fareb - 10 in Hindi Love Stories by Raje. books and stories PDF | फरेब - १०

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फरेब - १०


बस में बैठा एक व्यक्ति अपनी कापी में कुछ शहर के नाम टीक कर रहा था।
अजमेर, भोपाल, रायपुर, शीरडी, गोआ, चेन्नई, पणजी।
तभी एक आवाज ने उसे रोका,
कहा की टीकट काटु ? भाई।
हां। वो कंडक्टर था।
उसने कहा, सौराष्ट्र।
कंडक्टर, हां सौराष्ट्र। मगर उसमें कहा ?
राज.. राजकुट।
राजकुट नहीं भाई, राजकोट।
वह व्यक्ति, हां हां। राजकोट।
यही नाम था।
कंडक्टर, लगता है गुजरात पहली बार जा रहे हो।
जी हां।
कंडक्टर, ये लीजीये ५१० रुपए आपकी टीकीट।
व्यक्ति, अपनी जेब में से पैसे निकालते हुए। वैसे कितना वक्त लगेगा। ये राज..कोट पहुंचने में ?
कंडक्टर, बस यही कुछ तीन-साढे तीन घंटे।
वह व्यक्ति, ओह। तो और चार घंटे इंतजार।
फिर कंडक्टर टीकट काटते आगे बढ़ा। और वह व्यक्ति अपनी लिस्ट की ओर देखने लगा।

वृंदा इन ग्यारह महीनों में मेने तुम्हे कहा कहा नहीं ढुंढा। तुम्हे क्या मालूम !
लगभग आधा देश घुम चुका हु। हर एक शहर, कस्बा, गांव। सब जगह।
जहां कहीं तेरे होने की संभावना दिखी। में वहां पहुंचा।
मगर तुम्हारा कोई नामो निशान नहीं।
इस वक्त के दौरान मैंने क्या क्या खोया है ?
इसका तुम्हे अंदाजा भी नहीं है।
अब मैं कोई साधु या डाकु नहीं रहा।
मेरे साथी मुझे छोड़कर चले गए। इसका मुझे कोई गम नहीं। मगर वीलाश के धोखे ने मुझे सबसे ज्यादा आहत किया।
पुलीश कि नजरो में फरार।
तुम्हारे बाबुसा और भाई मेरे खुन के प्यासे हैं।
इन सब में अगर तुम्हें ढुढने का ख्याल न होता तो,
मैं पागल हो जाता।
जब तुम्हे कहीं से भी ढुढने की आश खो रहा था। तब शायद भगवान को मुझ पर दया आ गयी और एक अखबार मेरे हाथ लगा। वैसे कुछ खास खबर थी नहीं।
यही कुछ नवरात्रि की कुछ तस्वीरे छपी थी उसमें। उसी में मुझे कुछ हल्की सी छवी दीखाई दी तुम्हारी। मुझे पुरा यकीन है। वह तुम ही होगी।
हां , तुम ही होगी।
कहकर ऋषभ अपने दिल को बहलाते हुए। अपनी आंखें बंद की और वृंदा के ख्यालों में खोने लगा।

कुछ देर बाद, एक सीटी की आवाज ने ऋषभ की आंखें खोली।
कोई चील्ला रहा था।
चालों भाई चालों।
राजकोट आव्यु। राजकोट।


