Firoji rekhao ke nid in Hindi Moral Stories by Husn Tabassum nihan books and stories PDF | फिरोजी रेखाओं के नीड़

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फिरोजी रेखाओं के नीड़

फिरोजी रेखाओं के नीड़

प्रेम हमेशा स्थिर नहीं रहता। यह चंद्रमाओं

की कलाओं की तरह घटता रहता है...बढ़ता रहता है।

‘‘ बादल, वो देखो दूर क्षितिज पर झुका जा रहा है पीला आसमां....धरती को आलिंगनबद्ध कर लेने को आतुर...‘‘ -सांवली शेफाली ने आषाढ़ के बादलों को धीमे-धीमे नीचे उतरते देखा तो मुग्ध हो गई। मगर बादल कहीं नेपथ्य में खोया अपने में ही डूबा हुआ था-

‘‘शेफाली, वो देखो दूर एक पंछी दम तोड़ रहा है फट फट फट फट करता हुआ। बंदूकें नाच रहीं हैं। भूखे नग्न बच्चे कलप रहे हैं।...वो देखो धुंएं से अटा पड़ा नीला आकाश कलछऊँ होता जा रहा है।‘‘

बादल खिड़की के समीप खड़ा निरंतर शून्य में देखे जा रहा था। चेहरे पर माक्र्सवाद का पूरा तेज था। अपने आस पास की अव्यवस्थाओं से त्रस्त व पूरी तरह से लस्त पस्त।...निःशंक बादल। शेफाली नितांत रोमानियत से भरी उसके चेहरे को टूक-टूक देखती भर रही और सोंचती रही ‘‘ किस रूप में होगी हमारे प्रेम की परिणति....बादल की आँखों से कब उतरेगा मार्क्सवाद का चश्मा। कब खिलेंगे उसके भीतर लाल गुलाबी फूल। कब देखेगा वह फालसायी सपने.....कब बुनना शुरू करेगा वह फिरोजी रेखाओं के नीड़...उफ् बादल....‘‘

बादल गांव का पढ़ा लिखा सांवला सलोना बेरोजगारी से उक्ताया हुआ प्रतिभशाली नवयुवक। परिवर के नाम पर सिर्फ बूढ़ी माँ। गांव के बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर व कुछ खेती बाड़ी कर रोजी रोटी चलती है। और उतने में ही संतुष्ट। शेफाली आम गंवई लड़कियों से थेाड़ी ऊपर, छोटी सी पत्रकार है। बेबाक और हद भर स्पष्टवादी। अपने इलाके में उसकी बड़ी इज्जत है। नाम है। लेकिन भीतर-भीतर बादल को ले कर एक फूल भी खिला रहता है और भय खाती है इस फूल के मुरझा जाने की एक अव्यक्त आशंका से। कहीं..... नहीं नहीं, वह बादल के लिए सब त्याग सकती है।....बिना बादल के कहाँ रह पाएगी। ये मोह एकतरफा भी नहीं। अगर एक दिन भी शेफाली बादल के घर नहीं आती है तो वह विचलित हो उठता है दिन का उजाला देख देख कर समय आंकता रहता है...

‘‘......अब तक तो आ जाना चाहिए शेफाली को............‘‘

कमरे में देर तक चहलकदमी करता है। और जैसे ही उसके आने की आहट पाता है एक ठण्डी नर्म धारा में बहने लगता है। मन ही मन बड़बड़ाता है-

‘‘.............धन्य भगवान आ गई मेरी हंसिनी ‘‘

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-अभी वह कागज पर कुछ नोट्स तैयार कर रहा था कि शेफाली ने प्रवेश किया-

‘‘...मेरे चंद्रमा...‘‘ कहते हुए बादल के गले में बांहें डाल दीं उसने। वह पुलक उठा-

‘‘...........मेरी हंसिनी....‘‘

‘‘ बादल, देखो ना कितनी नर्म हवा बह रही है, चलो चलते हैं नदी किनारे। नाव की सवारी करेंगे। रेतों पर प्रेमपत्र लिखेंगे ‘‘

-बादल ने पीछे हाथ फैला के उसकी बांहें पकड़ के उसे सामने मेज पर बैठा लिया और उसकी गोद में सिर रख दिया-

