पौराणिक कथा-
विश्वामित्र का घमण्ड
अयोध्या वाले दूत ने राम के राज्याभिषेक का निमंत्रण विश्वामित्र को सौंपा ।
पत्र पढ़कर विश्वामित्र गर्व से भर उठे। विश्वामित्र को ऐसी आशा न थी कि राम के वनवास के बाद राज्याभिषेक का निमंत्रण उन्हें इस संदेश के साथ मिलेगा कि इस समारोह के स्वागताध्यक्ष वे ही होंगे। देश- विदेश से पधार रहे विद्वानों ओर ऋषि मुनियों व गुरूकुल के कुलपतियों को ठहराने व सारी मेहमान नवाजी का जिम्मा उन्हें ही सौंपा गया था। संदेश पत्र लाने वाले दूत ने वशिष्ठ की ओर से उनसे निवेदन किया था कि वे तुरंत ही राजधानी अयोध्या पहुंच कर अपनी जिम्मेदारी संभाल लें।
राम ने भी बड़ी श्रद्वा से अपने शस्त्र गुरू विश्वामित्र को अलग से एक पत्र लिखकर तुरंत ही अयोध्या आने की प्रार्थना की थी। यह दोनों पत्र पाकर उन्हें लगा कि देर करना गलत है, उन्हें सचमुच तुरत फुरत तैयार होकर इसी दूत के साथ भेजे गये रथ से चल देना चाहिए।
साधू सन्यासी को क्या तैयारी करना थी। बस अपना दण्ड कमण्डल संभाला दो चार लंगोटी आसन में बांधी और अपने मुख्य शिष्य जम्बूदरी को आश्रम की जिम्मेदारी सौंपी तथा अवध नरेश के रथ में जा बैठे।
रथ चल पड़ा था।
याद आया! सफेद रंग के दो घोड़ों के इस रथ में वे एक बार और यात्रा कर चुके हैं राम की बारात से लौटने में वे जनकपुरी से इसी रथ में आये थे। राम के अयोध्या से बहुत सी यादें जुड़ी हैं विश्वामित्र की। उन्होंने याद करना चाहा तो बहुत सी यादें उनके चित्त में आकर मचलने लगीं।
अवध साम्राज्य की राजधानी अयोध्या से विश्वामित्र को गहरा लगाव था। एक तो इस कारण कि उनके प्रिय शिष्य राम वहां रहते हैं और दूसरा इस कारण कि वहीं परम प्रिय मित्र वशिष्ठ भी रहते है।
वशिष्ठ की याद आते ही विश्वामित्र को बहुत कुछ याद आने लगा। विश्वामित्र कभी गाधि नरेश के इकलौते पुत्र के नाम से जाने जाते थे। पिता की मृत्यु के बाद वे राजा बने और उन्हें अपना राज्य संभालना भी पड़ा था कुछ दिन। अस्त्र-शस्त्र के गहरे जानकार के रूप में तब उन्होंने खूब नाम कमाया। खूब लड़ाइयां लड़ीं और अपने राज्य का विस्तार किया।
विश्वामित्र मन से एक सन्यासी थे। बहुत सरल स्वभाव था उनका। राजगद्दी पर बैठकर उन्होंने अनुभव किया कि यहां तो चारों ओर कपट, साजिश और झूठ का बोलबाला है। फिर क्या था विश्वामित्र को राजनीति से नफरत हो गयी। वे सोचने लगे कि इस राजकाल के जंजाल को किसी तरह छोड़ सकें तो जीवन सफल हो ले। अंततः मौका मिला तो एक रात उन्होंने अपना, महल छोडा और गुपचुप बाहर निकले
अपने राज्य की सीमा से वे रातोंरात बाहर निकलना चाहते थे, सो उन्होंने अपने महल की घुड़साल से एक अच्छा कद्दावर घोडा लिया और छलांग लगाकर उस पर बैठ गये। वे एक बहुत अच्छे घुड़सवार थे। उन्होने ज्यों ही उन्होंने अपने घोड़े को ऐड़ लगाई घोड़ा अगले पैरों को उठाकर पिछले दो पांवों पर खड़ा होकर जोर से हिनहिनाया और पल भर में ही हवा से बात करने लगा।
