Acid Attack - 3 in Hindi Thriller by dilip kumar books and stories PDF | एसिड अटैक - 3

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एसिड अटैक - 3

एसिड अटैक

(3)

उसके बाद उसने बाहर आकर बेमन से सिगरेट सुलगा ली थी। शांत का जेहन अचानक बेचैन हो उठा था। पीछे से देवधर रोते-बिलखते शांत के पास पहुंचे, और सेलेना के जन्म से लेकर इस हादसे के बाद की परिस्थितियों तक की अपनी पूरी राम कहानी बिलख-बिलख कर बताने लगे। अनमने भाव से शांत ने चेहरा पीछे घुमाया तो दरवाजे पर चाय लिये खड़ी महराजिन भी रो रही थीं। मिनटों में ही दृश्य बदल चुका था। दोनों का रूदन तेज हो चला था। महराजिन पछाडे़ खाकर रोने लगीं, देवधर भी बार-बार अपनी छाती पीट कर रो रहे थे। ऐसा हृदय विदारक नजारा था कि मानो मृत्यु स्वयं विलाप कर रही हो। शांत दहल गया। उसे इस बात से अचम्भा भी हुआ कि एक गैर औरत जिसकी हैसियत नौकरानी जैसी थी, उसे सेलेना से इतना लगाव आखिर क्योंकार था। रिश्तों का ऐसा निश्छल स्वरूप उसने पहले कभी नहीं देखा था। रोते-रोते देवधर के आंख और नाक के द्रव एकाकार हो चले थे। हैरत में पडे़ शांत की हिम्मत न हुई कि वो उन दो निरीह प्राणियों की हिम्मत बंधा सकें। काफी देर बाद, देवधर को संयत होते देखकर शांत ने अपने मन के चोर को जुबान पर आने की इजाजत दे दी। आखिर वो यहां इसी खास मकसद की खातिर ही तो आया था। उसने डरते-डरते वो यक्ष-प्रश्न पूछ ही डाला ‘‘आपने पुलिस में रिपोर्ट नहीं की। कुछ पता चला कौन था वो, जिसने ऐसा किया’’। देवधर फिर बिलखने लगे और अपने दुखों, विपिŸायों की राम कहानी में उलझ गये। उनकी आंखों से आंसू तो बह ही रहे थे, मगर काफी देर तक रोने के कारण उनके गले से आवाज भी नहीं निकल पा रही थी। इस सारे रूदन क्रन्दन के बीच शांत पते की इतनी बात पता लगा ले गया था, कि उन लोगों का फोकस अपराधी को सजा दिलाना नहीं बल्कि जीवित बच गयी सेलेना को जीने के लायक बनाना था। यानी ‘‘नो पुलिस’’ धीरे से बुदबुदाया शांत। ऐसा नहीं था कि उन लोगों ने थाने में तहरीर नहीं दी थी। मगर सेलेना की हालत इतनी ज्यादा बुरी थी कि उन लोगों ने मुकदमें की पैरवी करने के बजाय बची खुची सेलेना का इलाज कराना ज्यादा जरूरी समझा था। चूंकि तहरीर देवधर ने दी थी और उन्हें अपने दुखों से फुर्सत ही न थी। इसीलिए वे पैरवी के लिए जा नहीं पाये और थाने वाले दुबारा आये ही नहीं। रिपोर्ट नामजद नहीं थी, इसलिए पुलिस ने मामूली जांच-पड़ताल करके फाइनल लगा दिया था। देवधर से ही शांत ने जाना कि सेलेना की एक आंख जाती रही थी। उसे यहा भी पता लगा था कि सेलेना की आंख बीकर के द्रव से नहीं बल्कि कांच के टुकडे़ लगने से फूटी थी। आक्रामक योद्धा ने स्वयं को शाबासी दी। ‘‘किला फतेह’’। देवधर और महराजिन के विलाप से आजिज शांत ने वहां से निकल चलना ही उचित समझा। चलते-चलते उसने चारा डालने के अंदाज में कहा ‘‘मेरे लायक कोई रूपये पैसे की मदद हो तो बेझिझक बता दीजिएगा। मुझे अपना