Vishanti - 7 in Hindi Horror Stories by Arvind Kumar Sahu books and stories PDF | विश्रान्ति - 7

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विश्रान्ति - 7

विश्रान्ति

(‘रहस्य एक रात का’A NIGHT OF HORROR)

अरविन्द कुमार ‘साहू’

विश्रान्ति (The horror night)

(दुर्गा ने देखा, जच्चा दर्द से कराह रही थी) -6

दुर्गा ने अनुमान लगाया कि शायद एक बड़े घर की सम्मानित बहू होने के कारण मर्यादावश वह अपनी चीखें दबा ले रही थी | दर्द को बुरी तरह पीने या बर्दाश्त करने की सफल – असफल कोशिश में वह लगातार हाथ - पाँव भी पटक रही थी। दुर्गा मौसी के लिये उसकी दर्द की अधिकता का अनुमान लगाना बिलकुल भी मुश्किल नहीं था |

उस जच्चा का पेट गर्भावस्था के कारण फूला हुआ दिखाई दे रहा था।

दुर्गा मौसी की पेशेवर और अनुभवी आँखों ने तत्काल ताड़ लिया कि उसका नौ माह का गर्भधारण काल पूरी तरह से बीत चुका था। अब तक तो बच्चा अपने आप ही हो जाना चाहिए था। लेकिन पता नहीं किस वजह से अब तक नहीं हो पाया था ?

शायद इस प्रसव में कोई विशेष अड़चन थी। जरूर रही होगी ..., तभी तो किसी आस - पास की दाई को न बुलाकर दुर्गा मौसी को ही इतनी दूर से बुलाकर लाया गया था।

..... और भला बुलाते भी क्यों न ? उस जैसी मशहूर और अपने काम में दक्ष कोई दूसरी दाई इस गाँव के आस - पास मिलेगी ही कहाँ ?

दुर्गा मौसी को अपने हुनर अथवा विशेषज्ञता पर एक क्षण को सही लेकिन गर्व तो हो ही गया। हालाँकि अपनी काबिलियत का घमंड उन्हें दूर – दूर तक कभी छू कर भी नहीं गया था। जबकि ऐसी कार्य कुशलता दिखाने के अवसर भी उन्हें खूब मिलते थे।

तभी तो इतनी दूर तक उनका नाम छाया हुआ था। उनके घर से पाँच – छह कोस की दूरी तक भी जब किसी के घर प्रसव पीड़ा से कोई महिला रोती थी, तो घर का जिम्मेदार व्यक्ति किसी भरोसेमंद व्यक्ति को यही आदेश देता था कि जा बेटा दुर्गा मौसी को जल्दी से बुलाकर ले आ। वो तुरन्त न मिले तभी किसी और के पास जाना |

लेकिन दुर्गा मौसी को एक और बड़ी विचित्र बात यहाँ परेशान कर रही थी | वह यह थी कि यह पीड़ित महिला इस समय इतनी बड़ी हवेली में भी नितांत अकेली ही थी।

क्या कोई दूसरी औरत भी नहीं थी इस घर में, उसकी देखभाल के लिये ?

आखिर ऐसा क्यों ?

चलो, एक बार को मान लिया कि उनके परिवार में इस समय कोई दूसरी महिला न रही होगी | किन्तु कोई नौकरनी तो होनी ही चाहिए थी उसके पास ? क्या इन लोगों को कोई पास-पड़ोस की भली महिला भी नहीं मिली थी, इसकी देखभाल के लिए ?

गाँव में इसकी थोड़ी सी सेवा और देख-भाल के लिए किसी से भी कह देते तो ऐसा ना-मुमकिन ही होता कि कोई एकदम से मना कर देता कि न भैया, मैं तो हवेली में बिलकुल भी नहीं जाऊँगी। चाहे किसी के प्राण ही क्यों न निकले जा रहे हों |

वैसे भी यहाँ एक नहीं बल्कि दो – दो ज़िंदगियों का सवाल था। एक तो जच्चा और दूसरे उसके अजन्मे बच्चे का। ऐसी स्थिति में की गई किसी भी लापरवाही से अक्सर दोनों की ही जान चली जाती है। .....और हालात बता रहे थे कि दुर्गा मौसी भी आज यहाँ थोड़ी देर और न पहुँचती तो बिलकुल ऐसा ही होने वाला था।

