कुबेर
डॉ. हंसा दीप
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धीमी गति से ही सही ये परेशानियों भरे दिन निकल रहे थे। धीरम के लिए न जाने कितने लोगों की दुआएँ काम आयीं। तक़रीबन दो महीने के बाद एक अच्छी ख़बर मिली अस्पताल से कि – “धीरम अब घर जा सकता है।” यह सुनने के लिए कान तरस गए थे, ऐसा लगा जैसे इस किरण से उजाला हो ही जाएगा। यद्यपि यह उसके पूर्णत: स्वस्थ होने का संकेत नहीं था मगर हाँ, वह खतरे की स्थिति से बाहर था। उसका शरीर उस स्थिति से अभी और अधिक शक्तिहीन और पीला पड़ गया था जिस स्थिति में उसने न्यूयॉर्क तक का अपना सफ़र तय किया था। आशावादी पहलू अगर कोई था तो वह यह कि डॉक्टर और उनकी टीम का दावा करना कि शरीर से बीमारी के कीटाणु हटा दिए गए थे। अब जो भी करना था शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को ही करना था।
रिकवरी भी कभी-कभी जान का सौदा कर लेती है। शरीर से मशीनें हटने के बाद फिर से शरीर सुस्त हो जाता है। यदि इस सुस्ती को रोग निरोधक क्षमता हरा दे तो तेजी से सेहतमंद होना संभव हो पाता है। इलाज की एक लंबी प्रक्रिया तो ख़त्म हुई थी लेकिन अभी धीरम और ताई के भारत जाने का तो कोई सवाल ही नहीं था। कई फॉलोअप थे। रुटीन चेकअप था। दवाइयों के साइड इफेक्ट्स को बढ़ने नहीं देना था। इन सब के लिए कम से कम छ: महीने रुकना था। अभी भी समय की ही प्रतीक्षा थी। सुखमनी ताई से इस बारे में बात हो गयी थी कि उन्हें यहाँ और रुकना होगा। वे क्या कहतीं, धीरम ठीक हो जाए तो वे कुछ भी करने को तैयार थीं।
अभी भी सप्ताह में एक या दो बार तो जाना पड़ेगा अस्पताल। हालांकि रोज़ का आना-जाना कम होने से समय की मारा-मारी कम हो जाएगी। धीरम के घर आने से एक बड़ी तसल्ली यह थी कि अस्पताल का एक बड़ा चार्ज न लगने से दैनिक ख़र्च कम हो जाएगा। इसी वजह से थोड़ी राहत मिलेगी। बड़े ख़र्च की बड़ी राहत से कम से कम अब अपनी नींद पूरी कर सकता है डीपी। सुखमनी ताई की भी दौड़-धूप कम होगी। उनका अस्पताल आना-जाना और रात में जाग-जाग कर धीरम का ध्यान रखना उनके लिए भी बेहद थका देने वाला था। कहते हैं जब बारिश होती है तो मूसलाधार होती है। वही हुआ था पिछले दिनों एक के बाद एक ऐसी बुरी ख़बरें मूसलाधार बरसती रहीं और एक के बाद एक संकटों की बाढ़ आती रही।
धीरम के अस्पताल से घर आने के बाद से शायद अब समय चक्र जो उल्टा हो गया था, अब वापस सीधा हो रहा था क्योंकि अगले ही दिन एक और चमत्कार हुआ। वे दो ज़मीनों के लॉट जो बेकार पड़े हुए थे, जिनके कोई लेवाल नहीं थे उनकी एकाएक माँग बढ़ गयी। सरकारी खेमों में वहाँ से सब-वे लाइन निकालने की सुगबुगाहट थी, प्रस्ताव पास होते-होते तो क़ीमतें चार गुना हो गयीं। यह उन ज़मीनों को बेचने का सही समय था ताकि निजी ऋण दाताओं से लिया क़र्ज़ भी कुछ हद तक चुका दे डीपी। यह उसकी अपनी साख की प्रतिष्ठा को बनाए रखने का सफल प्रयास होगा। वैसे भी अभी दो और ज़मीनों के लाट शहर के उस भाग में थे जहाँ अभी भी उनकी कोई क़ीमत नहीं थी पर इस सब-वे लाइन की घोषणा से डूबते को तिनके का सहारा नहीं बल्कि एक पूरे के पूरे वृक्ष का सहारा मिल गया था।
