Vishanti - 9 in Hindi Horror Stories by Arvind Kumar Sahu books and stories PDF | विश्रान्ति - 9

Featured Books
Categories
Share

विश्रान्ति - 9

विश्रान्ति

(‘रहस्य एक रात का’A NIGHT OF HORROR)

अरविन्द कुमार ‘साहू’

विश्रान्ति (The horror night)

(दीपू तो दुर्गा मौसी की प्रतीक्षा ही कर रहा था, दरवाजा खटकते ही बाहर निकाल आया)-9

दुर्गा पहले तो बेटे को प्यार से डाँटते हुए बोली - “अरे, चुप कर बावले ! इतनी सर्दी में किसी को प्यास भी लगती है क्या ?”

फिर धीरे से कहने लगी – “अच्छा ले ही आ, इस बार तो उस घर में किसी ने पानी तक को नहीं पूछा |”

दीपू ने कमरे में ढिबरी जला दी थी | चारों ओर हल्के उजाले में सब कुछ नजर आने लगा था | दीपू लपक कर एक गिलास में पानी ले आया |

मौसी गिलास को मुँह से लगाते ही चिहुँक पड़ी – “अरे बाप रे ! इतना ठंडा पानी कौन पियेगा ? यह तो मुँह से भी नहीं लगाया जा रहा |”

फिर अचानक रुककर चहकते हुए कहने लगी – “फिर भी कोई बात नहीं। आज तो उन ठाकुर साहब ने बिना कुछ खिलाये - पिलाये ही मेरा पेट पूरी तरह से भर दिया है। खुशियों भरी ढेरों दौलत देकर । ये देख .....।”

मौसी ने आँचल में गठरी की तरह बँधे हुए चाँदी के सिक्कों के उस बोझ को खोलकर वहीं फर्श पर उलट दिया।

खन-खन, खन-खन की मनमोहक आवाज से उनका पूरा घर में गूँज उठा था । माहौल का रहस्यमय अंदाज और इतने चाँदी के सिक्के मिलने की खुशी ने उसकी मनः स्थिति अजीब कर दी थी।

“ यह क्या मौसी ? इतने ढेर सारे चाँदी के सिक्के मिले हैं आपको ?” – दीपू को विश्वास ही नहीं पड़ रहा था |

- “ हाँ, पुराने जमींदार हैं वह लोग |”

मौसी ने सारा किस्सा बेटे के सामने दोबारा बयान कर दिया |

- “कहीं ये कोई बड़ा रहस्य तो नहीं है मौसी ?”

इतना सब कुछ देखने - सुनने के बाद भी जैसे किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि उनके साथ कभी ऐसा भी कुछ घटित हो सकता था।

कुछ देर सोचकर दुर्गा मौसी बड़े सुकून से कहने लगी – “चलो कोई बात नही। आगे फिर कभी उस गाँव की तरफ जाऊँगी तो मंगल सिंह से जरुर मिलूँगी। कुछ भी हो, वो आदमी रहस्यमय जरूर लग रहा था, लेकिन बुरा नहीं समझ आया।”

निश्चित ही दुर्गा मौसी की जुबान से उस समय हवेली से मिले हुए चाँदी के अनगिनत सिक्के बोल रहे थे।

फिर वह कुछ और सोचते हुए कहने लगी – “अरे हाँ बेटे ! जरा मेरी लोहे वाली बकसिया तो उठाकर ले आना। ये मिली हुई कीमती दौलत सम्भाल कर रख दूँ। तेरे विवाह के समय काम आ आएगी।”

- “धत्त मौसी ! तुम भी किसी भी समय ऐसा वैसा कुछ भी बोल देती हो।”

विवाह की बात सुनते ही उसके बेटे का चेहरा शर्म से लाल हो गया था। उसे भी शायद बहुत अच्छा ही लगा होगा।

लेकिन प्रकट में बकसिया लाद कर लाते हुए बोला – “मुझे अभी नहीं करना अपना इवाह – विवाह। समझी मौसी ? हाँ नइ तो।”

दुर्गा मौसी भी उसकी बात से बेसाख्ता हँस पड़ी। फिर उसे छेड़ते हुए बोली – “हाँ हाँ, मैं भी खूब समझती हूँ तेरे मन की बातें। प्रकट में तो ना – नुकर करता है लेकिन विवाह की बात से ही तेरे मन में लड्डू फूटने लगते हैं। जल्दी ही देखती हूँ तेरे लिये कोई सुंदर सी लड़की |”

