वो ही है (दानी की कहानी )
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दानी की झोली में दिल्ली की बहुत सी कहानियाँ जैसे उनकी साड़ी के पल्ले में बँधी रहती थीं |
वो एक-एक करके उनको निकालतीं लेकिन उनके पल्लू की कहानियाँ खत्म ही नहीं होती थीं |
जब दानी दिल्ली में पढ़ रही थीं तब बेहद शरारती थीं ,जी हाँ --यह सब वो अपने आप बताती थीं |
वहाँ सब ब्लॉक्स में अर्धगोलाकार में दोमंजिले सरकारी फ्लैट्स टाइप के क्वार्टर्स बने होते थे |
ऊपर -नीचे अलग-अलग परिवार रहते थे |
उन दिनों दानी के पिता 'मिनिस्ट्री ऑफ़ कॉमर्स' में 'सेक्शन ऑफ़िसर' थे |
एक अफ़सर को एक सरकारी क्वाटर मिलता जिसमें तीन कमरे ,रसोईघर ,दो बाथरूम्स ,ज़ाफ़री ,पैसेज व आगे ख़ासा बरामदा होता |
दो तरफ़ बड़े गेट्स होते ,उनके भीतर आने-जाने के लिए मार्ग पर लाल रंग की बजरी बिछाई जाती थी जो बड़ी खूबसूरत लगती थी|
बीच में बड़ा सा खुला स्थान ,जिस पर हरी घास अपना तब्बसुम बिखेरती ,उस पर लगे झूले ,रपटने ,सी-सॉ के पटरे ---
यानि बच्चों के लिए शाम को खेलने का भरपूर इंतज़ाम !
चलने वाले मार्ग पर बिछी हुई लाल बजरी किसी भी वाहन पर चलने में कर्र-कर्र बोलती थी |
उसकी आवाज़ सुनने में बच्चों को बड़ा मज़ा आता और वे क्वार्टर के बरामदे की सीढ़ियों पर बैठकर चुहल करते हुए खूब आनंद लेते |
कभी किसीका बरामदा गुलज़ार रहता तो कभी किसीका !
शाम होते ही दानी के दोस्त आवाज़ लगाना शुरू कर देते , सब बाहर भागने को तैयार !
सब अपने घर से दस पैसे का सिक्का लेकर आते थे जिससे पीछे कोतवाली के बराबर की साइकिल की दुकान से एक घंटे के लिए साइकिल किराए पर ली जातीं |
उस समय एक दस के सिक्के में एक घंटा साइकिल चलाने के लिए मिल जाती थी |
ब्लॉक के पीछे ही एक बड़ा मार्केट था | सबसे पहले उस मुहल्ले की कोतवाली ,उससे सटी साइकिल वाले भैया की दुकान ! फिर लाइन से सारी ज़रूरत के सामानों की दुकानें|
साइकिल वाले भैया साइकिल की मरम्मत के साथ साइकिलें किराए पर भी देते थे,उनके पास कई साइकिलें थीं जो शाम को सब किराए पर उठ जातीं | |
शाम को बजरी पर साइकिल चलाने में बच्चे रेस लगाते और गप्पें मारते ,गाने गाते ब्लॉक के कई चक्कर काट लेते |
एक दिन शाम को एक खूब गोरा-चिट्टा सुंदर सा लगभग तीस साल का आदमी बजरी पर घिसटते हुए ब्लॉक में आया |
उसने अपनी हथेलियों में मोटे कपड़ों की गद्दी लगाई हुई थी ,पायजामा पहना था किन्तु एक टाँग के नीचे लकड़ी की खपच्ची लगाई हुई थी |
खपच्ची को कई जगह से कपड़े की कत्तरों से कसकर बाँधा गया था ,रोते-रोते वह कराहते हुए कुछ बोलता जा रहा था |
उसे देखकर बच्चों का साइकिल चलाना रुक गया ,सब बच्चे अपनी साइकिलें स्टेण्ड पर लगाकर उसे घेरकर खड़े हो गए |
वो इतने दर्दीले स्वर में रो रहा था किंबच्चों के कोमल मन पिघलने लगे | सब अपनी माँओं को बुलाने पहुंचे |
शाम का समय था ,पतियों के आने का समय था ,अधिकतर सभी गृहणियाँ शाम के ताज़े नाश्ते की व रात के खाने की तैयारी में व्यस्त थीं |
बच्चों की ज़िद के कारण कुछ को बाहर आना ही पड़ा| वह आदमी बजरी पर घिसट -घिसटकर रोते हुए धीरे -धीरे आगे की ओर बढ़ रहा था |
"क्या बात है भाई ,क्या तकलीफ़ है ---?"आसपास के क्वार्टरों से कई स्त्रियाँ बाहर निकल आईं थीं |
उसका सुंदर ,भोला ,प्यारा मुखड़ा देखकर सबको उससे सहानुभूति होने लगी थी |
उसने रोते -सुबकते हुए बताया कि उसके ऊपर किसी गाड़ी वाले ने गाड़ी चढ़ा दी और भाग गया | उसकी टाँग टूट गई है |
वह सफदरगंज अस्पताल गया तो डॉक्टर ऑपरेशन के दो हज़ार रुपए मांग रहे हैं | वह यहाँ किसीको नहीं जानता | इतने पैसों का इंतज़ाम उसके लिए नामुमकिन है |