दुर्गा मौसी एक क्षण को यह भी सोच बैठी कि आखिर किसी भी गाँव की औरतें आखिर इतनी संगदिल या संवेदनहीन कैसे हो सकती हैं ? ऐसा तो किसी भी गाँव की औरत का चरित्र नहीं हो सकता।

हाँ, शहरी औरतों की बातें कुछ अलग हो सकती हैं, पर गाँव में ?......वो भी हवेली वाले ऐसे बड़े लोगों के साथ ?

दुर्गा सोचने लगी कि ये भी हो सकता है कि हवेली वाले ये लोग ही कुछ गरम या घमंडी मिजाज के हों | मिलनसार न हों अथवा उनका छोटे – गरीब लोगों से व्यवहार बिलकुल भी अच्छा न हो ?

पर मौसी भी इस समय भला ये सब ज्यादा देर तक कैसे सोच सकती थी ?

क्योंकि उसको तो पूरे मान - सम्मान के साथ बुलाया गया था।

अतः उसने सारे नकारात्मक विचारों को एक तरफ धकेल दिया और मौत से जूझ रही उस जच्चा की ओर अपना सारा ध्यान केन्द्रित कर दिया।

दुर्गा मौसी को इस अभागिन जच्चा पर बड़ी दया आ रही थी। उसका दिल ही कुछ ऐसा था | दूसरों के दुख में जल्दी पिघल जाने वाला। बिलकुल मोम के जैसा,

…..या फिर इस सर्द रात में टप – टप करके पिघलने वाले कुहरे के जैसा।

अब वह जच्चा के उपचार में लग गयी थी । सबसे पहले उसने जच्चा को अच्छे से धैर्य बंधाने का काम किया – “देखो बहू ! कुछ क्षणों तक और धीरज रख लो । मैं आ गयी हूँ न, बस देखते ही देखते सब ठीक कर दूँगी |”

बातों के साथ ही दुर्गा मौसी की उँगलियाँ और हाथ अपना काम करने में व्यस्त हो चुके थे | पर उसके द्वारा धैर्य बंधाने का सिलसिला अभी भी लगातार जारी था |

- “जानती हो बहू मैं दुर्गा मौसी हूँ | ..... इस इलाके की सबसे मशहूर दाई। मेरे इलाज से आज तक किसी जच्चा का प्रसव खराब नहीं हुआ | हर मरीज को फायदा हुआ है। तुम्हें भी होगा, धीरज रखो | मैं थोड़ी ही देर में सब कुछ ठीक कर देती हूँ।”

दुर्गा ने देखा, उसकी बातों से मरीज को बेहद राहत पहुँची थी। उसकी दर्द भरी आवाजों में कुछ कमी आयी थी और अब वह चीख़ों को काफी दबा कर सिर्फ लम्बी – लम्बी साँसे लेने का प्रयास करने लगी थी।

वास्तव में मरीज के लिए दवा – इलाज की तरह ही सहानुभूति के बोल भी बेहद राहत पहुँचाने वाले होते हैं।

दुर्गा मौसी को अपने आगे के काम के लिए गर्म पानी की सख्त जरूरत थी। दुर्गा मौसी ने कमरे के खुले दरवाजे की ओर मुँह करके आवाज लगाई - “अरे ! कोई है यहाँ ? मुझे तुरन्त गर्म पानी चाहिए।.....या फिर जल्दी आग जलाने की व्यवस्था करो।”

उसने पानी गर्म करके लाने के लिये जैसे ही आवाज लगायी तो कमरे के बाहर से उस रहस्यमय युवक की तुरन्त आवाज आयी |

– “आग तो यहाँ बिलकुल भी नहीं जल पायेगी मौसी |”

वह शायद ऐसी ही किसी बात के इन्तजार में जाने कब से वहाँ आकर खड़ा हो गया था | मौसी को उसकी आमद का अंदाजा बिलकुल भी नहीं लगा था |