कहना न होगा कि इस घड़ी उनके घर का माहौल काफी खुशनुमा हो गया था।

बहरहाल, दुर्गा मौसी ने आज के मेहनताने अथवा उपहार में मिले सारे चाँदी के सिक्के जल्दी से बिना गिने ही, लेकिन ठीक तरह से संभाल कर अपने लोहे वाले मजबूत बक्से में रख दिए और उसमें पीतल वाला अपना पुराना ताला फिर से जड़ दिया।

लोहे के इस मजबूत ताले की इकलौती चाभी वह हमेशा अपने साथ ही रखती थी। यह चाबी उसके गले में ही बँधे रहने वाले एक मजबूत काले धागे से लटकी रहती थी। इस कारण उसकी वह चाभी कहीं खोने या चोरी होने की आशंका नहीं रहती थी।

नहाते - धोते, खाते - पीते, आते - जाते और सोते - जागते हर समय उसकी यह चाभी हमेशा उसके गले में ही लटकी रहती थी। कोई परिंदा भी उसकी मर्जी के बिना बक्से के भीतर रखे सामान में पर नहीं मार सकता था। उसका ये इकलौता बेटा दीपू भी नहीं |

कोई बाहरी व्यक्ति तो बड़े दूर की बात थी। क्योंकि कोई अन्य कभी दुर्गा मौसी की इस चाभी की दिन में भी एक झलक तक नहीं पा सकता था | चाभी कहाँ है ? सचमुच में कहीं है भी या नहीं ? कुछ नहीं जान सकता था |

दिन हो या रात, वो हमेशा अपने गले में लटकी उस चाभी को अपनी कुर्ती के भीतर ही छुपाए रखती थी।

बहरहाल, सब कुछ सुरक्षित कर देने के बाद दुर्गा मौसी वापस अपनी रज़ाई में घुस कर सुकून की नींद सो गयी। सारी शंकायें और आशंकायें उस थकान वाली गहरी नींद में कुछ यूँ गायब हो गयी थी, जैसे कभी कुछ ऐसा – वैसा हुआ ही न हो।

फिर रात गयी तो बात भी खत्म हो गयी।

नई सुबह हुई | नये मरीज आने लगे | नए कामों में व्यस्तताएँ बढ़ी और पिछली रात की सारी बातें आयी गई हो गई। लेकिन असली कहानी तो अभी बाकी ही थी।

*****

यह संयोग ही था कि अगले दो दिन बाद ही दुर्गा मौसी को पूरब नयन के पास वाले गाँव के डीह से बुलावा आ गया।

वहाँ भी प्रसव का ही एक मामला था |

सो, वह पुनः तैयार होकर एक नए आगंतुक की बैलगाड़ी में बैठकर एक नए मरीज को देखने के लिए फिर उसी ओर चल पड़ी।

डीह गाँव का रास्ता भी उसी पूरब नायन गाँव के बगल से ही होकर जाता था | जिस रास्ते दो दिन पहले की ठंड और कुहरे भरी रात में दुर्गा मौसी ने सफर किया था, इसी रास्ते पर पूरब नायन के नजदीक पहुँचकर थोड़ा पहले ही दुराहे से दूसरे रास्ते पर मुड़ जाना था।

आज के सफर की एक अच्छी बात थी कि दिन का मामला था | सुबह का समय था, .....और उस रात की तरह घने घुप्प कुहरे का कहीं अता - पता तक नहीं था।

अच्छी ख़ासी गुलाबी रंगत वाली खिली – खिली सी धूप चारों ओर निखरी हुई थी, जो इस ठंड के महीने में बड़ी प्यारी लग रही थी। रास्ते के दोनों ओर खेतों में हरी भरी फसलें लहरा रही थी | किनारे की मेड़ों और खाली जगहों पर जहाँ – तहाँ सुंदर और रंग बिरंगे फूल खिले हुए थे।

हरी घास का गलीचा कुछ ज्यादा ही फूला हुआ दिख रहा था। कुल मिलाकर मौसम बड़ा ही सुहावना हो रहा था। दुर्गा मौसी मन ही मन मस्ती में कोई लोकगीत गुनगुनाती हुई जा रही थी। फिर वह गीत धीरे – धीरे गले से निकलकर जुबान तक आया और फिर आस - पास के रास्ते पर भी गूंजने लगा था ।

