आमुख
तानाबाना लिखना जब मैंने शुरु किया था तो मन में कई डर नाग की तरह कुंडली उठाकर खङे हो गये । सबसे पहला डर था कि क्या मैं इसे धारावाहिक के रूप में समुचित समय पर लिख पाऊँगी । कोई सप्ताह पाठकों को निराश तो नहीं होना पङेगा । दूसरा डर था कि अब तक लघुकथाएँ ही लिखी थी या छोटी कहानियाँ । इतना लंबा गल्प कभी लिखा नहीं था । क्या इतना धैर्य रख पाऊँगी कि उपन्यास पूरा हो जाए । फिर इस गल्प को तीन भागों में लिखना तय किया – 1 तानाबाना 2- मैं तो ओढ चुनरिया 3- कैसी तूने रंगी रे चुनरिया तो मन में एक डर यह भी था कि इतने सारे चरित्र लेकर रची यह कहानी कहीं बिखर न जाय । और सबसे बङा सवाल जो हर लेखक के मन में होता है कि क्या इसे कोई पढेगा ।
लेकिन जब आप ईमानदार कोशिश करते हैं तो कायनात और वक्त दोनों आपकी मदद करने केलिए आपके साथ आ खङे होते हैं । शुक्रिया आप सबका कि आप सब पढते गये, ढेर सारा प्यार देते गये और तानाबाना तनता चला गया ।
तानाबाना अपनेआप में दस्तावेज है उन औरतों की जिंदगी का जो अनपढ हैं,कभी पर्दे से बाहर नहीं निकली । कोई आंदोलन नहीं । कोई नारा नहीं फिर भी सबला हैं । परिवार की रीढ हैं ।
मातृभारती पर लगभग सात महीने चले इस धारावाहिक को उपन्यास के रूप में आप पाठकों को सौंपते हुए रोमांचित हूँ ।
मातृभारती का दिल से आभार ।
आप मातृभारती पर अगला भाग मैं तो ओढ चुनरिया भी पढ सकते हैं । आपकी समीक्षाओं का इंतजार रहेगा ।
प्यार सहित
स्नेह गोस्वामी
समर्पण
यह उपन्यास समर्पित कर रही हूँ अपनी उन पुरखिनों को जिनके संस्कारों ने मुझे मैं के रूप में जीने का सलीका सिखाया और एक मजबूत औरत में बदल दिया ।
स्नेह गोस्वामी
तानाबाना
1
आज सुबह किसी ने फोन किया और पाँच छ: लाईन में परिचय माँगा, तो लगा कि बहुत बङी समस्या आन पङी है । सुनने में बङी आसान सी बात लग सकती है पर मेरी तो मुसीबत में जान है । भला आधी सदी की बात कोई चार – पाँच पंक्तियों में कैसे कर सकता है और जिंदगी भी कोई ऐसी वैसी नहीं, एकदम ऊबङ खाबङ । एक पल हँसी तो दूसरे पल चार दिन का सिसक सिसक कर रोना । हर मिनट एक नया मैलोड्रामा । ऐसी जिंदगी कि अगर बनाने लगो तो कम से कम दस मसाला फिल्में बन जाए । इतना कुछ अपने में समेटे है ये जिंदगी ।
तो भई हमने भी तय कर लिया है कि लिखेंगे तो पूरे दो सौ पन्ने लिख डालेंगे । सयाने कहते हैं न, - “ खाएंगे गेहूँ, न त रहेंगे ऐहूँ “ अब यह मत कहना कि पढते पढते बोर हो गये ।
पहली बात तो यह कि रब झूठ न बुलाए, आप लोग बोर हो नहीं सकते और अगर होने लगे तो हो लेना । पंगा लिए हो तो झेलना तो पङेगा ही ।
चलिए अब लिखना शुरु करुँ । ये क्या, पहले ही वाक्य में अटक गयी । क्या लिखूँ । कहाँ से शुरु करुँ । मन में संशय ही संशय हैं । राम दरश मिश्र की भाषा में लिखूँ तो जहाँ माँ पिता का पैतृक निवास था, वहाँ मैं पैदा नहीं हुई । जहाँ पैदा हुई, वहाँ पली नहीं । जहाँ पली, वहाँ पढी नहीं । जहाँ पढी, वहाँ बसना नहीं हुआ । नौकरी के सिलसिले में अलग अलग गाँव, कस्बे और शहरों में रहना हुआ । अब परिचय नाम की पोशाक इन सब को मिला कर ही तो बनेगी । कपङा बनाने से पहले कपास उगाई जाएगी । फिर चरखे पर काती जाएगी । तब सूत तैयार होगा । फिर उस सूत से ताना सजेगा । बाना सजेगा । खड्डी पर करघे से ठोकपीट होगी, तब न चादर तैयार होगी ।
तो अपने अते पते से पहले, सजीली पोशाक से भी पहले कुछ बात उस तानेबाने की, उस तानेबाने के रंग – बिरंगे धागों की बात जिनसे यह झीनीबीनी चदरिया बीनी गयी ।