‘‘ शेफाली, चर्दा में ब्रहम्मणों ने पूरा चमरौटा फुंकवा दिया। कितनी महिलाएं व बच्चे स्वाहा हो गए। कितना वेदित और आहत करने वाला हे ये सब। रोने को मन करता है। काश! में इन सबको सबक सिखा पाता।‘‘

-शेफाली बुझ गई।

‘‘खाना खाया था आज ? दिन भर क्या करते रहे ?‘‘

‘‘कुछ नहीं, तुम्हारे लिए रिपोर्टिंग की है। वहाँ जा कर लोगों का दर्द सुना हैं।...ये लो...‘‘- कहते हुए बादल ने दो पेज उसे थमा दिए। वह चुपचाप देखती रह गई। फिर उसके सिर पे हाथ फेरती बोली-

‘‘बादल कुछ अपनी भी चिंता किया करो। देखो कितने दुबले हो गए हो। कपड़े कितने मैले हो गए हैं। क्या गढ़ते रहते हो सुद बुध खो कर। कैसे हो तुम?‘‘

‘‘दुनिया में कितनी विषमता है। कितनी नीरवता है। अकर्णमयता और बिखराव है। लोग स्वार्र्थी हो रहे हैं। एक दूसरे पर होड़ लगाए हैं।.......कैसा है ये हाहाकार। ऐसे में कोई अपनी चिंता कया करे। इसके लिए समय कहाँ?‘‘

‘‘उठो, मैं ही कुछ लाती हूँ। बातो से ही पेट भर लेते हो।...‘‘ कहते हुए शेफाली ने उसे परे किया और बाहर आ गई।

‘‘अम्मा जरा बादल को खाना खिला दूँ।‘‘- गेंहूँ छानती अम्मा ने हाँ मे हाँ मिलाई-

‘‘हाँ, बेटी खिला दे मुझे तो बहलाता रहता है....जाने क्या मंसूबे बनाता रहता है।‘‘

-वह खाना खाते हुए बोला -

‘‘सेफाली, हमने, सरजू भैय्या, पटेसर दद्दा और बाकी लोगों ने मिल कर एक छोटा सा संगठन बनाया है। इसका नाम दिया गया है ‘पीस ग्रुप‘। हम सब मिल कर समाज के लिए काम करेंगे। अन्याय के विरूद्ध लड़ेंगे।‘‘

‘‘हुं....ह इसमें खर्च भी आएगा‘‘

‘‘...पता है, उसके लिए हम बड़े तबके के लोगों से जो बड़े व्यवसायी, व्यापारी इत्यादि हैं उनसे सहयोग लेंगे।‘‘

‘‘तो ये है तुम्हारा मार्क्सवाद उन्हीं पूंजीपतियों के खिलाफ आवाज उठाओगे और उनके आगे ही हाथ फैलाओगे। रहने दो ये सब‘‘ वह भन्ना गई। तो वह धीमे से हँसा-

‘‘तुम तो बस्स...नाक पर ही गुस्सा रखे रहती हो। मेरे सिवा तुम्हें कुछ सूझता ही नहीं।‘‘

‘‘भला इसका तो एहसास हुआ।‘‘ कहते हुए शेफाली का गला भर आया।

‘‘शेफाली....‘‘ उसने चौंक कर शैफाली को देखा।

‘‘मुझे कमजोर मत बनाओ। मेरा मनोबल मत तोड़ो।‘‘ वह खा चुका था। शैफाली ने बर्तन समेटे और बाहर चली गई। कुछ देर बाद कमरे में आई और आंचल में हाथ पोंछती बोली-

‘‘...अब चलती हूँ बादल। थेाड़ा आराम कर लूं। शाम आठ बजे प्रेस भी जाना है।

‘‘ठीक है जाओ अपना ख्याल रखना।‘‘

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घर आ कर शैफाली पलंग पर निढाल सी फैल गई। थकान से शरीर चटख रहा था। सांवली शेफाली दिखने में अमलतास जैसी। देह की टहनियाँ मौसमी फूलों से लदी पड़ी हैं। कभी कभी वह अनायास ही किसी भयावह पतझड़ की आगत की आशंका से कांप जाती है। यही रोज का मामूल। फिर करवटें बदलते हुए जाने कब सपनों में ढल जाती हैं। घर में बेहद स्नेह करने वाला एक मात्र भाई तथा भाभी। माँ-पिता कब के स्वर्ग सिधार गए।

