Acid Attack - 1 in Hindi Thriller by dilip kumar books and stories PDF | एसिड अटैक - 1

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एसिड अटैक - 1

एसिड अटैक

(1)

‘‘हाँ, हूँ, ठीक ही था’’ ऐसे जवाब सुन-सुन देवधर जान गये कि सेलेना उकता रही थी। देवधर ने उसे आराम करने देना ही मुनासिब समझा। थोड़ा बुरा तो लगा था देवधर को, कि उनकी बेटी उनकी चिंताओं को शायद समझ कर भी समझना नहीं चाहती। बेटी के कमरे से निकल कर वे चौपाइयां गाकर स्वयं को व्यस्त करने की कोशिशें करने लगे। मगर अतीत शायद आज देवधर को राहत देने के पक्ष में नहीं था। देवधर को सेलेना का कोडाईकैनाल का टूर काफी भारी पड़ा था। वे उच्च रक्तचाप के मरीज थे। वे ही जानते थे कि कैसे गुजरा था उनका पूरा महीना सेलेना के बगैर। एक तो बेटी जवान थी, दूसरे मनबढ़। उन्हें विश्वास तो बहुत था अपने खून पर, मगर आजकल की जेनेरेशन से कोई अलग तो नहीं थी सेलेना। अपनी ही शर्तों पर जीने वाली और दूर-दराज में बसे अपने गाँव की रूढ़ियों-मान्यताओं की ठिल्ली उड़ाने वाली सेलेना, शायद पहली बार देवधर से इतने दिनों के लिए दूर गयी थी। इसीलिए शायद पहली बार ही देवधर इतने चिंतित हुये थे। देवधर सीधे-सपाट लहजे से तो नहीं, मगर चेहरे के भावों से बेटी के मिजाज को परखने के खातिर, वे उसके कमरे में गये थे। मगर सेलेना की थकान ने बातों को आगे बढ़ने का मौका ही नहीं दिया था। देवधर उŸार प्रदेश के बहराइच जिले से थे। वे खाते-पीते घर के थे। मगर सेलेना के कारण ही हल्दी जैसी सुनसान जगह पर अपनी जिन्दगी बिताने पर विवश थे। जन्म देते ही सेलेना की माँ चल बसी थी। धार्मिक प्रवृŸा का होने के कारण, देवधर ने दूसरा विवाह नहीं किया था। वो पत्नी को अर्द्धांगिनी मानते थे। इसलिए विवाह को कई जन्मों का बन्धन समझते थे। घर वालों के दूसरी शादी के दबाव और सेलेना के जन्म लेते ही माँ को खा जाने वाले तानों से आजिज आकर, वे हल्दी भाग आये थे। उन्हीं दिनों तराई बीज निगम खुला था। उसी में अस्थायी स्टोर कीपर की नौकरी पा गये थे देवधर। गोदाम के ही एक हिस्से में रहने लगे थे वे। बाद में दुधमुंही बच्ची को भी ले आये थे देवधर और हल्दी में ही उनकी बिटिया जिसे वे ‘मुन्नी’ पुकारते थे, ‘‘सेलेना’’ नाम पा गयी थी। वहीं न जाने कहां से एक वृद्ध परितक्यता, शायद बच्ची के भाग्य से देवधर को मिल गयी थी। सिर्फ भोजन, आश्रय पर ‘महराजिन’ पुकारी जाने वाली वो परितयक्ता ‘सेलेना’ के पालन-पोषण की जिम्मेदारियाँ उठाने को तैयार हो गयी थीं। सुर्ती और रामचरितमानस तक जीवन समेटे देवधर ने ‘सेलेना’ की परवरिश अपनी हैसियत से बढ़कर की थी। वही ‘सेलेना’ आज एक रूपवती युवती थी। होशियार तथा तेज होने के साथ-साथ अच्छा गला भी पाया था सेलेना ने। उस पर तुर्रा ये कि काया भी कमनीय हो, तो मिजाज कैसा होगा युवती का, बताने की जरूरत नहीं है। पन्तनगर में हर साल किसान मेला लगता था। मेला किसानों का था, मगर मेले में काफी कुछ खेती-किसानी से इतर भी