#############


राजकोट: मोती गार्डन
वक्त: रात के तकरीबन १० बज रहे हैं।

बहोत जद्दोजहद के बाद ऋषभ को इस जगह का पता मालूम हुआ है। उपर से गुजराती ना आने के कारण कुछ वक्त और लग गया।
गार्डन में दर्शकों की श्रेणी में बेठकर उसकी आंखें सबकुछ रेकोर्ड कर रही है।
चारों ओर लोग खुशी में नाच रहे हैं। औरतें आज अप्शरा बनकर उतरी हो, वैसे तैयार होकर आयी है। घाघरा और चोली उनमें भी अलग-अलग डीजाइन। नक्काशी में गुजरात की प्राचीन एवं वर्तमान संस्कृति का वर्णन मिलता है।
तो पुरुष भी अपनी आप को देवों में सम्मीलित कर रहे थे। सरपर सौरठी पागडी, धोती और भरवाडी फ्रोक। अ..हा क्या लग रहे हैं।
युवानो में भी अपनी प्रचलित स्टाईल के कुर्ता और नीचे अपनी हिसाब से जीन्स, पजामा, धोती ईत्यादी पहना है।
लेकिन सबसे अद्भुत उन्का रास गरबा खेलते हुए, उसमें खो जाना। साथ ही गुजराती संगीत, वो गरबा संगीत, किसी को भी अपनी ताल पर थीरकने पर मजबुर करने वाला है।
'ए हालो पेला बाबुभीस ना गरबा रमवा जईए'

और ऐसा हो भी रहा है। कुछ बच्चे, तो कुछ बड़े भी है। उन्हें देखकर लगता है, की उनको यह नृत्य नहीं आता फिर भी वह गोल गोल घुमे जा रहे हैं। और इस बात पर उन पर हंसने वाला भी कोई नहीं है। सब अपने ही रंग में रंगे हुए हैं। मानो कोई नशा करके आये हो।
किसी को भी यहां सुस्ती महसूस नहीं हो रही। यहां तक की बुढ़े भी थक नहीं रहे हैं।
ये बात सच में कमाल की है।
यहां पर राश खेलने की कोई वयमर्यादा या नीयम नहीं है। हर कोई खेल सकता है।
यहां ना कोई अमीर है, ना कोई गरीब। ना बड़ा ना छोटा। ना स्त्रि ना पुरुष और ना ही कोई किन्नर।
यह त्योहार सचमे अलौकिक है। क्योंकि ये लोगों को एकसाथ लाता है। सबमें एकता की भावना जगाता है। सबसे प्रेम कोई घृणा नहीं।
यहां गलती पर माफि और अपनी बोतल से दुसरो को पानी मीलता है।
सबसे बड़ी बात, यहां सिर्फ डांडीया ही नहीं टकराते। बल्कि,
आंखों से आंखें टकराती है।
हाथों में हाथ मीलते है।
और फिर दिल एक हो जाते हैं।
"कोई किसीको चुड़ी से याद रखता है,
तो कोई पायल से।
कोई काजल से, तो कोई कजरे से।"

और तभी किसी की चिख ने मेरा ध्यान खींचा। कोई लड़की चीखी थी। मेने देखा,
वो कह रही थी।
आ शु कर्यु ते वाह्ली ?
हवे मारा हाथ पर वागी गयो ने डांडीयो। हु ना केती हती। तने नय आवडे डांडीया। तु गरबा ज रम।
पण मारी वात क्या माने ! मेडम।
वाह्ली, हां हवे। भुल थई गई। हवे नय थाय।
चलने रमीये, बोव मजा आवे छे।
वह लड़की, हां हवे नई वागे। केम के तारी जोड़े रमु झ नय, तो वागसे क्याथी ?
वाह्ली- ना हवे श्यामली एम ना करने। चल रमीये।
हवे थी नय थाय, पाक्कु।
लड़की, पाक्कु- बाक्कु कई नय। हवे मारे रमवु ज नथी।
कहकर वो पलटी और ऋषभ उसे देखकर वहीं जम गया। वो वृंदा थी।
ऋषभ कुछ सोचे-समझे बिना, सीधा वृंदा के पीछे भागा।
वो पानी पी रही थी। वह बाकीयो की भाती। चोली पहनकर नहीं आयी थी। बल्की एक घाटा लाल ड्रेस, जो उसके घुटनों से चार अंगुल नीचे जा रहा था। लहेगां और डुपट्टा सफेद था। बाये हाथ में चांदी की जैसी मगर नक्काशी वाली लगभग दश चुडीया थी। जबकि दायां हाथ बिलकुल खाली।
खुलें बाल, हल्का मेकअप, लाल लिपस्टिक और एक छोटी-सी लाल बिंदी। आंखों में बारीक काजल और बायी आंख के दो अंगुल नीचे एक क्रोस का नीशान।
अरे कोई छिपाओ इसे यहां से।
ये लड़कों की नजर, उसे कहीं बिमार ना कर दे।
मै ये सब अभी सोच ही रहा था। की होंठों से लगाये पानी की बोतल के साथ उसकी गर्दन मेरी तरफ धुमी। उसने अपनी दौनो भवो को एकसाथ उपर उठाकर इशारा कीया।
शायाद वो पुछना चाहती थी। क्या है ?
मगर मैं क्या समझता।
मै तो बस उसे देखता ही रहा।
लेकिन वो होश में थी। उसने बोतल मुह से जटसे हटाई और कहने लगी।
ये भाई, एक जापोट मारीस ने,
तो आ डाचु आखु फरी जसे।
आंखों फाड़ी फाड़ी ने शु जुए छे। कोई दिवस छोकरी जोयी नथी। चल नीकल हवे नय तो मार खयीश।

