Champa pahadan - 7 in Hindi Moral Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | चंपा पहाड़न - 7

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चंपा पहाड़न - 7

चंपा पहाड़न

7.

माया को एक-दो बार और लोगों ने भी सचेत किया था किन्तु वह पूरी तरह से उस पर विश्वास करती थी, उसे लगता लगभग पचपन वर्ष से ऊपर की गंगादेई, जिसके दो बड़े-बड़े भरपूर मर्द बेटे थे और न जाने कितने नाती-पोते भी, इन सब बातों में क्योंपड़ेगी?माया को उसकी ज़रुरत थी, कई वर्षों से वह उस घर में थी, गुड्डी के पिता गंगादेई को न जाने कहाँ से बहुत खोज-बीनकर लाए थे, वर्ष भर में ही उन्हें काल ने अपना ग्रास बना लिया था अत: माया के मन में गंगादेई के प्रति एक नाज़ुक सा भाव बना हुआ था | माँ के ऊपर वह अपनी पुत्री का उत्तरदायित्व छोड़कर उन्हें उस बंधन में नहीं बाँधना चाहती थी जिसमें से वे अब छूट चुकी थीं |

माया के पिता के स्वर्गवास के पश्चात जब माँ की इच्छा होती वे हरिद्वार आश्रम में जाकर रहतीं जहाँ उन्होंने अपना एक छोटा सा निवास बना लिया था, जब इच्छा होती अपने घर वापिस लौट आतीं जहाँ उनके बच्चे रहते थे, रहती वे शुरू से ही अलग थीं और अपने मनमाफिक जीवन जीना चाहती थीं | गुड्डी माया की आठवीं सन्तान थी, इससे पहले उसके बच्चे बचते ही नहीं थे सो इस बच्ची के प्रति कुछ अधिक ही संवेदनशील थे सब|वह अपनी दुर्लभ बच्ची के लिए एक स्वस्थ वातावरण बनाना चाहती थी, पर हो कुछ और ही रहा था |

साल भर में चंपा माया से खूब हिल-मिल गई न जाने कब और किन क्षणों में गुड्डी ने उसे ‘तंपा माँ’ कहना शुरू कर दिया |बड़ी स्वाभाविक स्थितियों में बच्ची की ज़िम्मेदारी चंपा ने अपने ऊपर ले ली थी |माया को धीरे-धीरे चंपा के गुणों का परिचय स्वत: ही होने लगा | वह बहुत विनम्र, मितभाषिनी एवं सुबुद्धिशालिनी थी |माया अपनी बच्ची को चंपा के सुपुर्द करके काफ़ी हल्की रहने लगी थी |पहले चंपा केवल गढ़वाली मिश्रित हिन्दी बोलती थी तथा काफ़ी कठिनाई से जोड़-जोड़कर हिन्दी पढ़ सकती थी किन्तु आर्यसमाज से जुड़ने के पश्चात उसने हिन्दी पढ़ने, बोलने के साथ संस्कृत के श्लोकों को इतनी शीघ्रता से कंठस्थ किया था कि लोगों ने दाँतों में ऊंगली दबा ली थी| आर्यसमाज में पहले जहाँ उसे हेय दृष्टि से देखा जाता, वहीं साल भर में वहाँ के संयोजकों द्वारा उसे बुलाकर यज्ञ में बैठने का निमन्त्रण दिया जाने लगा |यह वास्तव में कमाल ही था, चंपा ने इतनी शीघ्रता से भाषा को पकड़ा था कि सब आश्चर्यचकित हो गए थे |बुद्धिमत्ता किसी की थाती नहीं होती, बुद्धि ईश्वरप्रदत्त है किन्तु उसको किस प्रकार माँजना है, यह मनुष्य के अपने ऊपर निर्भर है, चंपा इसकी मिसाल थी |

चंपा ने अपनी बुद्धि को प्रयोग के द्वारा घिस-घिसकर पैना कर लिया था जिसका इस्तेमाल वह बहुत सोच-समझकर करती थी| भोली-भाली गाँव की पहाड़ी युवती चंपा को अब सब ऊंच-नीच समझ में आने लगा था और अपने चारों ओर के लोगों को वह बहुत भली प्रकार पहचानने लगी थी किन्तु उसने अपने होंठ सिलने सीखे थे, वह अपनी स्थिति को सदा बहुत अच्छी प्रकार समझती तथा सजग बनी रहती थी |

अनेक प्रयत्नों व बलिदानों के प्रयास स्वरूप भारत में स्वतन्त्रता रूपी मशाल जली थी | तब तक गुड्डी साल भर की होने लगी थी | चंपा गुड्डी को अपनी बाहों में भरकर कहती ;

“ये, हमारी गुड्डी रानी लेकर आई है स्वतन्त्रता की मशाल ! अब हम इसे कभी बुझने न देंगे |” जैसे उस छोटी सी बच्ची ने न जाने स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए कितनी कुर्बानियां दी हों |

कुछ ही दिनों में चंपा की एक प्रतिष्ठा स्थापित हो गई लेकिन समाज का आम आदमी क्यों छोड़ता चंपा को ? उसके निर्लज्ज ठेकेदारों के लिए तो वह उपयोग व हिकारत की वस्तु मात्र ही थी | भारत के स्वतन्त्र होने पर वातावरण में एक चहक भर उठी, लोग स्वतन्त्रता की पवन के झकोरों से आनन्दित हो उठे | समाज में कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्हें स्वतन्त्रता से कुछ मतलब नहीं था उनकी कुंठित मानसिकता जहाँ चिपकी हुई थी, वह वहीं पर चिपकी रही |समाज के तथाकथित ठेकेदारों के कुंठित मस्तिष्क संकरी साँकलों में कैद थे, वे अपनी मानसिक जेल से बाहर आना ही नहीं चाहते थे| उनके लिए समाज में एक मर्द था और मर्द को औरत को खसोटने का परमात्मा द्वारा प्रदत्त अधिकार था, उसी में वे मज़े लूट सकते थे |सोच बदल लेते तो ‘मनुष्य’ न बन जाते ?