अगर सब लोग थोड़ी थोड़ी सहायता कर दें तो उसकी टाँग ठीक हो सकेगी |
अपनी कथा सुनाकर वह ज़ार-ज़ार रोता रहा| सब स्त्रियों ने एक-दूसरे की तरफ़ देखा| आँखों आँखों में तय हो गया कि उस बेचारे की मदद करनी चाहिए |
उसकी कहानी में यह भी सम्मिलित था कि उसका परिवार गाँव में है और वह एक खाते-पीते घर का बेटा है ,उसे पैसे मांगने में शर्म भी आ रही है ,क्या करे किस्मत का मारा है |
अभी उसके माता-पिता यात्रा करने गए हैं इसलिए वह पैर ठीक हुए बिना गाँव भी नहीं जा सकता |
उसका कथन इतना रुदन भरा व कहानी इतनी संवेदना से भरी थी कि सब घर से उसके लिए कुछ न कुछ लेकर आए |
किसीने एक रुपया दिया तो किसीने दो रूपये दिए | उस ज़माने में इनकी क़ीमत काफ़ी होती थी |
दो रूपये में एक दिन के फल व सब्ज़ी आ जाते थे |
उसने पानी माँगा तो पानी के साथ उसे नाश्ता और मिठाई भी मिली | अपनी हथेलियों की गद्देदार पट्टियाँ खोलकर उसने अपने लाल हाथ सबको दिखाए |
सबकी आँखों में आँसू थे | उसने सबके सामने पैसे गिने .कुल पच्चीस रूपये जमा हुए थे|
उसने कुछ नाश्ता खाया और कुछ अपने गले में लटके हुए थैले में डाल लिया |
कुछ देर बाद सबको धन्यवाद देता हुआ वह वहाँ से घिसटते हुए चला गया | स्त्रियाँ उसके बारे में बात करती हुई काफ़ी दुखी हो गईं थीं |
सब अपने -अपने घरों में चली गईं और बच्चे साइकिल चलने में व्यस्त हो गए | लेकिन उनका मन उस दिन उखड़ गया था |
अभी लगभग बीस मिनट बाक़ी थे साइकिल वापिस करने में |
बच्चों को कहीं दूर साइकिल ले जाने की आज्ञा नहीं थी किन्तु उस दिन न जाने क्या हुआ ,एक बड़े बच्चे के कहने से सभी बच्चे कोटला-रोड की तरफ़ चले गए |
कोटला -ब्रिज बहुत दूर नहीं था ,सबने सोचा घर पर पता भी नहीं चलेगा ,कोटला ब्रिज तक जाकर आते हैं |
कोटला ब्रिज पर न चढ़कर सब अपनी साइकिलें घुमाने ही वाले थे कि एक आदमी पर उनकी नज़र पड़ी जो बिलकुल उस जैसा ही दिखाई दे रहा था जिसे वो कुछ देर पहले ही अपने घरों से
पैसे दिलवाकर आए थे |
"सुब्बी ! देखो ---वो आदमी ---" दानी चिल्लाईं | तब तक और बच्चों की दृष्टि भी उस पर पड़ गई थी |
अब सवाल था कि किया क्या जाए ? पक्का वही आदमी था जो सबको बेवकूफ़ बनाकर गया था |
बच्चों के दिमाग़ में कुछ नहीं आया और साइकिलें वापिस करने की जल्दी में वे लौट गए |
अगले दिन रविवार था ,सबके पापा लोग अधिकतर घर पर ही थे | मुहल्ले की कोतवाली से एक पुलिसकर्मी ब्लॉक में आया | उसने बच्चों को पुलिस-चौकी चलने के लिए कहा |
कारण पूछने पर पता चला कि एक चोर को पकड़ा गया है ,पता चला कि वह कल इस ब्लॉक में आया था इसलिए बच्चों को उसे पहचानने के लिए बुलाया गया है |
बच्चों के साथ उनके पिता भी पुलिस -चौकी में आए थे ,बच्चों ने घर पर तो बताया नहीं था कि वे कोटला -ब्रिज के नीचे तक गए थे |
कोतवाली में जाकर बच्चों ने दरोगा अंकल को बताया कि एक आदमी ब्लॉक में आया था जिसका पैर टूटा हुआ था लेकिन उन लोगों ने उसी आदमी को कोटला ब्रिज पर अच्छी तरह से
चलते हुए देखा था |बच्चे मुकम्मल तौर पर नहीं बता पा रहे थे क्योंकि उन्होंने उसे दूर से देखा था |
दरोगा जी बच्चों को एक सींकचों वाली कोठरी की ओर लेकर गए जहाँ वही पहले दिन वाला टूटे पैर वाला आदमी सीधा तना खड़ा था |
उसे देखते ही बच्चे चिल्लाए ----
"वो ही तो है दरोगा अंकल ---जो कल ब्लॉक में आया था |"
पुलिस को बच्चों से प्रमाण मिल गया था कि व वही चोर व ठग है जिसे ढूँढा जा रहा है किन्तु बच्चों को घर जाकर पिताओं के प्रश्न का उत्तर देना बाक़ी था कि आख़िर वो सब इतनी दूर साइकिलें
लेकर बिना पूछे गए कैसे थे? सब जानते थे ,उनकी साइकिल चलाने पर बैन लगने के आसार थे |
डॉ. प्रणव भारती