कुबेर
डॉ. हंसा दीप
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डीपी के मार्ग दर्शन के चलते नई कंपनी आकार ले रही थी। हालांकि, ‘अपटिक’ ही कमीशन के आधार पर उनके निवेश सम्हालने वाला था पर डीपी के दिमाग़ में भविष्य के लिए लंबी योजनाएँ थीं। अलग-अलग विभाग हों, हर कार्यकारी व्यक्ति के पास अपनी रुचि के बाज़ार की स्टडी हो, रोज़ के भाव-ताव पर नज़र रखी जाए, बाज़ार का ट्रेंड पता लगे तो भावी संभावनाओं की सूचियाँ बनें।
थोड़ी पूँजी के रहते नये निवेश अधिक नहीं थे बल्कि योजनाएँ अधिक थीं। सीमित स्रोत विस्तृत योजनाओं को नियंत्रित करने के लिए सीमा रेखाएँ अंकित कर देते थे।
डंका बजाने के बजाय काम शुरू करना आवश्यक था और काम शुरू हुए। रियल इस्टेट में भी जोखिम भरी संपत्तियों की अलग-अलग कंपनियाँ अलग-अलग प्रॉपर्टीज़ सम्हालने लगीं ताकि कभी नुकसान हो तो एक ही कंपनी ख़त्म हो, सारी नहीं। अभी तक एक ही कंपनी थी। अब एक के बाद एक कंपनियों की श्रृंखला बन गई, नेक इरादे के साथ।
कुबेर रियलिटी इंक, कुबेर इन्वेस्टमेंट लिमिटेड, कुबेर इंकार्पोरेशन। कुबेर एंड संस की अभी ज़रूरत नहीं थी पर ज़रूरत पड़ने पर पाइप लाइन में थी यह कंपनी। धीरे-धीरे उसकी टीमें उसकी अपेक्षानुसार खड़ी होनी शुरू हुईं। अपनी टीमों को अधिकार देना बढ़ता गया।
भाईजी कहते – “डीपी कभी भी ख़तरा हो सकता है कि लोग अपने अधिकारों के चलते नाज़ायज फ़ायदा उठाएँगे उनका। उसके लिए यह ज़रूरी है कि कंपनी में काम करने वालों को इतना दिया जाए कि वे कभी बगावत की सोच भी न सकें। कमीशन के आधार पर वेतन तय करो। इस तरह जितना काम करोगे उतना वेतन बढ़ता जाएगा। यूँ उनकी कमाई उनके हाथ में होगी तो मक्कारी की कहीं कोई गुंजाइश नहीं होगी।”
“बिल्कुल सही कहते हैं भाईजी आप, हम मक्कारों की फौज के बजाय चुनिंदा ऐसे लोगों को ही रखेंगे जो मेहनत करें, काम आगे बढ़ाने के बारे में सोचें, व्यापार के गुर सीखने की ललक रखें और वे ही हमारी टीम में शामिल हों।”
अपने इसी सिद्धांत का पालन करते हुए अच्छे से अच्छे लोगों को तलाशती आँखें इतना देने का वादा करतीं कि अपने क्षेत्र में माहिर लोगों की कतार लगने लगी उनके साथ काम करने के लिए। जो अपने मुनाफ़े के लिए अपने दिमाग़ का उपयोग करता, उसका काम तेज़ी से बढ़ने लगता। जैसे-जैसे उनका काम बढ़ता कुबेर समूह और डीपी का काम भी बढ़ता जाता, नाम फैलता रहा और अपना कमीशन भी।
लड़कियाँ भी शामिल होने लगीं, उदार, कर्मठ और लगनशील। अपने पंखों को फैलाने की चाहत किसे नहीं होती, खुले आकाश की उँचाइयों का रोमांच किसे अच्छा नहीं लगता। एक-एक करके डीपी की टीम में चुने हुए दिग्गज दिमाग़ों की भरती होती रही।
कुबेर इंवेस्टमेंट जो शमी के नेतृत्व में था वहाँ अधिक ध्यान देने की ज़रूरत थी। नया काम था, नया अनुभव था। हर रोज़ डीपी रिपोर्ट लेने की कोशिश करता ताकि कोई ग़लत क़दम न उठा लिया जाए। यहाँ हर क़दम सोच-समझ कर उठाना ज़रूरी था। बाज़ार का अध्ययन एक ऐसी कला थी जो हर किसी के बस की बात नहीं थी। क्या ट्रेंड चल रहा है, किस क्षेत्र में कौन-सा नया उद्योग आ रहा है उसका पूर्वानुमान लगाने का ज्ञान होना ज़रूरी था। अगर इसे सीख लिया जाए तो रुझान का अनुमान काफ़ी लाभकारी हो सकता है।