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सरयू के तट पर अनमना सा बैठा बादल पानी में ईंर्टे उछाल रहा था कि शैफाली ने पीछे से आ कर आँखें भींच लीं। वह मुस्कुरा दिया-

‘‘ मेरी हंसिनी ‘‘

‘‘मेरे चंद्रमा...‘‘- शैफाली की बांहें उसके गले से लिपट गईं।

‘‘बादल, वो देखो दूसरे छोर पर। बादल नदी की ओर झुक रहा है....कैसा सुरमय दृश्य, बादल बस चूमना ही चाहता है जलधारा कों।‘‘

‘‘.........नहीं जी, ये बादल तो अपनी इस जीवन-धारा को चूमना चाहता है।‘‘ कहते हुए बादल ने उसे समीप बैठा लिया और उसके माथे को चूम लिया-

‘‘मेरी शैफाली, ....मुझसे दूर मत जाना।‘‘ कहते कहते वह कुछ उदास हो गया।

‘‘ये तुम कहते हो तुम तो मेरे जहान के कण-कण में व्याप्त हो गए हो। अब ये शंकाएं ही निरर्थक हैं।

वह कुछ सोंचता सा बोला- ‘‘शैफाली, कल मैं लखनऊ चला जाऊँगा। वहाँ हम बैठकें करेंगे और पीस ग्रुप से औेर लोगों को जोड़ेंगे। तुम यहाँ माँ का और अपना ख्याल रखना।‘‘

‘‘क्या?‘‘-वह चौंक कर उसे देखती रह गई। सहसा विश्वास ना हुआ। आँखें भर आईं। मगर आँसू पी गई। उसे पता है बादल को आँसुओं से नफरत है। आँसू देखके ही वह उग्र और विक्षिप्त जेसा हो जाता है। उसे नफरत है आँसुओं से। वह खामोश रह गई। बादल ने पुकारा-

‘‘क्या हुआ, बोलोगी नहीं?‘‘

‘‘नहीं‘‘ कहती हुई शैफाली उठी और चली आई। बादल मौन, उधर पीठ किए बैठा रहा। वह घर आ कर बहुत रोई। कैसा है ये बादल.....ये निर्मोही।...क्षण भर को स्वर्ग में ले जाता है फिर नर्क में धकेल के चलता बनता है।...एकदम भावों से रिक्त...संवेदनाओं से मुक्त। वह पुनः उससे नहीं मिल सकी। वह चला गया। जाने के बाद फोन जरूर किया उसने। फौरी बात चीत भी की। शैफाली को इतने से ही राहत। लखनऊ जा के वह कुछ अघिक ही व्यस्त हो गया। आए दिन बैठकें करना। रैलियां निकालना और जनसमूह को सम्बोधित करना। इस दरम्यान बादल का पीस ग्रुप कई शहरों के चक्कर लगा चुका था। हाँ, रात के तीसरे पहर शैफाली से बात करना नहीं भूलता।

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पूरे दो महीने बाद बादल अपने कस्बे में लौटा। देखते ही शेफाली उससे लिपट गई और देर तक रोती रही। बादल दूर-दूर तक अपना परचम फहरा कर आया था। चेहरे पर गहरा आत्मविश्वास ठाठें मार रहा था। स्वास्थ्य भी काफी सुधरा हुआ था। वापस आने के बाद वह फिर से अपने खेती बाड़ी और बच्चों को पढ़ाने के काम में लग गया था। मगर उससे कहीं ज्यादह वह अपनी बैठकों और रेलियों में व्यस्त रहता। एक रोज वह घर से लगी अपनी अमराई में बैठी थी। वह उसके कांधे पर सिर धरे आकाश तक रहा था। शेफाली यूंही सी जमीन पर आड़ी तिरछी रेखाएं खींचती सी बोली-

‘‘ बादल, कुछ अच्छा नहीं लगता। नौकरी भी नहीं भाती।‘‘

‘‘पागल हो तुम, कैसे अच्छा लगेगा। घिसी पिटी खबरों तक ही सीमित रह गई हो। खाली वक्त में बैठ कर मार्क्स को पढो। मार्टिन लूथर को पढ़ो। सूकी की नीतियां पढ़ो। पूंजीवाद के खिलाफ हल्ला बोलो।.....सामंतवाद को उखाड़ फेंकने का संकल्प लो।...हमारे साथ आ जाओ सब ठीक हो जाएगा।‘‘