समय के इस बदलते चक्र में उन ज़मीनों के तुरंत सौदे हो गए। डीपी के सिर से एक बड़ा बोझ हल्का हुआ। निजी ऋणदाता के साथ कुछ पैसे भाईजी के भी लौटा दिए तो आत्मविश्वास में बढ़ोतरी हुई। कुछ अतिरिक्त राशि भी बच गयी जिससे अब कई छोटे-मोटे ख़र्चों की चिन्ता नहीं थी। बाज़ार में जान आ रही थी, भाईजी भी आशान्वित थे, बोले - “बहुत चला ली टैक्सी, अब सब छोड़ कर धीरे-धीरे अपनी टीम को रि-बिल्ड करो।”
“जी भाईजी”
औंधे मुँह गिर कर फिर से खड़ा होने वाला सम्भल-सम्भल कर क़दम रखता है। डीपी भी धीरे और सम्भल कर चलना सीख रहा था। अब विचारों को नयी दिशा देने का समय था। ऐसे आपातकालीन समय के लिए अपना सपोर्ट सिस्टम विकसित करना ज़रूरी था। एक कंपनी को अगर नुकसान होता है तो दूसरी कंपनी हो नुकसान की भरपायी के लिए। नया काम हो, नये विचार हों, नये लोग हों, नयी जगहें हों।
भाईजी भी इसी बात पर ज़ोर दे रहे थे - “पहले तुम्हें एक ऐसी टीम बनानी होगी जो अपने काम को कुछ इस तरह जवाबदेही से करे कि अधिक राशि का निवेश न करना पड़े। उनका अपना आधार भी पुख़्ता हो ताकि बुरे वक़्त में हाथ खींचने वाले लोग कम से कम हों। बुरे वक़्त में वैतनिक लोगों के लिए पर्याप्त काम ला पाना संभव नहीं होता और उन्हें वेतन देने में मन छोटा करना पड़ता है। प्रशिक्षित किए गए लोगों को ले-ऑफ़ देना भी घाटे का सौदा होता है। इसलिए काम कमीशन बेसिस पर अधिक हो, वे भी कमाएँ और हम भी।”
भाईजी की सलाह के मुताबिक चलते हुए टीम तो बन रही थी पर कुछ ख़ास लाभ नहीं था। थोड़ा बहुत था तो सबका हिस्सा कटते-कटते शेष नाम मात्र ही रह जाता। घैर्य रखने की ज़रूरत थी, अफ़सोस से कोई मदद नहीं मिलती। इस बार कछुए की मजबूत चाल चलनी थी। दौड़ कर साँस नहीं फूलने देनी थी। धीरे-धीरे चलकर जीतना था। स्वयं पर विश्वास के लिए, ज़मीन पर पकड़ बनाने के लिए अंगद के पैर ज़रूरी थे। ज़मीन थी न्यूयॉर्क शहर की, पैर थे डीपी के। जितनी तेज़ी से आगे जाना प्रारंभ हुआ था, उतनी ही तेज़ी से वापस पीछे आए थे। अब जिस तरह से काम शुरू किया था उसमें मुनाफ़े की राशि बहुत छोटी थी, इतनी छोटी कि बस खा-पीकर ख़त्म हो जाए उतनी।
मेहनत से नहीं डरता था डीपी, डरता था तो बच्चे की तबीयत से। सुखमनी ताई और धीरम को यहीं रखना था। फालोअप के लिए बार-बार जाना पड़ता था। भारत चले जाते तो यहाँ लाकर इलाज करवाने की जो मेहनत की थी, उस पर पानी फिर जाता। मन में एक इच्छा यह भी थी कि इन दोनों को यहीं रख ले। उसका अपना घर होगा और माँ की तरह ताई के साथ रहते सुख-दु:ख में उसका अपना कोई होगा। इतने दिनों साथ रहने के बाद अकेले रहना उसे बिल्कुल अच्छा नहीं लगेगा। ये जब यहाँ नहीं थे तब वह थक कर चूर होता था तभी घर आता था। सोने भर के लिए और सुबह नहा कर तैयार होने के लिए। अब ऐसा नहीं है, ऑफिस का काम ख़त्म होते ही घर दौड़ कर आने का मन करता है।
जब-जब किसी अच्छी बात या बुरी बात को याद करता तब-तब माँ-बाबू, दादा-नैन उसके सामने होते। जब भी वे सामने होते, मैरी से बात करने की इच्छा होती। इस भयावह संकट के दौर में इतना कुछ हो गया था कि इन सब बातों को कुछ पलों के लिए भुलाने और भारत की भूमि से जुड़ कर मैरी से बात करने के लिए उसे फ़ोन ज़रूर लगाता, उससे जीवन-ज्योत की ख़बर लेता। वहाँ पर दस शिशुओं के साथ सारे अन्य शरणागतों के हालचाल पूछता। कई और नये बच्चे जिनका ख़र्च, स्कूल-पढ़ाई, ट्यूशन-कोचिंग और कपड़ों से लेकर दवाइयों तक के ख़र्च के लिए पैसों की ज़रूरत थी।
