Ha, par ek shart hai in Hindi Moral Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | हां, पर एक शर्त है

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हां, पर एक शर्त है

हां, पर एक शर्त है

सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त अस्सी वर्षीय आनन्द प्रकाश जीवन का अन्तिम समय अकेले रहकर बिता रहा था, क्योंकि उसकी धर्मपत्नी का देहान्त हो चुका था। दोनों बेटे विदेश में सैटल थे, जो साल-दो साल में एकाध बार हफ्ते-दस दिन के लिए पिता का हालचाल पता करने आ जाते थे। बेटी नीलिमा उसी शहर में अपने घर-परिवार के साथ रहती थी। आनन्द प्रकाश पार्ट-टाइम कामवाली से अपना काम चला रहा था कि एक दिन बाथरूम में पैर फिसलने से उसके ऐसी गहरी चोट लगी कि उसके लिए उठना भी मुश्किल हो गया। जैसे-तैसे घिसटते हुए उसने बाथरूम का दरवाजा खोला। दरवाजा बेडरूम में खुलता था। बेड भी दरवाजे से अधिक दूरी पर न था। मोबाइल पर बेटी को अपने गिरने के बारे में बताया और उसे समझाया कि पड़ोसी के घर से पीछे की तरफ से अन्दर आ जाना, क्योंकि बाहर का दरवाजा तो अन्दर से बन्द है और मैं दरवाजे तक पहुंच नहीं सकता। नीलिमा और उसके पति मानव दस मिनट में पहुंच गए। उन्होंने पापा को अपनी कार में पिछली सीट पर लिटाया और डॉक्टर के पास ले गए। डॉक्टर ने चेकअप करने के उपरान्त बताया कि आनन्द प्रकाश की कूल्हे की हड्डी टूट गई है। ऑपरेशनक करकेरोड डालनी पड़ेगी।

डॉक्टर की राय मानने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था। नीलिमा ने ऑपरेशन के लिए लिखित सहमति दे दी। कुछ आवश्यक टेस्ट करने के बाद डाॅक्टर ने उसी दिन सायंकाल में ऑपरेशन कर दिया। ऑपरेशन सफल रहा। नीलिमा सारा-सारा दिन अस्पताल में रहती। रात को उसका नौकर अस्पताल में रहता। मानव सुबह-शाम आकर पता करता। सातवें दिन अस्पताल से छुट्टी मिल गई। नीलिमा और मानव ने आनन्द प्रकाश को अपने साथ रहने के लिए बहुत मनाया, किन्तु वह इसके लिए तैयार नहीं हुआ। अन्तत: तय हुआ कि एक फुलटाइम नौकरानी रखी जाय, जो घर पर ही रहे और जब तक फुलटाइम नौकरानी का प्रबन्ध नहीं होता, नीलिमा का नौकर बाबूजी के पास रहेगा। समाचार पत्र में फुलटाइम नौकरानी के लिए विज्ञापन दिया गया।

विज्ञापन देखकर पैंतालीस-पचास वर्ष की आयु की जमना नाम की एक स्त्री आई। वह इस शर्त पर नौकरी करने को तैयार थी कि आनन्द प्रकाश उससे विवाह कर ले। आनन्द प्रकाश को उसकी शर्त बड़ी अजीबोगरीब लगी। क्योंकि उसे नौकरानी हर हालत में चाहिए थी, इसलिए उसने उसके बाल-बच्चों तथा पति के बारे में पूछा तो उसने बताया कि उसके कोई संतान नहीं है तथा उसके पति का देहांत पिछले साल एक सड़क दुघर्टना में हो गया था। अब वह बिल्कुल अकेली थी। जमना देखने में ठीक-ठाक लगती थी। आनन्द प्रकाश को लगा, यह मुझे अच्छी तरह संभाल सकती है। फिर भी उसने जमना को यह कहकर वापस भेज दिया कि मैं शाम को सोचकर बताऊंगा।

जमना के जाने के बाद आनन्द प्रकाश ने फोन करके नीलिमा को बुलाया और कहा कि हो सके तो मानव जी को भी साथ लेती आए। नीलिमा ने कहा - 'बाबूजी, मैं काम निपटा कर आती हूं। आपके लिए खाना मैं लेकर आऊंगी, कामवाली से मत बनवाना। मैं मानव से भी पूछ लूंगी। आ सकेंगे तो इकट्ठे आ जायेंगे।'

नीलिमा ने जल्दी-जल्दी घर का काम निपटाया और पति को फोन करके बाबूजी के घर जाने की बात कही। मानव ने ऑफिस में व्यस्त होने की बात कहकर उसे ही हो आने के लिए कह दिया। नीलिमा जब घर से निकली तो सूरज आसमान के बीचों-बीच था, लेकिन ए.सी. कार होने की वजह से उसे गर्मी के बारे में अधिक सोचने की आवश्यकता नहीं थी। उसे अकेली देखकर आनन्द प्रकाश ने पूछा - 'अकेली आई हो, मानव जी नहीं आए?'