होता है। मेले के समापन समारोह में एक फुटबाल मैच भी होना था। मैच क्या था, प्रतियोगिता पहले से ही चल रही थी। यूं फाइनल मैच मेले के अंतिम दिन रखा गया था, ताकि दर्शक ज्यादा से ज्यादा रहें। यूनिवर्सिटी की टीम मैच तो हार गयी थी, मगर ‘प्लेयर ऑफ दी मैच’ सबकी नजरों में चढ़ गया था। लम्बा, इकहरा और खिली रंगत का कसरती बदन, शरीर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा उस खास शख्सियत के बाल ही थे। कई मूव बनाने के बावजूद वो सिर्फ एक गोल कर पाया था। मगर फुटबाल लेकर मूव बनाते हुये, वह ठीक अर्जेन्टीना के स्टार प्लेयर ग्रैबियल बातिस्तुता की तरह लगता था। निर्णायकों ने भी जानता की इच्छा को भाँपते हुए उसे न सिर्फ उस दिन के खेल का, बल्कि समूची प्रतियोगिता का सबसे बेहतरीन खिलाड़ी चुना था। ‘‘मगर वो है कौन, और कहाँ रहता है’’ सेलेना ने जानना चाहा। ’’अपनी शीला मैडम का बेटा है। प्लान्ट पैथालोजी वाली, छोटी बाजार में रहता है’’। और नाम ‘‘शांत’’ जैसा किरदार वैसा ही नाम-शांत स्वरूप सक्सेना’’। मैच के बाद एक छोटी सी संगीत संध्या का आयोजन था। सेलेना ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया, उस सर्वश्रेष्ठ शांत के सामने और अपनी बारी में सेलेना भी छा गयी थी महफिल पर। विशिष्टतायें एक दूसरे का सानिध्य पाने को आतुर हो उठी। पैरो के जादूगर ने जहां सेलेना के दिल के तार झनझना दिये थे, वहीं संगीत की सुरलहरियों ने उस योद्धा खिलाड़ी को मदहोश कर दिया था। मगर उस रोज बात जान-पहचान से आगे न बढ़ सकी। अलबŸा अगली मुलाकात करने का वादा उन दोनों ने जरूर किया था। ये अलग बात थी कि उस अगली मुलाकात को भी उन दोनों ने अपनी सुविधानुसार ‘इŸोफाक’ की शक्ल देने की पुरजोर कोशिशें की थी। शांत और सेलेना ऐसे ही गढे़ हुये इŸोफाको से मिलते रहे। मगर उन दोनों के अहं ने उस निश्छल एवं अप्रकट प्रेम को शब्दों का रूप नहीं लेने दिया। प्रेम एक बीज है समान होता है, जो सही समय पर प्रस्फुटित होकर दिशा पा जाये तो जीवन को खूबसूरत और पुरसकून बना देता है। मगर अहं जब प्रेम की निश्छलता पर हावी होता है, तो बड़ा ही विकृत स्वरूप सामने लाता है। शांत ने इस प्यार को किसी मनपसंद चीज को हासिल करने की प्रक्रिया मात्र समझा था। जबकि सेलेना अपने प्रेम को, उसके रूप राशि की छाया में भीख देकर, पाने वाले को उपकृत करने का निमिŸा समझती थी। दोनों की जिद ने, प्रेम की कोपलों को फूटने नहीं दिया। भावनायें फड़फड़ाती रहीं, मगर दंभ की चट्टानों ने प्रेम की गंगा को सीने में ही कैद रहने पर विवश कर दिया। अहं ने प्रेम को पछाड़ा, हारे हुये प्रेम ने बेचैनी पैदा की और बेचैनी ने जिद को जन्म दिया। जिद और कुंठा ने प्रेमी शांत से वो कृत्य कराया, जो कुछ वक्फा पहले उसके लिए अकल्पनीय था। शांत, जो डाक्टर शीला की इकलौती, जिद्दी और काफी हद तक बिगडै़ल औलाद थी। शांत का सिर्फ चिŸा ही शांत दिखता था। वैसे अपने भीतर वो काफी उथल-पुथल समेटे हुये था। वो अक्सर अपने