‘‘तो क्या मैं अभी तक तुम्हारे साथ नहीं थी?‘‘

‘‘ थीं मगर इस तरह नहीं। छोटे मोटे अखबार की नौकरी छोड़ो....पीस ग्रुप में आ जाओ। तुममे जोश है, प्रतिभा है, रोष है....एक बार मंच से दहाड़ दोगी तो साला सामंतवाद चकनाचूर हो जाएगा। जमीन में घिसटते मुर्दों में भी जान आ जाएगी। वे उठ-उठ कर बंदूक थाम लेंगे। आज अगर घुटनो के बल समाजवाद चल रहा है तो कल सीधा खड़ा हो जाएगा। पूरे देश में फैल जाएगा समाजवाद, मार्क्सवाद, लाल सलाम....‘‘ कहते हुए उसने शेफाली के कांधे से सिर उठाया और उसकी आँखों में देखने लगा। शेफाली यूंही बैठी रहीं आँखों में एक अनचाहा सूनापन तैर गया। एक शब्द भी नहीं बोला गया। बादल ने ही बुलकारा-

‘‘क्या हुआ, नाराज हो गईं, बोलो कुछ?‘‘

‘‘क्या बोलूं, जिसका स्वप्न गगन-चुम्बी पताकाएं हैं उससे चाँद मांगने बैठी हूँ।‘‘

‘‘ मैं तुममे चाँद से खेलने वाली अल्हड़ युवती नहीं, तूफानों से खेलने वाली मजबूत चट्टान देखना चाहता हूँ...चंद्रमा की झूठी गोधूलि में कितनी देर रमी रह पाओगी प्रिये..?‘‘

-शेफाली खामोश रही। फिर उसे परे करती हुई बोली-

‘‘चलो चलती हूँ। हाँ, बताना भूल गई अखबार के संपादक संजीव वर्मा ने मेरी पदोन्नति कर दी हैं मुझे सह-संपादक का पद दे दिया है।‘‘

‘‘ ओह गुड। इतनी अच्छी खबर इतनी देर में। कहता था ना तुममे बहुत सम्भावना है, तुम्हीं खुद को पहचान नहीं पातीं।‘‘

‘‘ मगर,....मैं ये नहीं चाहती। मैने ये नहीं चाहा था। मैं सिर्फ अपना संसार चाहती हूँ...जहाँ सिर्फ हम हों, हमारा प्रेम हो।.....तुम समझते क्यूं नहीं? भैय्या को मेरे विवाह की बड़ी चिंता है।‘‘

-बादल अचानक कहीं शून्य में खो गया। फिर निःश्वास सी छोड़ता बोला-

‘‘शेफाली, भूखे पेट प्रेम नहीं होता, इन्कलाब होता है‘‘

‘‘हम भूखे नहीं मरेंगे।‘‘

‘‘हमें इतना स्वार्थी नहीं हो जाना चाहिए प्रिये।..........हमारे कितने ही भाई बन्धू भूख से कलप रहे हैं। चटखती पीड़ाओं से दोहरे हुए जा रहे हैं।.....मेरठ में एक विशेष लोगों ने दुसरे समुदाय के भाईयों के घर यूंही फूंक दिए। उन्हें इंसाफ नहीं मिल रहा। प्रशासन आँखें मूंदे बैठा है। मीडिया सरकार द्वारा खरीदा जा चुका है। उसका आईना वैसा ही चेहरा दिखाता है जैसा सरकार देखना चाहती है। अब ऐसे कठिन समय में अगर हम पढ़े लिखे नवजवान भी आँख मूंद कर बैठे रहेंगे तो ....तब तो हम मृतप्रयः ही माने जाएंगे।‘‘

-शेफाली ने एक जम्हाई सी ली-

‘‘ठीक है, चलती हूँ ‘‘-कह कर वह झल्ल से उठी और जाने के लिए मुड़ गई।

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शाम को जब प्रेस जाने के लिए तैयार हो रही थी, कमरे में भैया ने प्रवेश किया। कुछ पल उसे देखा फिर बोले-

‘‘शेफाली, मेने एक लड़का देखा है।‘‘

‘‘प्लीज भैय्या‘‘- उसने खीझते हुए उन्हें वहीं चुप करवा दिया। वह कुछ सोंचते रहे फिर बोले-

