mere lafz meri kahaani - 3 in Hindi Poems by Monika kakodia books and stories PDF | मेरे लफ्ज़ मेरी कहानी - 3

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मेरे लफ्ज़ मेरी कहानी - 3

मैं एक लेखिका हूँ इस नाते ये मेरा दायित्व है कि लोगों की सोच पर पड़ी हुई गर्द को अपने अल्फ़ाज़ से साफ कर दूँ , हो सकता है ये गर्द पूरे तरीके से ना गिरे पर यक़ीनन कुछ तो साफ जरूर नज़र आएगा।
©मोनिका काकोड़िया "बेबाक शायरा"








मैं क्या,बस एक मुफ़लिस सी शायरा
मेरे पास कुछ नहीं मेरे अल्फाज़ के सिवा
✍️

रास नहीं आता मुझे इस जहाँ का महशर
अजीज है मुझको तेरे इश्क़ की ख़ामोशी
✍️
ये इल्म है मुझको तू महज़ सराब है
तुझे पाने की ख्वाहिश फिर भी नहीं मिटती
✍️
सदियाँ लगी थी हमको मरासिम बनाने में
दो पल लगे नेता को फ़ासले बढ़ाने में
✍️
अजी वाह क्या बात कहतेे हो
दावा करते हो इश्क़ का
और फिर क़ाएदे की बात भी करते हो
✍️
आज दावत में हूँ मै भी
मेरे मौहल्ले में आज पानी आया है
✍️
कमाल का था बचपन मेरा ,तितलियों से दोस्ती
और चाँद से रिश्तेदारी हुआ करती थी
✍️
लगा कर हवेलियों पर ताले ,तंग पक्के मकानों के
शहर में आ बसे मेरे गाँव वाले
✍️
जिंदगी की राह में जिसका हाथ थामा था
वो हमसफर ही मेरा जुनैद बन बैठा
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बेरुखी से वो कहता था मैं कहीं डूब मरूँगा
मैंने भी थोड़ा इतरा के कह दिया
मेरी आँखों में देखो ना
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नोंच के पर मेरे वो कहते हैं
सारा आसमाँ तुम्हारा है
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तू मेरी ज़िन्दगी ही तो था
फिर क्यों भला
मेरी ज़िन्दगी ही तू ले गया
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लगाते हो मर्दानगी की मोहर मेरे बदन पर
मेरे ही लहू की स्याही लेकर
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मेरी वक़्त से बड़ी अदावत है
जाने क्यों ये कभी मेरा नहीं होता
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कोई तो जतन हो कि बुलबुल को बचाया जाए
घुस आये हैं शहर में सय्याद बहुत से
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इन आँखों में उग आते हैं रोज ख्वाब नए
एक शक्स है जो इन्हें बंजर होने नहीं देता
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कहीं बारिश पर मुशायरे पढ़े गए और
यहां दहक़ान की दुनियां तक नहीं बाकी
✍️
जरा सी बात कहने में तुम्हारा क्या बिगडता है
तुम्हे इतना ही तो कहना है की सिर्फ़ मेरे हो
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गरीब के घर नहीं पकती चूल्हे पर रोटियां
जरा धुंआ किया और पेट भर गया
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मासूम कान्धों पर गरीबी का सितम देखो
मेरे बड़े भाई को मेरा अब्बा बना दि
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शुक्र या खुदा ये इश्क़ ख़ामोश है
जरा सा बोल पड़ता तो कोहराम हो जाता
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मुस्कुराहटें मेरी किसी की जागीर नहीं
ढूंढ ही लेती हैं ये बहाना कोई
✍️
सौ सौ तरीक़े मैंने आज़माये तुम्हे भुलानेे के
तुम हजार बहाने बना याद आ ही जाते हो
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ए वक़्त मुझे ले चल उन तंग रंगीन गलियों में
जहाँ मेरा आज़ाद बचपन रहा करता था
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अपने इश्क़ को बस तहरीर में ढाला है मैने
शोहरत का मेरा कोई इरादा तो नहीं
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कौन कहता है रहिसियत जेबों से होती है
जरा मेरी आँखें देखो जनाब,अमीरी जज़्बों में है मेरे
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ख्याल तेरा किसी गुलाबी इत्र की मानिंद
जब भी आता है महकाता है कतरा कतरा
✍️
पोशीदा ना तेरे हालात, ना जज़्बात मुझसे
इल्म है मुझे भी,किस तरहा गुज़रती हैं तन्हा रातें
✍️
पोशीदा ना तेरे हालात ना जज़्बात मुझसे
इल्म है मुझे भी,किस तरहा गुज़रती हैं तन्हा रातें
✍️
मेरे हौसलों को परवाज़ मिलेगी इक दिन
भला औकात किसकी जो मेरे पर काटे
✍️
मेरी जान को कितने तालें लगाऊं
घर में भी छुपे बैठे हैं सय्याद बहुत
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मुझेे मौसम-ए-हाल सुनाने वालों
मैं वो हूँ जो हर मौसम से डरता है
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ये तो कुछ उम्र का ही खेल है शायद वरना
बचपन तो इस मज़हब की बला से बहुत दूर था
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इश्क़ का क्या वास्ता उम्र से "जाना"
बढ़ती उम्र में भी रोज़ जवां हो रहा जैसे
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इस सहर का भी आफ़ताब कल सा ही है
कोई ओर लौ जलाओ की दिलों से अंधेरा मिट पाए
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लोग कहते हैं बड़ा फ़लसफ़ी है अंदाज़ मेरा
कौन समझाए उन्हें
ये तजरबा ए ज़िंदगी है जो झलकता है अल्फ़ाज़ों से
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देखते देखते कहीं बहुत दूर निकल गया
