Migrating to homeland from Mumbai in Hindi Classic Stories by r k lal books and stories PDF | मुंबई से घर वापसी

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मुंबई से घर वापसी

मुंबई से घर वापसी

आर ० के ० लाल

सरजू ने शाम को ही सबको सूचित कर दिया था कि सुबह ठीक तीन बजे सभी को निकलना है। मुंबई के जुहू इलाके की गलियों में रहने वाले कई परिवार अपने गांव जाने को तैयार हुए थे। हर परिवार में पाँच से आठ व्यक्ति थे जिनमें छोटे बच्चों से लेकर बूढ़े और गर्भवती महिलाएं भी थी। जबसे कोरोना का संकट आया और देश में लॉक डाउन हुआ, इन लोगों का सारा धंधा चौपट हो गया था। अब जुहू बीच पर भेल-पूरी की दुकान नहीं लगती थी, दूध - सब्जी या सड़क की पटरी पर बड़ा- पाव बेचने का काम सब बंद हो गया था। सारे उद्योग बंद थे। यहां बिहार, यूपी से आए ज्यादातर लोग काम करते थे या फिर रेहड़ी-पटरी पर अपना छोटा-मोटा रोजगार चलाते थे। एक बड़ी संख्या ऑटो चालकों की भी थी। लॉकडाउन से इन सबके सामने भुखमरी की समस्या पैदा हो चुकी है। जब कहीं कुछ उधार मिला तो ये लोग अपना समान बेंचना शुरू कर दिये। कोरोना भी तेजी से बढ़ रहा था, आए दिन कोई न कोई मरने लगा। बाहर निकालने में डर लगता था। जब कनस्तर में एक छटांक भी जिंस नहीं बची तो लोग अपने वतन के लिए पलायन कर रहे थे। सरकार लाख कह रही थी कि जो जहां है वहीं रहे, उसकी पूरी मदद की जाएगी, मगर इन स्लोगनों का कोई विश्वास नहीं कर रहा था। एक कमरे में कई लोग रहते थे इसलिए सोसल डिस्टेन्सिंग संभव नहीं था इस प्रकार कोरोना से मरना निश्चित लग रहा था। पलायन करने में एक आशा की किरण दिखाई दे रही थी, सोचते थे कि एक बार अपने गाँव पहुँच जाएंगे तो अपने हमारी मदद करेंगे ही।

कई दिनों से सरजू के कुनबे वाले भी अपने सामान पैक कर रहे थे। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या ले चला जाय और क्या नहीं। यह भी नहीं पता कि दुबारा कब यहाँ आना होगा। सभी टी वी, फ्रिज, चूल्हा, साइकिल, बाइक और ढेरों समान औने- पौने दाम पर बेंच रहे थे। रास्ते के लिए कुछ पैसे तो रहने चाहिए। वैसे तो वे पैदल जाने को तैयार थे मगर कोई बस या गाड़ी मिल जाएगी तो उसका किराया भी तो देना पड़ेगा। सरजू को याद आया कि वह लगभग पैंतीस साल पहले अपने बप्पा बच्चू के साथ यहां आया था। गांव में बच्चू की बड़ी इज्जत थी। उस समय मुंबई जाना कोई आसान काम नहीं था। जब भी बच्चू मुंबई से गांव जाते तो सीना तान कर चलते। मुंबई से लाये परफ्यूम लगवाने के लिए रोज भीड़ लग जाती थी। एक बार सरजू की मम्मी भी बच्चू से मुंबई देखने की जिद करके मुंबई आ गयी थी। वे मीना कुमारी का दीदार करना चाहती थी। बच्चू ने सोचा था कि बस पंद्रह दिन बाद उसे वापस भेज देंगे। मगर कुछ ऐसा हुआ कि उसकी मम्मी वहीं रहने लगी। कुछ दिनों बाद उसके एक बेटी भी हुई। उसी के लालन-पालन में वह फिर गांव नहीं जा सकी। जब बेटी दस साल की हुई तो एक दिन वह न जाने कहां लापता हो गई। बप्पा और मम्मी महीनों उसको ढूंढते रहे। मगर मानो जैसे मुंबई उसे निकल ही गई, आज तक उसका पता नहीं चला। उधर गांव न जाने के कारण ठाकुर साहब ने अधिया पर दी गयी जमीन वापस ले लिया था। उसके चचेरे भाई अभी भी गांव में रह कर खेती करते हैं। उन्होंने धीरे-धीरे सरकारी सहायता लेकर अपना एक अच्छा मकान, एक कुआं और शौचालय भी बनवा लिया था।

