आघात
डॉ. कविता त्यागी
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इन सात वर्षो में एक ओर, रणवीर और पूजा एक-दूसरे से अलग होने के लिए लड़ते रहे थे, तो दूसरी ओर उनके दोनों बेटे अपनी संघर्ष-यात्रा पूरी करते हुए अपने लक्ष्य के बहुत निकट पहुँच चुके थे। इन वर्षों में प्रियांश की बी. टेक. पूर्ण हो चुकी थी । बी.टेक के अन्तिम वर्ष में अपने संस्थान-परिसर से ही एक प्रसिद्ध बहुदेशीय कम्पनी में उसकी नियुक्ति भी निश्चित हो गयी थी । सुधांशु का भी भौतिकी से बी.एस.सी. ऑनर में अन्तिम वर्ष था । इन दोनों भाइयों को उन्नति की ओर अग्रसर देखकर इनके सगे-सम्बन्धी और बिरादरी-समाज के लोग इतने प्रभावित थे कि रणवीर और पूजा के परस्पर लड़ाई-झगड़े तथा अलगाव को भूलकर वे प्रियांश एवं सुधांशु के लिए विवाह-प्रस्ताव लाने लगे थे । अपनी बिरादरी-समाज से विवाह-प्रस्ताव आने और सगे-सम्बन्धियों से मान-प्रतिष्ठा मिलने पर पूजा अत्यधिक प्रसन्न थी । अब उसको रणवीर की चुनौती व्यर्थ और सारहीन लगने लगी थी । वह इस विषय में प्रायः अपने बच्चों से कहती थी -
‘‘बेटे, उगते हुए सूर्य को सभी नमन करते हैं ! उसी प्रकार उन्नति की ओर अग्रसर व्यक्ति को भी सभी लोग मान-प्रतिष्ठा देते हुए उसके साथ सम्बन्ध बनाकर गर्व का अनुभव करते हैं ! आज तुम दोनों योग्य व्यक्ति के रुप में अपनी पहचान बनाने में सक्षम हो तथा सफलता की ऊँचाइयों को स्पर्श कर रहे हो ! तुम्हारे माता-पिता का परस्पर अलगाव तुम्हारी सफलता में बाधक नहीं बन पाया ! लक्ष्य प्राप्ति के मार्ग में तुम्हारे लगन-परिश्रम ने तुम्हारे माता-पिता के झगडे को गौण बना दिया है ! मैं आज तुम्हारी उपलब्धियों से बहुत प्रसन्न हूँ ! आज मैं कह सकती हूँ कि तुम्हारे भावी जीवन पर कोर्ट में चल रहे तुम्हारे माता-पिता के केस का कोई नकरात्मक प्रभाव नही पड़ेगा और तुम्हारा विवाह अपनी बिरादरी के अच्छे घराने में हो सकेगा !"
अपनी माँ की बात सुनकर प्रियांश और सुधांशु दोनों शान्त बैठे रहे, परन्तु प्रियांश के मन में एक प्रकार की बेचैनी हो रही थी । वह अपने हृदय की बात माँ से कहना चाहता था, लेकिन आज तक कह नहीं सका था । उसको लगता था कि जिस समाज और सगे-सम्बन्धियों-रिश्तेदारां से पुनः सम्बन्ध बन जाने से माँ इतनी प्रसन्न हैं, उसकी हृदयस्थ-भावना उससे उतनी ही आहत हो सकती है ! परन्तु आज ऐसा अवसर था कि प्रसंगवश वह अपनी माँ से उस बात को कह सकता था, जिसे वह आज तक नहीं कह सका था । प्रियांश ने इस विषय को अपने विचारों के अनुरुप दिशा प्रदान करके पहले तो भूमिका-स्वरुप कुछ समय तक बातें की, तत्पश्चात् अपने हृदयस्थ-भावों को अभिव्यक्त करना आरम्भ किया -
‘‘मम्मी जी ! समाज, बिरादरी और सगे-सम्बधी हमें मान-सम्मान देते है, तो इसका आशय यह तो नहीं है कि हम अपने जीवन के महत्वपूर्ण निर्णय किसी के दबाव में आकर लें !’’
‘‘मैं तेरे कहने का अर्थ नही समझी !’’ पूजा ने असमंजस के भाव में कहा ।
‘‘मम्मी जी! मैं कहना चाहता हूँ कि......! प्रियांश कहते-कहते रुक गया और अपनी मम्मी के चेहरे पर उभरे हुए भावां को पढ़ने लगा।
‘‘क्या कहना चाहता है ? कहता क्यां नही है, जो कहना चाहता है!’’