“भला ऐसा क्यों ?” – दुर्गा मौसी भारी आश्चर्य से चिल्लायी |

- “क्योंकि घर में इस समय सूखी लकड़ियाँ खत्म हो चुकी हैं |”

युवक का फिर से विवशता भरा स्वर गूँजा |

अब तो दुर्गा मौसी चकरा कर बोली – “अरे ! तब तो कहीं से थोड़े सूखे पुआल ही लाकर जला दोssss |”

- “ओहह, मौसी ! अब क्या बतायें ?.......इस कमबख्त दियासलाई की आखिरी तीली को भी आज ही खत्म होना था |”

- “अरे भाई, तो गाँव में कहीं से भी ले लेते |” दुर्गा मौसी को सारी बातें बड़ी अजीब लग रही थी |

लेकिन उनके हर सवाल का जवाब उनको और भी अजीब मिल रहा था |

- “अब क्या बतायें मौसी ? इस गाँव में कोई ढंग की दुकान तक नहीं है। हफ्ते में एक बार लगने वाली बाजार से इकट्ठा जरूरी समान खरीद कर न ले आओ, तो आधी रात यहाँ जहर भी खाने को नहीं मिल सकता।”

युवक की आवाज में जैसे बनावटी विवशता घुली हुई थी। साफ लग रहा था कि आग नाम की चीज से उनका दूर – दूर तक रिश्ता जुडने वाला नहीं था |

दुर्गा मौसी को बड़ा अजीब सा लग रहा था कि इस घर में आग जलाने को लकड़ियाँ तक नहीं है ? या फिर ये लोग जान बूझकर आग जलने ही नहीं देना चाहते थे।

आखिर क्या ये विश्वसनीय बात थी कि इतनी बड़ी हवेली में थोड़ी सी सूखी लकड़ियाँ तक नही है ?

बैलगाड़ी होने के बावजूद पुआल तक नहीं है ? .....और यहाँ तक कि दियासलाई में एक तीली भी नहीं बची है ?

आखिर ये लोग लकड़ी जलाकर उस पर खाना तो पकाते ही रहे होंगे ?

या फिर खाना भी नहीं पकाते - खाते थे ?

इस सन्नाटे वाली इतनी बड़ी हवेली जैसे घर में प्रसव पीड़ा से बीमार परेशान बहू पड़ी है। आखिर इस हाड़कँपाती ठंड में वह बिना लकड़ी और बिना आग के सहारे जीवित कैसे है ?

इनकी बहू ही नहीं इस हवेली में रहने वाले बाकी अन्य लोग भी, आखिर सब के सब कैसे लोग हैं ? जैसे वे कोई जिन्दा इंसान ही न हों।

वह सोचने पर मजबूर हो गई कि आखिर इतनी बड़ी हवेली में रहने वाले लोग इतने लापरवाह कैसे हो सकते हैं ?

या फिर इस बात में भी कोई गहरा रहस्य छुपा हुआ था ?

लेकिन इस समय दुर्गा मौसी आखिर करती भी तो क्या करती ?

गाँव के जानकार लोगों द्वारा कही हुई वो बातें उसे इस समय भी ध्यान में नहीं आयी कि भूत – प्रेत या आत्माओं को आग से बहुत डर लगता है। इस धरती पर सिर्फ आग ही ऐसी पवित्र और ताकतवर शक्ति है जिसके आगे किसी का कोई ज़ोर नहीं चलता।

आग हर किसी को जलाकर राख कर सकती है। इस हवेली को, उसमें रहने वाले लोगों को, किसी तरह की बुरी शक्तियों या प्रेतात्माओं तक को जलाने की क्षमता रखती है आग |

यदि सचमुच ही वहाँ ऐसा कुछ अनर्गल घटित हो रहा हो, तो उन घटनाओं को या उनके किसी प्रकार के अपवित्र विचारों को भी जलाकर खाक कर सकती थी आग।

...यदि किसी के मन में ऐसा कुछ भी अनुचित घटित करने का मन हो रहा हो तो....? आग सबका खेल बिगाड़ सकती है।