‘‘बादल तुम्हें पसंद है, उसकी माँ से बात करूँ?‘‘

‘‘नहीं......अभी नहीं....‘‘

‘‘...वह तुमसे ब्याह करेगा तो...?‘‘

‘‘शायद नहीं...‘‘

‘‘क्या...तो क्या वह...?‘‘

‘‘प्लीज भेय्या, कुछ मत पूछो....अभी नहीं...कुछ भी नहीं।‘‘

‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी मर्जी.....तुम स्वतंत्र हो..‘‘ -कहते हुए वह कमरे से बाहर चले गए।

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शैफाली का ओहदा क्या बढ़ा उसके कद में खुद ब खुद इजाफा हो गया। प्रेस की ओर से उसे एक स्कूटर भी मिल गई। वेतन भी बढ़ां संपादक संजय वर्मा की नजरें उस पर कुछ ज्यादह मेहरबान रहने लगीं। उसके खाने पीने और प्रेस के कामों का भी काफी ध्यान रखते। जितनी बार काॅफी चाय खुद के लिए मंगवाते उसे भी भिजवाते। खाली समय में उसके केबिन में जा कर गप्पें लड़ाया करते। और ऐसे ही वह नजदीकियों की पराकाष्ठा पार करने का प्रयत्न करने लगे। इस दरम्यान उसका बादल से मिलना जारी रहा। किन्तु बादल, बादल जेसा ही ठण्डा और बेगाना बंजारा सा बना रहा। एक दिन शेफाली संपादक की कुटिल हरकतों से उक्ता कर बड़े आवेश में बादल के पास गई और उसे झिंझोड़ डाला। इस वक्त बादल कुछ लिख रहा था। अचानक झिंझोड़ने से बादल का हाथ इधर-उधर बहका और कागज पर टेढ़ी मेढ़ी लकीरें खिंच गईं। वह तड़प कर बोली-

‘‘बादल, हम ब्याह कब करेंगे ?‘‘

-बादल चौंक कर चेयर से उठा और उसका कंधा पकड़ कर अपनी चेयर पर बैठा दिया। फिर बाहर चला गया। कुछ देर बाद आया। उसके हाथ में पानी से भरा गिलास था। उसने शैफाली की तरफ बढ़ा दिया। शेफाली ने गिलास थामा थोड़ा सा पानी पिया और उसे टेबिल पर रख दिया। बादल टेबिल पर बैठते हुए बोला-

‘‘हाँ, अब बोलो।‘‘

-शेफाली ने बगैर कुछ कहे उसकी गोद में सिर रख दिया-

‘‘मैने जो बोलना था बोल दिया बादल ‘‘

‘‘शेफाली, तुम भी ना बच्चों की सी बातें करती हो। शेफाली, हम, हमारा प्रेम इस पूरे ब्रहम्माण्ड में व्याप्त है। हमारी प्रेमासक्त संवेदनाएं सार्वभौम हैं। हमारा प्रेम आत्मा से परमात्मा में विलीन होने जैसा है।....वो आदम-हव्वा वाला प्रेम नहीं हमारा कि दैहिक-आग्रह हों। अपने इस सार्वभौमिक प्रेम को तुम संकुचित करना क्यूँ चाहती हो ? अपने प्रेम को मात्र दो चार दीवारों, दो चार मनुष्यों तक ही क्यों सुकुचित कर देना चाहती हो। तुम्हारे प्रेम की आवश्यकता इस सारे संसार को हैं....विवाह संस्था का जन्म इसलिए हुआ कि मानव एक सीमित दायरे में रह कर प्रकृति के नियमों का निर्वाह करे। बच्चों को जन्म दे। उनका लालन पालन करे। जिससे आगे चल कर इस ब्रहम्माण्ड का विस्तार हो। किंतु हमें इसकी आवश्यकता नहीं है। हमारे पास पहले ही हजारों अबोध पड़े हुए हैं जिन्हें हमारी आवश्यकता है। तुम्हें पता है, हमने एक अनाथालय खोला है। उसमें अब तक चार सौ अबोध बालक-बालिका आ चुके है अगर हम स्वयं संकुचित हो जाएंगे तो उन्हें कौन देखेगा। मानव-सेवा ही हमारा सच्चा धर्म है प्रिये। विवाह, परिणय, गृहस्थी, ये सब तो ओछी और सांसारिक बातें हैं। हमारा प्रेम इनसे कहीं ऊपर है।‘‘