वक़्त को कोई पंख लगें हों जैसे
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मैं इक मुफ़लिस का बेटा हूँ
भूख और बेबसी ही मेरी हम-नफ़स हैं
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क्या फर्क पड़ता है कि मुझे क्या चाहिए
मरहबानी तेरी जो तूने बक्शा है
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तेरी चाहत ने हमें तहज़ीब सीखा दी "जाना"
सहमें हुए से बैठे हैं अब, शरारतें छोड़ कर
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सफ़ीना मेरी सोच का, समंदर का मोहताज नहीं
निकल पड़ता है बादलों की लहरों पर भी
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पथराई बूढी आंखों को आज भी इंतज़ार है
अफसर बेटे की नौकरी का
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नम आँखे, सुर्ख़ लब,बदहवास मिज़ाज,
उफ़ अजी इश्क़ के आसार नज़र आते हैं
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"माँ" देखो ना एक खज़ाना मिला है बस्ते में
अब दुनियां कदमों में होगी मेरे
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कभी गौर तो करना तहरीर पर मेरे
मेरे अल्फ़ाज़ों से मेरा चेहरा झलकता है
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बड़ी उलझन में हूँ मेरे खुदा
इस धूप में जलूं या भूख से मर जाऊं
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एक भूख ही है जिस पर काबू नहीं मेरा
बाकी हर दर्द को कदमों में रखा मैनें
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सोचती हूँ आज इसे उखाड़ ही फेंकूं
सारे फसाद की जड़ ये दिल ही है "जाना"
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समंदर से बूंद जितना, दो का सिक्का तेरे लिए
और उससे दिन भर की भूख का सौदा मेरे लिए
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बच निकली थी मैं उन दश्त के दरिंदों से
अब आ फसी शहर के इंसानी भेड़ियों में
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मेरे तसव्वुर से मेरी हक़ीकत में मुसलसल
मेरे किरदार का इख़्तिसार तुम ही हो "जाना"
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तरस आया होगा ख़ुदा को, मेरे जलते पैरों पर
तभी तो सड़क के किनारे,नए जुते मिले मुझको
✍️
तुम
तुम्हीं हो
तन्हा सुबहों से
तड़पती शामों में भी
तमाम ज़िंदगानी मेरी तुम्हीं "जाना"
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बेहतरी है इन्हें ही ख़ाक कर डालें
सियासी स्याही में लिपटे ये अखबारों के पन्ने
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इश्क़ तेरा जैसे कोई लाइलाज़ आज़ार हो गया
मेरी जान लेकर ही अब मेरी जान छोड़ेगा
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बरसों बाद तो ये इतवार आया था और
मैं आज भी तेरी यादों को ले बैठी
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पन्नों की लकीरें ही बदलेंगी
हाथों की लकीरों को
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मेरी शरारतें झाँकती अकसर, उन बंद दरवाजों से
बड़ी संजीदगी से जिन पर ताले जड़े मैंने
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बहुत हो गयी हैं इश्क़ की बातें चलो
"जाना" अब कोई फ़ायदे की बातें करतें हैं
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मैं मुफ़लिस तो हूँ मगर ,कोई दरवेश कोई फ़क़ीर नहीं
बखूबी जानता हूँ मैं, हुनर पेट भरने का
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ज़बाँ से माँ ,बहनों को बेआबरु करके
किस तरह करते हो फिर मोहज़्ज़ब की बातें
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छोड़ आएं हैं तेरे शहर को "जाना"
मुठ्ठी में तेरी गली की मिट्टी भरकर
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जिस्म बेचती हूँ की लाचार बहुत हूँ
रूह आज भी मगर बिकाऊ नहीं साहब
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ज़रा ख़ुदको तो ढूँढे,फिर
"जाना" तलाशेंगे तुमको भी
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लगा के चार चाँद ग़ैरों की खुशियों में
पाताल में छिप जाते हैं वो फ़रिश्ते शायद
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कोई नगमा सुनाओ ना कि मुझको नींद आ जाये
या यूं करो "जाना" तुम ही चले आओ
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"जाना" इश्क़ ए इम्तेहान में
मेरी जाँ पेशगी रख लो
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सूनी कलाइयों से गहने बेचती है जो
यकीनन वो "माँ" रही होगी
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वीरां इस तमाम ज़िंदगानी में
तेरा इश्क़ मिस्ल-ए-शरर "जाना"
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क्यों मुझे ये हाड़ माँस का पुतला बना दिया
बनाता कोई पत्थर,बिन भूख निवाला मिला करता
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मैं कौन हूँ ये प्रश्न अब, जब आ टिके
किसी को अबला मिले,मुझको तो दुर्गा दिखे
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हर साल चली आती हैं जैसे ये गर्मियों की छुट्टियां
इनके साथ मेरी शरारतें भी क्यों नहीं आती?????