ये वह उन दिनों का बड़ा ही चर्चित भोजपुरिया लोकगीत था – “तनी ललकार के बैला हाँका, ओ रे बाँके गाड़ीवान ......।”

उसकी मधुर स्वर लहरी बैलगाड़ी के चालक को भी बड़ी कर्णप्रिय लग रही थी। उन दिनों किसी फिल्म में भी वह गीत बैलगाड़ी में ही सफर कर रहे नायक – नायिका पर फिल्माया गया था। जिससे बैलगाड़ी से सफर करने वालों के बीच उस गीत की विशेष धाक जम गयी थी |

वैसे तो इस बैलगाड़ी के चालक या दुर्गा मौसी ने इस फिल्म को कभी नहीं देखा था | लेकिन यह लोकप्रिय गीत गाँवों के हर उत्सव में लाउड-स्पीकरों पर इतनी तेज बजा करता था कि चाहे – अनचाहे ही बहुतों को सिर्फ सुन – सुन कर ही याद हो गया था।

गीत गाते – गाते थोड़ी देर बाद जब दुर्गा मौसी थोड़ा सुस्ताने के लिए चुप हो गई तो चालक से रहा न गया।

वह मौसी को उत्साहित करते हुए बोला – “गाती चलो मौसी, यह गाना सुनने में बड़ा अच्छा लग रहा है। तुम्हारे कंठ में तो मानो सरस्वती ही बसी हुई हैं ।”

- “लेकिन मैं तुम्हें सुनाने के लिए थोड़े ही गा रही हूँ, जो गाती ही जाऊँ,….गाती ही जाऊँ। भला तुम्हारे कहने से और क्यों गाऊँ ?”

मौसी ने मानो नखरे दिखाये। मन में तो वह भी अपने गाने की तारीफ सुनकर बड़ी खुश हो रही थी।

- “वह इसलिए मौसी ! ताकि ये रास्ता और जल्दी कट जाए।”

चालक ने अपना मंतव्य जताया तो मौसी सहमति में सिर हिलाते हुए फिर गाने लगी। उन्हें डीह गाँव पहुँचते – पहुँचते दो - ढाई घंटे से भी ज्यादा लग गये। अब तक धूप सिर पर चढ़ने लगी थी।

एक तो कच्चा रास्ता, ऊपर से यहाँ – वहाँ पड़ने वाले नाली – नाले के कच्चे – पक्के पुल। उन्हें पार करके या लाँघ – फाँदकर मंजिल तक पहुँचने में समय तो लगना ही था।

सुबह की धूप खिलने पर घर से चली मौसी को वहाँ पहुँचते – पहुँचते दोपहर होने को आ गई थी। पूरबनायन गाँव भी यहीं पास में ही था।

अचानक दुर्गा मौसी को ध्यान आया कि कई दिनों पहले जब वह कुहरे वाली ठंडी रात में पूरब नायन गाँव आई थी, तो बहुत जल्दी ही पहुँच गयी थी। फिर आज दिन में इतनी देर कैसे लग रही है ?

फिर कुछ सोचकर शायद खुद को ही तसल्ली सी देने लगी कि उसको ही रात में कुछ भ्रम जैसा हो गया था। इस समय मौसी खुद से सवाल करके खुद को ही समझा ले गई |

बहरहाल, चूँकि हर बार दुर्गा मौसी अपने कर्तव्य को ही प्राथमिकता देती थी। सो, पहले सीधे अपने मरीज के पास ही गई। मरीज की ठीक ढंग से खैर - खबर लेते हुए उसका दवा इलाज किया।

थोड़ी देर तक रुक कर इलाज का असर देखा। जब मरीज को अपेक्षित आराम मिल गया तो परिजनों को आगे की दवाएँ व कुछ नसीहतें देकर वह वापस लौटने लगी।

रास्ते में जैसे ही उसकी बैलगाड़ी दोबारा पूरब नायन गाँव के पास पहुँची तो उसने फिर सोचा – “क्यों न अब लौटते हुए मंगल सिंह से भी मिलती चलूँ ? उसकी बहू का भी हाल – चाल ले लूँ | आखिर मंगल सिंह यहाँ का पुराना जमींदार और बड़ा आदमी है। हो सकता है शहर को वापस न गया हो ?”