-लम्बा भाषण सुनते-सुनते शेफाली के आंसू सूख चुके थे। उसे विश्वास हो गया था कि उसका बादल कोई ऐसा वैसा बादल नहीं है जो अपनी कामनाओं को फलीभूत करने के खातिर बरसे।...उसका बादल, वो बादल है जो सारी दुनिया के गले तर करता है। वह थकी सी उठी ओर बगैर कुछ बोले वापस चली गई। बादल उसे जाता हुआ देखता रहा। बाहर आई तो माँ ने उसे बोलकारा- ‘‘शेफाली, इतनी जल्दी जा रही है बेटवा‘‘ उसकी आँखें भर आईं और बिना जवाब दिए बाहर निकल गई। माँ ने कमरे में जा कर देखा तो बादल गुमसुम सा खड़ा था-

‘‘क्यूँ रे, क्या कह दिया उसे।‘‘

‘‘कुछ नहीं माँ वह खुद को पहचानती ही नहीं। समझना ही नहीं चाहती। आम लड़कियों की तरह हठ कर बैठती है।‘‘

‘‘ठीक ही तो है, ये रोज की दौड़ भाग कहाँ तक करे वह। उसे ब्याह कर घर क्यूँ नहीं ले आता।‘‘

‘‘तू भी माँ, तुम औरतों को ब्याह के सिवा भी कुछ सूझता है क्या ?‘‘

‘‘तो क्या उसने भी.....?‘‘

‘‘उफ्, नहीं कुछ भी नहीं। तुम जाओ।‘‘ माँ उसे घूरती सी बाहर चली गईं।

दूसरे दिन बादल कोलकाता चला गया। इस बार उसने बहुत बड़ी-बड़ी व सफल रैलियाँ निकालीं। बादल ग्रुप एण्ड कम्पनी नामक एक संस्था का गठन भी किया। इसके अंतर्गत बेसहारा महिलाओं और अनाथ बच्चों के लिए बड़े स्तर पर काम किया जाने लगा था। जल्दी ही इस संस्था ने पूरी तरह से अपने पैर जमा लिए थे। यहां तक कि कुछ अवार्ड भी इसके हिस्से में आ गए थे। बादल की ख्याति तेजी से बढ़ रही थी। यद्यपि उसे ना अवार्ड की कामना थी ना दौलत की हवस और ना ही ख्याति की लालसा। वह तो नितांत संतों का सा जन सेवा में लगा हुवा था।

शेफाली को बादल से मिले कई दिन हो गए। वह घर गई तो पता चला वह कोलकाता चला गया हैं। क्षण भर को वह सोंचती रह गई। बादल इस कदर बदल गया। मिलना तो दूर, जाने की सूचना तक ना दे सका। खैर वह जाती, माँ से मिल कर चली आती। एक दिन वह आॅफिस पहुँची तो पेपर पर नजर पड़ी। पहले पेज पर बादल की फोटो देख वह पुलक उठी। बादल की संस्था को किसी अवार्ड के लिए नामित किया गया था। फौरन बादल का नं0 डायल किया। पर हर बार नं0 व्यस्त जाता रहा। झुंझला कर मोबाईल बंद कर दिया।

चार दिन बाद बादल का फोन आया। वह वापस आ गया था। चूंकि रात हो गई थी इसलिए उसने दूसरे दिन आने का वादा किया और सुबह होते ही संपादक को छुट्टी के लिए फोन किया। लेकिन संपादक ने कुछ जरूरी काम कह कर एक घण्टे के लिए उसे घर पर ही बुला लिया। उसने हिसाब लगाया- ‘‘अभी तो बादल सो रहा होगा। दस बजे तक आराम से वापस आ सकती हूँ। तब तक वह जाग जाएगा। वह संपादक संजीव वर्मा के फ्लैट पर पहुँच गई। फ्लैट का दरवजा बंद नहीं था। काॅलबेल बजाने पर भीतर से आवाज आई-

‘‘खुला है, आ जाओ।‘‘

और भीतर कदम रखते ही संजीव वर्मा ने उसे बांहों में भर लिया।

‘‘तुम्हारी कामनीय सुंदरता अब सहन नहीं होती शेफाली।‘‘

शेफाली गुस्से और आश्चर्य से भर गई। उसने स्वयं को मुक्त कराने का भरसक प्रयत्न किया किंतु, नहीं.......

