"उत्तराधिकर्मी" (कहानी) - प्रबोध कुमार गोविल
आज खाना फ़िर नहीं बना।
दोनों अलग - अलग कमरे में हाथ की कोहनी से माथा ढके सरेशाम सोते रहे।
सोना तो क्या था, स्थितियों के प्रति अपनी अवज्ञा जताने का एक शिगूफ़ा था।
घर की लाइटें तक नहीं जलाई गई थीं।
कभी बचपन में दादी- नानी से सुना होगा कि दोनों वक़्त मिले सोते नहीं हैं। और अंधेरा घिरते ही दीया- बाती ज़रूर कर लेते हैं। पर अब न तो दादी- नानी रहीं, और न ही बचपन।
नानी तो यहां तक कहती थी कि रोटी पर लगाने को घी या सब्ज़ी बघारने को तेल न हो तो रूखा- सूखा खा लेना पर सांझ को दीए की लौ के लिए दो बूंद तेल बचा कर ज़रूर रखना। अंधेरे में मत बैठना, सूझता नहीं है।
नानी को क्या मालूम कि एक दिन ऐसा भी आयेगा जब अंगुली की हल्की सी जुंबिश से अपनी देहरी ही क्या शहर - भर की बत्तियां जगर- मगर हो जाएंगी।
दीया तो दीया, अब तो चूल्हा सुलगाने तक को तेल - तीली नहीं चाहिए। सुलगाने की ज़रूरत भी नहीं। अभी मोबाइल पर अंगुली के दो - चार टकोर मारो, घड़ी भर में गरमा- गरम खाने का डिब्बा लेकर कोई लड़का दरवाज़े पर आ खड़ा होगा।
सब है! पर मरी भूख तो हो?
और भूख भी जाएगी कहां? अपने- अपने अहम की ऐंठन के पीछे छिपी बैठी है। अभी घंटे भर में पेट में चूहे कूदने लगेंगे। पर चूहे उदर और आंत को तो झकझोर सकते हैं, अहम की रस्सी की ऐंठन कैसे काटें?
कौन कहे कि भूख लगी, और कौन कहे कि खाना ऑर्डर कर लो।
नाक नीची न हो जाए?
अब कोई दादी- नानी का ज़माना थोड़े ही है कि एक बाजू बैठे हैं पति- परमेश्वर और दूसरे बाजू बैठी हैं अन्नपूर्णा!
अब तो एक ही छत के नीचे दो बड़ी कम्पनियों के अफ़सर बसर कर रहे हैं। कौन सा झुके?
अरे बात का बतंगड़ क्या बनाना, आख़िर हैं तो पति- पत्नी ही।
और बहस भी कोई नई नहीं, वही पुरानी, बार- बार का रोना-झींकना।
शादी को बाईस साल हो गए, बच्चा नहीं है।
शुरू के चार- छह साल तो मौज- मस्ती में निकल गए। उसके बाद के चार छह साल कैरियर, प्रमोशन, क्वालिफिकेशन, एक्स्पीरियंस, पोस्टिंग... के मसलों में। और उसके बाद के भी ऐसे ही निकलते रहते अगर हाथ में कालेे झंडे लेकर ये नई बीमारी बीच में न आ टपकती।
बीमारी भी ऐसी जैसे कोई बरसों पुराना सपना।
दोनों ने कभी प्रेम विवाह किया था। घर वालों ने नापसंदगी ज़रूर जताई लेकिन असहयोग नहीं। असहयोग करते भी कैसे, आख़िर दोनों ओर के ताल - तलैया इन्हीं नदियों से तो भरते थे। दोनों ही कई साल तक मोटी रकम अपने- अपने घर भेजते रहे थे, अपने- अपने माता - पिता के घर की जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए। तो कौन उन्हें रोकता- टोकता। पर अब मां - बाप नहीं रहे थे, तो ज़िम्मेदारियां भी खत्म।
वैसे रोक- टोक की कोई बात भी नहीं थी। बच्चे बड़े हो जाते हैं तो शादी करते ही हैं। चाहे मां- बाप की निगाह के नीचे करें या खुद अपनी नज़र से मोल - तौल कर।