'बाबूजी, वे ऑफिस में बिजी थे।'

नीलिमा के पहुंचने से पूर्व कामवाली काम निपटा कर जा चुकी थी। इसलिए घर पर नौकर तथा बाप-बेटी के सिवा और कोई नहीं था, न किसी के आने की संभावना थी। आनन्द प्रकाश ने नौकर को बाज़ार भेजकर निश्चिंतता से नीलिमा को सारी स्थिति से अवगत कराया। एकबारगी तो नीलिमा आश्चर्यचकित रह गई। आनन्द प्रकाश ने उसे बताया कि जमना की यह शर्त मानने से हमें कोई नुक़सान होने वाला नहीं, क्योंकि मेरी वसीयत के अनुसार सारी प्राॅपर्टी के हकदार तो तुम्हारे दोनों भाई और तुम ही हो। इस प्रकार काफी सोच-विचार के उपरान्त तय हुआ कि जमना की शर्त मानी जा सकती है। आनन्द प्रकाश के कहने पर नीलिमा ने मानव को भी सारी बात फोन पर बताई। उसे भी सुनकर एक बार झटका तो लगा, किन्तु सारी बात समझने के बाद उसने भी अपनी स्वीकृति दे दी।

शाम ढलने से पूर्व ही पांच बजे के लगभग जमना आ गई। उसे सम्बोधित करते हुए आनन्द प्रकाश ने कहा - 'जमना, तेरी शर्त के बारे में मैंने अपनी बेटी और दामाद बाबू से सलाह-मशवरा कर लिया है। मुझे तेरी शर्त स्वीकार है।' साथ ही उसे सचेत करते हुए कहा - 'लेकिन, एक बात अच्छी तरह समझ ले कि मेरी मृत्यु के बाद मेरी जायदाद तुझे मिल जाएगी तो इस भ्रम में न रहना, क्योंकि मैं अपनी सारी जायदाद पहले ही अपने बच्चों के नाम वसीयत कर चुका हूं।'

आनन्द प्रकाश की आशंका को झुठलाते हुए जमना ने न कोई एतराज़ किया, न ही किसी प्रकार की प्रतिक्रिया प्रकट की। उसके चेहरे के भाव पूर्ववत् ही रहे। किन्तु उसने अपनी ओर से इतना और जोड़ दिया कि विवाह चाहे घर पर हो या मन्दिर में, इसे कोर्ट में रजिस्टर्ड करवाना होगा।

जमना की बात सुनकर आनन्द प्रकाश को गुस्सा भी आया और अचम्भा भी हुआ कि यह कैसी बात कर रही है! किन्तु उसने अपने गुस्से को नियंत्रित करते हुए थोड़ी देर सोचने के बाद यह बात भी मान ली और अगले दिन से काम पर आने के लिए कहा। इस पर जमना ने कहा - 'सर, आप बुरा ना मानें तो एक बात और कह लूं?'

खीजते हुए आनन्द प्रकाश ने कहा - 'तेरी सारी बातें तो मान लीं, अब और क्या रह गया?'

'पहले शादी की रस्म पूरी हो जाय, उसके बाद ही मैं आपके घर काम करना शुरू करूंगी।'

'ठीक है, कल सुबह दस बजे आ जाना। मैं बेटी और दामाद बाबू तथा पंडित को बुला लूंगा।'

दूसरी सुबह आनन्द प्रकाश जब उठा तो वह यह सोचकर काफी प्रसन्न था कि चलो, अब जब तक सांस हैं, एक व्यक्ति तो चौबिसों घंटे उसके आसपास रहेगा, और वह भी एक स्त्री। ‌ असल में, घर में स्त्री के होने से ही घर घर लगता है वरना तो दीवारों से घिरा बसेरा ही होता है।