चदरिया झीनी रे बीनी । चादर ओढ लपेट कर हम बैठे हैं अपने आप में संतुष्ट । पूरे जतन से ओढ कर, कभी बिछा कर और कभी कसकर लपेट कर । खूब तसल्ली से इस्तेमाल कर रहे हैं इसे । तबतक करेंगे जबतक कर सकेंगे ।
तो आज सबसे पहले बात कपास की । उसके सूत की । तभी तो बनेगी झीनी बीनी चदरिया ।
मेरी दादी चार फुट की एकदम गोरी चिट्टी, बार्बी डाल जैसी खूबसूरत औरत थी । जब मैं उन्हें देखने समझने लायक हुई, वे पचास पार कर चुकी होंगी पर बला की खूबसूरत थी । हाथ लगाए मैला होना मुहावरा शायद उन्हें देख कर ही बनाया गया होगा । अपनी जवानी में किस कदर खूबसूरत रही होंगी, इसका मात्र अनुमान लगाया जा सकता है । तब बिल्कुल परियों या अप्सराओं जैसी लगती होंगी । पुराणों में बखानी गयी कोई शापित अप्सरा । किसी ऋषि के श्राप से पंख विहीन होकर धरती पर आ बसी थी ।
गरीब माता पिता की सबसे बङी संतान थी । पिता कागज से तरह तरह के खिलौने बनाते और गलियों में बेचा करते । बदले में गृहणियाँ गेहूँ, ज्वार, बाजरा देती, उसी से परिवार का गुजारा होता । उनसे छोटे चार बहन भाई और थे । सब मिलकर पिता का हाथ बँटाते । दशहरे पर रावण, कुंभकरण और मेघनाथ के पुतले बनाने का काम मिलता तो दो चार महीने आराम से निकल जाते । बाकी सारा साल वही फाकाकशी का दौर जारी रहता ।
उस गरीबी में भी उनका चंपा जैसा रंग अपनी आभा बिखेरे रहता । मात्र ग्यारह साल की थी जब देशाटन के लिए निकले पितामह ने उनके पिता को चाँदी का एक रुपया थमा उन्हें अपने बेटे के लिए चुन लिया था । तेरह साल की होने पर शादी और गौना साथ ही निबटा तीन कन्याओं के पिता ने सुख की साँस ही ली थी । जिस दूल्हे का पल्ला पकङ बालिका अवस्था में दादी ने ससुराल में कदम रखा, वे उससे आयु में नौ – दस वर्ष बङे थे । जितनी उजली गोरी वे स्वयं थी, पति महाश्य उतने ही काले भुजंग सरीखे । वे थे ऊँचे लंबे और चौङे पौने छ : फुट के, इधर दादी चार फुट की दुबली पतली नाजुक सी लङकी ।
दादा पाँचवीं पास थे तो अंग्रेज सरकार के राज में पटवारी हो गये । अपनी घोङी पुन्ना पर सवार हो वे जब इलाके का दौरा कर घर लौटते, तो बालिकावधु डर के मारे चारपायी के नीचे छिप जाती । पुकारे जाने पर डरते डरते पास आती तो कांपते हाथों से अक्सर लस्सी या पानी का लोटा पति के कपङों पर गिरा बैठती । डाँट या मार पङती तो पहले से भी ज्यादा डर जाती । घर में सास पहले ही गोलोकवासिनी हो चुकी थी और ननदें शादीशुदा होकर अपने घरबार की । परिवार के नाम पर एक ससुर थे, एक देवर और घर गृहस्थी के ढेर सारे काम ।
उसने बङे धीरज से घर गृहस्थी को समझना सीखना शुरु किया । धीरे धीरे काम संभालने लगी । ससुर की वह लाडली बहु थी । वे उसकी हर जरुरत का ध्यान रखते । वे सामने रहते तो पति के चाबुक काबू नें रहते । आहिस्ता आहिस्ता वह इस घर में और इसके कामों में रम गयी ।
सोलह साल की होते होते उसने एक बेटे को जन्म दिया और अटठारह की होने से पहले ही एक बेटी गोद में आ गयी । अभी गृहस्थी की कुछ कुछ समझ आने लगी थी कि एक दिन अनर्थ हो गया । दौरे पर गये पटवारी साहब को गाँव गाँव घूमते हुए लू लग गयी थी । दो कै हुई । उन्हें निढाल होते देख गाँववाले वैद्य जी को बुला लाए पर वैद्य की पुङिया खाने से पहले ही वे स्वर्ग सिधार गये । गए थे घोङी पर सवार होकर,आए चार कंधों पर । महंत निहाल गिरि एकबार को तो सन्न रह गये । जवान बेटे की मौत ने उन्हें तोङकर रख दिया । उन्नीस साल की नासमझ दुरगी ने राक्षस जैसे लंबे चौङे पति के मर जाने पर मन ही मन शुक्र मनाया । दो अबोध बच्चों के साथ यह अनपढ युवती पूरी तरह से ससुर और देवर पर आश्रित हो गयी । इस बीच देवर सरकारी मास्टर हो गये थे । और एक दिन ढोल –बाजों के बीच देवरानी घर में आ गयी ।