‘‘मम्मी जी, मैं कहना चाहता हूँ कि मैं अपना विवाह किसी ऐसी लड़की से करना चाहता हूँ, जो ... !’’ प्रियांश पुनः अपना वाक्य अधूरा छोड़कर इस भाव से अपनी मम्मी की ओर देखने लगा कि उस समय अपनी बात पूरी करना अनुचित तो नहीं है ।
‘‘जो ?’’
‘‘मम्मी जी, मैं बस इतना कहना चाहता हूँ कि मेरे विवाह के सम्बन्ध में आप किसी रिश्तेदार और सगे-सम्बन्धी के दबाव में न आएँ ! मेरे जीवन-साथी के चुनाव में मेरे विचार से मेरी भूमिका सबसे अधिक महत्वपूर्ण है !.....मैं अपने जीवन-साथी का चुनाव स्वंय अपनी प्राथमिकताआें के अनुसार करना चाहता हूँ, बिरादरी के अनुसार नहीं ! आप को इसमें कोई आपत्ति तो नही होगी न ? यदि आपको मेरे इस विचार में कोई आपत्ति हैं, तो जैसा आप चाहेंगी, मैं वैसा ही करूँगा !’’
‘‘नहीं, मुझे तुम्हारे इस विचार से कोई आपत्ति नही है ! मैं तुमसे पूर्णतः सहमत हूँ ! मैं इस बात से प्रसन्न हूँ कि तुमने निस्संकोच इस विषय मे अपना विचार मेरे समक्ष व्यक्त किया है ! अपनी प्राथमिकताआें को ध्यान में रखते हुए जब तुम अपने जीवन-साथी का चुनाव करोगे, तो निश्चय ही तुम्हारा वैवाहिक-जीवन सुखी-सम्पन्न रहेगा ! मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है !’’
अपने जीवन-साथी का चुनाव करने में अपने समाज और बिरादरी की अपेक्षा स्वंय के विचारों-भावों को प्राथमिकता देने के प्रियांश के एक निर्णय ने पूजा को भी रूढ़ियों की जंजीरां से मुक्त कर दिया था । आज तक वह समाज द्वारा तिरस्कृत तलाकशुदा स्त्री की दशा के विषय में सोचकर ही किसी अज्ञात भय से काँप उठती थी । पूजा को इस बात का भय नही था कि विवाह-विच्छेद होने पर समाज उसका तिरस्कार करेगा, बल्कि वह स्वयं का तिरस्कार होने के पश्चात् अपने बेटां के विवाह और उनकी मान-प्रतिष्ठा आदि के विषय में सोचकर व्यथित हो जाती थी । आज अपनी व्यथा का यह कारण उसको निर्मूल प्रतीत हो रहा था । आज उसको यह अनुभव हो रहा था कि आधुनिक युग में प्रत्येक व्यक्ति अपने परिश्रम और सद्कर्मों से स्वयं मान-प्रतिष्ठा अर्जित कर सकता है । यदि कोई व्यक्ति उचित दिशा में अपना लक्ष्य लेकर ईमानदारी से परिश्रम करता है, तो वह अपनी सफलता और मान-प्रतिष्ठा के लिए किसी समाज या बिरादरी की रूढ़ धरणाआें पर निर्भर नहीं होता, बल्कि ईश्वर की कृपा से शीघ्र ही उसके सद्कर्म प्रतिफलित होते है और ब्रहमाण्ड का प्रत्येक सुख उसके लिए सुलभ हो जाता है ।
पूजा और प्रियांश परस्पर बातचीत करते हुए अभी वहीं पर बैठे थे, तभी घर के बाहर से बहुत उँची अवाज में बार-बार हार्न की अवाज आने लगी । पूजा ने जिज्ञासावश दरवाजा खोलकर देखा, बाहर सुधांशु नई बाइक लिये हुए खडा़ था । दरवाजा खुलते ही उसने पूजा से नमस्ते की और मुस्कराते हुए बाइक स्टार्ट करके घर के अन्दर प्रवेश कर गया । पूजा, जोकि उस समय दरवाजे-बीच से एक ओर हट कर खड़ी हो गयी थी, सुधांशु की ओर निर्निमेष, आश्चर्य और प्रश्नसूचक दृष्टि से देखते हुए बोली -
‘‘किसकी है यह मोटरसाइकिल ? तुझे कहाँ से मिली है यह ?’’
