Jo Ghar Funke Apna - 27 in Hindi Comedy stories by Arunendra Nath Verma books and stories PDF | जो घर फूंके अपना - 27 - गरम ओवरकोट

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जो घर फूंके अपना - 27 - गरम ओवरकोट

जो घर फूंके अपना

27

गरम ओवरकोट

अगले दिन हम दोनों गुप्ता के चाचाजी के घर गए. रास्ते भर गुप्ता राजकपूर की फिल्मों के गाने गुनगुनाता रहा. हालांकि उसके गले में स्वर कोई विशेष नहीं था पर उसके गाने का फायदा ये था कि मोटरबाइक का हॉर्न नहीं बजाना पड रहा था. चाचाजी के घर के ड्राइंग रूम में घुसे तो दीवान के ऊपर पालथी लगाए, सद्यःस्नात, माथे पर लाल तिलक लगाए, कम्बल लपेटे बैठे सज्जन प्रोफेस्सर विद्याविनाश जी को छोड़कर अन्य कोई हो ही नहीं सकते थे. हम दोनों ने बढ़कर पैर छुए, आशीर्वाद मिला. बात शुरू करने के अंदाज़ में चाचा जी ने कहा “ अरे विद्याविनाश,ये बच्चे भी रूस जा रहे हैं,कुछ अपनी यात्रा के बारे में इन्हें बताओ”

प्रोफेस्सर साहेब गदगद स्वर में बोले “अरे भाई,इतना स्नेह,इतना सम्मान उनसे मिला कि क्या कहूं. काश भारतीय लोग भी हम अध्यापकों को इतना मान देते. पर यहाँ तो ये हालत है कि जहाज़ में फर्स्ट क्लास के केबिन में हम दो ही यात्री थे पर सहयात्री ने सारे रास्ते कोई बात तक नहीं की”

चाचा जी ने आश्चर्य से पूछा “अरे आठ-दस घंटों की यात्रा में कुछ तो बात हुई ही होगी?. ”

वे बोले “हाँ,शुरू में तो उड़ान प्रारम्भ होने के साथ ही बड़ी गर्मजोशी से उन्होंने परिचय माँगा. मैंने नाम बताया, कहा कि अध्यापक हूँ. रूस सरकार के निमंत्रण पर भाषण देने जा रहा हूँ. फिर मैंने उनका नाम पूछा तो बताया –राज कपूर. फिर मैंने पूछा कि ‘आप क्या करते हैं?’ तो बड़े अन्यमनस्क से हो गए. पत्रिकाएं उलटते रहे. एयर होस्टेसे उन्ही के इर्द गिर्द चक्कर काटती रहीं. मुझसे तो उन्होंने फिर कोई बात ही नहीं की”

गुप्ता ने कनखियों से मुझे देखा,होंठ दबा कर मुस्कराया और प्रोफेस्सर साहेब से कुछ विशेष काम की बात न पता चलेगी समझ कर सीधे ओवरकोट उधार मांगने पर उतर आया. पर प्रोफेस्सर साहेब बोले “–ना भाई,मेरे पास तो ओवरकोट था नहीं. वहां भारतीय दूतावास से मेरी अगवानी के लिए सांस्कृतिक सचिव व्नूकोवो हवाइई अड्डे पर आये थे. उन्होंने मुझे ठंढ से दांत किटकिटाते हुए देखा तो बोले आप यहाँ भारत रूस मैत्री बढाने आये हैं. इतना दांत किटकिटायेंगे तो इस का गलत अर्थ लगाया जा सकता है और भारत रूस संबंधों में दुराव आ सकता है. ’ फिर अपना ओवरकोट दे दिया. कहा- जब तक यहाँ हैं इस्तेमाल करिए. वे तो मुझे रोज़ आचमनी भर वोदका सेवन करने की सलाह भी दे रहे थे. सो तो मुझसे हुआ नहीं पर ओवरकोट से बहुत आराम रहा. लौटते समय उनकी चीज़ उन्हें लौटा दी थी. ”

