kaga sab tan khaiyo in Hindi Short Stories by कल्पना मनोरमा books and stories PDF | कागा सब तन खाइयो

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कागा सब तन खाइयो



बेटे की शादी के बाद अपने-अपने नाती-पोते के जन्मोत्सव पर उषा और मंजुला फिर से मिल रही थीं ।

अचानक आई महामारी ने दोनों को एक जगह कैद कर दिया था। लाख न चाहने पर समधिन जी जैसे भारी भरकम संबोधन सहजता से बहन जी में बदल चुके थे ।


एक दिन मंजुला बालकनी की रेलिंग पर कोहनी टिकाये अपनी पसंद का गीत गुनगुना रही थी । “कागा सब तन खाइयो ,मेरा चुन-चुन खइयो मास, दो नैना मत खाइयो मोहे पिया मिलन की आस ।"


इतने में उषा भी चाय के दो प्यालों के साथ वहाँ प्रकट हो गई और चुटकी लेते हुए बोली ।

“बहन जी आज सपने में लवलीन के पापा जी आये दीखें हैं ?"

“ना जी ना बहनजी , मैं तो उस सच्चे बादशाह की याद में हूँ ।” कहते हुए दोनों खिलखिला पड़ी ।


"जो पंछी कभी नहीं दिखते थे आजकल वे भी दिखने लगे हैं और कौओं को देखकर ही मुझे ये गीत याद आया।" मंजुला ने उषा को बताया।


बातों ही बातों में बात पंछियों से होते हुए चुग्गा तक जा पहुँची । तो बेटे से बोलकर उषा ने खड़ा अनाज मँगवा लिया और दोनों सोसायटी के पार्क में जाने लगीं।


वहाँ वे पंछियों को चुग्गा चुनातीं, वातावरण में फैली निर्मलता का कारण ....आदमियों का घरों में कैद होना सही ठहरातीं और घर लौट आतीं ।

अब ये उनका रोज़ का नियम-सा बन गया था ।


आज सुबह दोनों कुछ देरी से पार्क पहुँची । उषा ने दाने जगह-जगह बिखेर दिए लेकिन मंजुला उसे किसी गहरी सोच में डूबी दिखी ।

“बहन जी क्या हुआ ? चलो दाना डालो, नहीं तो लौटने में धूप हो जायेगी ।”उषा ने कहा और एक पेड़ के नीचे खड़ी हो सुस्ताने लगी।

“बहन जी दाना तो डाल दूँ लेकिन पंछी भी तो दिखने चाहिए ।” मंजुला ने माथे पर बल डालते हुए कहा ।


“लो, करलो बात….कितने सारे कबूतर तो वे रहे|”


गले पर चल रहे पसीने को पोंछा और मुस्कुरा कर ही उषा ने बोला ।


“हाँ, देखा उन्हें, लेकिन ये भी कोई पंछी हैं ? "


इन्हें न सुबह की बांग देने से मतलब न मिट्ठू की तरह राम राम करने से वास्ता । अपना वंश बढ़ाना ही जैसे इनके जीवन का असली मक़सद है।


"मंजुला बहन जी इस तरह के बंटवारे जीवन में जहर घोलने का काम करते हैं । थोड़ा सोच-समझकर ।" कहते हुए वह तुनक गई थी ।


अरे आपको पता नहीं बहनजी तभी ऐसे कह रही हो ,वैसे तो लवलीन के पापाजी तो कहते हैं, यदि ऐसा ही चलता रहा तो इनके कुनबे के अलावा कोई और पंछी दीखेगा ही नहीं ।"


पटाख़े की लड़ी में आग छुआ देने से जैसे वे फूटते चले जाते हैं.... बोलने का मौका पाकर मंजुला का हाल भी वैसा ही हुआ जा रहा था।


"समधिन जी, ज़रा चुग्गा से भी पूछ लो,वो क्या चाहता है?" उषा ने सामान्य से थोड़ा ऊँचा बोला।


समाजशास्त्र की रिटायर्ड प्रोफ़ेसर उषा महतो का चेहरा अब तमतमाकर लाल हो चला था ।


मंजुला अब भी उषा के शब्दों की व्यंग्य ध्वनि को नहीं पकड़ पायी थी लेकिन चेहरा पढ़कर सहम -सी गई।


कल्पना मनोरमा

21.5.2020