सूरज निकलने के बहुत पहले वे अपने राज्य की सीमा से बाहर थे। अब वे ऐसे जंगल की तलाश में थे जहां कोई उन्हें परेशान न करें और वे लम्बे समय तक अकेले रह के कुछ जप-तप कर सकें।
सूर्योदय होते-होते उन्हें एक घना जंगल दिखा जिसमें प्रवेश करने का कोई रास्ता भी नहीं दिखता था। बस ऐसे ती जंगल को खोज रहे थे वे। घोडे़ से उतर कर उन्होंने उसके पुट्ठे थपथपाये और वापस जाने का संकेत कर दिया। घोड़ा अपने स्वामी का इशारा समझता था, सो वह एक बार फिर हिनहिनाया और सरपट वापस भाग निकला।
विश्वामित्र कंटीली झाड़ियों के बीच से होते हुए भीतर की तरफ बढ़ चले तो जंगल का डरावना रूप कम होने लगा था। काफी आगे जाकर उन्हें निर्मल जल का एक तालाब और उसके चारों ओर ऊंचे ऊंचे पहाड देखने को मिले। चारों ओर आदमी क्या आदमी की गंध तक न थी। वे खुश हो गये।
एक घने से पेड़ के नीचे उन्होंने आसरा लिया। बचपन में सीखे गये योग, ध्यान और प्राणयाम कर अभ्यास शुरू कर दिया उन्होने।
अगले दिन से वे ध्यान में ऐसे खोने लगे कि मूर्ति की तरह घण्टों बैठे रहते। मन को वे हुकुम देते रहते कि सबके प्रति दोस्ती का भाव रखो। हर प्राणी को हर पेड़ को अपना दोस्त समझो। धीरे-धीरे उनके मन ने ऐसा ही कियां
बारह साल तक इस जंगल में रहके विश्वामित्र ने अपने मन का अभिमान समाप्त करने का प्रयास किया। गुस्से को काबू में रखने की कोशिश की। बदले में जंगली जानवरों, वनवासियों व पेड़ पौधों तक से उन्हें प्रेम मिलने लगा।
वे दुनिया के कण-कण को अपने दोस्त के रूप् में देखने लगे। उन्हें महसूस होता कि जब वे सोते एक अन्जानी सी शकित उनके आस पास घूमती हुई उनकी रक्षा कररही है, जब वे चलते तो लगता कि उनके पीछे कोइ्र ताकत ऐसी है जो दिखती नहीं है लेकिन उनकी रखवाली कररही है। वेजब बोलते तो मुंह से मानों स्वयं बाणी देवी बोलने लगती। वे सच्चे अर्थ में विश्व-मित्र हो गये थें। किसी भी तरह की हिंसा और हथियारो से उन्हें नफरत होने लगी थी।
सहसा एक दिन उन्हें लगा कि उन्हे अलौकिक सिद्धि मिल गई है। ऐसी तपस्या तो किसी मुनि ने न की होगी न वशिष्ठ ने, न गौतम ने ना ही परशुराम ने भी।
फिर एक दिन उन्हें लगा कि मुनियों से कुछ दिन सत्संग करके या किसी विद्वान के साथ धार्मिक बहस करके उन्हें अपनी और उनकी तपस्या का परीक्षण करना चाहिए। फिर विचार आया कि इस परीक्षण की शुरूआत क्यों न वशिष्ठ से शुरू करें।
उनके पांव अपने आप अयोध्या की ओर ले चले उन्हें।
राजधानी के शोरगुल से दूर वशिष्ठ का आश्रम और गुरूकुल था।यह आश्रम उनका जाना - पहचाना था। विश्वामित्र सीधे ही कुलपति वशिष्ठ के सामने जा पहुंचे और बोले “ब्रम्ह ऋषि वशिष्ठ को गाधिपुत्र विश्वामित्र का प्रणाम।”