ये क्या कह रही हो वृंदा तुम ?
तभी वहां पर वाह्ली आ पहुंची। शु थयु ? श्यामली।
श्यामली- आ जोने, डफ्फोल। मने लाईनों मारतो हतो। हवे के छे वृंदा।
वाह्ली- तु छोड़ ने एने, आवा तो मल्या करें
बधाने मोढे ना लगाय।
अने ए, तु पण जा। नय तो मार खईश।

कहकर वो दोनों वहां से चली गयी। और मैं वहीं पर खड़ा रह गया। ये क्या हुआ मेरे साथ ?
मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया। मगर क्या करता ?
अब वृंदा को तो ढुंढना ही था। तो वापस उसे ढुंढने में लग गया। लेकिन इस भीड़ के बीच उसे ढुंढना आसान न था। फिर भी मुझे ये तो करना ही था।
और मैं कुद पड़ा उस युद्ध के मैदान में।

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यही कहीं होना चाहिए। रीक्षा वाले ने तो यही पता बताया था। वो रहा ( गुजराती बड़ी दिक्कत से पढ़ते हुए) कस्त..कस्तूरबा महिला अनाथ आश्रम।
वह एक जर्जरित पुरानी दो माले की इमारत थी। ना कोई कलर किया गया है, और प्लास्टर भी लगभग निकल चुका है।
लेकिन खुबसूरती की कोई कमी नहीं है। वहां इमारत के चारों ओर अलग-अलग फूल एवं पेड़ लगाए गए हैं। यहां का वातावरण शांत और आराम दायक है।
ऋषभ यह सोच रहा है कि, एक जमीनदार की बेटी जो हमेशा अपने आलिशान कमरे में अकेली रही है। वह यहां इस छोटे से कमरे में, रुम सेर करके कैसे रह रही होगी।
इन विचारों के साथ वह आश्रय की तरफ बढ़ रहा था कि, एक व्यक्ति ने उसे रोका।
क्या भाई ? क्या घुस्यो चाल्यो जाय छे।
ऋषभ- (शायद वह आश्रम का गार्ड था।) मै यहा वृंदा को मीलने आया हु।
गार्ड- अच्छा, वृंदा बेन।
तभी उसने पास से गुजरती एक अधेड़ उम्र की औरत को रोका और कहने लगा।
ए वृंदा बेन, आ तमने पुछे छे।
वह औरत मेरी तरफ बढ़ी और कहने लगी।
शु थयु भयला ? मारु शु काम पड्यु तने।
ऋषभ- अरे ये नहीं। मेरी वृंदा, वह एक जवान लड़की है। कुछ २०-२१ साल की।
गार्ड- ना भइ ना, हो।
अहीया आ एक ज वृंदा बेन छे। बिजु कोई नथी। मने लागे छे , तमे खोटी जग्या ए आवी गया छो।

