फेसबुक पर अपने कालेज, हास्टेल, झील, छोटी-छोटी पगडण्डियों और हरे-भरे पर्यावरण को देख मेरी पुरानी यादें तरोताजा हो गयीं। इसी फोटो के नीचे उसने लिखा था-
"जहाँ तक
देख सकता था तुम्हें
देखा,
जहाँ तक
जा सकता था तुम्हारे लिये
गया,
जहाँ तक
सोच सकता था तुम पर
सोचा,
जहाँ तक
लौट सकता था तुम्हारे लिए
लौटा,
जहाँ तक
पा सकता था तुम्हारा अंदाज
चला,
जहाँ तक
पहुँचा सकता था अपनी बात
पहुँचाया,
मेरे इस देखने,सोचने,चलने,लौटने
और पहुँचाने में,
पता नहीं कौन -कौन था?"
फिर लिखा था," बीच में जागेश्वर गया था।बहुत सुन्दर जगह है। एक ही जगह पर १२८ छोटे-बड़े मन्दिर हैं। कहा जाता है कि ये मन्दिर कत्यूरी और चन्द राजाओं ने बनवाये थे।पौराणिक मान्यता है कि शिवजी और सप्तऋषियों ने यहाँ पर तपस्या की थी। आठवीं शदाब्दी में यहाँ शंकराचार्य भी आये थे। वहाँ पर इतनी ठंड थी कि पैर जड़ हो जा रहे थे।मन्दिरों का बाहरी फर्श बर्फ की तरह ठंडा था। मुख्य शिव मन्दिरों में पूजा-अर्चना होती है। मैंने भी भगवान से कुछ मांगा पर मन में विश्वास हो रहा था कि वे पूर्व की तरह इसे नकार देंगे। पर मेरा धर्म प्रार्थना करना था। मन्दिरों को देख कर, मन्दिर परिसर बाहर आ , चाय की दुकान में चाय पीने बैठा।कड़ाके की ठंड में कहीं लिखा याद आ गया।
"चाय की एक घूंट
मुझे तरोताजा कर गयी---।"
रास्ता सर्पाकार था, बिल्कुल जिन्दगी की तरह।रास्ते में काफल बेचते लोग दिखे,डलिया में बहुत काफल रखे। बीस रुपये के काफल खरीद कर, रास्ते भर खाता आया।उनका स्वाद बचपन की यादों को तरोताजा कर गया। लौटते समय चितई के मन्दिर भी गया।ग्वेल देवता का प्रसिद्ध मन्दिर है ये। जहाँ घंटियों या चिट्ठियों के रूप में लोगों की मनोकामनाएं देखने को मिलती हैं,वृक्ष पर फूल की तरह। पत्रों में छोटी-छोटघ मनोकामनाएं रहती हैं।मुट्ठीभर खुशी के लिए। जिसकी मनोकामना पूरी हो जाती है,वह मन्दिर में घंटी चढ़ाता है।हाँ,तब मुझे यह पता नहीं था। अल्मोड़ा में नन्दादेवी के मन्दिर के दर्शन के बाद अपने स्कूल को देखने गया।जहाँ हमारी कक्षायें होती थीं उस बिल्डिंग में दरार दिख रही थी। समय क्या-क्या परिवर्न ला देता है?" फिर वहाँ पर बैठकर वह कुछ लिखता है-
"तुम्हीं से सीखा
सुरों में गाना
मधुरता के शब्दों को
लाना-ले जाना,
कड़ी धूप में
घूमना-फिरना,
गुनगुनी धूप का
बिछौना बनाना,
लम्बी दूरियां अनवरत
चढ़ना-उतरना,
आन्दोलनों के भीतर
देश को बदलना,
प्यार की बातों को
चमकाना -छिपाना,
अहसासों का दुपटा
मोड़ना-खोलना,
पूजा के हाथों को
कर्म से जोड़ना,
चली गयी दूरी पर
फिर तुम्हें ढूंढ़ना।"
पढ़ते- पढ़ते मुझे वह दिन याद आ गया जब उसने मेरे प्रथम नाम से पुकारा था। बोला था," रश्मि, तुम कर लोगी।" अपने को अपनत्व से पुकारते सुनकर, मैं सकपका गयी थी।वह मुझे उत्तर की प्रतीक्षा में देख रहा था।मेरी सहेली पास में खड़ी थी।मैं सन्न रह गयी थी, अपना नाम उसके मुँह से सुनकर। शायद यह इसलिए हुआ था क्योंकि मैं उसे चाहती थी।मेरी सहेली ने "हाँ" कह बात पूरी की। वह चला गया।मैं उस क्षण के बाद लगातार उसके बारे में सोचती रही।उस रात तीन बजे तक सो नहीं पायी।
सुबह सबसे पहले उठ गयी।हिमालय से उड़ कर आती ठंड के बीच अपनी आशा-आकांक्षाओं को पर लगाने लगी।उस दिन मैं कालेज जल्दी पहुँच गयी।वह मेरे पास आकर बोला," काम हुआ?" मैंने सिर हिला कर "हाँ" कहा। फिर वह बोला," कल जरूरी काम से घर जा रहा हूँ।" यह सुनकर मेरा मन उदास हो गया था।-----।