Shree maddgvatgeeta mahatmay sahit - 3 in Hindi Spiritual Stories by Durgesh Tiwari books and stories PDF | श्री मद्भागवतगीता महात्म्य सहित (अध्याय-३)

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श्री मद्भागवतगीता महात्म्य सहित (अध्याय-३)

जय श्रीकृष्ण बंधु!
आज फिर एकबार आपसभी बंधुजनों के सम्मुख आप सभी स्वजनों का अन्तःकरण से प्रेम पाने के लिए उपस्थित हुआ हूं । जैसे आप सभी बंधुजन मेरे सभी लेखों को अपने प्रेम भरे पालो से सिंचित करके अपना कीमती विचारो से मुझे कृतार्थ करते है वैसे ही लेख को पढ़ के मुझे अनुग्रहित करे तथा जैसे मैं श्रीगीता जी को पढ़ के लिख के सुनके कृतार्थ और भगवान श्रीकृष्ण का कृपापात्र हुआ हूं उसोतरः आप भी होव और आपकी सारी मनोकामनाएं पूर्ण हो यही ईश्वर से प्राथना है।
जय श्रीकृष्ण!
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🙏 तीसरा अध्याय🙏

अर्जुन ने पूछा- है जनार्दन! यदि आपके तप से, कर्म से, बुद्धि श्रेष्ठ है तो है केशव! मुझे इस घोर कर्म में क्यों लगाते हो? मील वचनों से आओ मेरी बुद्धि को भरम में डाल रहे हैं। निश्चय करके मुझे बतलाइये जिससे में कल्याण को प्राप्त होऊँ। श्रीकृष्णजी बोले- निष्पाप अर्जुन! में पहले समझा चुका हूँ कि इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा कही गई है। एक तो सांख्य वालों का ज्ञान योगी और दूसरा योगियो का कर्म योग। कर्मो का प्रारम्भ न करने से ही कोई भी निष्कर्म नहीं कहलाता और कर्मों का त्याग करके सन्यास करने से ही किसी को सिद्धि नहीं मिल जाती! मनुष्य क्षण भर भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। प्रकृति के गुण ही सब मनुष्यों को कुछ न कुछ कर्म करने में लगाते हैं। जो अज्ञानी कर्मेंन्द्रियों को रोक कर आत्म चिंतन करने के बहाने विषयों की चिन्ता करता है वह पाखंडी मिथ्याचारी कहलाता है। है अर्जुन! जो इन्द्रियों को मन से दमन कर और विषयों में प्रवृत्त न होने देकर उनसे कार्य लेता है वह कर्म योग का अभ्यासी कहलाता है, और श्रेष्ठ कहलाता है। अपने धर्म के अनुसार नियमित कर्म करो, क्योंकि कर्म के ना करने से कर्म का करना अच्छा है। बिना कर्म किए तुम्हारे शरीर का निर्वाह नहीं हो सकता। है कौन्तेय! यज्ञ के निमित्त किये जाने वाले कर्मों को छोड़कर जितने कर्म हैं उनके करने से मनुष्य को बन्धन होता है। अतएव तुम फल की इच्छा त्याग कर यज्ञ के लिए कर्म करो। सृष्टि के आरंभ काल में ब्रम्हाजी ने यज्ञ सहित प्रजा को उत्पन्न कर प्रजा से कहा था कि यज्ञादि कर्म करके वृद्धि को प्राप्त होंगे। यही सब कर्म तुम्हारे निमित्त कामधेनु होवेंगे। इस यज्ञ में तुम देवताओं को संतुष्ट करते रहो और यज्ञ देवता भी तुमको संतुष्ट करेंगे। इस प्रकार परस्पर बर्ताव करते हुवे तुम तुम और देवता कल्याण प्राप्त होंगे। यज्ञादि कर्मों से प्रसन्न होकर देवता तुमको इच्छित सुख की सामग्रियाँ देंगे, परन्तु उनके दिए हुवे दान को जो बिना उनको भोग लगाये ग्रहण करता है वह चोर है पंच महायज्ञ करके