ऋषभ सोच में पड़ गया। अब क्या करें ?
क्योंकि वृंदा को यही पर देखा था। ऊपर से रात को, वो लड़की उसका नाम भी कोई दूसरा बता रही थी। शायद उसी नाम से रह रही हो।
लेकिन वो नाम भी तो याद नहीं आ रहा था।
ऋषभ ने तय किया, वह वही पर बैठ कर वृंदा का इंतजार करेगा। कभी तो बाहिर नीकलेगी, तब बात हो जाएगी।
लगातार चार घंटे के इंतजार के बाद, जब कुछ लड़कियां अपने रुम से बहार निकली तब ऋषभ की आशाओं ने उड़ान ली और उसकी वो आश पुरी भी हुई। उन लड़कियों में वृंदा भी थी। ऋषभ उठकर सीधा गार्ड के पास भागा।
और वृंदा की तरफ ऊन्गली दीखाकर कहने लगा। देखो, वो वृंदा है।
गार्डने ध्यान से देखकर कहा।
ना भई, ए तो श्यामली बेन छे।
ऋषभ- हां वही है। उसी से मीलने आया हू।
मुझे अंदर जाने दिजीए। ( और वह अंदर जाने लगा)
गार्ड- अरे उभो रे, भयला।
आम अंदर ना घुसाय। हु बोलावु छु, श्यामली बेन ने।
कहकर उसने वृंदा को आवाज दी।
ए श्यामली बेन, आवो आवो। तमने आ भई पुछे छे।
वृंदा-( वही से खड़े खड़े) ए मने ? गोपालकाका(गार्ड)
गार्ड- हां, तमने ज।
फिर वृंदा वहां पर आयी। साथ में उसकी सहेली भी थी। वो वाह्ली।
ऋषभ- वृंदा तुम यहां क्या कर रही हो ?
पता है मैं तुम्हें कब से ढुंढ रहा हु।
वृंदा- ए बधु छोड। तु पेलो ज छेने, रातें नवरात्रिमा मने परेशान करतो हतो ए।
( फिर वाह्ली की ओर देखकर) ए वाह्ली, आ एज छे ने?
वाह्ली- लागे तो एज छे।
वृंदा- तु मारो पीछो करतो करतो अहीया सुधी आवी पहोच्यो। पण तु आ श्यामली ने ओलखतो नथी।
हवे तो तने सबक सीखववो ज पडसे।
कहकर उसने पास पड़ी लकड़ी की डंडी उठाई और मारने ही लगी थी की, एक आवाज ने उसे रोका।
आ बधु शु चाली रह्यु छे ?

वह एक ५०-५५ साल की औरत थी। चहरे पर नुर और तंदुरुस्त तव्चा। यही चीज उसे और जवान बता रही थी। उसका रुवाब बता रहा था कि वह, यहां की कर्ताधर्ता है।
हां वही थी, कस्तूरबा माणेकलाल पटेल।
वृंदा उसे देखकर दो कदम पीछे हट गई। फिर कहने लगी। जुओ ने बा, आ छोकरों मारो पीछो करें छे। काल रात थी। एम होय तो वाह्ली ने पुछी लो।
वाह्ली, हां बा।
वह इतना ही बोल पायी थी कि, कस्तूरबा का हाथ हवा में उठा और वह मौन हो गई।
कस्तूरबा- ए छोकरा, एक वार मोको मलसे।
जे केवु होय ते के, पछी चालतो बन।
ऋषभ- ये वृंदा है।
ऋषभ अभी इतना ही बोला था की, कस्तूरबाने उसे रोक दिया। फिर कहने लगी, चलो छोकरीओ पोत पोताना कमरा मा जाओ।
अने ए छोकरा, तु मारी पाछल आव।
कस्तूरबा का आदेश मीलते ही सब अंदर चल दिए। क्योंकि उनकी बात काटना। किसी के बस में नहीं था।

