Kisi ne Nahi Suna - 10 in Hindi Moral Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | किसी ने नहीं सुना - 10

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किसी ने नहीं सुना - 10

किसी ने नहीं सुना

-प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 10

अब मुझे यह सोचकर ही आश्चर्य होता है कि तब मेरे दिमाग में कैसे अपनी पत्नी अपनी नीला को छोड़ने का विचार इतनी आसानी से आ गया था। लेकिन उस संजना को छोड़ने का विचार एक पल को न आया जिसके कारण दो पाटों में दब गया था। उस संजना का जो अपने पति की नहीं हुई थी, उसे सिर्फ़ इसलिए छोड़ दिया था उसने क्योंकि झूठ फरेब उससे नहीं होता था। जो उसकी कामुकता को गलत समझता था। उस संजना को जो मनमानी करने के लिए मां-बाप, भाई-बहन को भी दुत्कार चुकी थी। और मुझसे परिचय के कुछ ही दिन बाद अपना तन खोल कर खड़ी हो गई कि उसकी भूूख शांत करो क्यों कि उसके पति ने उसके तन की छुधा कभी शांत ही नहीं की, वह बेहद ठंडा आदमी है, जो किसी भी औरत के लायक नहीं। इतना ही नहीं तब मेरी आंखें उसके तन की चमक में ऐसी चुंधियाई हुई थीं कि मैं उसकी इस हरकत से भी उसकी असलियत का अंदाजा नहीं लगा पाया कि वह ऐसा कोई दिन नहीं जाता था जिस दिन अपने कंफर्मेशन या प्रमोशन को लेकर बात न करती रही हो। जिस दिन शारीरिक संबंधों का दौर चलता उस दिन तो पहले और बाद में भी पूरे अधिकार से यह कहती। बल्कि एक तरह से आदेश देती कि तुम्हें यह करना है। उस वक़्त उसकी यह बातें कुछ खास नहीं लगती थीं।

जब कंफर्मेशन का वक़्त निकल गया और कोई कार्यवाही नहीं हुई तो एक दिन फिर उसने मिलन के क्षण से पहले ही बड़े अधिकार से कहा,

‘लगता है तुम जानबूझकर मेरा कंफर्मेशन, प्रमोशन नहीं करा रहे हो। जिससे मुझे जब चाहो ऐसे ही यूज करते रहे।’

मुझे उसी वक़्त उसकी इस बात से चौंक जाना चाहिए था। लेकिन नहीं चौंका, आंखों दिलो-दिमाग पर पर्दा जो पड़ा था। उसकी इस बात पर कान दिए बिना मैं उसके तन पर टूटा हुआ था। उसके तन पर उस वक़्त सिर्फ़ मैं था। कपड़े के नाम पर एक सूत न था। न उस पर न मुझ पर मगर ऐसी स्थिति में भी वह इतनी बड़ी बात कह गई थी। मगर मैं बेखबर था। उसके दिमाग में ऐसी चरम स्थिति में भी यह सब कैलकुलेशन चल रही थी। और मेरे दिमाग में सिर्फ़ यह कि मेरे तन से उसका तन कभी जुदा न हो।

उस दिन उसकी परमॉनेंट सॉल्यूशन की बात का भी निहितार्थ मैं समझ न पाया और पत्नी को तलाक देने की सोचने लगा था। देर रात तक इसी उथल-पुथल में जागता रहा कि कैसे जल्दी से जल्दी इसे तलाक देकर इससे छुटकारा पा लूं। मेरा ध्यान इस तरफ भी नहीं गया कि नीला ने मेरे सारे कपड़े गंदे, साफ सब लाकर बेडरूम में ही पटक दिए थे। उसका एक बड़ा ढेर बना हुआ था। काफी दिनों से साफ-सफाई न होने के कारण पूरा बेडरूम कचरा घर नजर आ रहा था। तलाक देने की धुन में बहुत देर से सोया और जब सुबह उठा तो बहुत देर हो चुकी थी। बहुत जल्दी करने के बावजूद करीब दो घंटे देर से ऑफ़िस पहुंचा। उस दिन पूरा वक़्त इस उथल-पुथल में बीता कि नीला से तलाक के बारे में संजना से बात करूं कि न करूं। मेरे उखड़े मूड के बावजूद संजना अपनी हरकतों से बाज नहीं आई। चुुहुलबाजी उसकी रुकी नहीं। छुट्टी होने से कुछ पहले आकर बोली,

‘सुना है मेरा कंफर्मेंशन लेटर आ गया है। कुछ पता भी करोगे या यूं ही मुंह लटकाए रहोगे।’

उसकी इस बात से मैं थोड़ा अचरज में पड़ा गया कि लेटर आ गया इसकी भनक इसको कैसे मिल गई। दूसरे ऐसे बेरूखे ढंग से बोल रही है। आखिर और किन से इसके संबंध हैं जो इसे सूचना देता है। उसकी इस बात से मैं इतना गड्मड् हो गया कि शाम को कहीं और चल कर बात करने की बात कहने की हिम्मत न जुटा सका। और उम्मीद से एकदम विपरीत वह बिना मुझे कुछ बताए चली गई। मुझे इस हरकत पर बड़ी गुस्सा आई। ऑफ़िस से बाहर निकलते ही मैंने उसे मोबाइल पर फ़ोन किया कई बार ट्राई करने के बाद उसने कॉल रिसीव की। फिर छूटते ही बोली,