जो शेष बचा हुआ भोग ग्रहण करता हैं वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो अपने निमित्त ही अन्न पकाते हैं। वे पापी पुरुष पाप को ही भक्षण करते हैं। अन्न से प्राणियों की उत्पत्ति होती है। अन्न मेघ से उत्पन्न होता है, मेघ यज्ञ द्वारा बरसता है और यज्ञ की उत्पत्ति कर्म से होती है कर्म की उत्पत्ति ब्रम्हा से हुई है और ब्रम्हा अक्षर परमात्मा से। इस प्रकार सदा सब पदार्थो में रहने वाला जो ब्रम्हा है वह सब यज्ञों में प्रस्तुत है। है पार्थ! इसी प्रकार चलाये हुवे कर्म के अनुसार जो नहीं चलता वह पापमय और उसका जीवन व्यर्थ है। जो पुरुष आत्मा मेम रात रहता है। और आत्मनन्द अनुभव से तृप्त रहता है आत्मा में ही संतुष्ट है उसे कुछ भी कार्य शेष नहीं। वह कोई कर्म करे या न करे उसको कोई प्रयोजन अथवा लाभ नहीं है और किसी प्राणी से अपना लाभ करा लेने की भी उसे कोई आवश्यकता नहीं। इसीलिए तुम भी फल की प्राप्ति की इच्छा त्याग कर कर्तव्य पालन करते रहो, क्योंकि फल की इच्छा त्याग कर कर्म करने वाला पुरुष मोक्ष को प्राप्त होता है। राजा जनक आदि ने भी कर्म सिद्धि पाई है। इसी प्रकार तथा लोक संग्रहण को देखते हुए बजी तुमको कर्म करना उचित है। श्रेष्ठ पुरुष जिस कर्म का आचरण करता है। दूसरे मनुष्य उसी के अनुसार चलते हैं। है पार्थ! मुझको तीनों लोकमें कुछ भी कर्म शेष न रहा और न कोई अप्राप्त वस्तु प्राप्त करनी है फिर भी में कर्म करता ही रहता हूँ। यदि हम ही आलस्य रहित होकर कर्मों को नहीं करेंगे तो मनुष्य हर प्रकार से हमारे ही पथ को अनुकरण करेंगे। जो में ही कर्म न करूँ तो सब लोक भी न करने से नष्ट हो जायेंगे। इससे मैं ही वर्णासंकरी से उत्पन्न करने का हेतु बनकर प्रजा को नष्ट करने वाला समझा जाऊँगा। जिस प्रकार अज्ञानी फल की इच्छा करके कर्म करता है वैसे ही फल की इच्छा न करते हुवे ज्ञानी को लोक शिक्षा की इच्छा करते हुए कर्म करना उचित है। कर्म में आसक्त अज्ञानियों की बुद्धि से ज्ञानी भेद उत्पन्न न करे, परन्तु आप स्वयं कर्म करता हुआ उनसे भी प्रसन्नता पूर्वक कर्म करावे । हे अर्जुन! सब कर्म प्रकृति के गुणों से ही उत्पन्न होते हैं परन्तु जिनकी बुद्धि अहंकार से भ्रस्ट है ऐसे मूर्ख लोग समझते हैं कि हम कर्ता हैं। परन्तु जो लोग गुण और कर्म के विभाग का सच्चा सत्व जानता है वह ज्ञानी पुरुष यह समझ कर इसमें आसक्त नहीं होता कि गुणों का यह खेल आपस में हो रहा है। प्रकृति के गुणों को भूले हुए मनुष्य गुणों और कर्मों से आसक्त होते हैं। उन अल्पज्ञ मंदों को ज्ञानी पुरुष कर्म योग से चलायमान करें। हे अर्जुन! आध्यात्म बुद्धि से सब कर्मो को तुम मुझमें अर्पण करके कर्म फल की आशा, ममता इनको छोड़कर तुम संग्राम करो। जो पुरुष श्रद्धा पूर्वक मेरे वचनों पर दोष दृष्टि न करके मेरे इस मत के अनुसार आचरण करते हैं वे लोग कर्म बंधन से निश्चय मुक्त हो जातें हैं। और जो अज्ञानी इस मत पर दोष दृष्टि करते हुए इनको ग्रहण नहीं करते वे सम्पूर्ण ज्ञान से रहित हैं, उनको नष्ट हुआ जानो। ज्ञानी मनुष्य भी अपनी प्रकृति के अनुसार आचरण करता है। जीवमात्र अपने स्वभाव के अनुसार रहते हैं।