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ठीक 11 बजे शेफाली बादल के कमरे में थी। देखते ही उसे बादल ने बांहों में भर लिया-

‘‘मेरी शेफाली, तुम्हारे प्रेम की शक्ति ने मुझे क्या-क्या बना दिया।‘‘

‘‘बस, वही ना बना सका जो मेरे दिल ने चाहा।‘‘ कहती हुई वह उससे अलग हो गई।

‘‘ओह...गुस्सा...‘‘ वह यूँ ही सा हँस दिया।

‘‘बादल...‘‘ कहते-कहत उसकी आँख भर आई। बादल विचलित सा हो उठा।

‘‘अ....अरे आँसू....ये क्या...नहीं, ये मुझे बिल्कुल नहीं पसंद है, रोना मत...रोना मत...‘‘

‘‘तुम्हें क्या पसंद है मैं आज तक न समझ पाई। लेकिन आज मेरी बात सुनो। आज....आज....‘‘

‘‘क्या आज...आगे कहो।‘‘

‘‘आज संजीव वर्मा ने मुझे पूरी तरह से खत्म कर दिया।‘‘

‘‘क्या मतलब है, साफ-साफ कहो।‘‘

‘‘उसने मेरा बलात्कार......‘‘

‘‘ओह.....हे भगवान, ये क्या बच्चों की सी बातें करती हो। शेफाली, इस समय तुम्हारी आयु क्या है?‘‘

‘‘तीस वर्ष।‘‘

‘‘गुड...इस उम्र में बलात्कार नहीं होता। संयोग होता हैं। समागम होता है। तुम बालिग हो, तुमने ही तो कहा था एक बार कि देह के भी अपने आग्रह होते हैं। कभी तुमने ध्यान दिया, अपने इर्द-गिर्द घूमती-घामती आवृत्तियों की तईं। अपने भीतर गमकती ऋतुओं का कभी आभाष किया? तुम उसका दम घोंटना क्यूँ चाहती हो? उन अह्लादित-क्षणों को बलात्कार का नाम दे कर अपने साथ अन्याय कर रही हो। तुम्हे तो उसका भरपूर आनंद लेना चाहिए था। ऐसा कौन सा अपराध हो गया जो तुम अपराध-बोध से दोहरी हुई जाती हो।‘‘

‘‘....बादल..‘‘ वह पूरी ताकत से चीख पड़ी।

‘‘प्रिये ...आवेश में नहीं।‘‘ कहते हुए उसने अपना सफेद कुर्ता उसकी ओर बढ़ाया-

‘‘जरा इसमें बटन टांक दो, टूट गया है।‘‘

वह चकित सी देखती रह गई। कैसा है ये आदमी। इसके अंदर पौरूष नाम की कोई चीज भी हैं। खामोशी से उसके हाथ से कुर्ता ले लिया और सूंईं में धागा पिरोने लगी। वह आगे बोला-

‘‘यहाँ बलात्कार कौन नहीं करता शेफाली। क्या तुम नहीं करतीं? क्या मैं नही करता?‘‘

-उसने क्षण भर को रूक कर बादल को देख और फिर अपने काम में लग गई। वह हँसा-

‘‘और नही तो क्या। बलात्कार का अर्थ है ‘बलपूर्वक‘ किया गया कार्य। क्या मैं तुम पर अपनी इच्छाएं थेाप कर तुमहारा बलात्कार नहीं करता? तुम मुझे जबरन अपनी धरा पर नचाना चाहती हो क्या ये मेरा बलात्कार नहीं? कितने ही दिल ढहते हैं। ढहाए जाते हैं। कितने ही रिश्ते स्वार्थी हो जाते हैं.........जाने कितने रंग के बलात्कार आए दिन होते रहते हैं। मानसिक बलात्कार, सामाजिक बलात्कार, राजनीतिक बलात्कार....इन सब के सामने संजीव वर्मा द्वारा किया गया कुकृतय तो निहायत मामूली है। क्या पति बलात्कार नहीं करता? तुम्हें अपने मन से अपराधबोध और गलानि जैसी भावनाएं निकाल कर उसका आनंद लेना चाहिए था शैफाली ....यही सच है।‘‘

‘‘शटअप....दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा।‘‘

कहते हुए उसने बटन से धागा तोड़ कर अलग किया और सुईं मेज पर फेंक कर फूट फूट कर रोने लगी-

