Deh ki Dahleez par - 11 in Hindi Moral Stories by Kavita Verma books and stories PDF | देह की दहलीज पर - 11

Featured Books
  • My Wife is Student ? - 25

    वो दोनो जैसे ही अंडर जाते हैं.. वैसे ही हैरान हो जाते है ......

  • एग्जाम ड्यूटी - 3

    दूसरे दिन की परीक्षा: जिम्मेदारी और लापरवाही का द्वंद्वपरीक्...

  • आई कैन सी यू - 52

    अब तक कहानी में हम ने देखा के लूसी को बड़ी मुश्किल से बचाया...

  • All We Imagine As Light - Film Review

                           फिल्म रिव्यु  All We Imagine As Light...

  • दर्द दिलों के - 12

    तो हमने अभी तक देखा धनंजय और शेर सिंह अपने रुतबे को बचाने के...

Categories
Share

देह की दहलीज पर - 11

साझा उपन्यास

देह की दहलीज पर

संपादक कविता वर्मा

लेखिकाएँ

कविता वर्मा

वंदना वाजपेयी

रीता गुप्ता

वंदना गुप्ता

मानसी वर्मा

कथाकड़ी 11

अब तक आपने पढ़ा :- मुकुल की उपेक्षा से कामिनी समझ नहीं पा रही थी कि वह ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है ? उसने अपनी दोस्त नीलम से इसका जिक्र किया। कामिनी की परेशानी नीलम को सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर उसके साथ क्या हो रहा है। वहीँ अरोरा अंकल आंटी हैं जो इस उम्र में भी एक दूसरे के पूरक बने हुए हैं। मुकुल अपनी अक्षमता पर खुद चिंतित है वह समझ नहीं पा रहा है कि उसके साथ ऐसा क्या हो रहा है ? कामिनी की सोसाइटी में रहने वाला सुयोग अपनी पत्नी प्रिया से दूर रहता है। ऑफिस से घर आनेके बाद अकेलापन उसे भर देता है। उसी सोसाइटी में रहने वाली शालिनी अपने प्रेमी अभय की मौत के बाद अकेले रहती है। वह अपने आप को पार्टी म्यूजिक से बहलाती है लेकिन अकेलापन उसे भी खाता है। वह अकेले उससे जूझती है। कामिनी का मुकुल को लेकर शक गहरा होता जाता है और उनके बीच का झगड़ा कमरे की सीमा पार कर घर के अन्य सदस्यों को भी हैरान कर देता है।

अब आगे

रात गहरा चुकी थी । दिन और रात जीवन का सतत क्रम है । प्रकृति में भले ही ये क्रम उसी अनुपात में उसी तरीके से चलता रहे पर जीवन में कभी-कभी इसका अनुपात गड़बड़ा जाता है । कभी ये रात ज्यादा ही देर तक ठहर जाती है तो कभी दो लोगों के मध्य दिन के उजाले में भी निशब्द मौन सी पसर जाती है । मुकुल ने करवट बदल कर देखा । लड़-झगड़ कर कामिनी भी सो चुकी थी । उसने पहली बार महसूस किया कि सोती हुई कामिनी के चेहरे पर बच्चों की सी मासूमियत नहीं एक तनाव था । वो तनाव जिसके छींटे किसी अग्नि स्फुर्लिंग की तरह उनके बीच के रिश्ते को स्वाहा कर रहे थे । उसका बस चलता तो वो कामिनी के आँचल में सारी दुनिया की खुशियाँ रोप देता पर ये ...। फिर वो ऐसा कुछ भी तो नहीं माँग रही थी, जो उनके बीच उफनती पहाड़ी नदी की तरह चंचलता से भरपूर मुखरित और गुंजायमान ना रहा हो । खिड़की से छन कर आती हुई चांदनी उनके पलंग की नक्काशी पर नृत्य कर रही थी । दूर आसमान में चाँद अपनी चंद्रिका के साथ प्रणय में निमग्न था और यहाँ एक प्रेमी जोड़ा जीवन के राग को तरस रहा था एक का व्यक्त था और एक का अव्यक्त ।