दुर्गा मौसी भले ही मंगल सिंह से उस रात के पहले कभी नहीं मिली थी, किन्तु जिस तरह अचानक ही कड़ाके की ठंड में अत्यंत कष्टदाई कुहरे भरी रात का सफर करके उन्होने उसकी बहू का प्रसव कराया था, उससे निश्चित रूप से मंगल सिंह बहुत ही खुश हुआ था।

... और उसको उपहार में मिले अनपेक्षित और अनगिनत चाँदी के सिक्के इस बात का प्रमाण थे |

वह हवेली वाला ठाकुर उसके काम से न सिर्फ बहुत ही खुश हुआ था, बल्कि बहुत ही ज्यादा प्रभावित भी हुआ था। अन्यथा उपहार में इतने ढेर सारे चाँदी के सिक्के तो वह बिलकुल भी न देता। ऐसे दरियादिल लोग कम ही मिलते है। अतः ऐसे लोगों से व्यवहार बनाए रखने में कोई बुराई नहीं भी नहीं थी |

.....और अच्छा व्यवहार तो अच्छे काम के साथ साथ बार – बार मिलने - जुलने से ही बनता है।

निश्चय ही दुर्गा मौसी को देखकर मंगल सिंह को अच्छा ही लगेगा। वैसे भी इस ओर मौसी का आना अधिक दूरी की वजह से कम ही होता था। उस पर मंगल सिंह के गाँव में तो वह शायद ही पहले कभी गई हो। उसने तो उस रात से पहले ठाकुर मंगल सिंह का नाम भी नहीं सुना था।

बहरहाल, डीह गाँव का काम निपटा कर जब दुर्गा मौसी लौटने लगी तो उसने मंगल सिंह से मिलने का पक्का निश्चय कर लिया था । सो, उसने रास्ते में साथ चल रहे बैलगाड़ी के चालक से पूछा – “क्या तुम पूरब नायन गाँव के ठाकुर मंगल सिंह और उनके बेटे – बहू के बारे में जानते हो ? काफी बड़े आदमी हैं। यहाँ के पुराने जमींदार भी हैं |”

बैलगाड़ी वाले ने आश्चर्य से कहा - “कौन जमींदार ? किसकी बात कर रही हो मौसी ? यहाँ तो मंगल सिंह नाम का कोई भी व्यक्ति वर्षों से नहीं रहता।”

मौसी ने फिर कहा – “अरे ऐसा कैसे हो सकता है ? तुम पड़ोसी गाँव के रहने वाले हो और उन बड़ी हवेली वाले लोगों को जानते तक नहीं ?”

बैलगाड़ी वाले का दिमाग घूम गया | कहने लगा – “यहाँ तो कोई इतनी बड़ी हवेली भी मैंने कभी नहीं देखी। आपने कहीं यह नाम और हवेली की बात किसी किस्से कहानी में तो नहीं सुन लिया ?”

मौसी चकरा कर बोली – “अरे भइया, मैंने किसी से सुना नहीं, खुद अपनी आँखों से देखा है। कई दिन पहले मैं खुद रात में यहाँ आयी थी। उनकी बहू का प्रसव कराने। समझे ?”

बैलगाड़ी का चालक झल्लाकर बोला – “अरे मौसी, आपने रात में कोई सपना देखा होगा या फिर आप मुझे कोई पहेली बुझा रही हैं।”

“नहीं भैया ! मैं सही कह रही हूँ |” – मौसी भी अपनी जिद पर अड़ गयी थी |

अब बैलगाड़ी वाला बहुत देर तक और बार – बार अपने दिमाग पर ज़ोर डालते हुए कुछ याद करने की कोशिश करता रहा।

फिर काफी देर बाद बड़ा सोच विचार कर बोला – “कहीं आप उस पचास साल पुरानी खंडहर हो चुकी हवेली वाले अंग्रेजों के जमाने के जमींदार मंगल सिंह की बात तो नहीं कर रही हैं?”