‘‘हे भगवान, ...मुझे मौत ही दे दे। प्रेम के लिए मुझे ऐसा ही आदमी देना था।‘‘

बदल ने उसका हाथ पकड़ना चाहा पर उसने झिड़क दिया-

‘‘दूर रहो मुझसे.....छूना मत...‘‘ बादल ने सहम कर पीछे हाथ कर लिया। वह उठी और पांव पटकती हुई बाहर निकल गई।

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उसके बाद उसने बादल से मिलने की कभी भूल नहीं की। मन इस कदर वीरक्ति से भर गया कि उसने स्वयं को सारी दुनिया से काट लिया और स्वयं को संजीव वर्मा उर्फ जनमानस (दैनिक पत्र) को समर्पित कर दिया। ये खबरें बादल तक भी जाती थीं किंतु उसका कभी साहस न हुआ शेफाली का सामना करने का। यद्यपि उसने खुद को जनसेवा के क्षितिज पर भींगी वाष्प की तरह फैला दिया था अैर अंतरिक्ष में विलीन होता गया था। किंतु, रात के तीसरे पहर जब वह दुनिया के सारे झंझावात से टकरा कर अपने बिस्तर पर जाता तो देर तक मोबाईल पर शेफाली का नं0 तकता रहता। डायल करने का कभी साहस न होता।

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दस वर्ष बाद-

वो अषाढ़ की ही सांझ थी। घोर बरसात के बाद नभ कुछ साफ हुआ था और एक इंद्रधनुष खिंच गया था। शेफाली ‘जनमानस‘ के कार्यालय के अपने केबिन में बैठी किसी न्यूज का ड्राफ्ट तेयार कर रही थी। तभी पीछे से एक नितांत मुलायम स्वर लहराया-

‘‘शेफाली,.....मेरी हंसिनी‘‘

शेफाली शाॅक्ड रह गईं । क्षण भर को वह बुत सी बनी रही फिर एक झटके से खड़ी हो गई और पीछे घूमी। सामने बादल बाँहें फेलाए खड़ा था। चेहरे पर फैली बेतरतीब दाढ़ी, आँखों में पीला उजाला। मटमैले कपड़े।........बिल्कुल उसका वाला बादल। एक पल को उसका जी भींग गया। मन की बाँहें फैल गईं उसे दिल से लगाने के लिए। मगर जाने कौन सी शक्ति ने उसे रोक दिया। वह बुत बनी खड़ी रह गई। बादल ने निराश हो कर बाँहें समेट लीं और बोला-

‘‘शेफाली, मैं खो गया हूँ। थक गया हूँ.....संभालो मुझे।...मैं ऊब चुका हूँ इस भीड़ सें। मैं लौट आया हूँ तुम्हारी आँखों में खुद को ढूंढ़ने के लिए।‘‘

‘‘.....पर कुछ रास्ते ऐसे होते हें बादल जहाँ से लौटा नहीं जा सकता। अब इन आँखों में बादलों के मंजर नहीं रहे। यहाँ रेत की चट्टानों ने जगह बना ली है। ऐसी चट्टानें जिन्हें वक्त की आँधियाँ बादलों की तरह उड़ा कर कहीं दूर नहीं ले जा सकतीं। ये चट्टानें स्थायी ओ स्थिर हैं। इन चट्टानों पर सारे मौसम सिर पटक-पटक कर लौट चुके हैं।‘‘

‘‘शैफाली.....‘‘ बादल के चेहरे पर एक दर्द सा फैल गया जैसे।

शैफाली कहती हुई आगे बढ़ गई और खिड़की के पास जा कर बाहर देखने लगी-

‘‘..........वो देखो बादल, भूखी माँओं के शव कव्वे नोच-नोच के खा रहें हैं और शिशु उनके सीने पे सिर पटकते स्तन-पान के लिए मचल रहे हैं।.....साम्यवाद चीख रहा है.....वो देखो...कितने ही मार्क्स हाथों में लाल पीले नीले झंडे लिए दौड़े जा रहे हैं जिस पर सामंतवाद के रक्त से लिखा गया है ‘लाल सलाम‘‘। आज ...रिलायंस क्लब में ‘‘जन चेतना और समाजवाद‘‘ पर मेरा भाषण है...तुम जरूर सुनने आना।‘‘ कहते हुए वह पीछे मुड़ी। किंतु कहाँ, बादल अपनी आहत वेदनाओं के साथ निराश लौट गया था।

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