शमी भी अपने हर संदेश में दोहरा देता था – “हर त्योहार, हर मौसम और हर संकट को भुनाने की कला आनी चाहिए। दुनिया के शेयर बाज़ार की ख़बर हो या किसी तूफ़ान के आने की भनक, अपना फ़ायदा हर गणित में, हर समीकरण में धनात्मक ही होना चाहिए।”
इसके बावजूद ऋणात्मकता के लिए जगह रखी जाती। आपातकाल की व्यवस्था करना हो, चाहे मौसम से निपटना हो, उनकी हर कंपनी के मैनेजर को यह सीखना होता था कि किस तरह स्थिति का सामना किया जा सकता है। पर्याप्त समय देने पर भी कोई व्यक्ति अगर कंपनी को उस स्तर पर नहीं पहुँचा पाता तो उसे निकालने के बजाय उसे प्रशिक्षित किया जाता। अपनी ग़लतियों से सीखने का मौका मिलता तो वही व्यक्ति दोबारा तन-मन-धन से समर्पित होकर काम करता।
भाईजी का अपना एक सिद्धांत था, एक ख़ास नियम था। वे हमेशा इस बात पर ज़ोर देते कि – “नौकरी जाने का ख़तरा किसी को भी मन से काम करने के लिए बाध्य नहीं करता क्योंकि हर पल वह अपने सिर पर ख़तरे की घंटी बजते महसूस करता है। अपनी नौकरी में सुरक्षा भावना हो तो ही आगे बढ़ने की चाह होगी और तब मन की आकांक्षाएँ मेहनत करने को मज़बूर करेंगी।” इस तरह किसी के मन में ख़तरा उठाने के लिए कोई डर नहीं था, न ही परिणाम नकारात्मक आने पर असुरक्षा की भावना होती कि अगर पासा ठीक नहीं बैठा तो उनकी नौकरी गयी।
कई ऐसे सेमिनारों में अपनी और अपनी टीम की उपस्थिति आवश्यक होती। ऐसे सेमिनार बेहद मददगार और प्रेरणास्रोत होते। आँखें खुली की खुली रह जातीं उन मिसालों के बार में सुनकर जो आज दुनिया पर राज़ कर रहे हैं जहाँ बिल गेट्स के बारे में बताया जाता, उदाहरण दिए जाते – “माइक्रोसाफ्ट का शेयर शुरू में दस डॉलर का था। आज उसकी मूल क़ीमत हज़ारों की हो गयी। अक्सर दुनिया में पहले नंबर पर रहने वाले अमीर व्यक्ति ने कहीं से तो पहला क़दम उठाया ही होगा। आगे बढ़ते इन ख़ास क़दमों की ख़ास बात यह है कि वे चलते रहते हैं, साथ ही उनकी सोच भी कभी रुकती नहीं। इतना सफल उत्पाद देने के बाद भी हर साल बदलाव लाए जाते हैं, तकनीकी बदलाव। यह निरंतर नया करने की प्रक्रिया निरंतर लाभ की राशि बढ़ाती।”
ऐसे उदाहरण जो उपयोगकर्ता प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करता है तो वे सीधे-सीधे अपना प्रभाव छोड़ते – “ऑपरेटिंग सिस्टम विंडोज़ कहाँ से शुरू हुई थीं और आज कहाँ हैं। अगर पानी भी रुका हुआ हो तो बदबू मारने लगता है। यह तो फिर कम्प्यूटर पर टिका हुआ दुनिया भर का बिज़नेस है। पूरा का पूरा ऑपरेटिंग सिस्टम रातों-रात बदल दिया जाता है। पुरानी मशीनरी आउटडेटेड होती है और नयी आ जाती है। यूज़र्स के पास कोई विकल्प नहीं है। वह उस नये उत्पाद को खरीदेगा, उसे ख़रीदना ही पड़ेगा। हर ऑफिस में सिस्टम अपडेट होगा। युवा पीढ़ी में लेटेस्ट सिस्टम की होड़ पैदा होना स्वाभाविक है। इस सारी प्रक्रिया से बिल गेट्स की कंपनी की कमाई मिलियन नहीं, बिलियन में होगी। और कई देशों में ग़रीबों के उत्थान में चल रही उनकी परियोजनाएँ वंचित लोगों को नए मौके देंगी।”