वशिष्ठ जानते थे कि विश्वामित्र किसी जंगल में चुपचाप तपस्या कर रहे हैं और ऐसी संभावना है कि उन्हे सिद्धि मिल चुकी होगी। विश्वामित्र सामने आये तो उन्हेे लगा कि अपने नाम के साथ राजा पिता का नाम जोड़ के अपना परिचय देते विश्वामित्र के मन में शायद अब तक यह भावना है कि वे जन्म से किसी भुक्खड़ ब्राहमण के घर पैदा नहीं हुए बल्कि खुद कभी राजा थे और अब राजपाट त्याग चुके एक त्यागी मुनि बनकर जीवन बिता रहे हैं। इस तरह वशिश्ठ से प्रणाम करना भी उनकी बड़ी कृपा है।
विश्वामित्र का स्वागत करते हुए वशिष्ठ ने द्विअर्थी बात कही- “आओ राज ऋषि विश्वामित्र! स्वागत है आपका!”
विश्वामित्र दांत मिसामिसा उठे थे। वे चाहते थे कि वशिष्ठ उन्हें ब्रम्ह ऋषि कहें लेकिन राज ऋषि कह कर वशिष्ठ उन्हें यह बोध करा रहे थे कि वे अब भी राजकाज से जुडे़ व्यक्ति हैं।
विश्वामित्र ने वशिष्ठ से पूछा “ आपने मुझे राज ऋषि क्यों कहा ? मेरे इतने वर्ष की तपस्या का इतना प्रभाव भी नहीं हो सका कि मैं ब्रम्ह ऋषि कहला सकूं।”
वशिष्ठ ने उन्हें डांटते हुए कहा था “ आपको अभी अपना राजा होने का अभिमान त्यागना है विश्वामित्र। जाओ कुछ दिन और तपस्या करो।”
विश्वामित्र आग बबूला हो उठे। उन्होंने आव देखा न ताव, आश्रम में एक ओर पड़ी लकडी काटने की कुल्हाडी उठाई औ र वशिष्ठ की ओर झपट पडे़।
वशिष्ठ निडर होकर बैठे थे उन्हें आशा न थी कि विश्वामित्र हमला कर बैठेंगे। लेकिन उनकी आशा के विपरीत विश्वामित्र ने कुल्हाड़ी तानी और वशिष्ठ की गर्दन पे दे मारी। तभी अचानक जाने कहां से एक नन्हा सा बालक आया और वशिष्ठ के सामने खड़ा हो गया। विश्वामित्र की कुल्हाड़ी उस बालक के कंधे में लगी और अगले ही पल बालक का हाथ कंधे से कटकर जमीन पर तड़प रहा था ।
विश्वामित्र को काटो तो खून नहीं।
गुरूकुल के सेवक और शिष्य लोग गुस्सा होकर विश्वामित्र की ओर लपके तो वशिष्ठ ने सबको रोक दिया। बच्चे का इलाज किया जाने लगा।
लज्जित और दुखी विश्वामित्र वशिष्ठ के आश्रम से बाहर निकल आये। खून से सनी वह धारदार कुल्हाड़ी अब भी उनके हाथ में थी।
वे एक पेड़ के नीचे आकर बैठ गये थे। मन सुन्न सा हो गया था। खुद पर गुस्सा आ रहा था उन्हें। ये क्या कर बैठे ? उस नन्हें से बालक को अकारण ही उन्होने जिंदगी भर के लिए अपंग कर दिया ।
सहसा उन्हें लगा कि इस हिंसा का असली कारण वशिष्ठ ही तो हैं, वे तो निर्दोश हैं। वशिश्ठ न ही उन्हें राज ऋषि कहते, न विश्वामित्र को गुस्सा आता।
मन की गलानि कम हो गई तो वे खुद को बेगुनाह मानने लगे। वशिष्ठ के प्रति उनका गुस्सा और ज्यादा बढ़ने लगा था। सहसा उन्होंने सोचा कि रात के अंधेरे में आश्रम में जाकर क्यों न वशिष्ठ का पूरा परिवार ही खत्म कर डाले आज!