‘अभी बिजी हूं बाद में बात करती हूं।’

मैं कुछ बोलूं कि उसके पहले ही काट दिया। मेरा गुस्सा और बढ़ गया। मैंने तुरंत फिर कॉल की लेकिन उसने रिसीव नहीं की। कई बार किया तो स्विच ऑफ कर दिया। उसने पहली बार ऐसी हरकत की थी।

मैं गुस्से से एकदम झल्ला उठा। मेरे मुंह से उस वक़्त पहली बार उसके लिए अपशब्द निकला ‘कमीनी कहीं की एक मिनट बात नहीं कर सकती।’ मैंने उस क्षण पहली बार महसूस किया कि मैं आसमान में कटी पतंग सा भटक रहा हूं। या ओवर एज हो चुके बेरोजगार सा सड़कों पर निरुद्देश्य चप्पलें चटका रहा हूं। जिसे निकम्मा समझ घर वाले और बाहर वाले दोनों ही दुत्कार चुके हैं। जिसका न घर में कोई ठिकाना है और न ही कहीं बाहर। मैं सड़क किनारे काफी देर तक खड़ा रहा मोटर साइकिल खड़ी कर उसी के सहारे। घर जाता तो किसके लिए। बीवी दुश्मन बन चुकी थी, बच्चे बेगाने। अपने घर में ही मैं कचराघर बन चुके बेडरूम तक सीमित रह गया था। बेहद तनाव और काफी देर तक खड़े रहने से जब थक गया तो मैं मोटर साइकिल स्टार्ट कर चल दिया। मगर जाना कहां है दिमाग में ऐसा कुछ नहीं था।

ट्रैफिक से लदीफंदी हांफती सड़क पर बढ़ता रहा और आखिर में रेलवे स्टेशन के उस कोने पर जा कर खड़ा हो गया जहां लोग सामने बने गेट से प्लेटफार्म नंबर एक तक अनधिकृत रूप से पहुंच जाते हैं। वहां की सिक्योरिटी में बना यह सबसे बड़ा छेद जैसा है। आते-जाते लोगों को देखते मन में चलते तुफान से मैं एकदम बिखर सा गया था। बाइक वहीं खड़ी कर मैं दिशाहीन सा आगे बढ़ता जा रहा था मुझे यह भी होश नहीं था कि बाइक वहां बिना लॉक किए ही खड़ी कर दी है। जिसके चोरी होने का पूरा खतरा है। मैं आगे बढ़ता गया और फिर वी.आई.पी. इंट्रेंस से आगे ओवर फुट ब्रिज पर चढ़ गया। और बीच में पहुंचते-पहुंचते मेरे क़दम थम से गए। मैं रेलिंग के सहारे खड़ा हो गया। और दूर तक नीचे इधर-उधर आते-जाते लोगों को देखता रहा। खो गया उसी भीड़ में एक तरह से। मगर कोई चेहरा ऊपर से साफ नहीं दिख रहा था। रात के आठ बज रहे थे। गाड़ियों, दुकानों की लाइट और स्ट्रीट लाइट इतनी नहीं थी कि ऊपर से किसी को स्पष्ट देखा जा सकता।

मैं संजना तो कभी नीला में खोया थका हारा रेलिंग के सहारे तब तक खड़ा रहा जब तक कि एक लड़की के ‘एस्क्यूज मी’ शब्द कानों में नहीं पड़े। मैंने गर्दन घुमाकर दाहिनी तरफ आवाज़ की दिशा में देखा। एक करीब छब्बीस-सत्ताइस साल की लड़की खड़ी थी। वहां रोशनी बहुत कम थी फिर भी मैं देख पा रहा था कि वह गेंहुएं रंग की थी और मेरी तरफ देखकर मुस्कुरा रही थी। मेरे मुखातिब होते ही बोली ‘किसी का इंतजार कर रहे हैं क्या?’ मेरे लिए उस वक़्त यह अप्रत्याशित स्थिति थी। सो तुरंत मुझ से कोई जवाब न बन पड़ा। उसे देखता रहा मैं। औसत कद से कुछ ज़्यादा लंबी थी वह। भरा-पूरा शरीर था। चुस्त कुर्ता और पजामा पहन रखा था। जिसे लैगी कहते हैं। वास्तव यह साठ-सत्तर के दशक में हिंदी फिल्मों में हिरोइनों द्वारा खूब पहनी गई स्लेक्स ही हैं। जब मैं कुछ बोलने के बजाए उसे देखता ही रहा तो वह फिर बड़ी अदा से बोली,

‘कहां खो गए मिस्टर।’

‘कहीं नहीं... लेकिन मैं आपको पहचानता नहीं, आप कौन हैं?’

‘कभी तो पहचान शुरू हो ही जाती है न। बैठकर बातें करेंगे जान जाएंगे एक दूसरे को और जब जान जाएंगे तो मजे ही मजे करेंगे।’

*****