Dayro ke darmya in Hindi Moral Stories by Husn Tabassum nihan books and stories PDF | दायरों के दरम्यां

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दायरों के दरम्यां

दायरों के दरम्यां

अचानक सुबह फोन बजा तो अब्बा चैंक पड़े। रिसीव किया तो पता चला अगले महीने अफजल यू.पी. आ रहा है। बता रहा था कि -‘‘ अब्बू, अगर अल्लाह ने चाहा तो मैं अगले महीने की 12 तारख तक आ जाउंगा।‘‘ अब्बू फोन लिए-लिए ही मुँह ताकती पत्नी आमना बेगम से फुसफुसाए- ‘‘ अफजल आ रहा है।‘‘ और आमना बेगम ने लपक कर फोन की बलाएं ले लीं। बहने चिंहुंक उठीं। फिर क्या था महीने भर पहले से ही घर की सफाई सुथराई शुरू हो गई। पर्दे चादरें सब खरीदी जाने लगीं।

अफजल, उमर साहब की पहली औलाद था। उसके बाद दो बेटियां और थीं। अफजल एक खूबसूरत, बिंदास और जिम्मेदार नवयुवक था। पूरा खानदान व मोहल्ले का चहीता। पढ़ाई में भी अव्वल। शहर के ही डिग्री काॅलेज से फस्र्ट क्लास में बीए की डिग्री हासिल की। आगे भी पढ़ाई जारी रखने की ख्वाहिश थी मगर खानदान के लोगों ने यह कह कर उसे हतोत्साहित कर दिया कि ‘‘मुसलमान को नौकरी कहाँ‘‘। फरहाना के घर वालों ने भी दबाव बनाया कि अब उसे पढ़ाई जारी न रखकर कुछ काम धाम संभालना चाहिए और अंततः उसने कहीं बाहर जाने का मन बना लिया। कुछ दिनों बाद ही उसे हैदराबाद की किसी कपड़े की कंपनी से बुलावा आ गया और वह चल दिया अपनी किस्मत आजमाने। कुछ दिन उसे वहाँ सामंजस्य बैठाने में परेशानी हुई पर बाद में खुद को वहीं के हिसाब से ढाल लिया। कुछ दिनों बाद वह घर भी पैसे भेजने लगा। माँ-बाप का दिल बाग़ बाग़। बेटा काम से लग गया। अम्मा सारे खानदान में बड़े फख्र से अफजल का नाम लेतीं। बहनें उसके नाम पर इतरातीं। पिता के लिए वह एक बड़ी तसल्ली बन गया था। इसी तरह वक्त कटता गया था और चार साल पूरे हो गए थे। अब जा कर उसके आने की ख्बर आई थी तो सब निहाल हो गए थे। अम्मा को कुछ न सूझा तो जाकर तीन चार पैंट शर्ट के कपड़े खरीद लाईं उसके लिए। पिता ने सुना तो उलाहा-

‘‘ कम अकल कहीं की, क्या जरूरत थी कपड़ों की। आखिर वह खुद भी कपड़े की कंपनी मे ही काम करता है‘‘

‘‘ तो क्या हुआ, चार साल से तो अपना खरीदा हुआ ही पहन रहा है। अब भला कोई और हाथ उठा कर दे उसकी तो खुशी ही अलग होती है।‘‘ वह चुप मार गए।

फरहाना का जी अलग ही खुशी से हिलोरें मार रहा था। कैसे उड़ कर लखनऊ आ जाए उसका अफजल और कभी न उससे अलग हो। उसने मन ही मन तय किया था-