फिर क्या था उन्होंने सचमुच तय कर लिया कि वशिष्ठ की हत्या करेंगे। रात हुई तो विश्वामित्र का मन दुखी हो उठा क्यों कि अंधेरे की बजाय खूब उजाला था क्योंकि ये शुक्ल पक्ष के दिन थे जब खूब उजाला फेलाता चंद्रमा रात भर आसमान में उपस्थित रहता हैं।
लेकिन वे पुराने क्षत्रिय थे सो जो मन ने ठान लिया उसे पूरा करना था। वे उठे और छिपते-छिपाते वशिष्ठ के आश्रम में प्रवेश किया । आश्रम में सन्नाआ हो चुका था। सब सो गये थे। विश्वामित्र ने चारों ओर का जायजा लिया फिर अनुमान लगा कर उस कुटिया के पीछे जा पहुंचे जिसमें वशिष्ठ व उनकी पत्नी अरूंधती रहते थे। वे छिप कर बैठ गये।
सहसा विश्वामित्र चौंक गये, क्योंकि कुटिया के भीतर वशिष्ठ और अरूंधती जागे हुये थे और गंभीर आवाज में बातें कर रहे थे।यहां तक उनकी बातें सुनाई पड़ रही थीं।
“ हे प्रियतम, यह देखो कितना चमकदार चंद्रमा आसमान में उगा है। इसका उजाला हमारे आश्रम के कोने-कोने को प्रकाशित कर रहा हैै।” अरूंधती अपने पति से कह रहीं थी।
वशिष्ठ बोले “ हे प्रिया, यह चंद्रमा वैसे बहुत ज्यादा चमकदार है, पर मेरे मित्र विश्वामित्र के कठिन तप और तेज के सामने यह एकदम फीका है।”
विश्वामित्र सन्न रह गये थे। वशिष्ठ तो उनकी तारीफ कर रहे थे। दम साधकर उन्होंने आगे की बातचीत सुनने के लिए कान लगा दिये।
अरूंधती की आवाज में बड़ा अचरज भरा था “ फिर आज आपने उनको राज ऋषि कह के चिढ़ा क्यों दिया ? उन्होंने आपका अपमान किया।फिर भी आप तारीफ कर रहे हो। ”
वशिष्ठ की आवाज आई “विश्वामित्र की सबसे बड़ी कमी उनका अभिमान है। एक तो वे पहले राजा रह चुके हैं, फिर बाद के कई वर्ष तक वनवासियों के बीच गहरा तप किया है। सो उन्हें अपने आप पर घमण्ड़ हैं। नहीं तो उन जैसा तपस्वी पूरी दुनिया में कोई नहीं है। ”
विश्वामित्र. लाज से पानी-पानी हो उठे। एक वशिष्ठ थे जो पीठ पीछे उनकी तारीफ कर रहे थे और एक वे हैं जो उन्हें मारने आये हैं। खुद पर ग्लानि हो उठी उन्हें।
सहसा अपनी जगह से उठे और वशिष्ठ की ओर दौड़ लगा दी उन्होंने। दूर से ही चिल्ला उठे, “ क्षमा करो मुनिराज। मुझ घमण्डी आदमी को क्षमा करो। मैं सचमुच गलत आदमी हूं। ” फिर वे धड़ाम से गिरे और वशिष्ठ को प्रणाम करने लगे वशिष्ठ अचरज से भर उठे। हाथ में खून सनी कुल्हाड़ी उठाये ये कहां छिपे बैठे थे ?
