Jo Ghar Funke Apna - 28 in Hindi Comedy stories by Arunendra Nath Verma books and stories PDF | जो घर फूंके अपना - 28 - विदेश की राह में वो लड़खड़ाता पहला कदम

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जो घर फूंके अपना - 28 - विदेश की राह में वो लड़खड़ाता पहला कदम

जो घर फूंके अपना

28

विदेश की राह में वो लड़खड़ाता पहला कदम

हमारी यात्रा का प्रथम चरण दिल्ली से दुबई का था, जहां जहाज़ में ईंधन भरवा कर हमे तेहरान के रास्ते रूस में तिबलिसी तक की उड़ान भरनी थी और फिर वहाँ से मास्को की. दुबई उन दिनों भी कस्टमड्यूटीमुक्त (ड्यूटीफ्री) दूकानों के लिए मशहूर था. दूकानदार ज़ियादातर सिंधी और दक्षिण भारतीय थे. शराबबंदी गुजरात जैसी कड़ी थी अतः करेंसी में भारतीय रूपये और भारतीय शराब दोनों चलते थे. अर्थात हम अपने साथ लाइ हुई फौजी रम चाहते तो आसानी से स्काच व्हिस्की में बदल पाते. ये काम एयर पोर्ट पर ही संपन्न हो जाता. पर हम लोग ऐसा करते नहीं थे, नहीं नहीं,नैतिक कारणों से नहीं. हमारे अनुभवी मित्रों ने बता रखा था कि सोवियत रूस में भारतीय रम की बहुत पूछ थी. उसे वहां स्कोच व्हिस्की या शैम्पेन में बदलने में अधिक फ़ायदा था. जहाज़ हमारा अपना था, सो रखने की जगह की तो कमी थी नहीं. न वज़न का चक्कर था. रही बात कस्टम वालों की तो सोवियत रूस के कस्टम अधिकारी भी भारतीय रम के प्रेमी थे. दो चार बोतले अपने पास रख लेने के बाद हमारा सप्रेम स्वागत रूसी- हिन्दी, भाई- भाई कह कर करते थे. फिर हम जो भी करते थे शालीनता के साथ थोडा थोडा करते थे. दो एक केस रम से अधिक नहीं ले जाते थे जो मुख्यतः भेंट देने के लिए होती थी व्यापार के लिए नहीं.

क्या शालीन ज़माना था. सभी लोग सारी गड़बड़ियां मर्यादा में रह कर करते थे. नेता लोग अरबों रुपयों के घुटाले नहीं करते थे अधिक से अधिक तीन करोड़ जो बिस्तर के गद्दों में सिले जा सकें लेते थे. रेलवे बोर्ड की सदस्यता भी दस करोड़ रुपयों तक की नहीं पड़ती होगी. ठीक पता नहीं पर एकाध लाख से अधिक थोड़े ही होती होगी. यहाँ तक कि तोपों के मामले में स्वयं प्रधानमंत्री के जैसी बड़ी तोप भी कुल मिलाकर चौसठ करोड़ रुपयों से अधिक का गोला नहीं दागती थी. आज के जैसी मुद्रा स्फीति और बेईमानी का विस्फोट नहीं हुआ था कि घोटालों में हज़ार करोड़ रूपये विनिमय की सबसे छोटी इकाई बन जाए.

बहरहाल हम छोटे-मोटे कस्टम नियमों की अवहेलना कर लेते थे पर इतनी नहीं कि उसे कोई तस्करी कह सके. फिर सोवियत रूस में भेंट के तौर पर देने के लिए रम की बोतल तो बहुत बड़ी चीज़ हुई, अधिकतर तो अच्छे टूथपेस्ट, सुगन्धित साबुन, दार्जीलिंग चाय से लेकर बढ़िया टॉयलेट पेपर तक रूसियों को भेंट देने से ही दोस्ती की नीव पक्की हो जाती थी. रूसी लोग चाहे जितना हिन्दी-रूसी मैत्री का दम भरें और उसके नाम पर होटल, रेस्तौरेंट में एक के बाद एक आठ दस सेहत के जाम पी डालें पर अपने घर वह प्रगाढ़ दोस्ती होने पर भी किसी विदेशी को नहीं बुलाते थे चाहे वह भारतीय हो या कोई और. पर होटल रेस्तौरेंट में ऐसी छोटी मोटी भेंट पाने के बाद दोस्ती बहुत जल्दी कर लेते थे, विशेषकर रूसी लडकियां जो भारत में बनी लैक्मे की लिपस्टिक को उससे कहीं अधिक महंगी अमरीकन और फ्रेंच लिपस्टिक से अधिक पसंद करती थीं. हम इस बात पर शक ज़ाहिर करते तो कहती थीं ‘अच्छा फिर अमरीकन या फ्रेंच लिपस्टिक भी भेंट में दे दो. फिर उन दोनों को एक के बाद एक चख कर पता लगा लेना. ’ मगर गुप्ता का कहना था कि इतनी ठंढ में उसकी नाक की सूंघने की शक्ति बहुत कम हो गयी थी और दो चीज़ों के स्वाद और गंध में फर्क पता करने के लिए उसे कई कई बार चखना पड़ता था. हाँ एक बार इस बात की सच्चाई जांचने के लिए मैंने एक सस्ते रेस्तौरेंट में अपने लिए लैम्ब और उसके लिए होर्समीट की एक प्लेट मंगाई तो पाया कि उस दिन उसकी नाक एकदम सही काम कर रही थी.