आग सर्व व्यापी और सर्व-शक्तिमान है। उससे सब डरते है। बुरी ताक़तें तो शायद कुछ ज्यादा ही डरती हैं। शायद इसीलिए यहाँ कहीं भी, आग जैसी कोई भी चीज ढूँढे नहीं मिल रही थी। दियासलाई या उसकी एक तीली तक नहीं। लालटेन की रोशनी तक बड़ी रहस्यमय थी।

शायद या पक्के तौर पर वह भी बिना आग के ही थी।

कैसे या किस तकनीक से यह लालटेन जल रही थी ? ठंडी और धुँधली रोशनी फैला रही थी ? भगवान जाने....।

चाहे जैसा भी हो, पर यहाँ कुछ तो गड़बड़ था | लेकिन कम से कम दुर्गा मौसी तो इस समय यह खेल बिलकुल ही नहीं समझ पा रही थी | ....या यूँ कह लो कि मरीज को ठीक करने की जल्दबाज़ी में कुछ समझना नहीं चाह रही थी |

वह इतना सोचने का समय ही नहीं निकाल पा रही थी । अपने सेवा कार्य के प्रति अपनी दीवानगी के चलते, किसी भी ऐसी बात पर ज्यादा सोचने का समय ही उसके पास नहीं था। मरीज को राहत देना ही उसका पहला और परम कर्तव्य था।

बहरहाल, दुर्गा मौसी को कठिनाइयाँ तो बहुत हुई, किन्तु उसने जल्द ही अपनी कार्य कुशलता का परिचय देते हुए अति सीमित संसाधनों में ही किसी प्रकार सफलता पूर्वक यह प्रसव करवा दिया।

प्रसव के दौरान दुर्गा मौसी ने ध्यान दिया कि उसके छूने से पहले तो हवेली की वह बहू बुरी तरह चीख पुकार करके कराह रही थी | लेकिन एक बार उसके शरीर पर दुर्गा मौसी का हाथ लगते ही वह एकदम से शान्त हो गयी, निश्चेष्ट सी हो गयी थी |

इस प्रसूता के चेहरे पर अब एक डरावनी सी शान्ति या यूं कह सकते हैं कि मुर्दनी सी छा गई थी। जब से उसने हवेली की उस बहू को प्रसव कराने की प्रक्रिया शुरू की थी, तब से वह एक बार भी न तो कराही थी, न चीखी थी, न रोई ही थी।

आमतौर पर ऐसे मामलों में रोने – कराहने की बात का औसत बढ़ जाता था। जबकि उसके विपरीत हवेली की यह बहू तो गहरी बेहोशी जैसी नींद में चली गई थी।

शायद दुर्गा मौसी जैसी दक्ष दाई के आ जाने ही उसे इस बात का गहरा संतोष हो गया होगा कि अब निश्चित ही उसके सारे दुखों का अन्त हो जायेगा। उसे इस बात के इस अहसास से ही भारी सुकून मिल गया होगा ।

ये दुर्गा मौसी के सिद्धहस्त अनुभव का ही कमाल था कि थोड़ी ही देर के बाद अब उस कमरे में एक नवजात शिशु के रोने की आवाज गूंज उठी थी। यानी उनका उपचार हमेशा की तरह यहाँ भी पूरी तरह सफल हो चुका था |

हालाँकि प्रसूता की आँखें अब भी बंद ही थी। वह एकदम निश्चल पड़ी थी। शायद वह बेहोश लग रही थी। एकबार तो दुर्गा मौसी को भी इतनी गहरी आशंका हुई कि वह सोच बैठी कि कहीं यह मर तो नहीं गई ?

मौसी ने उसका बदन भी छूकर समझने की कोशिश की | उसने पाया कि उसका तो शरीर भी एकदम बर्फ जैसा ठंडा हो चुका था | ऐसा लग रहा था, जैसे कि .......? जैसे कि ........? वह सचमुच कोई मुर्दा (लाश) हो गयी हो।

लेकिन दुर्गा मौसी ने अपने मन में उठती हुई आशंकाओं का ज्वार झटके से थाम लिया। अपने मरीज के बारे में वह सपनों में भी ऐसा नहीं सोच सकती थी।