उन्होंने बहुत तेजी से उठकर विश्वामित्र को जमीन से उठाया और सीने से लगा लिया। फिर प्रेम से भरी आवाज में बोले “ ब्रम्ह ऋषि विश्वामित्र आपकी जय हो। आपका स्थान जमीन में नहीं मेरे हृदय में है मुनिराज।
अरूंधती चकित सी होकर दो मित्रों का मिलन देख रही थीं। उस दिन गले क्या लगे वशिश्ठ से विश्वामित्र की दोस्ती लगातार गहरी होती गई। कम नहीं हुई।
बाद में रावण के दुष्ट सैनिकों ने दण्डक वन में लूटपाट, मारपीट और यज्ञ हवन को उजाड़ना शुरू किया था। विश्वामित्र को याद आया था कि इस वन के सबसे निकट अवध राज्य है। इसलिए महाराज दशरथ की जिम्मेदारी है कि वे ही इस उत्पात को बंद करायंये। वहां वशिष्ठ के गुरूकुल में दशरथ के चारों बेटे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। सुना है वशिष्ठ ने उन्हें इसी उमंर में अच्छी शस्त्र शिक्षा दी है। चलो उन्हें ही आजमा लेते हैं।
विश्वामित्र अयोध्या जा पहुंचे थे। राज दरबार में दशरथ ने उनसे पूछा कि वे अयोध्या किसलिये पधारे? तो उन्होंने दो टूक जवाब दिया था “राजन मुझे कुछ दुष्ट लोग परेशान करते हैं और मैं उन्हें ठीक कराने के लिए तुम्हारे बड़े पुत्र को ले जाना चाहता हूं।”
यह सुना तो दशरथ डर गये थे। कांपती आवाज में बोले थे “मुनिराज, मेरे बेटे बहुत छोटे हैं। मैं खुद आपके साथ चलता हूं। ”
विश्वामित्र को गुस्सा आ गया। राजा के बेटे छोटे हो या बडे़, उनका कर्तव्य है कि वे हर जरूरतमंद का काम पूरा करें।
वशिष्ठ भी राजदरबार में मौजूद थे। वे समझ गये कि विश्वामित्र को गुस्सा चढ़ने लगा है। वे ही आगे बढे़ और राजा दशरथ को उन्होंने बहुत प्रकार से समझा के कहा कि विश्वामित्र खुद एक अच्छे योद्वा हैं। इनको धनुष बाण की कला में ऐसी महारत हासिल है कि दुनिया भर में वे अपनी इस कला के लिये विख्यात है।
दशरथ रूआंसे होकर बोले थे “गुरूदेव, आप तो जानते हैं कि मैंने बुढ़ापे में बेटे पाये हैं। उन्हें मौत के मुंह में ढकेलने की हिम्मत नहीं है मुझमें। ”
दुखी मन से दशरथ ने राम लक्ष्मण को उनके साथ विदा किया था अपने आश्रम में ले जाकर राम लक्ष्मण को पहरेदार बना के उन्होंने यज्ञ शुरू किया तो मारीच और सुबाहू नाम के रावण के दो दुश्ट सैनिक आ धमके। राम ने अपनी कुशल तीरदान्जी की सहायता से सुबाहू को मार गिराया। उसे मरता देख मारीच सिर पर पैर रखकर भाग निकला था।
यज्ञ पूरा हुआ तो विश्वामित्र बहुत खुश हुए। उन्होंने पूरी रूचि से राम लक्ष्मण को धनुष बाण की युद्व कला में पारंगत करना शुरू कर दिया। इसी कला का ही तो परिणाम था कि राम ने जनकपुरी में शिव के धनुष “पिनाक” को उठाकर जनक की प्रतिज्ञा पूरी की थी और पुरस्कार में सीता जैसी सुलक्षिणी पत्नी प्राप्त की थी।
सहसा विश्वामित्र को याद आया कि अयोध्या में सीता से भी मुलाकात होगी और सीता के पिता जनक से भी। कितने दिनों बाद मिलना होगा उनसे!
