला घोंटा जा रहा है। हम अपनीमर्जी से बगावती नहीं बने। किसने बनाया हमें? बोलिए... आपको पता भी है इमरजेंसी के पीछे का सच क्या है? कत्ल, दहशत और तानाशाही। पिछले तीन महीने से हम भाग रहे हैं। हमें पता है कि इसी तरह भागते-भागते हम दम तोड़ देंगे एक दिन।’’

श्याम सोचने लगे... वाकई वे देश-दुनिया से कट गए हैं। कमलनयन कभी-कभार चर्चा कर लिया करते थे जय प्रकाश नारायण और उनके आंदोलन की। पर श्याम ने कभी रुचि नहीं ली। उनके लिए आपातकाल का मतलब था समय से ट्रेन का आना, दफ्तर में समय पर जाना और समय पर राशन मिलना। अपनी छोटी सी दुनिया के छोटे से बाशिंदे। बीवी, घर-परिवार, इससे ज्यादा क्या सोचें? पांच साल में दो बच्चे हो गए हैं। खर्चे बढ़ गए। नौकरी ऐसी कि एक जगह टिकने की सोच नहीं पा रहे। जब से इस कस्बे में आए हैं, खाने-पीने के ही लाले पड़ गए हैं। ऐसे में देश की सोचें भी तो क्या? एक वक्त था जब वे खुद आई.ए.एस. बनकर मुख्य धारा में बहना चाहते थे। अब लगता है नसों में खून में उबाल ही नहीं रह गया। खून है कि पानी। शायद वो भी नहीं। होगा कोई गंदला, गंधहीन और नशीला द्रव।

उस रात उन्हें लगा कि जिंदगी वो नहीं है, जो वे जी रहे हैं। जिंदगी तो जी रहे हें प्रवीर, विनोद, कश्यप, लखन और वेणु। जोश से लबालब। आग लगा दो इस दुनिया को, ये दुनिया बेमानी है-आग अंतर में लिए पागल जवानी... आग... आग... आग।

संसार को बदलना है। अन्याय से लड़ना है। कानून किसी की बपौती नहीं। हम भी जिएंगे खुलकर अपनी तरह से।

साधु महाराज उसी तरह बेहोश पड़े थे। लड़कों ने बहला-फुसलाकर नित्यानंद से परांठे बनवा लिए थे और अब चिलम का घूंट लगाए बेसुध हो रहे थे।

आधा चांद, मंदिर के पास बूढ़े बरगद के ऊपर टंगा हुआ चांद। श्याम ने उस रात जी भर चांद को देखा, मधुमालती की सुगंध को अंतस में भर प्रण किया कि वे बेकार सी जिंदगी नहीं जिएंगे। कुछ तो अर्थ हो, मकसद हो सांस लेने का।

मंदिर के अहाते में पूरी रात बीत गई। हल्का सा उजास हुआ, तो श्याम उठ खड़े हुए। प्रवीर ने ही पूछा, ‘‘हम साथ चलें? दो चार दिन। कोई दिक्कत तो नहीं होगी?’’

बिना सोचे-समझे श्याम ने हां कह दिया। रास्ता ढूंढना उतना मुश्किल न था। घर की राह आते ही श्याम आशंका में पड़ गए। कमलनयन ने आज लौटने की बात कही थी। शोभा ने पता नहीं रात क्या किया होगा? घर के सामने ही शोभा दिख गई। बरामदे में गीले बाल सुखाती हुई। श्याम को इतने सारे युवकों के साथ देखकर थोड़ा अचकचा गई। श्याम ने अटपटाकर कहा, ‘‘चाय पिलाएंगी?’’