‘‘मेरी है ! मुझे पापा ने दिलवाई है !’’
सुधांशु ने प्रसन्नता-पूर्वक मुस्कुराकर कहा और तत्पश्चात् अपनी माँ के मनोभावों को पढ़ने का प्रयास करने लगा । पूजा का चेहरा भावशून्य था । उसके चित्त पर न तो इस बात का सकारात्मक प्रभाव प्रतीत हो रहा था कि उसके बेटे के प्रति पिता का स्नेह धीरे-धीरे स्वभावोचित अवस्था प्राप्त कर रहा है, और न ही नकारात्मक प्रभाव प्रतीत हो रहा था कि उसका पति उसके सुयोग्य बेटों को धीरे-धीरे अपने पक्ष में करने का प्रयास कर रहा है । एक ऐसा पिता, जो अपने बच्चों को निस्वलम्ब छोड़कर स्वयं के निकृष्ट-सुख के लिए जीता रहा था, उन्हीं बच्चों के बड़े होने, स्वनामधन्य एवं लब्ध्प्रतिष्ठ होने पर आज स्वयं को आदर्श पिता कहने का ढोंग कर रहा था ।
एक ओर, रणवीर अपने बेटे सुधांशु से धीरे-धीरे निकटता बढ़ाकर स्वयं को निर्दोष तथा एक अच्छा पिता सिद्ध करने के लिए विभिन्न युक्तियाँ अपने व्यवहार में ला रहा था, तो दूसरी ओर न्यायालय में पूजा तथा न्यायाधीश के समक्ष यह व्यक्त कर रहा था कि वह पूजा से विवाह-विच्छेद चाहता है । चूकि पूजा वास्तव में यही चाहती थी कि विवाह-विच्छेद न हो और यही बात वह कोर्ट में भी कह चुकी थी, इसलिए सुधांशु की अपने पिता के साथ बढ़ती घनिष्ठता से उसको कोई आपत्ति नहीं थी ।
सुधांशु सोचता था कि पिता को घर वापिस लाने का जो कार्य उसकी माँ नहीं कर सकी थी, आज वह उस कार्य को साकार रूप दे रहा है । प्रायः वह उस दिन की कल्पना किया करता था, जबकि उसके पिता पूर्णरुप से घर लौट आएँगें और उसकी माँ अपने पूरे परिवार के साथ सुखी-सम्पन्न रहकर अपूर्व प्रसन्नता का अनुभव करेगी ।
तीसरे दिन पूजा के विवाह-विच्छेद की कोर्ट द्वारा निर्धरित तिथि थी । विवाह-विच्छेद की बहस के लिए निर्धरित-तिथि से तीन दिन पूर्व सुधांशु को मोटरसाइकिल देने के रणवीर के किसी छद्म उद्देश्य के विषय में सोचते हुए पूजा मन-ही मन पिता-पुत्र दोनों की तुलना करने लगी -
"पिता अपने परिवार के प्रति जितना संवेदनाहीन है, बेटा उतना ही संवेदनशील है ! पुत्र के प्रति पिता का यह स्नेह आज भी मात्र एक दिखावा, एक छलावा हो सकता है ! लेकिन सुधांशु के समक्ष अपनी शंका और नकारात्मक भाव व्यक्त करके वह उसके हृदय को चोट नहीं पहुँचाना चाहती थी। फिर भी, यह विचार उसके चित्त को निरन्तर कचोट रहा था कि जिस प्रकार रणवीर ने लम्बे समय तक अपने छल-छद्मपूर्ण मधुर-व्यवहर से उसको धोखे में रखा था, उसी प्रकार वह उसके सीधे-सादे बेटे के साथ धोखा न कर दे।
सुधांशु और रणवीर के विषय में सोचते-सोचते पूजा के विचारों की दिशा बदल गयी । वह अपने और रणवीर के सम्बन्धों के विषय में सोचने लगी । वह सोचने लगी-
‘‘रणवीर के साथ सुधांशु और प्रियांश का पिता-पुत्र का सम्बन्ध है ! जैसा इन्हें उचित लगता है, ये करें ! पिता-पुत्र में परस्पर प्रेम रहे, इससे अधिक प्रसन्नता का विषय मेरे लिए और क्या हो सकता है ? दोनों ही बेटे अब वयस्क हैं। कोई व्यक्ति इनके साथ धोखा न कर दे, इसके लिए इन्हें स्वंय सतर्क रहना होगा !’’
डॉ. कविता त्यागी
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