अगले दिन रविवार था. गुप्ता रात में चाचाजी के यहाँ रूक गया,मैं वापस मेस लौट आया. पर लगा कि अच्छा हुआ,गुप्ता के हर समय के साथ से मुक्ति मिली. कल रविवार को चुपके से जामा मस्जिद के पास वाले बाज़ार से एक पुराना ओवरकोट खरीद लूँगा. ड्राई क्लीन कराके नया बताऊंगा. अपनी सोच की दाद देता हुआ सोया और अगली सुबह नौ बजे ही उठकर मोटरबाइक उठाकर जामा मस्जिद चल दिया. मैं चाहता था कि वहाँ भीडभाड होने के पहले ही ये काम निपटा दूं. अपना कोई चपरासी आदि वहाँ आयेगा भी तो बस द्वारा आने से ग्यारह बजे से पहले क्या पहुंचेगा. ज़ाहिर है कि मेरी बिलकुल इच्छा न थी कि मुझे रैग या चिथड़ा कहकर आयातित कपडे खरीदते हुए कोई परिचित देख सके. मेरी योजना सही निकली. जामा मस्जिद के निकट के उस फूटपाथिये बाज़ार में सुबह सुबह लोग कम थे पर इतने कम भी नहीं कि मैं दूर से ही खेत में खड़े हुए स्केयर-क्रो (पक्षी भगाऊ) की तरह दिख जाऊं. एक दूकान पर ओवरकोट ढेर लगा कर पड़े हुए थे. मैंने पूछा मेरी साइज़ का है तो दूकानदार ने एक साथ दो पकडाए और कहा कि ट्राई करके देखलो. मैंने हलके बादामी रंग का कोट उठाया और ट्राई करने के लिए उसे पीठ पर फैलाकर दोनों बाहों में अपने हाथ घुसाए. फिर दोनों हाथों को ऊपर उठाकर ट्विस्ट नृत्य सा कुछ करने लगा. ऐसा करते हुए एक और सज्जन, जो दूसरी तरफ मुंह और मेरी तरफ पीठ किये मेरी ही तरह हवा में हाथ उठाये ओवरकोट की बांहों में अपने हाथ घुसेडने की कोशिश कर रहे थे, के हांथों से टक्कर हो गयी. हम दोनों सॉरी कहने के लिए एक दूसरे की ओर मुखातिब हुए. पर बजाय ‘सॉरी’ के दोनों के मुंह से बेसाख्ता “अरे तू ?”

हम दोनों, यानी गुप्ता और मैं,पहले तो सकपकाए,फिर चोरी पकड़ी गयी वाले खिसियाने अंदाज़ में हंसने ही वाले थे कि गुप्ता ने एकदम से अपने होठों पर अपनी उंगली रखी और भवें उठाकर बगल की दूकान की ओर इशारा किया जिस पर अभी तक हम दोनों की नज़र नहीं पडी थी. देखा फ्लाईट कमांडर साहेब बड़ा सा काला धूप का चश्मा लगाए,मुंह पर मफलर कुछ इस तरह लपेटे कि चेहरा पूरा दिखे नहीं एक पसंद का ओवरकोट तजबीज कर उसे ट्राई करने जा रहे थे. गुप्ता और मैं दोनों एक साथ चुप चाप अंतर्ध्यान होने की फिराक में ही थे कि उस दूसरे दूकानदार ने उनसे कहिये “लाइए मैं पहना देता हूँ” और चूँकि कमांडर साहेब उसकी तरफ मुखातिब होकर खड़े थे, उसने उनका कंधा पकड़ कर उनका मुंह उल्टी तरफ फेरा, यानी ठीक मेरी और गुप्ता की तरफ. इस झटके से उनके मुखचन्द्र को बादलों की तरह ढँकता हुआ मफलर खुल कर गिर गया. धूप के चश्मे बड़े थे पर इतने नहीं कि पूरा मुंह ढँक लेते. काले थे पर इतने नहीं कि उसके पीछे से झांकती शरमाई नज़रें गुप्ता और मेरी नज़रों से मिल ही न सकें. वक्त थम सा गया. दो सेकण्ड की चुप्पी इतनी लम्बी लगी जितने लम्बे किसी नौसिखिया शायर के शेर लगते हैं. फिर ‘तुम जीते मैं हारा’ वाली आवाज़ में वही बोले “ अच्छा,तुमलोग भी यहाँ हो ! मैं अपने अर्दली के लिए कोट खरीदने आया था. वो मुझसे लम्बाई में काफी कम है. पर बोला साहेब अपनी नाप का लेना तो मेरा जवान बेटा भी पहन लेगा“