दस बजने से पन्द्रह-बीस मिनट पहले ही जमना साफ-सुथरी धोती पहने आनन्द प्रकाश के घर पहुंच गयी। कल जैसी वह दिखती थी और आज जैसा उसका पहरावा था, ने ही उसके व्यक्तित्व में दिन-रात का अन्तर ला दिया था। उसके आने के कुछ मिनटों बाद ही नीलिमा और मानव भी पहुंच गये। पंडित को वे अपने साथ ही लेकर आये थे। जमना को देखकर वे भी सन्तुष्ट दिखे। उन्हें लगा, घर में कामकाज करने वाली के रूप में बाबूजी को एक साफ-सुथरे प्राणी का साथ मिल जाएगा।

डेढ़-दो घंटे में पंडित जी ने सारी रस्में पूरी कर विदाई ली। नीलिमा और मानव भी नाश्ता-पानी करके अपने घर चले गए। कामवाली यह सब बड़े अचरज से देख रही थी, लेकिन उसकी किसी से पूछने की हिम्मत न हुई। नीलिमा और मानव के जाने के बाद आनन्द प्रकाश ने कामवाली को बुलाकर कहा - 'किशनो, कल से तू मत आना। पूरे महीने के पैसे आज ही लेती जाना।'

पहले तो किशनो को बुरा लगा, किन्तु पूरे महीने के पैसे की बात सुनकर उसने कहा - 'ठीक है साब जी, जो आपका हुक्म।'

रात का खाना जमना ने बनाया। आनन्द प्रकाश को परोसा। खाना खाते हुए वह सोचने लगा कि जमना को रखने का निर्णय ठीक ही है। खाना अच्छा बनाती है। चाहे मैंने इसके विगत जीवन के बारे में बहुत कुछ नहीं पूछा, फिर भी लगता है कि इसका रहन-सहन अच्छा ही रहा होगा।

साढ़े नौ बजे रसोई समेटने के पश्चात् जमना बेडरूम में आई और आनन्द प्रकाश से पूछने लगी - 'सर, मैं कहां सोऊं?'

'जमना, यह मत समझ लेना कि हमने शादी की रस्म पूरी कर ली है तो तुम्हें मेरे बेड पर सोने का अधिकार मिल गया है। शादी की शर्त तुम्हारी थी, मैंने मान ली। रहोगी तुम नौकरानी ही। यदि तुम्हें कोई एतराज़ हो तो अब भी नौकरी छोड़ सकती हो।'

'सर, मैंने तो आपको बुरा लगने जैसी कोई बात नहीं की। मैं तो सिर्फ इतना जानना चाहती थी कि मुझे कहां सोना है? आपने मुझे अपनी देखभाल के लिए रखा है। रात को भी आपको मेरी मदद की जरूरत पड़ सकती है।'

'ठीक है, तुम लाॅबी में अपनी चारपाई लगा लो। बेडरूम का दरवाजा खुला रहेगा। यदि किसी वक्त जरूरत पड़ी तो मैं तुम्हें बुला लूंगा।'

'सर, आप नाराज़ ना हों तो शादी की रजिस्ट्रेशन कल करवा लें।'

दिन में न सो पाने की वजह से आनन्द प्रकाश थकावट महसूस कर रहा था, इसलिए और बातों में उलझने की बजाय उसने जमना की बात सुनकर कहा - 'ठीक है, कल मैं मानव जी को किसी वकील से मिलने के लिए कह दूंगा। अब तुम अपनी चारपाई लगा लो।'

'सर, उनको कष्ट देने की जरूरत नहीं। मेरी जानकारी के एक वकील साहब यह सारा काम कल ही करवा देंगे।'

आनन्द प्रकाश की आंखें भारी हो रही थीं। इसलिए उसने कहा - 'अगर तुम्हारे पास वकील का नम्बर है तो उसे फोन कर देना। अब मैं सो रहा हूं।'

आमतौर पर आनन्द प्रकाश सुबह चार-साढ़े चार बजे उठ जाता था। पहले दिन की थकावट और रात को गर्मागर्म स्वादिष्ट खाना खाये हुए होने के कारण बड़े अर्से बाद उसे बड़ी गहरी नींद आई थी। बीच रात में भी उठने की आवश्यकता नहीं पड़ी थी। अतः जब उसकी आंख खुली तो घड़ी पांच बजा रही थी। लाॅन में लगे वृक्षों पर बसेरा बनाए पंछियों का सुरीला कलरव भी कानों को प्रिय लग रहा था। उसने जमना को 'वाॅकिंग सपोर्ट' पकड़ाने के लिए आवाज दी। शायद जमना पहले ही जाग चुकी थी। बोली - 'अभी आई, सर।'