ही समझियेगा और हाँ, सेलेना से बता दीजिएगा कि मैं ट्रेकिंग पर गया हुआ था। कल जब मैं घर लौटा तो मुझे इस हादसे के बारे में पता चला, सो आज मिलने चला आया। घबराइये मत, मैं फिर आऊंगा’’। देवधर ने हमदर्दी के दो बोल सुने तो अपना विलाप और भी तेज कर दिया। महराजिन ने बड़ी ही तत्परता से उनका अनुसरण किया। शांत तुरन्त लौट पड़ा। शांत लौट तो आया था मगर हल्दी में वो कुछ छोड़ भी आया था। वो ‘‘कुछ’’ क्या था। शायद संभावनायें, कैसी उम्मीदें थीं वो, पता नहीं। शांत जब हल्दी से चला था तब उसके मन में विजय का भाव था, सिर्फ और सिर्फ विजित होने की सन्तुष्टि थी इसके सिवा कुछ नहीं। या इसके अलावा कुछ और भी मनोभावों को अनजाने में वो अपने साथ लिए आया था। आखिर क्या थीं वो भावनायें। विजय के बाद कौन का भाव होता है, उसी की तलाश में व्यग्र हो उठा वो आक्रामक योद्धा। गाहे-बगाहे की व्याग्रता ने निरन्तर बेचैनी का जामा पहना। पता नहीं क्यों, शांत को किसी गम का अन्देशा सा हो रहा था। शायद आने वाले दिनों में उसके मनोभाव किसी स्पष्टता की परिणित ले पाते। मगर तब तक का धैर्य, उस आक्रामक, योद्धा खिलाड़ी में कहाँ था। उस स्पष्टता की तलाश में वो स्वयं निकल पड़ा। यूं व्यग्र, बेचैन वो यहां-वहां फिरता, किसी की न सुनता, खुद से सवाल करता, खुद ही जवाब देता, जवाबों की लिस्ट तैयार करता मगर सवाल अक्सर मुस्करा कर खामोश हो जाते थे। अब वो सवाल कहां से लाये। शायद वो सवालों को ही ढूंढ़ रहा था, जो उसे ढूंढ़े से भी नहीं मिल रहे थे। बस, शायद यही गम उसे खाये जा रहा था नतीजतन कभी कभार पीने वाला शांत प्रतिदिन पीने लगा। जवाब इकट्ठा करते करते वो थक चुका था। जवाब जब जरूरत से ज्यादा इकट्ठे हो गये तो उस योद्धा को झंझोड़ने लगे। विजयी मनोभाव चीत्कार उठे ‘‘शांत, सब कुछ तो विजित कर चुके हो तुम। जो कुछ तुमने चाहा वही सब किया और वैसा ही हुआ भी जैसा तुम चाहते थे। तुम्हारा बाल भी बांका होने से रहा। सेलेना कहीं की न रही, अब क्या फिक्र है तुझे। छोड़ उस जली कटी को उसके हाल पर और ऐश कर’’। विजयी मनोभावों इस भावना की तस्दीक न की। इस हुंकार का समर्थन दिल ने न किया। अपितु आर्तनाद किया था जवाबों ने। सवालों को शायद दया आ गयी थी। सवाल स्पष्ट होकर सामने आ गये। सवालों ने धिक्कारते हुए जवाब दिया ‘‘शांत, एक निरीह स्त्री पर अंधेरे में छुपकर वार करने से तू योद्धा खिलाड़ी नहीं रह गया। स्त्री को प्रेम से न जीत पाना और बल-छल से उसकी दुगर्ति बना देना बहादुर योद्धाओं की नहीं, बुजदिलों की निशानी है। शांत तू न सिर्फ कायर है बल्कि एक डिफाल्टर है, जो जीत-हार से इतर मैदान में घुसने तक के लायक नहीं है’’। महीनों तक शांत अपने आप से लड़ता-जूझता रहा। सब कुछ विजित एवं इच्छित होने के बावजूद, वो स्वयं को हारा हुआ, महसूस कर रहा था। उसके मन में वहीं भाव थे जैसे सम्राट अशोक ने कलिंग विजय के पश्चात स्वयं को एक बौद्ध भिक्षु से भी तुच्छ समझा था। हालांकि शांत किसी