‘‘ इस दफा अफजल को निकाह करके ही जाना होगा। वैसे तो जाने ही न दूंगी‘‘

‘‘ यह बात वह फोन पर ही कितनी दफा कह चुकी थी। फरहाना का घर लखनऊ में ही नक्खास में था। अफजल का घर अमीनाबाद। अफजल फरहाना की खाला का बेटा था और उनकी शादी बचपन से तय थी। अल्लाह-अल्लाह करके महीना खत्म होने पर आया। पूरे घर की धड़कन तेज हो गई। 12 तारीख आई। सुबह से ही माहौल मह-मह कर रहा था। अम्मा सोंच-सोंच पकवान बनाए जा रही थीं। जो भी अफजल को जरा भी पसंद था। तसव्वुर में अफजन मुस्कुरा रहा था। गोरा गुलाबी रंग। गहरे काले कांधे तक झूलते बेतरतीब बाल। पहनावे मे बेहद सजग। ऊँचा कद, हर वक्त होंठों से फुलझड़ियां छोड़ता हुआ। वह मन ही मन सैंकड़ों बलाएं ले डालतीं। उनके घर की रौनक। वहीं फरहाना के तसव्वुर में भी अफजल कुछ अलग नहीं था। बार-बार अफजल की मुस्कुराती अँाखें उसे छेड़ती रहतीं। वह रूठती तो वह ठहाका मार के हँसता और उसका हाथ थाम लेता-

‘‘ तुम रूठती हो तो लगता है क़ायनात रूठ गई।‘‘

‘‘ हुंह....मस्खरे कहीं के......‘‘

‘‘ मुझे खुद में खो जाने दो माई डियर‘‘

‘‘ देखो, कहीं मैं ही न खो जाऊँ‘‘

‘‘ नो...ऐसा क़ुफ्र मत बोलो, मार डालोगी क्या?‘‘

‘‘ हुं...ह...नौटंकी....‘‘

ये छेड़-छाड़ सोंचती हुई वह मन ही मन मुस्कुरा पड़ती और अफजल से मिलने की बेचैनी और तेज हो जाती है।

.....................

ठीक शाम को छः बजे दरवाजे की कुण्डी खड़की, दोनों बहने दरवाजा खोलने दौड़ीं। दरवाजा खुलते ही ‘‘ अस्सलामवअलैकुम व रहमतुल्लाह‘‘‘ की आवाज आई और बहनें हक् सी रह गईं। सम्मुख जो आकृति थी उसे पहचानने और फिर स्वीकारने में थोड़ा वक्त लगा। सामने लम्बे कुर्ते और टखने तक के सफेद पाजामें में अफजल खड़ा था। सिर से लम्बे बाल ग़ायब थे। पूरा चेहरा लंबी दाढ़ी से ढांप गया था। चेहरे पे हल्का कलछऊँ पन भी फैल गया था। सिर पे टोपी। हाथ में घड़ी, पांव में चप्पलें। दोनों कांधों पर टंगे बड़े-बड़े बैग। एक डोलती सी आवाज आई-

‘‘ कैसी हो रजिया और शकीला?‘ दोनों ने सर्द आवाज में जवाब दिया-

‘‘ ठीक हूँ भाईजान‘‘‘

दोनों खामोशी से उसके साथ आगे बढ़ गईं। अम्मा का दिल आवाज सुनते ही बल्लियों उछल पड़ा। तब तक अफजल सामने आ खड़ा हुआ था और अम्मा तख्त से उठते-उठते रह गईं। सीने पे जैसे किसी ने हथोड़े बरसा दिए। एक गहरी नज़र से अफजल को देखा और तड़ से गिर कर बेहोश हो गईं। अफजल ने दौड़ कर उन्हें थाम लिया। दोनों लड़कियां अम्मी अम्मी कह कर मां से लिपट गईं। अब्बू दौड़ कर पानी ले आए और बीवी के चेहरे पर छिड़कने लगे। कुछ मिंट बाद अम्मा की आँख खुली, होश लौटे और चीख़ पड़ीं-

‘‘....याअल्लाह...यह क्या हुलिया बना कर आया है कमबख्त.....आईना देख जरा? या खुदा...यह दिन भी देखना लिखा था।‘‘ कहते हुए वह फिर बिलख-बिलख कर रो पड़ीं। अब्बू और अफजल ने चोर नजरों से एक उूसरे को देखा और अचकचा गए। अब्बू ने समझाया-