आज भी दोनों में उसी बात को लेकर गरमा - गरम बहस हुई थी, और भरसक एक दूसरे को अपनी बात मनवाने के लिए कोशिश करते हुए दोनों ही बेदम हो गए थे।
फ़िर वही, हमेशा की तरह खाना - पीना भूल अलग - अलग कमरे में जा पड़ना और कभी रोते हुए तो कभी खीजते हुए अपने - अपने दिमाग़ को मथना।
पत्नी अंकुरिता को समझ में नहीं आता था कि आख़िर उसके पति मनजय को इसमें आपत्ति क्या है। लोग तो अनाथालयों में जाकर अनजान बच्चों पर भरोसा करके उन्हें अपना लेते हैं, फ़िर यहां तो अपने खून के रिश्ते से ही संतान मिल रही थी।
उसकी भाभी लगभग रोज़ फ़ोन करती थी। कहती - दीदी, जल्दी बताओ, कहीं देर न हो जाए। तुम्हारी ढिलाई में कहीं हम पर कोई मुसीबत न आ खड़ी हो।
यद्यपि इस प्रस्ताव से कभी - कभी खुद अंकुरिता को भी थोड़ा डर लगता था कि अब पैंतालीस- पचास साल की उम्र में नवजात बच्चा गोद लेने से कहीं भविष्य का कोई जोखिम न पैदा हो जाए।
हर आदमी चाहता ही है कि जब तक उसकी नौकरी या रोजगार रहे तभी तक उसके बच्चे भी बड़े होकर व्यवस्थित और आत्मनिर्भर हो जाएं। पचास की उम्र में किसी बच्चे को गोद लेने से ये खतरा बना ही रहता है कि कहीं आप तो काम -धंधे से निवृत्त हो जाओ और बच्चे लिखने- पढ़ने की छोटी उम्र में आप पर ही आश्रित रह जाएं। ऐसे में बच्चों की ज़िन्दगी जमाने में परेशानी होती है। फ़िर बूढ़े बेकार बैठे मां- बाप के बच्चों के तो शादी- विवाह में भी अड़चन आती है।
घर में ठाले बैठे बूढ़ा- बुढ़िया के इर्द - गिर्द चकरघिन्नी बन कर नाचने को कौन अपनी बिटिया दे? आजकल तो बेटी भी बेटों सी ही पाली- पोसी होती है।
ये सब बातें अपनी जगह ठीक हो सकती हैं पर अंकुरिता को लगता था कि अपने सगे भाई के बच्चे को पालने में क्या ऐतराज है। इसमें ये भरोसा तो है ही कि अगर खुद को कुछ हो- हुआ भी जाए तो कम से कम बच्चे के नैसर्गिक मां- बाप तो दुनिया में हैं ही संभालने के लिए।
इसीलिए उसे ये प्रस्ताव अटपटा होते हुए भी कुछ बुरा नहीं लगा था और वो इसके लिए मन ही मन तैयार हो गई थी। तैयार ही क्यों, बल्कि उत्सुक हो गई थी।
अंकुरिता का भाई उससे कई साल छोटा था। उसके दो बच्चे पहले से थे। बच्चे बड़े - बड़े थे और स्कूल- कॉलेज की पढ़ाई कर रहे थे। पहले कभी ऐसी बात आई भी नहीं थी।
लेकिन अचानक एक दिन अंकुरिता को अपनी भाभी से ही ये खबर मिली कि उन लोगों की ज़रा सी लापरवाही से तीसरा बच्चा भी पेट में आ गया है। भाभी ख़ुद इस बात से काफ़ी शर्मिंदा थी पर कह रही थी कि दीदी, आप लोग लेना चाहो तो मैं ये कष्ट सहूं, वरना हम तो इससे छुटकारा ही पाएंगे।
ये सुनते ही अंकुरिता के दिमाग़ ने इस दिशा में दौड़ना शुरू कर दिया था।
उस समय तक अंकुरिता और मनजय संतान के लिए कभी सोचते भी नहीं थे और उन्हें इसकी ज़रूरत भी महसूस नहीं होती थी।
लेकिन कहते हैं कि इंसान उस चीज़ की ही कद्र करता है जो उसके पास न हो, जो हो, उसकी तरफ़ ज़्यादा ध्यान नहीं देता। जब एक दिन अकस्मात अंकुरिता को मालूम हुआ कि मनजय में पिता बनने की शारीरिक क्षमता नहीं है तो वो जैसे आसमान से गिरी।