और सिर्फ़ कम्प्यूटर ही नहीं ऐसे कई उदाहरण दिए जाते।
“आई फ़ोन का उदाहरण देखिए आप, पुराने आई फ़ोन तो पानी के भाव भी नहीं बिकते। नयी पीढ़ी नये फ़ोन को ख़रीदने के लिए लॉन्च के दिन का इंतज़ार करती, रात से लंबी कतारों में इंतज़ार करके सबसे पहले नया फ़ोन लेने का गौरव प्राप्त करने के लिए लालायित रहेगी। ये नवीनता के दीवाने मुफ़्त में मिलने वाली पुरानी चीज को हाथ भी नही लगाएँगे। साल भर पुराना हुआ फ़ोन कचरा हुआ। फ़ायदा हुआ कंपनी को, कितना फ़ायदा, हज़ारों करोड़ों का। पानी को बहने देना ही ठीक होता है इसीलिए वे पानी को कभी ठहरने नहीं देते। हर बार नया लाते हैं पुराने को पीछे छोड़ते हुए। कमाते भी वैसे ही हैं। पिछले लाभ को गुणा करते हुए, करोड़ों में फ़ायदा लेते हुए।”
“कंपनी का लाभ छोड़िए, उनके इस दिमाग़ी मैराथन में जीत ही जीत है, समूची मानवता के बारे में सोचिए कितना बेहतर हुआ है जनजीवन।”
“आज फेसबुक करोड़ों लोगों को नि:शुल्क अकाउंट खोलने की सुविधा देता है। उपयोगकर्ता इस बात से ख़ुश है कि सब कुछ मुफ़्त में मिल रहा है। बढ़ते उपयोगकर्ताओं की संख्या देखते हुए विज्ञापनदाताओं की लाइन लग जाती है। अपने उत्पाद का इससे अच्छा प्रचार-प्रसार कहाँ हो सकता है जहाँ करोड़ों लोग आपके उत्पाद को देख सकते हैं। जितने यूज़र्स क्लिक करेंगे उतनी फेसबुक की कमाई होगी। दाँत का डॉक्टर अपना व्यावसायिक पेज बनाता है तो हर क्लिक के साथ फेसबुक कमाता है। बगैर किसी को अहसास हुए कि यहाँ पैसे कमाए जा रहे हैं फेसबुक विज्ञापनों के जरिए करोड़ों कमा लेता है। कमाई के साथ ही सोशल मीडिया कंपनियों ने सामाजिक व्यवहार को कितना मुखर बनाया है।”
यही नहीं, अपनी बढ़ती सामाजिकता का जिक्र करके तकनीकी सुविधाओं की अनिवार्यता की वकालात भी की जाती - “एक ओर आप अपने सामाजिक दायरों को विस्तृत करते हैं, अपना प्रचार-प्रसार करते हैं उधर दूसरी ओर वे कंपनियाँ चुपचाप अपना व्यवसाय जमा लेती हैं। उपभोक्ता को प्रत्यक्ष लागत से परेशानी होती है, अप्रत्यक्ष लागत से नहीं। उसके मन का विज्ञान स्वयं उसको मालूम नहीं हो पाता परन्तु उससे अधिक उसकी होशियार कंपनी को मालूम होता है। इसीलिए उसे पता भी नहीं चल पाता कि वह कहाँ अपने एक क्लिक से उन कंपनियों के लिए पैसा बनाने में मदद कर रहा है। ऐसा ख़ामोश और चतुर व्यवसाय इन कंपनियों को निरंतर गति देता है।”
सिर्फ सोशल मीडिया या कम्प्यूटर से जुड़ी कंपनियाँ ही नहीं कई अन्य कंपनियों के उदाहरण श्रोताओं को उत्साहित करते - “दवा कंपनियाँ दो-चार डॉलर का पाउडर किस अनुपात में मिलाना है, यह रिसर्च के आधार पर तय करती हैं। एक बार अनुपात की सफलता मिली कि उन्हें लाखों की कमाई हुई। यह इनका अपना कॉपीराइट वाला फार्मूला हुआ जो और किसी कंपनी से बन कर नहीं आ सकता और कंपनी अपने एकाधिकार से करोड़ों कमा लेती है।”