दुर्गा मौसी तो कुछ ऐसा सोचने लगी थी कि हवेली की बहू के बदन का यह ठंडापन इस भयंकर कुहरे भरी पूष माह की कड़कती ठंड की वजह से हो सकता है। यह स्थिति दिन में धूप निकलने तक अपने आप ही ठीक हो जायेगी । हाँ, अगर अभी आग जलाने का कुछ प्रबंध होता तो शायद ऐसी स्थिति बिलकुल भी नहीं आती।

दुर्गा मौसी का ऐसा सोचना एक और खास वजह से भी हुआ था। दरअसल प्रसूता के चेहरे पर इस नीम बेहोशी की हालत में भी एक पुरसुकून खुशी की रहस्यमयी छाया पसरी हुई साफ महसूस हो रही थी। जैसे उसको बरसों लम्बे किसी असहनीय दर्द से आज मौसी के हाथों पूरी तरह आराम मिल गया हो ।

बहरहाल, इस परिस्थिति में भी अपनी सफलता के झंडे गाड़ देने वाली दुर्गा मौसी अपनी सारी दुश्चिंताओं को दरकिनार करके अंदर ही अंदर खुद भी प्रसन्न हो रही थी।

फिर प्रसन्नचित्त हुई दुर्गा मौसी ने उस कमरे से थोड़ा बाहर की ओर निकल कर आवाज लगायी – “बधाई हो ...ठाकुर साहब ! आपके घर में लक्ष्मी पैदा हुई है । जच्चा – बच्चा दोनों ही खतरे से बाहर है। चिंता की कोई बात नहीं है।”

“ओह ! अरे वाह ! बहुत बढ़िया |” – दरवाजे के पास खड़े रहस्यमय युवक ने एक अजीब सी, लेकिन खुशियों से भरी हुई किलकारी जैसी आवाज निकाली |

अब दुर्गा मौसी कमरे के बाहर निकाल आयी थी | युवक ने कहा – “ आगे चलिये मौसी ! पिताजी वहाँ आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं |”

“ हाँ – हाँ चलिये |” – दुर्गा मौसी खुशी – खुशी आगे बढ़ी तो पालक झपकते ही अब वाह बूढ़े जमींदार के सामने खड़ी थी |

जमींदार चहकते हुए कह रहा था - “आपका बहुत बहुत धन्यवाद दुर्गा मौसी, जो इतनी सर्द रात में भी आप यहाँ तक आयी और सारा कर्तव्य निर्वाह कर दिया। मैं आपसे बहुत खुश हूँ। अब आप निश्चिंत होकर अपने घर वापस लौट सकती हैं।”

यह सुनकर दुर्गा मौसी ने भी सुकून भरी साँस ली। फिर कहने लगी – “लेकिन आप लोगों से एक बड़ी शिकायत है। मुझे लगता है कि आप लोगों ने अपनी बहू की देखरेख में भारी कमी की है।”

“वह क्या ?” – आवाज से साफ लगा कि वहाँ खड़े बूढ़े जमींदार का मुँह इस बेखौफ शिकायत से खुला का खुला रह गया होगा।

दुर्गा मौसी ने निर्भय होते हुए अपनी पूरी बात कह डाली - “वह ये ठाकुर साहब कि ऐसी परिस्थिति में भी आप लोगों ने बहू की सेवा – सुश्रूषा के लिये कोई भी ठीक इंतजाम नहीं किए। उसके पास कम से कम दो औरतों को तो इस समय रहना ही चाहिये था। कमरे को गर्म रखने के लिये आग भी नहीं जलायी गयी थी |”

बूढ़े की विवशता भरी आवाज निकली - “हाँ, तुम ठीक कहती हो। ये तो होना ही चाहिये था। लेकिन मैं क्या करूँ ? पिछले दो दिनों से गाँव की कई औरतें मेरी बहू की सेवा में जुटी हुई थी। लेकिन बहू को प्रसव ही नहीं हो रहा था। लगातार रात – रात भर जागकर बहू की रखवाली करने वाली वे औरतें इतनी थक गयी थी कि उन्होंने आज की रात सोने के लिए छुट्टी माँग ली |”

“हूँsss |” - दुर्गा मौसी की आँखें सोचने वाले अंदाज में सिकुड़ती जा रही थी | जमींदार आगे कहता जा रहा था |