वहां हठ करने से क्या होगा? इन्द्रिय और इन्द्रियों के विषय में प्रीति और द्वेष दोनों व्यवस्थिति हैं। इन रागद्वेष के वश न होना चाहिए क्योंकि ये मनुष्य के शत्रु हैं। अपना कठिन धर्म भी दूसरे से सहज धर्म से हितकर होता है। स्वधर्म में मरना भी कल्याणकारण है, परंतु अन्य धर्म भयानक हैं। अर्जुन बोले- है श्रीकृष्ण! पुरुष को पाप करने की इच्छा न होते हुवे भी कौन उसे बलात्कार पाप के मार्ग में प्रवृत्त करता है। श्रीकृष्ण बोले- है अर्जुन! रजोगुण से उत्पन्न होने वाला काम और क्रोध मनुष्य को पाओ मार्ग में ले जाता है, इन से उत्पन्न इच्छा कभी तृप्त नही होती। ये महा-पापी और घोर शत्रु हैं जैसे धुआं से अग्नि, धूल से दर्पण और झिल्ली से गर्भ का बालक ढका रहता है, उसीप्रकार विषय की इच्छा सेआज्ञानधका हुआ है। हे कुंतीपुत्र! इस आच्छादित धुंआ और सदा अग्नि की तरह तृप्त नहीं होता। इंद्रिया मन और बुद्धि इस काम के आश्रय स्थान हैं इनके सहारे विष्येच्छा गया को आच्छादित करके जीव को मोहित कर लेता है। अतएव तुम सर्व प्रथम इन्द्रियों को वश में करके ज्ञान और विज्ञान को नष्ट करने वाले इस काम को जीतो। कहते हैं इन्द्रियाँ प्रबल हैं और इन्द्रयों से भी प्रबल मैन है। इस प्रकार जो बुद्धि से परे हैं उस परमात्मा को जानकर निश्चयात्मक बुद्धि द्वारा मन को निश्चल करखे है महाबाहो! तुम उस दुर्धर शत्रु काम को जीत लो।
🙏अथ श्रीमद्भगवतगीता तीसरा अध्याय स्माप्तम्🙏

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🙏अथ तीसरे अध्याय का महात्म्य🙏

नारायणजी बोले - है लक्ष्मी! एक शुद्र महामूर्ख अकेले ही एक वैन में रहता था बड़े अनर्थो से उसने बहुत से द्रव्य इकट्ठा किया। किसी कारण से वह सब द्रव्य जाता रहा, अब वह शुद्र बहुत चिंतित रहने लगा। किसी से पूछता ऐसा उपाय बताओ कि पृथ्वी में द्रव्य होवे मैं निकाल लूं। किसी कहता कोई अज्जन बताओ जिसे नेत्र में डालकर पृथ्वी का पदार्थ निकाल लूं। तब किसी ने कहा मांस मदिरा खाया पिया कर वह वहां खोता कर्म करने लगा चोरी करने लगा एक दिन धन की लालसा कर चोरी करने गया रास्ते मे चोरो ने मार दिया अनन्तर उसने प्रेत की योनि पाई उस प्रेत की योनि में उसे बड़ा दुःख हुआ, एक बात के वृक्ष पर रात दिन चिल्लाया करता कि कोई ऐसा भी है जो मुझे इस अधम देह से छुड़ावे। कुछ समय बाद शुद्र की स्त्री से पुत्र जन्मा जब उसका पुत्र बड़ा हुआ तो एकदिन अपनी माता से उसने पूछा मेरा पिता क्या व्यापार करता था और देहांत किस प्रकार हुआ है? तब उसकी माता ने कहा -बेटा! तेरे पिता के पास पदार्थ बहुत था यूँ ही जाता रहा वह धन के चले जाने से बहुत चिंतित रखने लगे। एकदिन धन की लालसा से चोरी करने गया परंतु मार्ग में चोरो ने उसे मार डाला। टैब उसने कहा-हे माता!