रूसियों के साथ दोस्ती कर पाने में मुझे एक आसानी थी. बता चुका हूँ कि एन डी ए में हमे कोई एक विदेशी भाषा भी पढनी होती थी और मैंने वहां रूसी भाषा पढी थी. पर एन डी ए से निकले हुए दस साल बीत चुके थे. दस साल बहुत होते हैं. इतने में तो राजनीति के चक्कर में फंसकर मनमोहन सिंह जी अर्थशास्त्र का अपना सारा ज्ञान खो बैठे. मेरे भी रूसी भाषा के ज्ञान में अभ्यास की कमी से पूरी तरह जंग लग चुका था. फिर भी मैंने रूस यात्रा से एक महीना पहले रूसी भाषा की अपनी किताबों को ढूंढ कर निकाला था और अपनी याददाश्त पर पडी हुई धूल की मोटी तह को झाड पोंछ कर साफ़ करना शुरू कर दिया था. धीरे धीरे पुरानी दुश्मनी और पुरानी बेईज्ज़ती की तरह भूली हुई रूसी भाषा भी याद आने लगी थी. कष्ट ये था कि बोलने के अभ्यास के लिए कोई साथ नहीं था फिर भी धीरे धीरे जुमलों में रवानी आने लगी भले उनमे से कुछ गलत सलत ही हो जाएँ. ऐसे में एक रूसी शब्द बहुत काम का था “तोचना तोचना” जिसका भावार्थ था “हाँ हाँ वही”. यदि कोई सही रूसी शब्द न याद आ रहा हो तो मिलता जुलता रूसी शब्द बोलने पर सुनने वाला स्वयं पूछ लेता था कि क्या आपका तात्पर्य इस शब्द से है और वह स्वयं सही शब्द याद दिला देता था. फिर मैं सर हिला कर कह देता था “ तोचना, तोचना “ इस तक्नीक को सिखाने के लिए मैं अपने एन डी ए के दोस्त जौहर का आभारी रहूँगा. वह किसी शब्द पर कभी अटकता नहीं था. जो मुंह में आये बोल देता था. लोग कितने समझदार होते हैं ! वे तात्पर्य हमेशा समझ जाते हैं. जैसे खेल के मैदान में किसी खिलाड़ी को चोट लग जाए तो जौहर कह सकता था कि “प्रोस्टीच्यूट “ उपलब्ध कराई जाए और रेफरी तुरंत समझ जाता था कि मांग “सब्स्टीच्यूट” की की गयी है. एक बार लैंडिंग के लिए जहाज़ लाते समय रनवे पर एक बछड़े को देखकर उसने एयर ट्रैफिक कंट्रोल को सूचित किया था “देयर इज ए काऊब्वाय ओन द रनवे ” मैंने भी रूसी भाषा बोलने का अभ्यास जारी रखा और जहाँ अटका वहां किसी भी शब्द का प्रयोग करके रूसी लोगों से किसी समानार्थी सही शब्द का सुझाव मिलने पर “तोचना,तोचना” कहते हुए मुंडी हिलाने का अभ्यास पक्का कर लिया.

अंत में वह दिन भी आ ही गया जब हमने अपने टी यू-124 विमान को पालम हवाई अड्डे के रनवे पर लगभग एक मील तक दौड़ा कर उसकी नाक को उस ज़माने की जेनरल दे गाल (फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति) या आज के सन्दर्भ में अंग्रेज़ी व्यंगकार जुग सुरैय्या की नाक की तरह ऊपर उठाया जिससे वह धरती के बंधन से मुक्त होकर ऊपर उठने लगा. जिसे अपनी नाक ऊंची रखने की आदत हो उसे कौन अपने आगोश में रखना चाहता है ! हज़ार फीट की ऊंचाई पर आकर उसकी नाक को जयपुर की तरफ घुमाया जो बरास्ते जामनगर दुबई जानेवाले वायु मार्ग पर पहला रिपोर्टिंग प्वाइंट था. फिर अपने क्रूज़िंग आलटीच्यूड (उड़ान की निर्धारित ऊंचाई) 31000 फीट तक विमान को पहुंचाकर, उसे ऑटो पाइलट के हवाले कर दिया. मौसम बहुत अच्छा था,नीले आकाश में हमारे पीछे पूरब दिशा से आकर सूरज हमारे विमान को पकड़ लेने की कोशिश में लगा था. ऐसे मौसम में विमान-चालन से अधिक आसान और कोई काम हो सकता है तो वह दूसरों की बुराई करना है. हम पाँचों क्र्यू के सदस्य उसी प्रकार की गप्पें मारने में व्यस्त हो गए.

