बहीखाता
आत्मकथा : देविन्दर कौर
अनुवाद : सुभाष नीरव
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मलाल
बहुत सारी ख्वाहिशें थी ज़िन्दगी में। जैसे कि गालिब कहता है कि हर ख्वाहिश पे दम निकले। बहुत सारी ख्वाहिशें अधूरी ही रह गईं। ज़िन्दगी में एक ऐसा मोड़ भी आया कि मेरी एक ख्वाहिश सबसे ऊपर आ गई और बाकी की ख्वाहिशें दोयम दर्जे पर जा पड़ीं। यह ख्वाहिश थी, अपनी माँ की सेवा करना। मेरी माँ ने बहुत दुख देखे थे। बहुत तकलीफ़ों भरी ज़िन्दगी जी थी। पिता के मरने के बाद वह पिता भी बनी थी और माँ भी। उसने मौतें भी बहुत देखी थीं। अपने पति की मौत के बाद अपने जवान पुत्र को मरते देखा था। फिर उसने तीन छोटे छोटे बच्चों को बिलखते भी देखा था। उनके लालन-पालन में जसविंदर की पूरी मदद की थी। एक समय ऐसा आया कि मैंने अपनी माँ को इंग्लैंड में बुला लिया, पर उसे इंग्लैंड में स्थायी नहीं करवा सकी।
मैं भारत जाती तो माँ की गिरती सेहत की ओर देखकर बहुत दुखी होती। चाहते हुए भी मैं उसको अपने पास नहीं रख सकती थी। हमारे पुश्तैनी घर की तीन मंज़िलें थीं और माँ के लिए ऊपर-नीचे चढ़ना-उतरना बहुत कठिन होता था। मेरा मन करता कि एक मंज़िल वाला फ्लैट या घर हो जहाँ मैं माँ को रख सकूँ। दिल्ली वाला मेरा अच्छा-खासा फ्लैट चंदन साहब की भेंट चढ़ चुका था। अब मेरे पास इंग्लैंड में काउंसिल का फ्लैट तो था, पर वहाँ जाने की माँ को इजाज़त नहीं थी। उसका पासपोर्ट अब इंग्लैंड के लिए एक प्रकार से खराब हो चुका था।
चंदन साहब की मौत के बाद मैं भारत गई तो हम माँ-बेटी एक दूसरे के गले लगकर जी भरकर रोईं। रोने के कारण को जस्टीफाई करने के लिए हमारे पास कुछ भी नहीं था। हाँ, मेरी माँ को यह मलाल अवश्य था कि अब वह कभी भी चंदन साहब को मिलकर यह उलाहना नहीं दे सकेगी कि उसने उसको वचन देकर भी उसकी बेटी के साथ क्या किया !
जैसा कि मैं पहले भी कह चुकी हूँ कि चंदन साहब के साथ चले मुकदमे के बाद मुझे कुछ पैसे मिले थे जिससे मैंने गुड़गांव में ही एक फ्लैट बुक कर लिया था। मेरी इच्छा थी कि एक दिन मैं माँ को लेकर इस फ्लैट में रहूँगी। मैं दिल्ली गई हुई थी। गुड़गांव का चक्कर लगाकर आई, देखा कि अभी काम चल रहा था। शायद अगले साल पूरा हो सकता था या एक साल और लग सकता था। मैं माँ के साथ इस बारे में अक्सर ही बातें करती रहती। वह भी फ्लैट को लेकर बहत खुश थी यद्यपि माँ की सेहत अब पहले जैसी नहीं थी। उम्र भी नब्बे साल से ऊपर थी, पर उसका हौसला बड़ा बुलंद था। जसविंदर पढ़ाने जाती तो मैं और बीजी घंटों बैठकर आपस में बातें करती रहतीं।
दरअसल इंग्लैंड में अब मेरा दिल नहीं लगता था। काउंसिल के फ्लैट में मैं बिल्कुल अकेली थी। सेहत बिगड़ जाने के कारण कई बार अकेले वक्त गुज़ारना बहुत कठिन हो जाता। हालांकि दलजीत और छिंदे का परिवार हमेशा ही दुख-सुख के समय मेरे साथ था। इंदरजीत जीत भी मेरे छोटे मोटे काम कर देते। फिर भी, मैं भारत की ओर देखने लगी और माँ के संग शेष ज़िन्दगी के दिन बिताने के सपने लेने लगी।
एकबार दिल्ली के खालसा कालेज में करवाये जाने वाले मुशायरे के लिए बरजिंदर चौहान द्वारा समारोह की अध्यक्षता करने का निमंत्रण आया। मैं समारोह में चली गई। वहाँ बहुत सारे मित्र मिल गए। कवि दरबार जो था। बहुत सारे कवि एकत्र हुए थे। सुखविंदर अमृत पंजाब से आई हुई थी। उसने अगली सुबह पंजाब जाने के लिए ट्रेन पकड़नी थी और रात में उसने बरजिंदर चैहान के घर में रहना था। बरजिंदर चैहान का घर द्वारका में होने के कारण रेलवे स्टेशन से बहुत दूर था। मैं सुखविंदर को अपने संग ही ले आई क्योंकि पहाड़गंज से तो नई दिल्ली रेलवे स्टेशन बहुत निकट ही था और अगली सवेर ही उसने शान-ए-पंजाब पकड़नी थी। सुखविंदर जब इंग्लैंड में आई थी तो सात-आठ दिन मेरे पास रह कर गई थी। सो, हमारे बीच अच्छी दोस्ती थी। हम रातभर बातें करती रहीं। सवेरे जल्दी ही उठ खड़ी हुईं। मुहल्ले के एक एक्युप्रैशर डॉक्टर की ड्यूटी लगा रखी थी कि वह अमृत को स्टेशन पर छोड़ आएगा। सवेरे छह बजे मैं और सुखविंदर चाय पी रही थीं, छोटी छोटी बातें कर रही थीं कि तभी, मेरी भाभी जसविंदर हमारे कमरे में आई और बोली कि दीदी, ज़रा बाहर आकर देखो तो सही कि बीजी ठीक हैं। मैं बुला रही हूँ तो कोई जवाब नहीं दे रहे। हमने जाकर देखा, माँ तो बेजान-सी पड़ी थी। तब तक वह डाॅक्टर भी आ गया जिसने सुखविंदर को रेलवे स्टेशन पर छोड़कर आना था। उसने बीजी की नब्ज़ देखी और बोला -
“माता जी को पूरे हुए लगभग डेढ़ घंटा हो चुका है।”
(समाप्त)