और मन ही मन उसके भीतर कहीं बच्चे के लिए लालसा सिर उठाने लगी।
उसने अपने पति मनजय से आग्रह किया कि वो लोग अब कोई बच्चा गोद ले लें।
मनजय को ये प्रस्ताव बिल्कुल भी पसंद नहीं आया और उसने इसे सिरे से ही ख़ारिज कर दिया।
अंकुरिता एक बार तो चुप लगा गई, पर धीरे- धीरे उसके अंतर में बच्चे के लिए तड़प बढ़ने लगी।
अब अचानक रह- रह कर उसे फ़िर ये ख्याल आता कि जब अपने घर में ही जन्म लेने वाले बच्चे को गोद लेने का मौक़ा मिल रहा है तो इसे क्यों छोड़ा जाए। वो तर्क का कोई नया सिरा पकड़ कर मनजय से बार - बार उलझ जाती, लेकिन वो अपने फ़ैसले से टस से मस नहीं होता।
अंकुरिता के भाई के यहां पहले एक लड़का और एक लड़की थे। लड़का बड़ा था और लड़की छोटी। बेटा इस वर्ष इंजीनियरिंग के पहले साल में था और बेटी फ़ैशन डिज़ायनिंग करने का सपना लेकर अभी स्कूल में ही पढ़ रही थी।
और अब परिवार में अचानक आने वाले इस तीसरे बच्चे के लिए न तो मन से कोई तैयार था और न इसकी कोई ज़रूरत ही थी।
किन्तु जब भी अंकुरिता और मनजय भाई -भाभी के यहां मिलने जाया करते थे तो वहां उनके बच्चों के कार्यकलाप देख कर उन दोनों के ही चेहरे पर अपनी ज़िन्दगी का ये खालीपन और उभर आता था।
भाभी इसे ताड़ जाती पर उन लोगों से छोटी होने के कारण संकोच से कुछ कहती या पूछती नहीं थी।
फ़िर भी एक दिन बातों- बातों में अंकुरिता ही उसे सब बता बैठी थी और भाभी को उनका ये राज़ पता चल गया था कि वो अपने घर में बच्चा ला पाने में सक्षम ही नहीं हैं।
बाद में जब अचानक भाभी ने गर्भ धारण किया तो उसने झिझकते हुए अपने मन की बात अंकुरिता को बता दी।
और किसी झील से शांत पड़े घर में रह - रह कर वांछनाओं की एक लहर उमड़- उमड़ कर आने लगी। कभी प्यार से, कभी तकरार से।
आज भी यही हुआ था। दोनों में इसी बात को लेकर खींचतान और कड़वी बहस हुई। फ़िर दोनों ही अनशन- पाटी लेकर पड़ गए थे।
घंटे, दो - घंटे बाद अंकुरिता बिस्तर से उठी। घड़ी देखी। आठ बजने जा रहे थे। उसने बाथरूम जाकर मुंह धोया, फ़िर मोबाइल उठा कर मनजय का मन पसंद खाना ऑर्डर किया और कपड़े बदल कर दूसरे कमरे में लेटे मनजय के पास अा बैठी। वह आंखें बंद किए लेटे मनजय के बालों में प्यार से अंगुलियां फ़िरा ही रही थी कि मनजय ने आंखें खोल कर उसे कस कर अपनी बांहों के घेरे में ले लिया।
जब मनजय को मालूम हुआ कि मैडम ने खाना ऑर्डर कर दिया है तो वो भी झटपट उठ कर फ्रेश होकर कपड़े बदलने लगा।
खाना खाने के बाद दोनों साथ- साथ कॉलोनी में ही थोड़ी दूर टहलने भी गए।
अंकुरिता ने सोचा था कि अब चाहे कुछ भी हो जाए, वो कभी भी मनजय से इस विषय में कोई बात नहीं छेड़ेगी और कल सुबह ही भाभी को फ़ोन कर देगी कि वो भैया के साथ डॉक्टर के पास जाकर अबॉर्शन करवा लेे, उन लोगों को बच्चा नहीं चाहिए!