दुबई में हमारा पड़ाव मुश्किल से डेढ़ घंटे का था. कुछ विशेष तो वहाँ करना नहीं था फिर भी जबतक विमान में ईंधन भरा जा रहा था फ्लाईट इंजीनियर को छोड़कर हम बाकी के चार साथी सिर्फ समय बिताने के ख्याल से एयरपोर्ट टर्मिनल में स्थित ड्यूटी फ्री शॉप में पहुँच गए. लौटते समय भी दुबई रुकते हुए जाना होगा अतःअभी कुछ शौपिंग करने का इरादा नहीं था. पर वहाँ जाकर मुकर्जी का दिल एक बड़े प्यारे से तोशिबा कलर टीवी पर आ गया. तबतक दूरदर्शन से रंगीन टीवी प्रसारण नहीं होता था पर जल्दी ही इसके प्रारम्भ होने की आशा थी. मुकर्जी ने कहा कि लौटते में ले लेने पर भी कुछ महीने तक वैसे ही रखा रहेगा अभी क्यूँ न लेलें,पडा रहेगा. अतः उसने टीवी खरीद लिया. शौपिंग का इरादा पहले नहीं था अतः हमने कोई बैगेज ट्रोली नहीं ली थी. टीवी पोर्टेबुल था, 12 इन्च वाला. पैकिंग बहुत बड़ी नहीं थी अतः मुख़र्जी ने उसे अपने दोनों हाथों में उठाकर सीने से लगा लिया. मुकर्जी थोड़े कम कद का है. टीवी उसकी नाक तक आ रहा था. हमने मदद करने के लिए हाथ बढाए तो इसे अपनी मर्दानगी पर बट्टा लगता हुआ समझकर उसने मना कर दिया जैसा अक्सर कम डील डौल वाले करते हैं. हमने जियादा तकल्लुफ नहीं किया,बस उसके हाथों में इतनी बड़ी पैकिंग होने के कारण उसे आगे आगे जाने दिया. शौपिंग एरिया से बाहर निकलने के लिए काफी बड़ा सा बिलकुल पारदर्शक शीशे का बीच से खुलने वाला दरवाज़ा था. मैंने उसे सावधान किया कि सामने शीशे का गेट है. मुकर्जी ने पास पहुंचकर टीवी के पैकेज को नाक के ठीक सामने से हटाकर उसकी बगल से कभी बाएं से और कभी दाहिने से झांकते हुए उस शीशे के गेट से अपनी दूरी का अंदाजा लगाया. गेट सिर्फ एक कदम आगे था और बंद था. अतः उसने गेट को ठेलकर खोलने के लिए अपनी एक टांग आगे बढाई. आज तो भारत में लेजर किरणों द्वारा आगंतुक के निकट आते ही उसकी उपस्थिति को भांपकर स्वतः खुल जानेवाले गेट तमाम जगहों में लगे हुए मिलते हैं पर तब वो एक अजूबा थे. मुकर्जी ने सोचा भी न होगा कि बिना खुल जा सिमसिम कहे कोई अदृश्य शक्ति उसके स्वागत में गेट स्वयं खोल देगी. न ही उसने ये सोचा होगा कि इतने चाव से खरीदे हुए उसके टीवी सेट की आयु इतनी कम होगी. उसकी आगे बढी हुई टांग हवा को चीरती हुई उस खाली जगह में आगे बढ़ गयी जहां क्षण भर पहले वह गेट था और अब स्वत: खुल गया था. फिर वह लडखडाया क्यूंकि अगली टांग टिक सके इसके पहले ही पिछली टांग उठ चुकी थी. इसके बाद क्रमशः टीवी सेट का पैकेज धडाम से नीचे संगमरमरी फर्श पर गिरा, उसके उपर मुकर्जी गिरा और “शीशा है,सावधानी से उठायें “ बताने वाले लेबल को चीरकर टीवी स्क्रीन के छोटे छोटे टुकड़े फर्श पर बिखर गए.

क्रमशः -----