उसकी आँखों ने चांदनी का पीछा करते हुए पलंग पर नज़र डाली । जो उसके हेड रेस्ट की नक्काशी के फूलों पर थिरक रही थी । जैसे उन उकेरे गए पुष्पों में फिर से जीवन की ऊष्मा भर देना चाहती हो । ये पलंग कामिनी के पिता ने विवाह में दिया था । वो किसी भी तरह के दहेज़ के खिलाफ था पर कामिनी के पिता अड़ गए थे । पलंग तो बेटी के घर से ही जाता है । नए विचारों से युक्त मुकुल चिढ गया था, “ये भी कोई बात हुई । जब कुछ नहीं लेना है तो नहीं लेना है “। तब रिश्ते के भाई ने समझाया था, “पगले हो तुम, स्त्री इस पलंग के साथ परिवार के ढेरों आशीर्वाद के साथ ससुराल आती है । दो अनजान, अपरिचित लोगों को प्रणय के इस अटूट बंधन में बाँधे रखने में इस पलंग की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । समझ लो यह एक अक्ष है जिस पर गृहस्थी टिकी है”। तब से एक विशेष ही अनुराग रहा है उसको इस पलंग से । कभी-कभी कामिनी ने दूसरा पलंग लेने की बात भी करी पर वही टाल गया । समय के साथ कभी गद्दे बदले, कभी फट्टे तो कभी नक्काशी पर पॉलिश भी हुई पर यह किसी अजेय यौद्धा की तरह टस से मस ना हुआ । कितने अनमोल पलों का साक्षी रहा है ये पलंग जब जीवन के रस का प्याला उन्होंने साथ –साथ पिया था । उन दोनों के बीच बढती दूरी पर क्या वो भी परेशान होगा ? अपने ही सवाल पर उसे बेचैनी सी हुई । इस मानसिक अवस्थामें वो ज्यादा देर तक लेटा ना रह सका ।

मुकुल को गला सूखता सा महसूस हुआ उसने धीरे से उठ कर पास रखी बोतल से दो घूँट पानी गटका और बालकनी का दरवाजा खोल कर बाहर आ गया । अर्द्धवृत्ताकार बालकनी में कामिनी की सुरुचि के परिचायक सारे पौधे चांदनी में नहाये हुए इठला रहे थे । सच में कामनी उसके जीवन के हर क्षेत्र में रंग और उल्लास को खिलाये रखती है । आज भी वो किसी किशोरी की तरह हर पल उल्लास और उत्साह से भरी रहती है । अचानक से उसकी नज़र सामने रहने वाले अंकल-आंटी के माले पर चली गयी । “कामिनी की प्रेरणा” वो मन ही मन बुदबुदाया । कितनी बार कामिनी ने उससे कहा है कि वो दोनों भी उन आंटी अंकल की तरह अपने बीच प्रेम की कली कभी सूखने नहीं देंगे । वो भी तो यही चाहता था पर ...सोचते हुए उसने बेला के फूल को चट से तोड़ दिया । अफ़सोस के साथ उसने पौधे को देखा सभी फूल अपने डंठल पर लगे इठला रहे थे परन्तु जिनके डंठल झुक गए थे वो फूल भी मुरझा रहे थे । उफ़ ! डंठल के मुरझाने से फूल मुरझा ही जाता है । फूल का उल्लास डंठल के तने रहने से हैं। डंठल उसका स्वाभिमान ही नहीं एक अक्ष है । हाँ एक अक्ष जिस पर टिका है पुष्प का सौन्दर्य, जैसे रात्रि के अक्ष पर टिका है दिवस, जैसे किसी पेड़ के विशाल तने रुपी अक्ष पर टिका अमर बेल का सम्पूर्ण अस्तित्व ।