ऋषभ और बा कमरे में पहुंचे। उन्होंने ऋषभ को बैठने के लिए कहा। पानी पुछा, फिर कहने लगी।
तुम हिंदी बोलते हो। कहा से हो ?
ऋषभ- राजस्थान, चीरोली।
बा- वैसे हिंदी इतनी अच्छी नहीं आती। पण तारे लिए बोलती हु। ताकी तने समझ आये। ठीक छे।
हां तो बोल क्या कह रहे थै तु ?
ऋषभ ने वृंदा से मिलने से बिछड़ने की बात बतायी। और अंत में कहा, मैं पीछले ग्यारह महीनो से उसे ढुढ रहा हु।
ऋषभ की सारी बात सुनने से कस्तूरबा के दिमाग में टुटी सारी कड़ियां जुड़ गई। और उनको ऋषभ की बात पर यकीन हो गया।
फिर उन्होंने बताया, आज से लगभग ग्यारह महीने पहले हम राजस्थान में अजमेर कि शेर पर थे। मै ओर हमारा आश्रम, अपनी बस में।
वहां पर रास्ते के बिचोबिच श्यामली हमें मली थी।
बैहोश अने सर पर चोट लागी थी।
हमने उसे दवाखाने ले गये। वहां पर खबर पडी। उसकी याददाश्त चली गई है। उसे कुछ याद नहीं था। तो वो कहां पर जाती ?
इसलिए हमने उसे हमारे साथ रख लिया। क्योंकि वैसे भी हम अनाथ औरतें ही छे। एक और सही।
इससे मने लागे छे। यही वृंदा छे।
ऋषभ- हां, उस दिन हमारी शादी थी।
बा, अरे हां। वो हमने शादी के जोड़े में ही मिली थी।
ऋषभ- ठीक है। अब बताओ मैं क्या करूं ?
बा, देखो वो तुमसे बहोत चीढती है। और तुम पर विश्वास भी नहीं करेगी। ऊपर से याददाश्त ना होने के कारण, तुम्हारी बातों का उसके लिए कोई मोल नहीं।
तो सबसे पहले तुझे उसका विश्वास जितना होगा।
ऋषभ- मगर कैसे ?
बा- देखो मैं सबको बता देती हूं, की तु हमारा नया ड्राईवर छे। इसिलीए तुम यहां रहोगे। इससे तुम उसके पास रहोगे। तो तुम उसे यकीन दिला सकते हो।
और हो न हो। उसकी याददाश्त भी लौट आये।
ऋषभ- हां ठीक है। यही सही है।
बा- अब तुम जाओ। यहां कई सारे रुम किराये पर मीलते है। तुम वहां रहोगे। दिन में यहां आ सकते हो।
ऋषभ- जी शुक्रिया। कह वह आश्रम से बाहर निकल गया। अपने लिए एक रुम ढुढंने। कुछ वक्त के लिए या फिर हमेश के लिए ! पता नहीं।

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श्यामली अपने बिस्तर पर बैठे पता नहीं। क्या गुनगुना रही थी।
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समय: शादी के एक दिन पहले
वक्त: राजभा का रुम। खुदीराम वृंदा को जैसे लाया, राजभा उसे अपने रुम में खिंच ले गया था।