आप से ही लड़ता रहता था। खुद से लड़ते रहने के कारण ही, शायद वो खेल के मैदान में भी एक योद्धा की मानिंद बर्ताव करता था। विपरीत परिस्थितियों से लड़कर, उन पर हावी होना उसकी नियति में शुमार हो चुका था। पन्तनगर शहर जरूर छोटा सा था, मगर विशिष्टतम लोगों से भरपूर था और उसी विशिष्टतम बिरादरी की एक खास और कामयाब शख्सियत डाक्टर शीला का इकलौता वारिस था शांत। यों डाक्टर शीला प्लान्ट पैथालोजी डिपार्टमेंट की हेड थी। वे कई देशी और विदेशी समितियों की मानद सदस्या भी थी। उनकी जिन्दगी का एक बहुत बड़ा हिस्सा विजिटिंग लेक्चरर के तौर पर बीता था। तमाम देशी और विदेशी दौरे ही शांत के जन्म का बायस बने थे। क्योंकि ऐसे ही किसी दौरे के दौरान बायोमेडिकल-इंजीनियरिंग के किसी प्रोफेसर से उनका प्यार परवान चढ़ा था और शांत तब उनके गर्भ में ही था, जब प्रोफेसर साहब मांट्रियल (कनाडा) की अपनी हाई प्रोफाइल जाब के लिए डाक्टर शीला को छोड़ गये थे। हालांकि प्रोफेसर साहब ने काफी पुरजोर कोशिशे की थी, डॉ0 शीला को ले जाकर मांट्रियल में सेटल होने की। डॉ0 शीला ने हीला-हवाली करने के बाद शुरूआती दौर में सहमति तो दी थी, मगर अंततः उन्होंने अपनी स्थायी नौकरी और पन्तनगर छोड़ने से इंकार कर दिया था। प्रोफेसर साहब को इस बात की खासी उम्मीद थी कि देर सबेर डॉ0 शीला मांट्रियल आ जायेंगी। इस बाबत उनके मुतमईन होने की दो वजहें थीं, अव्वल तो भारत में बिना ब्याह से पैदा हुये बच्चे की माँ का, सर उठा कर जीना मुश्किल था चाहे वो कितनी ही उच्च वर्ग की क्यों ना हो। दूसरी वजह ये थी कि डॉ0 शीला जैसी औरतों के लिए कामयाबी के अवसर मांट्रियल में पन्तनगर से काफी ज्यादा थे। प्रोफेसर साहब सिर्फ इन्ही उम्मीदों का दामन पकडे़ बैठे थे। ठीक इसके उलट, डॉ0 शीला इस यकीन के मुगालते में जीती रही थीं कि महज पैसे के लिए कोई शख्स अपने बीवी बच्चे और अपने मुल्क से ज्यादा दिन दूर नहीं रह सकता। ये और बात थी कि डॉ0 साहिबा प्रोफेसर साहब की ब्याहता नहीं थी। इस घटना के कई वर्ष बाद तक डॉ0 शीला बरसों बरस तक प्रोफेसर साहब के बारे में जानकारियां जुटाती रही थीं। प्रोफेसर साहब ने कनाडा की नागरिकता भी ले ली थी। उन्होंने किसी क्रिस्तानी महिला से विवाह कर लिया था। जिससे उनको दो बेटियां भी हासिल हुयी थी। मगर ईसाई माँ ने अपनी बच्चियों को ईसाई ही बनाया था। पूरी तरह से कनाडा की जीवन शैली ही अपनायी थी प्रोफेसर साहब की क्रिस्तानी बीवी और बच्चियों ने। जरूरतों के मद्देनजर किये गये, पूरब और पश्चिम की संस्कृतियों का मेल सफल न हो सका। नतीजतन प्रोफेसर साहब अकेले रह गये थे। हालांकि तलाक तो नहीं हुआ था प्रोफेसर साहब का, मगर बरसों बरस तक उनका अपनी बीवी और बच्चियों से वास्ता नहीं रहा था। शायद सौतिया डाह से लबरेज यही इकलौती तसल्ली ही, न सिर्फ डा0 शीला को सुकून देती थी बल्कि कहीं न कहीं हल्की सी कोई उम्मीद की लौ भी जगाती थी।

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