अपने ही विचारों से उसे निराशा होने लगी । पत्तों के खड़खड़ाने की आवाज़ ने उसकी तन्द्रा भंग की । उसने आवाज़ की दिशा में देखा एक श्वान युगल आपस में पूर्णतया से निमग्न था । ना प्यार, ना मनुहार सिर्फ जीवन का आनंद और विस्तार । यूँ तो उसने सड़क पर आते जाते ऐसे दृश्य कई बार देखे थे और नज़रअंदाज करके आगे बढ़ गया था परन्तु आज ना जाने क्यों उसकी निगाहें ठिठकी सी देखती रहीं ...इसी अक्ष पर जीवन टिका है, इसी अक्ष पर रिश्तों का माधुर्य भी टिका है, अभिमान और स्वाभिमान टिका है... अगर ये अक्ष गड़बड़ा जाए तो ? वो धम्म से सोफे पर बैठ गया । अतीत किसी स्क्रीन की तरह उसके सामने आने लगा । कितना आगाह करती थी कामिनी उसे खाने –पीने में ऐतिहात बरतने में, कितना जोर देती रही व्यायाम और ध्यान पर उसने आलस पन की गाड़ी को जिन्दगी की चाबी थमा दी । देर से उठना, तेल-घी सना कुछ भी खा लेना, एक रोटी की भूख पर दो उड़ा जाना उस पर तुर्रा ये कि पेट सब एडजस्ट कर लेगा । रही सही कसर देर रात तक टी. वी के आगे पसर कर बैठने ने पूरी कर दी । सजा तो मिलनी ही थी । सजा मिली भी तो बढ़ी हुई शक्कर के रूप में । एक मीठी सजा जो मिठास को ही दूर कर देती है । हालांकि अभी डाईबिटीज नहीं हुई थी । डोर अभी भी उसके हाथ में थी । फिर भी अपने प्रिय खाने पर लगी लगाम उसे एक तनाव में भर रही थी । यहाँ तक ही होता तो फिर भी गनीमत थी । अभी कुछ और भी था जो उसकी बेख्याली ने खुद ही वक्त की किताब में उसके हिस्से में लिख दिया था ।

वो अक्टूबर के महीने की पूरे चाँद की रात थी । उस दिन भी वो यही, इसी बालकनी में खड़ा चाँद को निहार रहा था । बारिश से नहाई सद्ध स्नाता सी प्रकृति का आकर्षण यूँ खिल रहा था जैसे ऋतु स्नान के बाद स्त्री फिर से खिल जाती है । ऐसे में चाँद क्यों ना मदहोश होता । विज्ञान कहता है कि यूँ तो मनुष्य का कोई मेटिंग सीजन अन्य जीव जंतुओं की तरह नहीं होता पर सबसे ज्यादा बच्चे जुलाई में पैदा होते हैं , उस आधार पर कहा जा सकता है कि अभिसार का ये सबसे माकूल समय होता है । भले ही वसंत ऋतु के लिए कामदेव ने अपने बाण सुरक्षित रख लिए हों । बालकनी में खड़े –खड़े वो अपने ही विचारों पर मुस्कुरा दिया । तभी कामिनी नहा कर गुलाबी नाइटी में उसे एक झलक दिखला कर परदे के पीछे छिप गयी । रात चांदनी और कमल की तरह खिला कामिनी का रूप सहज आमंत्रित करता हुआ । वो धीरे से आगे बढ़ा उसने परदे समेत कामिनी को अपनी बांहों में भर लिया । कामिनी उसकी बांहों से निकलने की झूठी कोशिश करने लगी । धीरे से उसने पर्दा हटाया और साँसों को साँसों की भाषा पढने दी । थोड़ी देर तक यूहीं समय थमा रहा फिर कामिनी किसी किशोरी की तरह “धत्त’ कहते हुए छिटक कर दूर खड़ी हो गयी । उसने आगे आ कर बालकनी की और जाने वाला दरवाजा बंद कर लिया । कमरे में सिर्फ वो था कामिनी और उस वक्त पर हस्ताक्षर करती हुई रोशनदान से आने वाली चाँदनी ।