शनै: शनै: चंपा व गुड्डी की मित्रता गहराती गई | माया उसे अब चंपा के साथ आर्यसमाज भी भेज देती जहाँ से वह सौदा-सुलफ़ करके गुड्डी की ऊंगली पकडे हुए लौटती | इसी बीच चंपा को नर्क से उबारने वाले देवता स्वरूप वकील साहब का स्वर्गवास हो गया | अंग्रेजों के पिट्ठू इस परिवार की अब वह स्थिति नहीं रह गई जो वकील साहब के समय में थी, वकील साहब के तीनों बेटे अपनी ज़ायदाद बेचकर अपनी माँ के साथ बड़े शहरों में चले गए |चंपा के लिए वकील साहब ने डाकखाने में कुछ धन जमा किया हुआ था, वह किसी न किसी प्रकार उसीमें से ही अपना गुज़ारा चलाती | माया ने गंगादेई को अपने घर से निकाल दिया था वह चंपा की कट्टर दुश्मन बन गई थी और समाज में उसके बारे में नीच बातें फ़ैलाने लगी थी| एक दूसरी महरी को रख लिया गया था, घर के अन्य कार्यों में चंपा माया की सहायता करने लगी |माया चंपा को कुछ द्रव्य देकर अपने आपको हल्का महसूस करती | माया को अपनी बच्ची की सुरक्षा के लिए अब अधिक सोचना नहीं पड़ता था | चंपा प्रतिदिन यज्ञ करती और गुड्डी उसके पास बैठकर उसकी सहभागी बनती | बच्ची ने अनजाने में ही न जाने कितने सुन्दर संस्कार चंपा से ग्रहण किये थे | समाज के बेहूदे लोगों की बकबक का प्रभाव न तो चंपा पर पड़ रहा था, न ही माया पर | बड़ी होती गुड्डी के लिए ‘तंपा माँ’ अब ‘माँ जी’ बन गई थीं | एक उसे जन्म देने वाली अम्मा थीं तो एक जसोदा की भांति उसका पालन करने वाली माँ जी, उसके दोनों हाथों में लड्डू थे |दोनों की स्नेहपूर्ण देखरेख में वह बड़ी होती रही, दोनों माएं उसके जीवन की हर ऋतु में उस पर अपनी स्नेह रूपी छाया बनाए रखतीं | कब स्कूल से निकलकर गुड्डी ने कॉलेज के प्रांगण में प्रवेश लिया, कुछ पता ही नहीं चला |दिन पँख लगाकर उड़ रहे थे |उधर चंपा जैसे-जैसे प्रौढ़ होने लगी, एक सौम्य निखराव से उसका व्यक्तित्व खिलने लगा |

गुड्डी के लिए घर-वर की खोज प्रारंभ हुई और चंपा की उदासी के दिनों का प्रारंभ ! अक्सर वह आँखों में आँसू भर लाती ;

“मेरी ज़िंदगी तो मेरे बाबूजी के इर्द-गिर्द ही घूमती है ---”

“तुम्हारे बाबूजी का ब्याह तो करना पड़ेगा ---”

आँसू भरी आँखों से माया अपनी गर्दन ‘हाँ’ में हिलाती पर उदास बनी रहती |

समय के अनुसार सब काम सुनिश्चित हैं, ज़िंदगी के जिस कोने को हम पकड़ना चाहते हैं, ज़रूरी नहीं कि उसे पकड़ ही लें | न जाने कौनसा सिरा हाथों में आ जाता है और न जाने कौनसा सिरा छूट जाता है | हम तो केवल उस सिरे के साथ जूझते रह जाते हैं जो हमारे हाथों में अटक जाता है |माया की माँ अपने मन के अनुसार कभी आश्रम जाकर रहतीं, जैसे-जैसे उम्र बढती जा रही थी उनका आश्रम में रहना अधिक होने लगा था | गुड्डी के ब्याह के बाद तो उन्होंने इधर आना काफ़ी कम कर दिया|हाँ !जब-जब गुड्डी अपने बच्चों को लेकर माँ के घर आती तब वे अवश्य ही आश्रम से अपनी नई पीढ़ी से मिलने आतीं | उन्होंने वानप्रस्थ ले लिया था लेकिन मोह था कि उन्हें अपने पड़धेवते-धेवती की ओर खींचता ही रहता, वानप्रस्थ के सारे नियम भंग होने लगते|अब वे चंपा से भी इतनी विमुख नहीं रहती थीं, फिर भी एक दूरी बनाए रखना वे ज़रूरी समझतीं | कुछ दिनों बाद उनका भी स्वर्गवास हो गया |

क्रमश..

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