Damodar savarkar in Hindi Biography by SURENDRA ARORA books and stories PDF | प्रखर राष्ट्रवादी क्रांतिकारी व्यक्तित्व के धनी वीर दामोदर सावरकर

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प्रखर राष्ट्रवादी क्रांतिकारी व्यक्तित्व के धनी वीर दामोदर सावरकर

प्रखर राष्ट्रवादी क्रांतिकारी व्यक्तित्व के धनी वीर दामोदर सावरकर

सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा

सन 1857 के वीर यौद्धाओं के बलिदान को चाटूकार इतिहासकारों द्वारा ग़दर कहने वालों को आइना दिखाने वाले ऐतिहासिक ही नहीं भारत माता के कर्मठ पुत्र महान क्रांतिकारी विनायक दामोदर सावरकर का जन्म 28 मई, 1883 को नासिक के पास भागपुर गाँव में माता राधाबाई और पिता दामोदर पन्त सावरकर के पुत्र स्वरूप चार सन्तानो में से एक के रूप में हुआ था। जब वे मात्र नौ वर्ष के थे, तभी माता राधाबाई का देहांत हैजे के कारण हो गया, इस वजह से इनका लालन - पालन का कार्य इनके बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर ने सँभाला क्योंकि इनकी माता के देहावसान के सात वर्ष बाद पिता श्री दामोदर पन्त सावरकर भी वर्ष 1899 में प्लेग नाम की महामारी के प्रकोप से स्वर्ग सिधार गए।

दुखों और कठिनाइयों के बीच, विनायक के मन पर भाई गणेश के विचारों का प्रभाव बहुत अधिक पड़ा। उनकी बुद्धि कुशाग्र थी। पढाई में अव्वल थे। पढ़ाई के साथ इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन शुरु किया। शीघ्र ही इन मेलों के मध्यम से नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति की ज्वाला भी जाग उठी। सन् 1901 में रामचन्द्र त्रयम्बक चिपलूणकर की पुत्री यमुनाबाई के साथ उनका विवाह हुआ। उनके ससुर जी ने उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया। 1902 में मैट्रिक की पढाई पूरी करके उन्होने पुणे के फर्ग्युसन कालेज से बी०ए० किया।

1904 में उन्हॊंने अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की। 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। इस रूप में वे पहले क्रन्तिकारी थे जिन्होंने विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार को देश की स्वतंत्रता की लड़ाई में एक हथियार बनाया। फर्ग्युसन कॉलेज, पुणे में भी वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण ही देते थे।

10 मई 1907 को इन्होंने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई। इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं, अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया।

जून, 1908 में इनकी पुस्तक द इण्डियन वार ऑफ इण्डिपेण्डेंस लिखनी शुरु की जो 1909 में तैयार हो गयी परन्त्तु इसके मुद्रण की समस्या आयी। इसके लिये लन्दन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किये गये किन्तु वे सभी प्रयास असफल रहे। बाद में यह पुस्तक किसी प्रकार गुप्त रूप से हॉलैंड से प्रकाशित हुई और इसकी प्रतियाँ फ्रांस पहुँचायी गयीं। इस पुस्तक में सावरकर ने 1857 के सिपाही विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतन्त्रता की पहली लड़ाई बताया गया । मई 1907 में इन्होंने लन्दन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की, परन्तु उन्हें वहाँ वकालत करने की अनुमति नहीं मिली।इस पुस्तक को सावरकार जी ने पीक वीक पेपर्स व स्काउट्स पेपर्स के नाम से भारत पहुचाई थी

वीर सावरकर ने लंदन के ग्रेज इन्न लॉ कॉलेज में प्रवेश लेने के बाद इंडिया हाउस में रहना शुरू कर दिया था। इंडिया हाउस उस समय राजनितिक गतिविधियों का केंद्र था जिसे श्याम प्रसाद मुखर्जी चला रहे थे। सावरकर ने 'फ्री इण्डिया सोसायटी' का निर्माण किया जिससे वो अपने साथी भारतीय छात्रों को स्वतंत्रता के लिए लड़ने को प्रेरित करते थे। सावरकर ने 1857 की क्रांति पर आधारित पुस्तकें पढ़ी और "द हिस्ट्री ऑफ द वार ऑफ इंडियन इन्डिपेन्डेन्स" (The History of the War of Indian Independence) नामक किताब लिखी। उन्होंने 1857 की क्रांति के बारे में गहन अध्ययन किया कि किस तरह अंग्रेजों को जड़ से उखाड़ा जा सकता है।

भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में वे पहले क्रांतिकारी थे जिन्होंने भारतियों द्वारा अंग्रेजो के विरुद्ध 1857 के विद्रोह को उसके वास्तविक अर्थ दिए,वर्ण चाटूकार इतिहास कार तो उसे " गदर " कहकर अपमानित करने पर उतारू थे। वीर सावरकर ने ऐतिहासिक तथ्यों का गहन अध्धयन करके उसे अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता के युद्ध के प्रथम " विद्रोह " का सम्मान दिलवाया। वरना अंग्रेज तो उसे ' ग़दर ' की श्रेणी में ही रखना चाहते थे।

वीर सावरकर भारतवर्ष की आजादी के संघर्ष में एक महान ऐतिहासिक क्रांतिकारी थे। वह एक महान वक्ता, लेखक, इतिहासकार, कवि, दार्शनिक, विद्वान ही नहीं,एक सामाजिक कार्यकर्ता भी थे।

लन्दन में रहते हुये उनकी मुलाकात लाला हरदयाल से हुई जो उन दिनों इण्डिया हाउस की देखरेख करते थे। 1 जुलाई 1909 को मदनलाल ढींगरा द्वारा विलियम हट कर्जन वायली को गोली मार दिये जाने के बाद उन्होंने लन्दन टाइम्स में एक लेख भी लिखा था। 13 मई 1910 को पैरिस से लन्दन पहुँचने पर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया परन्तु 8 जुलाई 1910 को एस०एस० मोरिया नामक जहाज से भारत ले जाते हुए सीवर होल के रास्ते ये भाग निकले।24 दिसम्बर 1910 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गयी। इसके बाद 31 जनवरी 1911 को इन्हें दोबारा आजीवन कारावास दिया गया। इस प्रकार वीर सावरकर भारतीय स्वतंत्रता की लड़ाई में विश्व के अकेले क्रांतिकारी थे जिनको ब्रिटिश सरकार ने क्रान्ति कार्यों के लिए दो-दो बार आजन्म कारावास की सजा दी, जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी।

एक जगह सावरकर लिखते हैं :

“ मातृभूमि! तेरे चरणों में पहले ही मैं अपना मन अर्पित कर चुका हूँ। देश-सेवा ही ईश्वर-सेवा है, यह मानकर मैंने तेरी सेवा के माध्यम से भगवान की सेवा की है ।“

सावरकर ने अपने मित्रो को बम बनाना और गुरिल्ला पद्धति से युद्ध करने की कला सिखाई। 1909 में सावरकर के मित्र और अनुयायी मदनलाल ढींगरा ने एक सार्वजनिक बैठक में अंग्रेज अफसर कर्जन की हत्या कर दी। ढींगरा के इस काम से भारत और ब्रिटेन में क्रांतिकारी गतिविधिया बढ़ गयी। सावरकर ने ढींगरा को राजनीतिक और कानूनी सहयोग दिया, लेकिन बाद में अंग्रेज सरकार ने एक गुप्त और प्रतिबंधित परीक्षण कर ढींगरा को मौत की सजा सुना दी, जिससे लन्दन में रहने वाले भारतीय छात्र भड़क गये। सावरकर ने ढींगरा को एक देशभक्त बताकर क्रांतिकारी विद्रोह को ओर उग्र कर दिया था। सावरकर की गतिविधियों को देखते हुए अंग्रेज सरकार ने हत्या की योजना में शामिल होने और पिस्तौले भारत भेजने के जुर्म में फंसा दिया, जिसके बाद सावरकर को गिरफ्तार कर लिया गया। अब सावरकर को आगे के अभियोग के लिए भारत ले जाने का विचार किया गया। जब सावरकर को भारत जाने की खबर पता चली तो सावरकर ने अपने मित्र को जहाज से फ्रांस के रुकते वक्त भाग जाने की योजना पत्र में लिखी। जहाज रुका और सावरकर खिड़की से निकलकर समुद्र के पानी में तैरते हुए भाग गए, लेकिन मित्र को आने में देर होने की वजह से उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया।

नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के लिए नासिक षडयंत्र काण्ड के अन्तर्गत इन्हें 7 अप्रैल, 1911 को काला पानी की सजा पर सेलुलर जेल भेजा गया। उनके अनुसार यहां स्वतंत्रता सेनानियों को कड़ा परिश्रम करना पड़ता था। कैदियों को यहां नारियल छीलकर उसमें से तेल निकालना पड़ता था। साथ ही इन्हें यहां कोल्हू में बैल की तरह जुत कर सरसों व नारियल आदि का तेल निकालना होता था। इसके अलावा उन्हें जेल के साथ लगे व बाहर के जंगलों को साफ कर दलदली भूमी व पहाड़ी क्षेत्र को समतल भी करना होता था। रुकने पर उनको कड़ी सजा व बेंत व कोड़ों से पिटाई भी की जाती थीं। इतने पर भी उन्हें भरपेट खाना भी नहीं दिया जाता था। सावरकर 4 जुलाई, 1911से 21 मई, 1921तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे।

1921 में वल्लभ भाई पटेल और बाल गंगाधर तिलक के कहने पर ब्रिटिश कानून ना तोड़ने और विद्रोह ना करने की शर्त पर उनकी रिहाई हो गई। सावरकर जी जानते थे कि सालों जेल में रहने से बेहतर भूमिगत रह करके उन्हें काम करने का जितना मौका मिले, उतना अच्छा है। उनकी सोच ये थी कि अगर वो जेल के बाहर रहेंगे तो वो जो करना चाहेंगे, वो कर सकेंगे जोकि अंडमान निकोबार की जेल से संभव नहीं था।

वीर सावरकर 20वीं शताब्दी के सबसे बड़े हिन्दूवादी क्रन्तिकारी रहे। विनायक दामोदर सावरकर को बचपन से ही हिन्दू शब्द से बेहद लगाव था। वीर सावरकर ने जीवन भर हिन्दू, हिन्दी और हिन्दुस्तान के लिए ही काम किया। वीर सावरकर को 6 बार अखिल भारतीय हिन्दू महासभा का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। 1937 में उन्हें हिंदू महासभा का अध्यक्ष चुना गया, जिसके बाद 1938 में हिंदू महासभा को राजनीतिक दल घोषित कर दिया गया।

किसने दिया था नाम 'वीर'?

कांग्रेस के साथ एक बयान को लेकर विवाद में उलझ जाने के बाद सावरकर को कांग्रेस ने ब्लैकलिस्ट कर दिया था और हर जगह उनका विरोध किया जाता था. यह 1936 का समय था. ऐसे में मशहूर पत्रकार, शिक्षाविद, लेखक, कवि और नाटक व फिल्म कलाकार पी.के. अत्रे ने सावरकर का साथ देने का मन बनाया क्योंकि वह नौजवानी की उम्र से सावरकर के किस्से सुनते रहे थे और उनके बड़े प्रशंसक थे।

अत्रे ने पुणे में अपने बालमोहन थिएटर के कार्यक्रम के तहत सावरकर के लिए एक स्वागत कार्यक्रम आयोजित किया. इस कार्यक्रम को लेकर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने सावरकर के खिलाफ पर्चे बांटे और धमकी दी कि वे सावरकर को काले झंडे दिखाएंगे. इस विरोध के बावजूद हज़ारों लोग जुटे और सावरकर का स्वागत कार्यक्रम संपन्न हुआ, जिसमें अत्रे ने वो टाइटल दिया, जो आज तक चर्चित है.

'जो काला पानी से नहीं डरा, काले झंडों से क्या डरेगा?'

सावरकर के विरोध में कांग्रेसी कार्यकर्ता कार्यक्रम के बाहर हंगामा कर रहे थे और अत्रे ने कार्यक्रम में अपने भाषण में सावरकर को निडर करार देते हुए कह दिया कि काले झंडों से वो आदमी नहीं डरेगा, जो काला पानी की सज़ा तक से नहीं डरा. इसके साथ ही, अत्रे ने सावरकर को उपाधि दी 'स्वातंत्र्यवीर'. यही उपाधि बाद में सिर्फ 'वीर' टाइटल हो गई और सावरकर के नाम के साथ जुड़ गई.