राजभा- तुम जो चाहती हो। वो कभी नहीं हो सकता। मै होने नहीं दुंगा।
देखो मैं तुमसे प्यार करता हूं। मगर मैं तुम्हें किसी साधु से शादी नहीं करने दूंगा।
अगर तुमने जिद की तो, में उसे बर्बाद कर दूंगा।
वृंदा- इसकी जरूरत नहीं है। क्योंकि आपका ये काम मैं कर दूंगी।
राजभा-( चौंककर) क्या ?
वृंदा- हां मैं उसे बर्बाद कर दूंगी।
राजभा- अब तुम्हारी कोई भी चाल नहीं चलेगी। तुम्हारी मां ने मुझे सब कुछ बता दिया है। तुम्हारी पहले दिन से आजतक की प्रेम कहानी।
वृंदा- मासा कुछ नहि जानती। वो सिर्फ वही बता रही हैं। जो मैंने उन्हें समझने दिया।
वृंदा- ये सब मेरी प्लेनींग थी। तब से जब मैंने उसे पहली बार चीरोली में देखा था।
उस चहेरे को मैं केसे भुल सकती थी।
राजभा- क्या मतलब ? किसका चहेरा।
वृंदा- पांखी दिदि की डायरी।
मुझे उसमें से सबकुछ पता चला।
उसी के आधार पर मैंने पीछले जन्म की कहानी बनाई। डायरी में लिखा था। जिससे मैं जान पायी की उसके शरीर पर कहा कहा निशान हैं। और मेरे मैंने खुद बनाएं।
सबको मीलाकर कहानी बनी और वो उसमे फंसता चला गया। सबसे ज्यादा वो बालों का बंध काम आया। वो मोर की आकृति वाला। जो मुझे दिदि के पोसमटोम के बाद, उसके सामान के साथ मीला था।
मेरे सपनों को हकीकत बनाने के लिए। एक तस्वीर की जरूरत थी। जो मुझे डायरी में मीली। मेने उसकी पैन्टींग बनवा दी। वह एक अहम कड़ी थी। इसके लिए उसे संभालना बहोत जरुरी था। क्योंकि इंसान सुनने से ज्यादा देखी हुई चीजों पर भरोसा करता है।
भले वो अपने साथीयों को कहता रहे की, ये सब बकवास है। मगर उसके दिमाग पर हर एक चीज असर कर रही थी।
और कल जो हुआ। उससे अब वो कहीं नहीं जा सकता। सिवाय मेरी तरफ आने के।

राजभा- वृंदा वृंदा वृंदा। होश में आओ। तुम पागल होती जा रही हो।
पहले सपने अब एक और नई कहानी।
वृंदा- आपको पता नहीं बाबासा। मगर मुझे सपने भी पांखी दीदी के ही आते थे।
जिनको इस दरीन्दे मीत उर्फ ऋषभदेव ने मारा था।अब वो साधु बनके घुम रहा है। वो क्या समझता है। वो साधु का वेश धारण कर लेगा, तो उसके पाप धुल जाएंगे।
बिलकुल नहीं। मै उसके हर एक फरेब का बदला लूंगी।
राजभा- वृंदा बेटा। देखो पांखी अब जा चुकी है। वो वापस नहीं आएगी।
लेकिन वो अगर उपर से तुम्हे देख रही होगी। तो बिलकुल भी खुश नहीं होगी।
उसके जाने का दुःख हम सबको है। पर उसके लिए खुदको नुकसान पहुंचाना। ये ठीक नहीं है।
और तुम ये कहती हो की, वो सचमे वही मुजरिम है। जो पांखी को मारकर भागा था। तो तुम उसे शादी के मंडप तक ले आना उसके बाद पुलिस उसका खयाल रखेगी। उसके बाद तुम्हारा काम खतम।
क्योंकि उसके सही गुनाहों की सजा, उसे सिर्फ भगवान ही देगा।
वृंदा- ठीक है बाबासा। कह कर बहार नाचती हुई भागी थी। और अपनी शादी की तैयारियां करने की बात मासा से कहीं थी।
**************

श्यामली (वृंदा) - इतने आगे आकर, मैं पीछे नहीं हट सकती थी, बाबासा।
इसके लिए मुझे माफ कर देना
ये मुझे करना ही पड़ा। क्योंकि मुझे पुरा यकीन था, की मेरे गायब होते ही। वो मुझे ढुढंते हुए आयेगा जरुर।
और दैखिये, वो आ गया।
मै उसे खून के आंसू रुलाउगी। मीत पटेल तुने मुझसे मेरी बहेन छीनी है। मै तुझसे तेरी दुनिया छिन लुंगी।

'अगर तुम्हे भगवान सजा देगा,
तो वो भगवान मैं हूं।'
હવે તારું આવી બન્યું.
આ શ્યામલી, ના તને હસવા દેસે,
અને ના તને રડવા દેસે.


############
- ચાલુ