आनन्द प्रकाश को बाथरूम जाने तथा स्नानादि में जो सहायता की आवश्यकता थी, जमना ने पूरी की। नाश्ता बना कर रसोई से निकली ही थी कि डोरबेल बजी। उसने गेट खोला तो वकील साहब थे। उन्हें ड्राइंगरुम में बैठाया और चाय-नाश्ते के लिए पूछा। उनकी 'ना' के बाद उन्हें थोड़ी देर रुकने के लिए कहकर आनन्द प्रकाश के लिए नाश्ता बेडरूम में ले गयी और बता दिया कि वकील साहब आ गये हैं। आनन्द प्रकाश के नाश्ता करने के बाद वकील साहब को अन्दर बुलाकर उनका परिचय करवाया।

आनन्द प्रकाश - 'वकील साहब, मैंने जमना की विवाह की रस्म तथा रजिस्ट्रेशन करवाने की शर्त मान कर ही इसे काम पर रखा है, किन्तु मेरी समझ में नहीं आया कि इसको विवाह रजिस्टर्ड करवाने की इतनी जल्दी क्यों है, जबकि मैंने अपनी ओर से इसके कहे अनुसार सब कुछ पूरा कर दिया है।'

वकील - 'सर, जब आपने जमना को इसकी शर्त मानकर अपने घर रखा है तो जो काम करना है, उसे लटकाने का भी तो कोई मकसद नहीं रह जाता। आपको कार में मेरे साथ ही जाना है। तहसील में भी आपको कार में ही बैठे रहना है। आपको किसी तरह की कोई असुविधा नहीं होगी।'

इसके बाद वकील ने जो कागज़ वह तैयार करके लाया था, आनन्द प्रकाश को दिये और हस्ताक्षर करने के लिए कहा। आनन्द प्रकाश ने उन कागजों को पढ़कर हस्ताक्षर कर दिए। तदुपरान्त तीनों तहसील ऑफिस आ गये।

तहसीलदार ने प्रार्थना-पत्र जांचने के बाद इधर-उधर देखकर पूछा - 'वह व्यक्ति कहां है जिसकी शादी रजिस्टर्ड होनी है? उसे तो बुलाओ, उसके भी बयान होने हैं।'

वकील - 'सर, वह व्यक्ति यहां तक आने में असमर्थ है, वह बाहर कार में बैठा है।'

तहसीलदार - 'जिस व्यक्ति की शादी रजिस्टर्ड होनी है, डाक्यूमेंट्स के अनुसार उसकी उम्र अस्सी साल है। ऊपर से आप कह रहे हो कि वह यहां तक आने में असमर्थ है। मेरी समझ में नहीं आता कि उस व्यक्ति की शादी रजिस्टर्ड करने का क्या फायदा?'

'सर, कानून में यह कहीं नहीं लिखा कि जिसकी शादी रजिस्टर्ड होनी है, वह चलने-फिरने में समर्थ होना चाहिए।'

'वकील साहब, फिर भी वजह तो बताओ?'

'सर, आप कानूनी कार्रवाई पूरी करें, मैं वजह भी बता दूंगा।'

तहसीलदार ने बाहर आकर कार में बैठे आनन्द प्रकाश का बयान लिखा, उसपर उसके हस्ताक्षर करवाए तथा वकील ने गवाही डाल दी। जमना के बयान पहले ही हो चुके थे। तहसीलदार ने सारी कार्रवाई पूरी की और अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए फिर वकील से पूछा - 'अब तो बता दो भाई, इस शादी को रजिस्टर्ड करवाने की वजह क्या है?'

'सर, यह शादी इस शर्त पर हुई है कि आनन्द प्रकाश की अचल संपत्ति में से जमना को कुछ नहीं मिलेगा, किन्तु जमना के आगे अभी बहुत जीवन पड़ा है और आनन्द प्रकाश जी सरकारी नौकरी से रिटायर हुए हैं। उनकी मृत्यु के बाद जमना फैमिली-पेंशन की हकदार तो बन जायेगी।'

'वाह वकील साहब, वाह! मान गये, तुम लोग भी कहां तक की सोच लेते हो?'

'सर, हमारे प्रोफेशन में मुवक्किल की दिक्कतों को दूर करना हमारा कर्त्तव्य है। मैंने किसी अन्य को नुक़सान पहुंचाये बिना अपनी मुवक्किल का भविष्य 'सिक्योर' करवा कर अपना कर्त्तव्य ही निभाया है, कोई बेइमानी नहीं की।'

'वकील साहब, रियली यू हैव डन ए गुड जाॅब। कांग्रेचुलेशन्ज।'

'थैंक्स सर।'

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लाजपत राय गर्ग, पंचकूला