रात को सोने के लिए अंकुरिता जब मनजय के पहलू में अाई तो उसका जी बहुत हल्का हो चुका था। जैसे कई दिनों की बाढ़ के बाद अब पानी उतर गया हो। सहमे पेड़ - पौधे और घबराए खर- पतवार जैसे खिली धूप में फ़िर से व्यवस्थित होने लगे हों। बत्तियां बुझ गईं।
गहरी रात के सांवले प्रहर में उनींदी सी अंकुरिता को अपने वक्ष पर सहसा किसी भारी से कछुए के सरकने का अहसास हुआ। उसने आंखें खोल दीं।
उसके आश्चर्य का पारावार न रहा जब उसने देखा कि मनजय उसे नींद से जगा रहा है।
- क्या हुआ, कह कर खुले अंकुरिता के होठों को फड़फड़ाने का मौक़ा ही नहीं मिला, मनजय ने झुक कर अपने होंठ उसके मुंह पर रख दिए।
सहसा उसने अंकुरिता से कहा - उठो, तुम्हें एक कहानी सुनानी है...
- ओह! ये क्या? मनजय का ये रूप तो एकदम नया था, जो अंकुरिता ने पहले कभी नहीं देखा था।
मनजय ने उसे बताया कि वो आज अंकुरिता को वो सच बताना चाहता है जो पहले कभी नहीं बता सका, जबकि अंकुरिता हमेशा उससे ये पूछती रही। झुंझलाई सी अंकुरिता एकाएक उठ कर बैठ गई और पति को एकटक देखने लगी।
जो अंकुरिता पहले बार - बार उससे पूछती रही थी कि वो बच्चा गोद क्यों नहीं लेना चाहता, आज पहली बार उसे जवाब मिला। अंकुरिता को मालूम हुआ कि उसका ये प्रेमी पति, जिसे वो हिमाचल प्रदेश का, जम्मू में पला - बढ़ा कायस्थ लड़का समझती थी वो दरअसल एक विस्थापित कश्मीरी पंडित है और वर्षों से अपनी सही जाति छिपा कर जैन परिवार की बेटी अंकुरिता के साथ विवाह कर के रह रहा है।
उसने बताया कि बचपन में मैंने अपने घर से दर - बदर होने का जो दर्दनाक मंज़र देखा था, उसके चलते मैं अपनी खुद की कोई संतान कभी नहीं चाहता था। और मन ही मन ये चाहता था कि अगर दबाव में कोई बच्चा गोद लेना ही पड़े तो वो कश्मीरी ब्राह्मण समाज का ही हो, ताकि मुझे अपनी जड़ों से फ़िर जुड़ जाने का अहसास हो।
इस अंतर्जातीय विवाह के कारण ही अंकुरिता ने खुद अपने परिवार की नाराज़गी भी झेली थी और उधर ससुराल वालों से भी कटी - कटी रहती थी।
कोई सुनहरा सच उगलकर काली रात अब दूधिया होने लगी थी।
अगली सुबह जब अंकुरिता ने अपनी भाभी को बच्चे से छुटकारा पाने की सलाह देने को फ़ोन किया तो उसकी बात सुनकर मानो अंकुरिता फ़िर से किसी उफ़नते झरने में डूबने- उतराने लगी।
भाभी ने बताया कि कुछ कहने की ज़रूरत नहीं... जीजाजी ने उसे सुबह पहले ही फोन कर के बता दिया है कि हम उनके होने वाले बच्चे के मंगलगीत गा रहे हैं!
अंकुरिता को इस विचित्र दुनिया की अनोखी रीत से दूर कहीं अपनी ज़िन्दगी के उत्तराधिकर्मी की किलकारियां सुनाई देने लगीं।
- प्रबोध कुमार गोविल