स्वार्थ : वह सोच जो केवल अपने हित के लिए हो।
स्वार्थहीन व्यक्ति की पहचान : सबसे आसान तरीका है आपके प्रति उसके स्वभाव को समझना। सच्चा मित्र वही होता है जो हर समय आपका ख्याल रखे, आप जब बुलाएं वह दौड़ा चला आए, आपको हमेशा जिंदगी का महत्वपूर्ण अंग माने लेकिन जो ऐसा ना करे वो? जो व्यक्ति आपको केवल जरूरत पर ही याद करे वह मतलबी है।
ऊपर दी गयी परिभाषाएं आपको कोई भी बता सकता है और जो हम खुद भी समझते हैं लेकिन ये वो परिभाषाएं हैं जो मैंने सुनी हैं दुसरो से मगर खुद कभी जानी नहीं. हाँ कई बार इनके सहारे तोल-मोल भी किये हैं. कुछ शब्दों का अर्थ कितना नफरत भरा निकाल लेते हैं हम. क्या हर शब्द एक अलग मतलब नहीं रखता? क्या हर अलग परिस्थिति में एक ही शब्द को अलग अलग तरीके इस इस्तेमाल करने से वही मतलब निकलता है? क्या हर मुख से वही वाक्य एक ही मतलब रखता है? अगर ऐसा है तो हमे क्यों ऐसा लगता है की सामने वाला हमारे बातें वैसे नहीं समझ पता जैसे हम समझाना चाहते हैं? कई बार हम समझाना छोड़ देते हैं क्योंकि समझ लेते हैं कि मेहनत विफल है.
क्या इन परिभाषाओं के अनुसार हम खुद स्वार्थ की चादर नहीं ओढ़े हैं?
क्या ये स्वार्थ नहीं की कोई ऐसा व्यक्ति जो हमारे काम आता है या जो हमारी आशाओं पे खरा उतरता है, वो व्यक्ति ही हमारा सच्चा मित्र है. अगर ये सवाल हम खुद से पूछे की हम कितना उस व्यक्ति के काम के लायक हैं या कितना उसके लिए उसकी मदद करने आ खड़े होते हैं?
मैं ये कहने से नहीं हिचकती मैं स्वार्थी हूँ. इंसान हूँ, तो ये स्वाभाविक है. वो स्वार्थ जो मुझे मुझसे मिलने में मदद करता है, जो किसी और को इस्तेमाल नहीं करना चाहता बल्कि खुद की हस्ती को एक अर्थ देना चाहता है. वो स्वार्थ जो जानना चाहता है खुद को. आखिर कैसे वो इंसान जो खुद को ही न समझ पाए, दुसरो को समझ सकता है?
क्यों मैं आशाएँ बुन लेती हूँ की कोई और मुझे मुझसे मिलने में मददगार होगा. क्यों मैं उम्मीदें रखती हूँ दुसरो से की वो वैसा ही करेंगे जैसे मैं सोचती या चाहती हूँ जबकि मैं खुद वैसा नहीं करती जैसा वो चाहते या सोचते हैं? क्या ये वो स्वार्थ नहीं जो हम सबका हिस्सा है? क्या हम नहीं सोचते की हमारा परिवार, हमारे माता पिता या बच्चे या पति पत्नी या हर दूसरा व्यक्ति वो करें जो हम चाहते हैं. अगर न करें तो उदास हो जाते हैं जबकि हम ये सोच लेते हैं की हम जो कर रहे हैं उनके लिए ही तो कर रहें हैं. लेकिन क्या जो हम कर रहे हैं वो वही है जो वो चाहते हैं या उनको ज़रूरत हैं उन सब की?
एक हद तक तो सही है, हर चीज़ सही है अगर उतनी हो जितनी ज़रूरत है, लेकिन कम या ज़्यादा हो तो दवा भी ज़हर बन जाती हैं, मीठे शब्द भी अपना मूल्य खो देते हैं. जो लाठी हम ये सोचकर उठाते हैं की इसी में भलाई है, क्या ज़रूरत से ज़्यादा उठाई लाठी वो कर पति है जो वो करना चाहती थी?
हम सब किसी न किसी कश्मकश में हैं, निकलना चाहते हैं और जानते भी हैं की क्या कर सकते हैं जो हल मिल सके. कही न कही सबको सब मालूम होता है लेकिन फिर भी सब मालूम नहीं होता. भ्रम है समझने में.
खुद के वजूद को समझा ही नहीं, खुद को जाना ही नहीं. उम्मीदों के पहाड़ हैं खुद के बनाये हुए जिनका दोषी खुद को नहीं समझते। जीवन के आखिरी चरणों में पश्याताप की चिंघारियो में लिपट जाते हैं और कर्मो का लेखा जोखा याद करते हैं. कभी खुद के तो कभी दुसरो के. कभी अधूरी इच्छाओं के अफ़सोस में आँखों में नमी ले आतें हैं तो कभी कुछ पलो को याद करके खुद को खुश किस्मत मानते हैं. हर इंसान की कहानी है, उसकी ज़ुबानी है, हर कहानी कुछ सिखाती है, चाहे जानी है या अनजानी है. ये उसकी ज़ुबानी है ये मेरी ज़ुबानी है. चाहे छोटी है या लम्बी है, चाहे पदक से सराही गयी है या दिल में छिपाई गयी है, हर कहानी है जो कुछ सिखाती है. कोई कहानी मोहताज नहीं ताजपोशी की. कोई हस्ती मोहताज नहीं जाने जाए की एक पहचान की. क्या फर्क पढता है की मैंने जाना या सबने. इसका मूल्य है जो तुल नहीं सकता।
अपने वजूद को ढूंढ़ने का स्वार्थ है, ताकि दुसरो के वजूद को समझ सकूँ। कैसे बाँट सकुंगी वो जो खुद मेरे पास है ही नहीं, वो चाहे प्यार हो, ममता हो, समझ हो, सांत्वना हो, ज्ञान हो, स्वार्थहीनता की भावना हो, या ऐसे ही अनगिनत भाव जो इंसान को इंसान की परिभाषा देते हैं. जब जब एक तिनके मात्र ही सही लेकिन ये भावनाएं मिलना शुरू हो जाएं, तब तब बाटने का काम शुरू कर दिया जाएं तो बढ़ने लगेंगी ये खुद मे लेकिन बदले की उम्मीदें रखूँ तो खुद से धोका है. जो मिलना है उसे भला कौन रोक सकता है, प्रकृति का नियम है.
हर सफलता खुद मे असफल है और हर असफलता खुद मे सफल है, यही कहानी है जो समझने के लिए बस नज़रिये की खोज में खुद को ढूंढ़ने की ज़रूरत है ताकि कुछ भी समझ के तराज़ू में तोलने से पहले खुद को माप सकें एक अच्छे नज़रिये से, एक अच्छी वजह के लिए और जीवन के उद्देश्य को बखूबी निभा सकें.