प्रवीर ने टहोका, तो श्याम हड़बड़ाकर बोले, ‘‘मेरे दोस्त की बीवी हैं। यहीं रहते हैं दोनों।’’

शोभा चुपचाप सबके लिए चाय और मठरियां ले आई। नहां-धोकर श्याम दफ्तर के लिए निकल गए। शोभा को यह भी बताकर नहीं गए कि खाना पकाओ, नहीं पकाओ। लड़के यहीं रहेंगे या चले जाएंगे।

दिनभर इंतजार करते रहे कि कमलनयन लौट आएगा तो आगे की भूमिका वह संभाल लेगा। शाम तक वह नहीं आया। श्याम बैंक से लौटे। सारे लड़के उनके तीन दीवारों वाले घर में जमे थे। विनोद की तबीयत ठीक लग रही थी। पूरे कमरे में सिगरेट का धुआं। कागज इधर-उधर बिखरे हुए। शोभा रसोई में थी। साग चुन रही थी। श्याम को देखा तो चेहरे पर बेबसी के से भाव आए। श्याम को दया आ गई। साथ बै गए और धीरे से बोले, ‘‘देखो, कमलनयन के लौटते ही तुम दोनों अलग कमरा लेकर चले जाना। तुम्हें आराम मिलेगा। इस तरह मेहमान की तरह कब तक रहोगी?’’

शोभा ने पलकें उठाकर श्याम की तरफ देखा। चेहरे पर अजीब से भाव। उसके होंठ फड़के। वह धीरे से बोली, ‘‘वे नहीं आएंगे अब!’’

‘‘क्या! क्यों! तुमसे कुछ कहकर गए क्या? बोलो तो?’’ श्याम सिटपिटा से गए। आवाज शायद थोड़ी ऊंची हो गई।

शोभा शांत थी। उसी तरह साग चुनने में लगी रही। रुककर बोली, ‘‘समझ में तो आ ही जाता है न श्याम जी। उनका इस तरह से जाना... पल्ला झाड़कर ही तो गए हैं। हमें क्या पता नहीं? आप बताओ, आपको तो बताकर गए होंगे कि... हमारा क्या करना है?’’

श्याम को गुस्सा आ गया। सब पर। पहले कमलनयन पर, फिर अपने आप पर भी। अगर शोभा सच कह रही है तो क्या करेंगे उसका? वापस जाए वहीं जहां से आई थी?

‘‘मुझे कुछ नहीं पता। ... पता करने की जरूरत भी नहीं है।’’ वे भन्ना कर उठ गए वहां से।

सीधे ढाबे जाकर सबके लिए रोटी और दाल मखानी बनवा लाए। लड़के खा-पीकर सो गए। उसी तीन दीवारों वाले एक कमरे में पांच लड़के, एक अधेड़ आदमी और शोभा-इतनी जगह भी नहीं थी। गनीमत थी कि गर्मियों के दिन थे। वर्ना उनके पास इतने आदमियों के लिए बिस्तर और रजाइयां कहां थी?

शोभा रसोई के बाहर फैल गई। श्याम को लग रहा था इतने मर्दों के रहते उसे रसोई में सोना चाहिए। एक आदमी के लिए वहां जगह कम नहीं। कम से कम पर्दा तो रहता। शोभा से इसके बाद उनकी कोई बात नहीं हुई। अगले दिन भी वे इसी तरह बस चाय भर पीकर दफ्तर चले गए। ऊब और अशांत दिन। शाम तक वे झल्ला पड़े खुद पर कि क्या मुसीबत मोल ले ली?

घर लौटना ही था। ऊपर से सब शांत लगा। पांच लड़कों में से दो ही घर थे- प्रवीर और विनोद। शोभा भी गायब थी। देर से लौटी चौकड़ी। एकदम बदले हुए हालात। शोभा हंस रही थी सबके साथ। ठिठोली हो रही थी। हंसी-ठठ्ठा। अचानक मजाक-मजाक में एक ने शोभा का आंचल ही पकड़ लिया। पल्लू खुलकर जमीन पर गिर गया। अपनी देह ढकने के बजाय शोभा जमीन पर बैठ कर हंसने लगी। श्याम से रहा न गया। दिन-दिन में यह क्या हो गया? इतनी बेहयाई? उनकी आंखों के सामने? अचानक वे फट पड़े, ‘‘क्या हो रहा है? क्या समझ रखा है तुम लोगों ने? क्या है ये चकलाघर?’’