जनरल डोनेशन से बिल्कुल अलग था यह धन संग्रह। संस्था जीवन-ज्योत में इसके पहले कभी ऐसा मौका नहीं आया जब किसी से भी पैसों की गुहार लगायी गयी हो। और फिर डीपी कहाँ ‘किसी’ की श्रेणी में आता था वह तो जैसे संस्था का जूनियर दादा हमेशा के लिए हो गया था। संस्था के प्रमुख कार्यकर्ताओं के अलावा किसी बच्चे को कभी पता नहीं चल पाता था कि किस ख़ास व्यक्ति ने उनके लिए यह ज़िम्मेदारी उठायी है। डीपी की ओर से इस नयी समस्या से निपटने के लिए एक निश्चित राशि भेजने की प्रतिबद्धता थी। ऐसा करने का एक ही उद्देश्य था कि कम से कम हर बार उतनी राशि जाती रहे जीवन-ज्योत के पास।
अभी-अभी जिस संकट से उबरा था ऐसी स्थिति में स्वाभाविक था कि जनरल डोनेशन नहीं जाता पर जब आपके ऊपर ग्यारह बच्चों का भार हो तो कोई भी रुकावट पार करके पैसे वहाँ तक जाएँगे ही। माँ-बाबू भी तो अपने हिस्से का कभी ख़्याल नहीं रखते थे, सबसे पहले धन्नू को खिलाते थे, उसके बाद जो भी बचता वे खाते थे। कई बार भूख की वजह से सो नहीं पाते थे दोनों। नींद कोसों दूर चली जाती। जिन आँखों में नींद नहीं वे सपना भी तो नहीं देख पातीं और जो आँखें सपना देख पाती हैं, वे शायद सोचती हैं कि सपने ही देखना है तो छोटे क्यों देखो, बड़े देखो। वैसे भी सपना तो सपना है, अगर वह हक़ीकत बन जाए तो फिर सपना कहाँ रह पाता है। खुली आँखों का सपना हो या बंद का, हक़ीकत को देखकर ही सपनों का स्वरूप चुनतीं इन आँखों की हक़ीकत जितनी पीड़ादायी होती है, उतना ही बड़ा सपना संजो लेती हैं वे।
धन्नू की आँखें भी उतनी ही खुराफ़ाती थीं। ऐसे ही सपने देखा करती थीं और जब उसकी आँखें खुलतीं तो सामने की सच्चाई भी देखतीं। धन्नू की आँखों ने ऐसा बहुत कुछ देखा था। वह भी जो शायद उस उम्र का कोई बच्चा नहीं देख पाता। एक बार माँ मजदूरी के काम से घर लौटीं तो बिलख-बिलख कर रो रही थीं। उनके पेट में इतना अधिक दर्द था कि वे झुक कर चल रही थीं।
बाबू चिंतित थे, उन्होंने पूछा – “कुछ ऐसा-वैसा खाने में तो नहीं आया?”
वे दर्द से कराहती बोलीं - “माहवारी है वजन उठाने से बहुत ख़ून बह रहा है, पेट कटा जा रहा है।”
धन्नू कुछ नहीं समझा था। माहवारी शब्द न पहले कभी सुना था न ही उसका मतलब समझा था पर देखा था पीला पड़ता माँ का चेहरा, देखा था पिछवाड़े की लकड़ियों के ढेर पर ख़ून से सने कपड़ों को सूखते हुए, यह भी देखा था कि माँ बार-बार जाती थीं और एक और कपड़ा डाल कर आ जाती थीं। यह सब देखा था धन्नू ने और बहुत गुस्सा आया था। शरीर की कौनसी ऐसी क्रिया है जिसे जमाने से छुपा कर रखती हैं माँ, समझ नहीं पाया था। गंदी से गंदी जगहों में जहाँ कोई भूल कर भी न जाए, न देखे, वहीं रखा था माँ ने इन कपड़ों को। कई बार उपयोग कर लेने से उनका रंग ही लाल हो गया था। ख़ून के धब्बों का रंग लाल-चट्ट। कपड़े पर इस क़दर जमा हुआ ख़ून कि पछाट-पछाट कर धोने पर भी नहीं निकलता। नहीं समझ पाया था कि यह वही ख़ून है जो ज़िंदगी देता है, वही ख़ून है जो हमारी रगों में बहता है।
जब तक समझ पाया तब तक माँ बहुत दूर चली गयी थीं।
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