उनकी बात की तुरत प्रतिक्रया में गुप्ता ने जोर जोर से अपनी खोपड़ी चार बार ऊपर से नीचे नीचे से ऊपर हिलाई और एक ही सांस में चार बार बोला “ येस सर,येस सर,येस सर,येस सर. ” गुप्ता की प्रत्युत्पन्न मति का मैं तभी से कायल हूँ. आगे भी जीवन में उसने बहुत तरक्की की. खैर, उस समय फिर बिना कुछ और बोले हम दोनों वहां से सरक लिए. जाकर चांदनी चौक में पराठे और जलेबियों से नाश्ता किया और चूँकि हमाम में हम दोनों ने एक दूसरे को नंगा देख लिया था अब नाश्ता करते हुए जोर जोर से तीसरे अर्थात फ्लाईट कमांडर साहेब की समवेत स्वर में मिलकर बुराई करने लगे. इसके बाद हम दोनों एक साथ वापस उसी दूकान पर गए. दोनों ने एक एक ओवर कोट खरीदे जो इतनी अच्छी हालत में थे कि बाद में बहुत सालों तक मैं लोगों को बताता रहा कि मेरे लन्दन वाले चाचा जी उसे मेरे लिए मार्क एंड स्पेंसर से लाये थे. गुप्ता उसे अपनी रूस यात्रा में मास्को में खरीदा हुआ बताता रहा और एक बार जब किसी ने उसके अन्दर के अमेरिकी लेबल को देखकर एतराज़ किया तो बोला “ अरे ये डबल इम्पोर्टेड है तभी तो इतना महँगा पड़ा था. ”

राम राम करके गरम कपड़ों का इंतज़ाम तो हो गया. थोड़ी अतिरिक्त विदेशी मुद्रा मिल जाती तो अच्छा होता. मेरे अर्दली की मदद से वो भी मिल गयी. उसने बताया था कि उसका चाचा मुख्यतः तो इसी धंधे में है पर बचे हुए खाली समय में टाइमपास के तौर पर पालम एयरपोर्ट पर ट्रैफिक पोलिस के सिपाही के रूप में भी नियुक्त है जहां वह टैक्सी ड्राइवरों को विदेशी सवारियों से विदेशी मुद्रा में बक्शीश और किराए वसूलने के लिए प्रेरणा और प्रोत्साहन देता है साथ ही तुरंत विनिमय में भारतीय रुपया उन्हें मुहय्या कराता है. मुझे उसने बताया कि सरकारी विनिमय रेट में एक अमरीकी डालर नौ भारतीय रुपयों के बराबर था जो उसका चचा तीस रूपये में देता है पर मुझे वह चौबीस रुपयों में ही दिलवा देगा. मैं बहुत आभारी महसूस कर रहा था अपने अर्दली का. उससे खुश होकर मैंने पूछा ‘तुम्हे रूस से कुछ मंगवाना है क्या ?तो बिचारे ने बहुत अपनेपन से कहा “ नहीं साहेब मुझे वहाँ से तो कुछ नहीं चाहिए मगर यहाँ आप एक मेहरबानी कर सकते हैं. ” फिर संकोचपूर्वक बात जारी रखी “ साहेब,हमें पालम से जामा मस्जिद पहुँचने में दो बसें बदलनी पड़ती हैं,बहुत तवालत है,कभी दुबारा जाएँ तो मेरे लिए भी एक कोट खरीद दीजियेगा. वैसा ही जैसा आप अपने लिए लाये हैं. आप सही करते हैं कि उसे और साहेब लोगों को नया बताते हैं. सच साहेब,वो वाकई बिलकुल नया लगता है. ”

क्रमशः --------