- “मैं भी क्या करता ? आज के जमाने में किसी को जबरन जगाकर तो रखा नहीं जा सकता। वे लोग हमारी पुरानी हैसियत का सम्मान करके इतनी सेवा कर गये, यही क्या कम है मेरे लिए ? जैसे तुम भी यहाँ तक चली आयी।....लकड़ी व दियासलाई की बात मेरा लड़का तुम्हें बता ही चुका है |”

बूढ़े ने अपनी विवशता जताते हुए दुर्गा मौसी के सामने सफाई देने की पूरी कोशिश की। लेकिन दुर्गा मौसी को जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि वह बूढ़ा या तो साफ झूठ बोल रहा है या फिर कुछ छुपाने की कोशिश जरूर कर रहा है।

बहरहाल, दुर्गा को तो अपने मरीज की ही चिन्ता अधिक थी। वह आगे कहने लगी – “देखिये , जच्चा – बच्चा को अभी भी पूरी देख-रेख की जरूरत पड़ेगी। उनकी मालिश, नहलाने – धुलाने के लिए कम से कम दो महिलाओं की तत्काल व्यवस्था होनी जरूरी है। साथ में गर्म पानी और आग की व्यवस्था हो जाये तो अति उत्तम रहेगा। अब मैं बार – बार तो यहाँ तक आ नहीं पाऊँगी।”

- “तुम अधिक चिन्ता अब मत करो दुर्गा ! वह मेरी बहू और पोती है। हम अपनी जिम्मेदारियाँ बखूबी समझते हैं। सुबह होने तक सारा इंतजाम अच्छी तरह हो जायेगा।”

- “हाँ, जच्चा – बच्चा के हित में यही ज्यादा ठीक रहेगा। वैसे मैं कोशिश करूँगी कि इस तरफ अगर किसी काम से जल्दी ही दोबारा आना होगा तो मैं आपकी बहू की खैर – खबर लेने जरूर आ जाऊँगी।”

- “तुम बहुत अच्छे विचारों वाली हो दुर्गा। ईश्वर तुम्हें सदैव खुश रखे। लेकिन तुम यहाँ दोबारा आने का कष्ट मत करना।”

“भला ऐसा क्यों ?” - दुर्गा मौसी को उस बूढ़े जमींदार से ऐसे अनुचित जवाब की आशा बिलकुल भी नहीं थी।

वह आगे पूछने लगी – “ क्या आपको अपनी बहू की भलाई के लिए मेरा दोबारा हवेली में आना बिलकुल भी अच्छा नहीं लगेगा ?”

दुर्गा मौसी के सवाल से बूढ़ा अचानक हड़बड़ा सा गया। लेकिन वह बात को संभालते हुए बोला – “ नहीं – नहीं दुर्गा ! ऐसा बिलकुल भी नहीं है | वो क्या है कि हम अगले दिन शायद यहाँ मिल ही न पायें तुमको।”

“भला इतनी जल्दी इस सद्य प्रसूता को इस हालत में लेकर आप कहाँ चले जायेंगे ?” - दुर्गा मौसी का आश्चर्य सातवें आसमान पर पहुँचने लगा था |

- “हम शहर के अपने निवास पर वापस चले जाने की सोच रहे हैं।” बूढ़े ने जबर्दस्त सफाई देने की कोशिश की थी |

- “लेकिन कुछ दिन उसे यहाँ रहकर थोड़ा स्वस्थ तो हो जाने दीजिये। इस हालत में लम्बा सफर करना जच्चा – बच्चा के लिए अभी बिलकुल ठीक नहीं है।”

दुर्गा मौसी किसी भी हालत में बूढ़े की इन बातों से सहमति नहीं जताना चाहती थी | लेकिन वह कहने लगा |

- “नहीं – नहीं, ऐसी कोई दिक्कत हमारी बहू को नहीं होने पायेगी । हम इसीलिए तो उसे लेकर कल ही यहाँ से शहर के लिये निकल जाने की सोच रहे हैं।”

- “अच्छा ?” , दुर्गा ने बूढ़े के चेहरे की ओर हैरानी भरे अंदाज से देखा तो बूढ़ा चेहरे को दूसरी ओर घुमा कर मानो नजरें बचाने की कोशिश करने लगा।