ये गुलाबी नाइटी उसे बहुत पसंद थी । टू पीस थी । बाहरी आवरण दुनिया के लिए और अंदरूनी सिर्फ उसके लिए । यूँ भी कामिनी अपनी देहयष्टि के प्रति बहुत सजग रहती थी । बात खाने पीने या व्यायाम की हो या फिर ब्यूटी पार्लर जाने की उसका नियम एक दिन के लिए भी आगे –पीछे नहीं खिसकता । पीछे होते हुए बाह्य आवरण उसने स्वयं हटाया ...अब उसका कुछ –कुछ आवृत कुछ कुछ अनावृत सौन्दर्य था और उसके नेत्रों में निमंत्रण व समर्पण के भाव तिरोहित हो रहे थे । वो उसकी ओर बढ़ चला जैसे परवाना शमा की ओर बढ़ता है । ठीक उस समय जब गंगा और जमुना की उत्ताल तरंगे संगम को व्याकुल थी, धरती अपने आदि प्रेमी सूर्य के चारो तरफ प्रेम राग गाते हुए बढ़ी चली जा रही थी । हवा के झोंके के साथ पराग कण पुष्प के वर्तिकाग्र पर गिर –गिर कर अपने पूर्व परिचित पथ कि ओर बढ़ चले थे, उसने महसूस किया कि अचानक...अचानक अक्ष का संतुलन दरक गया है, डंठल का तनाव जाते ही पुष्प का मुरझा जाना तय था, तय था अमरबेल का सूख जाना, तय था रात्रि के अक्ष पर टिके दिवस का अंधकार से भर जाना । पर ये सब कब कैसे ...बिना किसी पूर्व योजना के बिना किसी सूचना के । जिन्दगी ऐसे भी साथ छोड़ती है, उसने सोचा नहीं था । उसका दिल चीत्कार कर उठा । दिल की धड़कने बढ़ गयीं । माथे पर पसीने की बूँदे चुहचुहाने लगीं । वो पलट कर पलंग के दूसरे छोर पर लेट गया । कामिनी हतप्रभ थी । “क्या हुआ” का प्रश्न स्वाभाविक था । पर उसने कोई उत्तर नहीं दिया । क्या उत्तर देता । इतनी उर्जा से भरी कामिनी के सामने वो खुद को बौना महसूस कर रहा था । “कुछ नहीं बस आज तबियत ठीक नहीं लग रही है, मैं सोना चाहता हूँ। कल बहुत सारे जरूरी काम हैं, मैं भूल ही गया था, उसके लिए नींद पूरी होना जरूरी है ...फिर कभी” थोड़ी देर सोचने के बाद उसने कामिनी के माथे पर एक हल्का सा चुंबन अंकित करते हुए कहा । कामिनी ने तुरंत उठ कर उसे पानी दिया । प्रेम से माथे को सहला कर कहती रही, “कोई बात नहीं, आप सो जाइए । काम का इतना तनाव ना पाला करिए।” वो आँखें मीचे सोने का अभिनय करता रहा और कामिनी बहुत देर तक उसके पास बैठी जागती रही ।

दूसरे दिन तो कामिनी ने जैसे पूरा घर सर पर उठा लिया, “शुगर चेक कराओ आज ही, इतने परेशान तुम कभी नहीं लगे”। इनकार करने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी । कामिनी ने फोन कर के लाल पैथ लैब से सैम्पल कलेक्टर को बुलाया । उसने सिर्फ सुगर ही नहीं कोलेस्ट्रोल, कम्पलीट ब्लड काउंट, यूरिक एसिड , क्रीटनीन आदि का कम्प्लीट पॅकेज ले लिया । सेहत का मामला हो और कामिनी कभी लापरवाही कर जाए ...ऐसा तो कभी हो ही नहीं सकता । दो दिन में पूरी रिपोर्ट आ गयी । सब कुछ नार्मल था । बढ़ी हुई शुगर भी खून की नदी में अपने तटबंधों की सीमा रेखा का पालन करती हुई बह रही थी । रिपोर्ट देखकर कामिनी को तसल्ली हुई । माँ ने प्रशाद चढ़ाया । उन्हें ज्यादा तो कुछ नहीं पता था पर टेस्ट के नाम से हज़ार आशंकाएं उनके मन में पनपने लगीं थी । रिपोर्ट देखकर उसने भी तमाम चिंताओं को परे किया और इसे महज एक बार का वाकया मान कर भूल जाना ही बेहतर समझा । “होगा कोई तनाव, कई बार अवचेतन में होता है। नहीं पकड़ पाया तो क्या हुआ ...बीती ताहि बिसार दे कि तर्ज पर उसने जीवन में आगे बढ़ने की कोशिश की । पर एक के बाद एक चार असफल प्रयासों ने उसे जहनी तौर पर तोड़ कर् रख दिया । गहरी निराशा का ब्लैक होल उसके अन्तस् को लीलने लगा । तब से कामिनी के साथ अभिनय ही तो कर रहा है वो ...उफ़ !