हिन्दू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा को विकसित करने का बहुत बड़ा श्रेय सावरकर को जाता है। उनकी इस विचारधारा के कारण आजादी के बाद की सरकारों ने उन्हें वह महत्त्व नहीं दिया जिसके वे वास्तविक हकदार थे।

देश की स्वतंत्रता की लड़ाई के महान यौद्धा प्रखर राष्ट्रवादी वीर सावरकर की कुछ अन्य उल्लेखनीय उपलब्धियां :

वे विश्व के ऐसे पहले लेखक थे जिनकी कृति 1857 का प्रथम स्वतंत्रता को 2-2 देशों ने प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंधित कर दिया।

वे पहले स्नातक थे जिनकी स्नातक की उपाधि को स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण अंग्रेज सरकार ने वापस ले लिया।

वीर सावरकर पहले ऐसे भारतीय विद्यार्थी थे जिन्होंने इंग्लैंड के राजा के प्रति वफादारी की शपथ लेने से मना कर दिया। फलस्वरूप उन्हें वकालत करने से रोक दिया गया।

वे रूसी क्रांतिकारियों से ज्यादा प्रभावित थे।

9 अक्टूबर 1942 को भारत की स्वतंत्रता के लिए चर्चिल को समुद्री तार भेजा और आजीवन अखंड भारत के पक्षधर रहे। आजादी के माध्यमों के बारे में गांधीजी और सावरकर का नजरिया अलग-अलग था।

वीर सावरकर विश्वभर के क्रांतिकारियों में अद्वितीय थे। उनका नाम ही भारतीय क्रांतिकारियों के लिए उनका संदेश था। वे एक महान क्रांतिकारी, इतिहासकार, समाज सुधारक, विचारक, चिंतक, साहित्यकार थे। उनकी पुस्तकें क्रांतिकारियों के लिए गीता के समान थीं। उनका जीवन बहुआयामी था।

भारत के इस महान क्रांतिकारी का 26 फरवरी 1966 को निधन हुआ। उनका संपूर्ण जीवन स्वराज्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष करते हुए ही बीता। वीर सावरकर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अग्रिम पंक्ति के सेनानी एवं प्रखर राष्ट्रवादी नेता थे।

वीर सावरकर के हिंदुत्व और राष्ट्रीयता पर विचार :

वीर सावरकर के अनुसार, “हिंदुत्व ही राष्ट्रीयत्व है और राष्ट्रीयत्व ही हिंदुत्व है। " उन्होंने कहा, “ इस जगत में यदि हम हिन्दू राष्ट्र के नाते स्वाभिमान का जीवन जीना चाहते हैं तो उसका हमें पूरा अधिकार है और वह राष्ट्र हिन्दुराष्ट्र के ध्वज के नीचे ही स्थापित होना चाहिए। इस पीढ़ी में नही तो अगली पीढ़ी में मेरी यह महत्वाकाँक्षा अवश्य सही सिद्ध होगी। मेरी महत्वाकाँक्षा गलत सिद्ध हुई तो मैं पागल कहलाऊंगा और यदि महत्वाकाँक्षा सही सिद्ध हुई तो भविष्यद्रष्टा कहलाऊंगा मैं। मेरा यह उत्तराधिकार मैं तुम्हें सौंप रहा हूँ।”

उनके अंतःस्थल में एक ही ध्येय बसा था…. “बस तेरे लिए जीये माँ और तेरे लिये मरे हम, कितनी ही विपदायें-बाधायें आएं, पर नही डरे हम”।

वीर सावरकर के जीवन और दर्शन को यदि सार स्वरूप समझना हो तो देश के महान सपूत और दिवंगत प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री अटल बिहारी वाचपेयी जी का कथन पर्याप्त है :

उन्होंने एक सभा में वीर सावरकर जी को तप,त्याग,तेज,तर्क, तीर और तलवार का पर्याय कहा था।

देश की एकमात्र महिला प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी ने भी एक पत्र में वीर सावरकर को देश का महान सपूत कहा था।

प्रधानमंत्री मोदी ने एक बार एक सभा में कहा, "'वीर सावरकर के संस्कार हैं कि राष्ट्रवाद हमारे मूल में है, इसीलिए राष्ट्रवाद को हमने राष्ट्र निर्माण के मूल में रखा है । "

सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा, डी - 184, श्याम पार्क एक्सटेंशन, साहिबाबाद - 201005 ( उ . प्र. ) मो : 9911127277, ( भारत )