हालाँकि दुर्गा मौसी इतनी देर की बातचीत के बाद भी अब तक उसका चेहरा साफ नहीं देख पायी थी।

बूढ़ा उससे नजरें बचाने की पूरी कोशिश कर रहा था या अपनी किसी झूठ बात की भी लगातार सफाई पर सफाई देना चाह रहा था | इसका अंदाजा तो सिर्फ उसकी बातों से ही लगाया जा सकता था।

बूढ़ा आगे भी कहता जा रहा था – “तुम तो खुद ही देख रही हो कि यहाँ एक माचिस की तीली के लिए भी कोस भर दूर की बाजार जाना पड़ता है। वह भी हफ्ते में सिर्फ एक दिन लगती है। ऐसे में मुझे लगता है कि हम बहू – पोती की जरूरत के सारे सामान का बंदोबस्त यहाँ ठीक से बिलकुल नहीं कर पाएँगे। कहीं अचानक ही किसी जरूरी चीज के अभाव में कोई बड़ी दिक्कत पैदा हो गयी तो मैं कुछ नहीं कर पाऊँगा। कहीं का नहीं रह जाऊँगा।”

बूढ़े के जवाब में कुछ बनावटी विवशता सी अब भी साफ झलक रही थी।

आखिर दुर्गा मौसी को कहना ही पड़ा – “खैर, जैसी आपकी मर्जी और सुविधा हो, वैसा कीजिये। मुझसे बन पड़ा तो दोबारा हाल – खबर लेने की कोशिश जरूर कर लूँगी।”

इतनी देर की बातें खत्म होने को आयी तो दुर्गा मौसी ने वहाँ से बाहर निकलने के लिए फिर कदम आगे बढ़ा दिये ।

लेकिन यह क्या ?

एक कदम और आगे बढ़ते ही वह जैसे भरी नींद से जागी। उसने भली प्रकार से एक बार फिर आश्चर्य दूर करने के लिए आँखें फैला कर सामने देखने की कोशिश की तो वह फिर से चौंक पड़ी थी । यह उसकी नजरों का धोखा बिलकुल भी नहीं था।

अब वह हवेली के बाहर उसी बड़े मेहराब वाले सुंदर से प्रवेश द्वार पर खड़ी थी। जबकि क्षण भर पहले ही वह प्रसूता के कमरे के बाहर इस बूढ़े से बात करने में व्यस्त थी |

बिना भीतर से पैदल चलकर आये, वह कैसे हवेली के प्रवेश द्वार पर पहुँच गयी थी ?

आखिर यह कैसा रहस्य था ?

कैसी घटना थी ?

वह बूढ़ा जमींदार अब भी उसके सामने ही यहीं पर खड़ा था | जब कि क्षण भर पहले ही वह प्रसूता के कमरे के बाहर वाली जगह के पास ही खड़े होकर बातें कर रहे थे |

शायद यह बूढ़ा दुर्गा को जल्द से जल्द हवेली से बाहर कर देना चाहता था या ऐसा चाहता था कि वह दोबारा प्रसूता के कमरे की ओर झाँकने तक न पाये | यह कैसा रहस्य घट रहा था ? जिस पर दुर्गा कुछ सोच – समझ ही नहीं पा रही थी।

कैसे वह अनायास ही हवेली के बाहर ठीक उसी जगह खड़ी थी ? जहाँ उस बूढ़े ने थोड़ी देर पहले उसकी अगवानी की थी।

वह कितनी जल्दी और कैसे घर के भीतर से बिना किसी मदद के वापस बाहर निकल आयी थी ? वह अब भी बिलकुल ही समझ नहीं पा रही थी।

वह सोच रही थी कि कहीं यह कोई भ्रम तो नहीं कि बूढ़े से बातें करते हुए ही बाहर को किसी तरह चलते हुए निकल आयी थी और उसे बातों ही बातों में इसका कुछ पता ही नहीं चला था। दुर्गा मौसी अपने मन को ऐसा ही कोई झूठा दिलासा देने के अलावा भला और सोच भी क्या सकती थी ?

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