उसकी गति कराई थी? तब माता ने कहा नहीं । फिर पूछा-हे माता! उसकी गति करनी चाहिये उसने कहा अच्छी बात है टैब पंडितो से पूछने गया, और प्राथना करि- है स्वामी मेरा पिता एक दिशा में जाकर मृत्यु को प्राप्त हुआ है। उसका उद्धार किस प्रकार होव। तब पंडितो ने कहा- गयाजी जाकर उसकी गया करो तब तेरे पितरों का उद्धार होगा। यह सुन उसने माताबकी आज्ञा लेकर गया को गमन किया। प्रयाग राज का दर्शन स्नान करके फिर आगे को चला रास्ते में एक वृक्ष के नीचे बैठ वहां उसको भय प्राप्त हुआ , वृक्ष वहां था जहां उसका पिता प्रेत की योनि में प्राप्त हुआ था। उसी जगह चोरो ने उसको मारा था।तब उस बालक ने अपना गुरु मंत्र पढ़ा उसका एक और भी नियम था वह एक अध्याय श्रीगीता जी का नीत्य पाठ किया करता था उस दिन वह श्री गीताजी के तीसरे अध्याय का पाठ उस वृक्ष के ताले बैठकर किया । वह उसके पिता ने प्रेत के योनि में सुना, सुनकर उसकी प्रेत देह छूट गई। देवदह पाई स्वर्ग से विमान आये , वह विमान पर चढ़कर उसके सामने आया आकर आशिर्बाद दिया और कहा है पुत्र मैं तेरा पिता हूँ जो मारकर प्रेत हुआ था इस तेरे पाठ करने से मेरी यह देवदेही हुई। अब मेरा उद्धार हुआ है तेरी कृपा से स्वर्ग को जाता हूँ आब तू गयाजी में अपनी खुशी से जा। इतना सुनकर पुत्र ने कहा है पिता जी कुछ और आज्ञा करो जो मैं आपकी सेवा करूं टैब उस देवदेही ने कहा देख मेरे सात पीढियां पितर नरक में पड़े है बड़े दुखी हैं अब तू श्रीगीता जी के तीसरे अध्याय का पाठ करके उनको इस दुःख से मुक्ति प्रदान कर ।इतना वचन कहकर वह देवदेही स्वर्ग को गई। तब उस बालक ने वहां तीसरे अध्याय का पाठ किया सब पितरो को पूण्य देकर बैकुंठ गामी किया। तब राजा धर्मराज के पास यमदूत ने जाकर कहा- हे राजा जी! नरक में तो बहुत से लोग नही हैं नरक तो उजाड़ पड़ी है जो कई जन्मों के पाप कर्मी थी तिनको विमानों पर बैठाकर श्रीठाकुर जी के प्रसाद ले गए हैं इतना सुनते ही धर्मराज उठकर श्री नारायण जी के पास गए। वहां जाकर धर्मराज ने हाथजोडकर कहा- है त्रिलोकीनाथ! जो जीव जन्म-जन्मान्तर के पापी थे उनको आपके पार्षद विमानों पाए चढ़ाके बैकुंठ ले गए हैं तब नरक में यातना भोगने का दंड किसको देंवे। टैब श्री नारायण जी ने बहुत प्रशन्न होकर कहा-है धर्मराज! तू दुखी मत हो तू अपने मन मे बुरा मत मान में तुझको एक वृतांत कहता हसो श्रवण कर। ये जो जीव पापी थे इनका कोई पिछला जन्म उदय हुआ है उस अपने धर्म द्वारा कई महापापी जीव बैकुंठ को गए हैं और यह एक और आज्ञा मैं तुझे देता हूँ जो जीव श्रीगीता जी का पथ करेन अथवा श्रवण करें या कोई किसी को पथ किये का फल दान करें उन जीवों को तू कभी नरक न देना इतनी सुनकर धर्मराज अपनी पूरी को आये। आकर अपने यमदूतो को बुलाकर कहा- ये यमदूतो! जो प्राणी श्री गीताजी का पाठ करे या श्रवण करे या पाठ किये का किसी को पूण्य देवे उस प्राणी को तुम कभी नरक में मत डालना । जो जीव श्रीगीताजी का पाठ करे या श्रवण करे उसका फल कहां तक कहे कहने में नही आ सकता। तब श्रीनारायणजी ने कहा- है लक्ष्मी! यह तीसरे अध्याय का जो फल मैंने तेरे निमित्त कहा है सो तूने सुना है।
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💝~Durgesh Tiwari~