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तुम यूँ करो आफ़ताब से चले आओ
मिटा दो तीरगी-ए-राहगुज़र "जाना"
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फूँक दो ये वरक़ अखबारों के ठोक दो ताले इसके ठेकेदारों के
ना...ख़बरें तो जरा नहीं ये सियासत छापते हैं आजकल
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अजब सी बात है "जाना"क़लम में अश्क़ भर,
सुबकियों के साथ लिखती हूँ
और लोग थकते नहीं ,वाह वाह करते
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बिटिया की क़िताबों कापियों का खर्चा हो गया पूरा
लो अब दुल्हन केे लिए दूल्हा भी ख़रीदेंगे
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हाल ग़र ये है आग़ाज़ ए इश्क़ का
अंजाम आने तक हमारा हाल क्या होगा
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सफ़र भूख से रोटी तक का मुसाफिर
ख़त्म हो तो मैं भी हकों की बात करूँ
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कहो "जाना" गुज़र रही ज़िन्दगी कैसी
बिछड़ के हमसे सता के हमको
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इक तेरी हाजत इक तेरी आरज़ू
दूजा कोई सबब ए हयात नहीं
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खाली पेट, सुलगती आंखें
अश्क़ नहीं, भूख उगलती है
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उलझा कर मेरी सुलझी जुल्फ़े
वो बढा देता है परेशानियां मेरी
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तुम यूँ करो "जाना"
अदालत लगाओ और सज़ा मुक्करर कर दो
उकता गयी हूँ मैं भी रोज़ रोज़ बयानबाजी से
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तलाश्तें हैं नई नई ख़ामियां मुझमें
मेरे अपने हर लहज़े का हिसाब रखते हैं
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मैं गरीब हूँ तो बस भूख से ही वास्ता नहीं
रोज़ इंसानियत से भी पाला पड़ता है मेरा
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हम अपने शहर के बे-नज़ीर हुआ करते थे
और इस हिज्र-रुत ने बे-तासीर बना डाला
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मुझ गरीब से आज एक सौदा कर लो
खुशियां मुबारक तुम्हें, मेरी थाल में बस रोटी रख दो
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उठा कर गुलाब की पत्ती, बेरहमी से मसल डाली
और फिर रोब से बोले, सुनो
हम दिलों का भी,बिलकुल "ऐसा ही"... हाल करते हैं
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ख़ुदा कसम मेरे लहू का रंग भी लाल है
तुम यूँ ही मुझे छूने से डरते हो
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लैला शीतल धरा,मजनूं धधकता धुँआ
अब इश्क़ किया तो तबाही तय समझो
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किसी तिफ़्ल सा ये दिल नादान बहुत है
बहल जाता है हर बार उसके बहलाने से
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लाजवाब सलीक़ा आजकल मेरे अपनों का 'जाना'
तेरा ज़िक्र करके आज़माते हैं हौसला मेरा
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ख़ामोशी से देखती चलती हूँ साये को 'जाना'
इस तरह मैं कभी तन्हा नहीं रहती
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तेरे इश्क़ की बारिश है तो सलामत हैं हम वरना
दिलों की आग ऐसी है जला के खाक कर डाले
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मेरी ज़िंदगी में रहा भी क्या इनके सिवा
मिन्नतें तेरी, रहमतें तेरी, मोहलतें तेरी
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अब आये हो तो कुछ देर तो ठहरो मेरे तसव्वुर में
तेरे आने से गुलज़ार है, मेरे दिल की जमीं
✍️
तिलिस्मी इश्क़ बहुत, जादूगरी मत पूछो
चाँद भी, महबूबे अक्स मानिंद लगता है
हाँ सच में, मुझे भी निवाला नज़र आता है
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आज इसे कैद करके,तकिये तले छिपा दूंगी
ये पूरा चाँद 'जाना' बिलकुल तेरे जैसा है
✍️
मेरी चिड़िया तू भी पैनी, अपनी नज़र कर ले
ये गिद्ध गली गली, कूचे कूचे घात लगाए हुए
✍️