वो अतीत की तंग गलियों से निकल कर वर्तमान में लौट आया । दर्द की गहरी लकीर उसके माथे पर खिंच गयी उसने पलके बंद कर लीं । बंद पलकों के अभिनय के नीचे पहले अपने मित्रों, कलीग्स के बीच सुनी –कही गयी बातों के ना जाने कितने आकार उभरने लगे ...

“ये साला दिलीप अपनी पत्नी को खुश कर नहीं पाता ...और उसी की झुल्ल यहाँ ऑफिस में निकालता है, जब देखो तब चिड –चिड”

“अरे शर्मा जी की बीबी क्यों नहीं तलाक की अर्जी देगी । जब शर्मा जी तो उसका साथ दे ही नहीं पाते हैं। आखिर कब तक झुठलाये खुद को” ।

“तुम रेहाना को दोष मत दो जो बॉस के चक्कर लगाती फिरती है । मामला केवल प्रमोशन का नहीं है । पता है कमी उसके पति सुरेश में ही है । तुम्ही बाताओ जहाँ बैलगाड़ी की रफ़्तार चाहिए वहाँ हवाई जहाज की गति का क्या काम ? बस यूँ समझो उसने बॉस में अपनी संतुष्टि ढूँढ रही है ।

“अरे भैया ! घंटों का काम मिनटों में हर जगह नहीं चलता है ना ” ।

कितनी सारी बातें और हर बार बातों के बाद गूंजते ठहाके उसके अंतस को भयभीत करने लगे ।

उसने इन विचारों पर ब्रेक लगाने की कोशिश की तो रक्तबीज की तरह ट्रेन से आते –जाते दीवारों पर सफ़ेदी पोत कर बड़े –बड़े अक्षरों में लिखे गए “मर्दाना ...”विज्ञापन उसको मुँह चिढाने लगे । कभी सोचा नहीं था, वह विज्ञापन जिसे वो हमेशा नज़रअंदाज करता चला है, एक दिन उसकी हकीकत बन जायेंगे और उसका व् कामिनी का जीवन एक मृगतृष्णा ।

क्या कहे वो कामिनी से “मेरी जान मैं आज भी तुम्हें बाहों में भरकर वैसे ही प्रेम करना चाहता हूँ जैसे बादल धरती से करते हैं , पर ...” बेचैन दो आँखें बरस पड़ीं ।

क्रमशः

वंदना बाजपेयी

vandanabajpai5@gmail.com

शिक्षा : M.Sc , B.Ed (कानपुर विश्वविद्ध्यालय )

सम्प्रति : संस्थापक व् प्रधान संपादक atootbandhann.com

दैनिक समाचारपत्र “सच का हौसला “में फीचर एडिटर, मासिक पत्रिका “अटूट बंधन”में एक्सिक्यूटिव एडिटर का सफ़र तय करने के बाद www.atootbandhann.com का संचालन

कलम की यात्रा : देश के अनेकों प्रतिष्ठित समाचारपत्रों, पत्रिकाओं, वेब पत्रिकाओं में कहानी, कवितायें, लेख, व्यंग आदि प्रकाशित । कुछ कहानियों कविताओं का नेपाली , पंजाबी, उर्दू में अनुवाद ,महिला स्वास्थ्य पर कविता का मंडी हाउस में नाट्य मंचन ।

प्रकाशित पुस्तकें

कहानी संग्रह –विसर्जन

साझा काव्य संग्रह .... गूँज , सारांश समय का ,अनवरत -१ , काव्य शाला

साझा कहानी संग्रह ... सिर्फ तुम, मृग तृष्णा

सम्पादित –दूसरी पारी