ये सेमिनार उकसाते काम करने के लिए। इन सब उदाहरणों से कई लोग दिल और दिमाग़ से काम करते। हर छोटी सी बात को तर्क-वितर्क से सोचने वाला दिमाग़ कब कितना बड़ा आविष्कार कर लेता है अनजाने में, पता ही नहीं चलता।
अब डीपी के बगैर हस्तक्षेप के काम करने के तरीके से टीमें अपने तई मेहनत करने लगीं। उन्हें अपने अधिकार का महत्व समझ में आने लगा। डीपी की राय का सम्मान करने वाले बढ़ने लगे। हर मैनेजर को पूरा अधिकार था कि वह किस तरह अपनी कंपनी को आगे ले जाए, कैसी योजनाएँ बनाए। डीपी तभी अपनी दखलंदाजी करता जब उससे कुछ पूछा जाता या रिपोर्टों की समीक्षा करते हुए उसे कुछ ग़लत लगता। बिना मांगी राय का रद्दी की टोकरी में जाना उसे अच्छी तरह पता था।
अब मौसम बदले या किसी देश की सरकार बदले, किस स्थिति में बाज़ार कौन-सी करवट ले सकता है एक मोटा अंदाज़ होने लगा था उसकी टीमों को। वे उतनी ही तेजी से अनुकूल ख़रीदी-बिक्री कर अपनी स्थिति को फ़ायदेमंद बना लेते थे।
कोई जानी-मानी टीम जो सालों से जीत रही है, हार जाए और कमज़ोर टीम सर्वश्रेष्ठ खेल दिखा जाए तो भी उसके परिणामस्वरूप कहाँ नुकसान हो सकता है इसकी समझ विकसित हो रही थी। भाव काफ़ी गिर रहे हैं तो ख़रीदी की जा सकती है, भाव बढ़ रहे हैं तो जितना है उतना बेच दो, यह सामान्य सिद्धांत था जो हर किसी की समझ में आता था लेकिन इसके पीछे छिपी गूढ़ दृष्टि जो यह देख लेती थी कि – ‘अभी भाव और बढ़ेंगे, प्रतीक्षा करो बेचने के लिए।’ ठीक वैसे ही विपरीत परिस्थितियाँ हों कि – ‘जब भाव घट रहे हों तो कब जाकर रुक सकते हैं, वहीं ख़रीददारी शुरू करो।’
किसी देश में आतंकी धमाका हो, किसी देश में आंतरिक दंगे हों तो भी बाज़ार में उठा-पटक होती थी। ऐसी घटनाओं को भुनाने के लिए शेयर मार्केट पर पैनी नज़र ज़रूरी थी। कंपनियों का नफ़ा-नुकसान, उतार-चढ़ाव, बाजार की नस-नस का नाप-तौल मिनट-मिनट के अंतर से होता था। लोग कुबेर नाम की कंपनियों के बारे में बहुत कुछ कहने लगे थे। ये अपने ही ढंग से निवेश करती थीं। कुछ विशेष निवेशों के लिए लोग राय भी देते थे जो इस कान से सुनी जाती थी और दूसरे से निकाल दी जाती थी। डीपी ने भाईजी जॉन से सीखा था कि जब तक आदमी अपने दिमाग़ का उपयोग करता है उसे करने देना चाहिए। ग़लती करेगा तो सीखेगा। कब तक कोई किसी की उँगली थामे चल सकता है।
कंपनियों के सुचारू रूप से चालू होने के बाद भी मुनाफ़े की गति धीमी थी, इतनी धीमी कि बस ख़र्चे जेब से नहीं जा रहे थे पर कुछ महीनों का समय तेल और तेल की धार को देखने के लिए ज़रूरी था। समय तो देना ही होगा यह मान कर चला जा रहा था। हुआ भी यही, कुछ महीनों के बाद अच्छे परिणाम आने की गति तेज़ हुई तो डीपी ने राहत की साँस ली। त्वरित मुनाफ़ा कमाने के बजाय उसके लिए यह जानना ज़रूरी था कि जिस आधार पर उन्होंने निवेश का निर्णय लिया, क्या वह ठीक था।
दिमाग़ी योजनाएँ शनै: शनै: असल व्यापार को बढ़ावा देने लगीं, सुनियोजित और सुव्यवस्थित ढंग से।
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