सरजू का बप्पा जब मुंबई आया था तो जुहू के पास विश्वविद्यालय की बिल्डिंग बन रही थी। उसी में वह सुपरवाइजर की तरह मजदूरों की सप्लाई करता था। जब सरजू बड़ा हुआ तो उसको भी सोफा बनाने का काम सिखा दिया था। वह बहुत मेहनत करता मगर अपने चचेरे भाइयों की तरह अमीर नहीं बन सका था। आज मुंबई छोडते समय सब कुछ याद आ रहा था। अपनी पूरी जिंदगी दांव पर लगा दी थी मुंबई को रफ्तार देने में मगर आज उसकी स्वयं की जिंदगी थम सी गई थी। कोई मुंबई वाला इनकी मदद को तैयार नहीं था । वह मुंबई से जाना नहीं चाहता था मगर बंदी के कारण खाने को कुछ नहीं बचा था। इतनी घनी बस्ती में नेता लोग भी नहीं आ रहे थे। लोग टीवी पर देख कर संतोष कर रहे थे कि शायद मदद मिल जाए।

चलने से पहले बच्चू कमरों के किराए देने सेठ के यहां पहुंचा और कहा, “बाबूजी हम अपने वतन को जा रहे हैं। अगर जीवन रहा तो फिर आएंगे आपकी सेवा में। अभी हमने अपने सामान बेंच कर थोड़े से पैसे इकट्ठे किए हैं, आप अपने किराए का पैसा ले लीजिए”। सेठ ने कहा, “नहीं, मुझे पैसे की जरूरत नहीं है। तुम लोग फिर से जब आओगे तब पैसे देना। अभी तुम अपने पास ही रख लो। रास्ते में तुम्हारे काम आएंगे”। बच्चू की आंखों में आंसू आ गए उसने कहा, “आपने हमें इतने दिन तक सहारा दिया है, हम ऐसे कैसे जा सकते हैं, कुछ तो आपको लेना ही पड़ेगा”। सेठ अच्छा आदमी था उसने कोई किराया नहीं लिया। आज उनका साथ छूट रहा है जो बरसों से एक साथ थे। सरजू को गाना याद आ गया “चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देश हुआ बेगाना” ।

सरजू सबको ले कर अपनी खोली से निकला और बस अड्डे पहुंचा परंतु उन्हें वहां पर निराशा हाथ लगी क्योंकि कोई भी बस कहीं नहीं जा रही थी। यह जानते हुए भी कि सफर में तमाम मुश्किलें आएंगी, सब यह सोचकर पैदल ही चल पड़े कि घर पहुंचकर सब ठीक हो जाएगा। मन में एक विश्वास था कि अब गाँव लौट कर खेती मजदूरी करेंगे।

उनमें से कुछ लोगों के पास साइकिले थी जिन पर सामान लदा था । करीब करीब सभी लोगों के सिर पर एक एक गठरी थी। संजू की मां की गोद में दो साल का बच्चा था और राम भरोसे के हाथ में एक छड़ी थी। सभी के पास एक अंगोछा और मास्क था। इन लोगों ने चाल छोड़ने से पहले ढेर सारी रोटियां और उबले हुए आलू, अंडे, बिस्कुट कुछ पैक्ड फ्रूट-जूस और पानी की ढेर सारी बोतलें रख ली थीं ताकि दो-तीन दिन तक काम चल सके। कई दिनों तक सभी लोग रात दिन चलते रहे। जब थक जाते तो किसी पेड़ के नीचे बैठ जाते। थोड़ा पानी पीते फिर मोबाइल से गाना सुनते आगे बढ़ जाते। जहां इनको आशंका होती कि पुलिस वाले आगे नहीं जाने देंगे तो ये लोग जंगल के रास्ते से अथवा रेलवे ट्रैक के रास्ते से आगे बढ़ते। कभी रेलवे की पटरियों के सहारे तो कभी हाई-वे से चलकर कल्याण, इंगतपुरी, नासिक रोड, मनमाड़ होते हुये चालीसगांव तक पहुँच गए थे। तेज धूप, तपती धरती पर इतनी दूरी तय करते हुए सभी काफी थक गए थे। सिर से पसीना तेजी से बह रहा था। मगर घर तक पहुंचने की आस से उनके हौसले बुलंद थे ।