शोभा एकदम से चुप होकर अंदर चली गई। सन्नाटा। प्रवीर ने उनके पास आकर कंधे पर हाथ रखकर कहा, ‘‘बड़े दिनों बाद लड़कों का मूड सही हुआ है। रहने दीजिए।’’

श्याम को एकदम से गुस्सा आ गया, ‘‘क्यों रहने दूं भई? क्या लगती है वो तुम्हारी, किस हक से छेड़ रहे हो उसे?’’

प्रवीर की आवाज पत्थर की तरह कठोर हो गई, ‘‘यूं तो सर, वह किसी की कुछ नहीं लगती। और लगने को सबकी लगती है। आप क्यों इतना परेशान हो रहे हैं? उनसे बियाह आपके मित्र ने किया है, आपने तो नहीं। फिर एक बात बता देते हैं, वे छिड़वाना चाहती हैं, तभी न...’’

एकदम से श्याम चक्कर खा गए। तो क्या सबको पता चल गया कि शोभा की असलियत क्या है?

वे दनदनाते हुए रसोई में गए। शोभा जमीन पर बैठी स्टोव जजाने की कोशिश कर रही थी। श्याम को देखते ही उसने अपने अस्त-व्यस्त कपड़े ठीक करने की कोशिश की। श्याम को न जाने क्या हुआ, उसका स्टोव जजाने को उठा हाथ पकड़कर मरोड़ दिया। शोभा कराह उठी। श्याम उग्र हो गए, ‘‘दिखा दी न अपनी जात? एक दिन भी सब्र नहीं हुआ? धंधा करना है तो यहां क्यों बैठी है? लौटकर चली क्यों नहीं जाती?’’

शोभा की आंखों में दर्द के आंसू छलक आए थे। पर अपनी आवाज को धीमी रखकर बोली, ‘‘क्यों... आप करवाना चाहते हो क्या? सबने करवा लिया, अब आप भी करवा लो श्याम जी। अपनी मर्दानगी हमारा हाथ मोड़कर ही दिखाना चाहते हो क्या?’’

श्याम हक्के-बक्के रह गए। शोभा ने उसी तरह धीमी आवाज में कहा, ‘‘आप हमारे बारे में जानते ही क्या हो? यही न कि हम शरीर बेचते हैं। आज इन लड़कों से जरा हंसी क्या कर ली, सोचा इन्हीं को बेच रही हूं अपना शरीर। है न? सच बताएं साब.. हमको आप जैसे लोगों की तरह दो बातें करनी नहीं आती। एक ही चेहरा है हमारा। हमें बताने की जरूरत ही नहीं पड़ी। इन लड़कों को आप ही पता था कि हम क्या हैं? वे तो आपको भी दल्ला ही समझ रहे हैं। पूछ भी रहे थे कि रेट आप तय करेंगे कि हम खुद ही... हमें बताओ हमारा क्या होगा अब? शादी करके भी कौन सा सुख देख लिया? अपने खाने-पीने के एवज में रोज ही तो शरीर देते थे उन्हें। बस उससे ज्यादा क्या रिश्ता था हमारा साब जी से?’’

कहते-कहते हांफने लगी शोभा। फिर खुद ही चुप हो गई। श्याम सिर झुकाए बैठे रहे जमीन पर। चेहरा पसीने से तरबतर। शोभा ने अपना हाथ उनके हाथ पर रखा, ‘‘हमारी वजह से शर्मिंदा मत होओ। हम आपके घर की बहू-बेटियों की तरह नहीं हैं। हम बचपन से मर्दों के बीच जीते आए हैं। डर नहीं लगता हमें। हमसे क्या छीन लेंगे? हमें बंधकर जीना नहीं आता साब जी। बंधे तो लगा सांस ही रुक गई है। अब जीने के लिए कुछ तो करना पड़ेगा न... हमने इन छोकरों से दो सौ रुपए लिए हैं। आप कहें तो आधे आपको दिए देते हैं। घर तो आप ही का है न...।’’

क्रमश..