“हाँ...हाँ..., उन्हीं की बात कर रही हूँ। भला और कौन सा मंगल सिंह हो सकता है इस गाँव में ? लेकिन ये अंग्रेजों के जमाने की नहीं सिर्फ दो दिन पहले की बात है |” – मौसी चहकते हुए बोली।

फिर आगे कहने लगी – “... और हाँ उनकी हवेली अभी तक खंडहर नहीं हुई, बल्कि चाक चौबन्द है। हाँ, इतना जरूर मुझे लगा कि शायद काफी समय से उसकी रंगाई पुताई नहीं हुई होगी। रंग – रोगन कुछ फीका – फीका सा लग रहा था ।....या शायद रात की वजह से मुझे ऐसा लगा हो, क्योंकि दिन में कभी देखने का मौका ही नहीं मिला।”

मौसी के बात पूरा करते ही बैलगाड़ी एक झटके से वहीं ‘चर्र...चूँssss’ करते हुए ठीक उसी तरह रुक गई, जैसे उस कोहरे भरी रात में उस रहस्यमय युवक से कुछ सवाल पूछते ही रुक गयी थी।

लेकिन इस बार तो मौसी के साथ वाले इस नए चालक ने भी बैलगाड़ी को ठीक उसी प्रकार रोक दिया था। भला ऐसा क्यों हुआ ? मौसी सोच रही थी कि इन सभी घटनाओं में यह अनोखा साम्य कैसा था ?

क्या बैलगाड़ी किसी अदृश्य शक्ति की प्रेरणा से आगे नहीं बढ़ना चाहती थी ?

क्या वह अदृश्य शक्ति आज उसी जगह पर मौसी की सारी जिज्ञासाओं का खुलासा कर देना चाहती थी ?

बहरहाल, जो भी हो | इस नई बैलगाड़ी का वह चालक मौसी से भी ज्यादा भ्रमित होता जा रहा था | उनसे भी ज्यादा आश्चर्यपूर्वक मौसी को घूरे जा रहा था |

– “अरे मौसी, इस गाँव में ऐसा मंगल सिंह तो सिर्फ वही एक था, अगर मैं ठीक समझ रहा हूँ .....तो ?”

– “अरे था....? का क्या मतलब ? क्या वह अब जिन्दा नहीं हैं। अरे दो दिन पहले ही तो उनसे मेरी मुलाक़ात हुई थी।”

– “अरे बाप रे !”

बैलगाड़ी का चालक किसी अनजाने भय से मानो काँप उठा।

फिर फँसे – फँसे गले से बोला – “मौसी ! अगर यह उन्हीं मंगल सिंह की बात हो रही है, तो तुम यूँ समझो कि उन्हें तो मरे हुए करीब चालीस साल से ज्यादा बीत चुके हैं। तब तो शायद आप ब्याहकर अपनी ससुराल नायन गाँव में भी नहीं आई रही होंगी। अरे नहीं नहीं, मुझे तो लगता है आप तब तक तो पैदा भी नही हुई रही होंगी |”

- “अरे ! ऐसा कैसे हो सकता है ?” दुर्गा मौसी के माथे पार बल पड़ गये |

- “हाँ मौसी ! मैं भी उस समय बस दो – चार साल का ही रहा होऊँगा। हालाँकि आज भी इस गाँव में मंगल सिंह की कभी कभार चर्चा सुनाई पड़ ही जाती है। लेकिन उनकी किसी अच्छी खासियत से नहीं, बल्कि उनके भूतहे किस्से के कारण।”

“भुतहा किस्सा ? भला वह क्या है...?” - दुर्गा मौसी जैसे आसमान से गिरी थी ।

- “हाँ मौसी ! लोग कहते हैं कि उनका भूत अब भी कभी - कभी रात-बि-रात हवेली के आस - पास ही दिख जाता है। एक लालटेन सी लिए हुए | लोगों को हवेली के भीतर आने का इशारा करता रहता है |”

- “अरे बाप रे |”

- “ हाँ मौसी ! इसीलिए यहाँ के लोग तो अब दिन में भी उस हवेली वाले खंडहर के आस - पास फटकने से डरते हैं। जबकि आप कहती हैं कि.........?”

उसकी आगे की बात उसके गले में ही अटक गई थी।

दुर्गा मौसी को अब भी विश्वास नहीं हो रहा था इस बात पर।

वो किसी तरह डरते – डरते फिर बोली - “लेकिन मैंने तो रात में उनकी बहू का प्रसव भी कराया था। उनका एक बेटा भी था वहाँ। वही मुझे घर से बुलाने और फिर वापस भी छोड़ने गया था। आखिर वे सब कौन थे ?”

*****