रास्ते में पैदल चलते हुए दूसरे काफी लोग नजर आए जो अपने वतन को लौट रहे थे। सबकी एक ही कहानी थी। एक महिला ने दो माह के बच्चे को गोद में लिए सिर पर सामान रखे पैदल चल रही थी। वह बुरी तरह से थक चुकी थी, उसके पैर से खून बह रहा था। कुछ बुजुर्ग डंडा लिए पैदल चले जा रहे थे। एक पैर का चप्पल टूट चुका था। कई बार रुक कर अपने पैर के छालों को सहलाते। कुछ टेम्पो में भी ठूसे हुये जा रहे थे। उनमें बच्चे, बूढ़े सभी थे। बच्चों की हालत देखकर कोई भी विचलित हो सकता था, लगता था कि बहुत देर से उन्हें पानी न मिला हो। कई जगह रास्ते में तेज आंधी-पानी का सामना भी हुआ। एक जत्था दूसरे से मिल कर आपस में हाल – चाल पूछते , कोई मदद कि जरूरत होती तो सहर्ष कर देते , फिर चल पड़ते, मिलन का अद्भुत का नजारा होता। उनका सिर्फ एक ही मकसद था कि किसी तरह अपने घर पहुंच जाए।

रास्ते में दुकानें और ढाबे सब बंद थे। थक जाने के कारण इंतजार था कि कोई ट्रक या बस मिल जाती तो उनका रास्ता आसान हो जाता। संयोग से एक पेट्रोल टंकी पर ट्रक मिल ही गया। कुल बीस लोग थे इसलिए बीस हज़ार रुपये में बात बन गई। लोगों ने पाँच- पाँच सौ रुपये में अपनी साइकिले बेंच दी। किसी को पत्नी के गहने बेचने पड़े। बच्चों के पैसे उसने नहीं लिए। सब ट्रक में बैठ गए और ट्रक वाले ने ऊपर से त्रिपाल लगा दिया था जिससे कोई देख न पाए। सब भूखे प्यासे उसके अंदर बैठे थे बच्चों तक के हलक सूख गए थे। सुबह ट्रक वाले ने इन सभी को सतना के बाहर ही उतार दिया। करीब तीन सौ किलोमीटर का रास्ता अभी भी बचा था।

सतना के पास मैहर माता का मंदिर बंद था इसलिए लोग वहां पास तालाब के पास गए और नहा धोकर तरोताजा हुये। आगे बढ़े तो देखा कि मैहर स्टेशन के पास कुछ लोग खाना बांट रहे थे। सब लोग लाइन में लग गए और खाना खाया। किसी ने बताया कि पुलिस वाले आगे नहीं जाने दे रहे हैं तो ये लोग जंगल की तरफ से आगे बढ़े फिर हाई वे पर आ गए। छुपते छुपाते ये लोग रीवाँ तक पहुंच गए। फिर इन्हें एक ट्रक मिला जिसने घूरपुर तक पहुंचा दिया। यहाँ से सब अपने अपने जिले की ओर विदा हो लिए। सरजू के परिवार को मिर्ज़ापुर की ओर जाना था। अब आगे का रास्ता इन्हें पैदल ही पार करना था मगर उस दिन पुलिस वालों ने इन सब को रोककर कोरेनटाइन सेंटर में भेज दिया। सभी की स्क्रीनिंग की गई। ईश्वर का बहुत शुक्र था कि किसी को भी कोई बीमारी नहीं निकली। इन्हें अपने गांव में चौदह दिन तक कोरेनटाइन में रहने का निर्देश दिया गया।

गांव के बाहर पहुंचकर सभी लोग झूम उठे, उन्हें लगा कि किसी ने उनके शरीर में नए प्राण फूंक दिए हों । सारी थकान दूर हो गई थी। सब बात कर रहे थे कि यहां पर तो एक महुए का पेड़ था वह कहां चला गया। बच्चू ने सब को बताया कि इसी मेड़ पर बैठकर हम लोग नौटंकी का आनंद लेते थे। इन लोगों ने अपने आने की खबर घर भेज दी थी। घर पहुंचे तो कोरोना के दर से चाचा-चाची ने उन्हें अंदर नहीं घुसने दिया और दरवाजा बंद कर दिया। कहा, “आप लोग प्राईमरी स्कूल में चले जाइए, जहां पर आप सभी की व्यवस्था है। वहीं पर सब लोगों को चौदह दिन रहना है”। हालांकि सभी ने पहले ही टेस्ट करा रखा था और सभी जगह सूचना दे रखी थी। किसी को कोरोना के लक्षण नहीं थे।

सरजू कहता है, “इतनी कठिनाइयों से पहुँचने के बावजूद भी हमारा इस प्रकार स्वागत हमारे लिए असहनीय है, मगर हम लाचार हैं। क्या यह अपना वाला ही गाँव है? क्वारंटाइन पूरा करने के बाद भी गाँव वाले हम लोगों से डरे हैं, ठीक से बात नहीं करते। हाँ! कुछ लोगों ने हमारे लिए एक पेड़ के नीचे एक मढ़ैया तैयार करवा कर उसमें सारी व्यवस्थाएं कर दी हैं”।

बच्चू ने सबको समझाया, “धीरे धीरे सब सामान्य हो जाएगा”।

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