नतीजे पर पहुंचने की कगार पर था। मगर उससे पहले, उसने सेलेना से मिलकर कुछ स्थितियां स्पष्ट कर लेनी चाही। महीनों बाद वो सेलेना से मिला। अपने दिल की बात कहने से पहले उसने सेलेना के मन का हाल जान लेना उचित समझा था। देवधर घर पर नहीं थे। महराजिन को चाय लाने के बहाने हटाकर सीधे ही मुद्दे पर आ गया था शांत। उसने मासूमियत से पूंछा ‘‘सेलेना, तुम्हे तुम्हारे पिता की सौगन्ध। सच-सच बताना जब मैंने तुम्हें अपने प्रेम और हमारी शादी का प्रपोजल दिया था तब क्या फैसला लिया था तुमने’’। सेलेना रोने लगी, मगर थोड़ी देर बाद संयत होते हुए बोली, ‘‘शांत मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं। अतीत के घाव मत कुरेदो प्लीज। बड़ी मुश्किलें झेलते हुए इस भयानक सूरत के साथ जी रही हूँ मैं। जानते हो क्यों, सिर्फ अपने बाप के वास्ते। भगवान के वास्ते पुरानी बाते भूल जाओ, ये बातें अब तुम्हे और मुझे दुख देने के सिवाय और क्या दे सकती हैं। फारगेट दैट’’ शांत इस उŸार से संतुष्ट न हुआ। उसने काफी मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया, मिन्नतें की, बीसियां कसमें दीं। अन्ततः सेलेना पसीज उठी। वह बड़ी मुश्किल से रूक-रूक कर बोलने लगी ‘‘सुनो शांत, जब तुम्हारा प्रपोजल मेरे सामने आया था तो वो प्रेम और शादी दोनों का था। शुरूआत में मैंने हम दोनों को लेकर जीवन और कैरियर के हसीन ख्वाब बुने थे। मगर ख्वाब सिर्फ ख्वाब होते हैं, हकीकत से उनका क्या सरोकार। जब मैंने तुम्हारी और अपनी हैसियत का आकलन किया, तो कितना फर्क था हम दोनों में। जीवन की इस कड़वी सच्चाई के कारण तुमसे प्रेम होने के बावजूद, मैं तुम्हारे प्रेम-प्रपोजल पर उदासीन हो गयी थी। क्योंकि मैं नहीं चाहती थी कि कोई मुझ पर या मेरे बाप पर अंगुली उठाये कि सेलेना ने तुम्हें अपने रूप के जाल में फांस कर बडे़ घर में पैठ बना ली’’। हालांकि शांत चौंका हुआ जरूर दिख रहा था, मगर तभी उसके अचंभित चेहरे को देखकर सेलेना ने और भी धारा-प्रवाह में बोलना शुरू कर दिया’’ मैं इस नतीजे पर पहुँच चुकी थी शांत। मेरा निर्णय स्पष्ट और अडिग था कि मैं हमारी हैसियत के फासले को सिर्फ प्यार के बलबूते पर नहीं पाट सकती थी। मैं किसी उचित मौके की तलाश में थी कि तुमसे इत्मीनान से मिलकर तुम्हें सारे हालात कायदे से समझा सकूं। मैं तुमसे मिलने तो कई बार गयी। पर कई बार हालात मनमाफिक नहीं थे, तो कई बार मेरी नारी सुलभ-लज्जा ने मुझे ऐसा करने से रोका था। जब तब कोई रास्ता निकल पाता तब तक ये हादसा हो गया’’। शांत को ऐसे उŸार की अपेक्षा कतई न थी। उसे तस्वीर के इस पहलू का पता नहीं था। वो सेलेना की उदासीनता को उसका घमंड और स्वयं की अवहेलना समझता रहा था। शांत जो कहने आया था वो बात तो वो कह नहीं पाया। अलबŸा सेलेना से लगे हाथ वो बात भी पूछ डाली जो थी तो निहायत ही जरूरी, मगर शांत ने उसे पूछा बडे़ हल्के ढंग से था।

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