विवाह के बाद सीता को ससुराल में रहने का ज्यादा सुख नही मिला। मंझली रानी कैकेयी ने दसरथ को वचन में बांध कर किसी राजनीति के तहत राम को चौदह साल का वनबास मांग कर अपने बेटे भरत को राज्याभिशेक देने को कहा था। उन्हे पता न था कि दसरथ के चारों बेटे वशिश्ठ के चेले हैं, वे आपस का प्रेम कभी खत्म न होने देंगे।
पिता की मजबूरी को महसूस कर राम तो वन वन के लिये जाने लगे तो लक्ष्मण और सीता भी उनके साथ निकल गईं। लेकिन भरत ने भी अयोध्या का राज्य नहीं संभाला, पिता की मृत्यू हो जाने का दुख उन्हे उतना नहीं हुआ था जितना राम के वनवास जाने का। पहले तो उन्होंने वन में जाकर राम को वापसी के लिए मनाया बाद में जब वे नहीं लौटे तो खुद भी राज्य नहीं संभाला राम की चरणपादुका को सिंहासन पर रख कर उन्होंने राजकाज चलाना आरंभ कर दिया।
उधर राम और लक्ष्मण ने विश्वामित्र के सिखाये गये तीरन्दाजी के ज्ञान के कारण ही तो न केवल वन में अपनी जंगली जानवरों से रक्षा की बल्कि भीशण युद्ध में खर, दूशण, बाली, कुंभकरन और अन्त में लंकापति रावण को मारा ।
अब राम चौदह साल बाद घर लौटे हैं तो भरत उनका ही राज तिलक करा रहे हैं। उन्हे गर्व हुआ कि राम उन्हे भूले नहीं हैं। वे अब भी उनका उतना ही सम्मान करते है। तभी तो उन्हे यह जिम्मेदारी भरा काम सोंपा है कि उन्हे अयोध्या में बाहर से आने वाले विद्वान मेहमानों का स्वागत अयोध्या साम्राज्य की ओर से करना है।
अपनी यादों की दुनिया से बाहर निकलकर विश्वामित्र ने देखा कि दूर से अयोध्या के राजमहल के ऊंचे-ऊंचे कंगूरे दिखने लगे हैं। यादों के बीच रास्ते का पता ही न चला था। उनका रथ कुछ ही देर बाद अयोध्या नगर के बने परकोटे में मुख्य द्वार से प्रवेश कर रहा था विश्वामित्र के मन का उत्साह उछालें मारने लगा था।
राजमहल से कुछ ही दूरी पर एक बगीचे में उनके ठहरने का इंतजाम था। वहीं कुछ मंत्रियों और सेवकों का एक दल उनका इंतजार कर रहा था। यही दल विश्वामित्र के निर्देशन में ऋषि-मुनियों की आव भगत करने को तैनात किया गया था। विश्वामित्र अपने काम में तुरंत ही जुट गये,पता किया कि किन्हे बुलाया गया है और वे कहां ठहरेंगे।
फिर तो एक पखवारा कब निकल गया विश्वामित्र को पता ही न चला। राम के राज्याभिषेक समारोह में उन्हें खूब सम्मान मिला। पुराने मित्रों से मिलना हुआ।
पंद्रह दिन बाद अयोध्या से लौटते विश्वामित्र बड़े उदास थे और सोच रहे थे कि हर मिलन के बाद जुदाई क्यों होती है।
उधर वशिष्ठ अपने शिष्यों से कह रहे थे कि गाधितनय विश्वामित्र का अभिमान क्या खत्म हुआ, वे सचमुच विश्व भर के मित्र हो गये है।
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