‘‘ आमना, पागल मत बनों। बेटा कितनी दूर से आया है। उसका इस्तेकबाल करो।‘‘ किसी तरह से आमना बेग़म ने सिसकियों को का़बू किया, बुझे मन से उठीं। मुँह धोया। बेटियों ने चाय नाश्ता बनाया। अफजल ने कपड़े निकाले। नहा धो कर कपड़े बदले फिर नाश्ता किया। दोनों बहने बावर्चीखानें में बैठी गुफतगू कर रही थीं-

‘‘ ये भाईजान को क्या हो गया। सारी सूरत ही बिगाड़ के रख दी है। सहेलियों ने मिलने आने को कहा था। कल किस मुँह से सामना करूंगी उनका। सब खिल्ली ही तो उड़ाएंगी। बहनों के पास फरहाना ने भी कई बार फोन किया मगर बहनों ने कोई जवाब ही न दिया। फरहाना यह सोंच कर रह जाती कि ‘‘ चार साल बाद उनका भाई आया है सब उसी में मगन होंगी। मैं भी कैसी बावली हूं जो फोन पर फोन किए जा रही हूँ। थोड़ा सब्र से काम लेना चाहिए।‘‘ बहनों ने भाई को रात का खाना खिलाया और अपने कमरे में जा कर सो गईं। अम्मा बेहद बुझी-बुझी सी। लगा लहरों से भरा समंदर अचानक थम कर शांत हो गया हो। चेहरे पर फला गुलाबी रंग पीला पड़ चुका था। अब्बू इधर-उधर डोलते रहे। अफजल को सबकुछ बड़ा अजीब लग रहा था। जैसे किसी अजनबी के घर घुस आया हो। बेटियों को छोड़ कर सभी रात भर करवटें बदलते रहे। अम्मां अब्बू से फुसफुसा रही थीं-

‘‘ मुए ने क्या हुलिय बना लिया है। मैं जानती तो कभी न बाहर भेजती इसको। कैसा रूखा फीका सा लग रहा है। लगता है कोई अजनबी घुस आया है हमारे घर में।‘‘

‘‘ क्या कहा जाए, मेरी तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा। कह तो रहा था कि कपड़े की फैक्ट्री में काम करता हू।‘‘ अब्बू ठंडी सांस खींचते हुए बोले।

‘‘ मेरे तो सारे अरमानों पर घड़ों पानी फिर गया।‘‘

‘‘ अब बेकार की बातें मत करो। जब तक है वह, खुश-खुश रहो। बोलो बतियाओ। महीने भर बाद चला ही जाएगा।‘‘

‘‘ यह कौन सी बात है। इकलौता बेटा है हमारा। कोई ग़ैर थोड़े ही है जो उसके जाने की बाट जोहूं। क्या-क्या खाब सजाए थे।‘‘ कहते-कहते उनका गला रूंध गया। अब्बू ने संभाला-

‘‘ वह जैसा भी है उसे कुबूल करो। इसी में हम सबकी भलाई है।‘‘

.........................

सुबह जब सब लोग जागे तो देखा अफजल नहा धो कर फारिग हो चुका था। अब वह कुरआन की तलावत कर रहा था। बहनें घर के काम में जुट गईं। अम्मा बावर्चीखानें में चली गईं। कुछ देर बाद तिलावत खत्म कर अफजल बरामदे में आया और बहनों को प्यार से बुलाया फिर बोला-

‘‘ रजिया और शकीला ये रहन सहन तुम्हारा ठीक नहीं। फज्र क्या हमेशा छोड़ देती हो? दोनों कुछ नहीं बोलीं। वह आगे बोला-

‘‘ कल से फज्र न कज़ा हो। दुनिया से क्या लेकर जाओगी? ये अंग्रेजी और हिंदी की पढ़ाई आखिरत में काम नहीं आएगी। तिलावतें किया करो।‘‘ फिर अम्मा की तरफ मुखातिब हुआ-

‘‘ और अम्मी आप भी। जब आप ही अमल न करेंगी तो बच्चे क्या करेंगे। अपनी आखिरत बनाईए। ये क्या बेतुकी जिंदगी जी रहे हैं आप लोग।‘‘ अम्मा झेंप गईं। बोलीं कुछ नहीं। फिर वह उठ कर कमरे में गया और अपना हैंडबैग उठा लाया। बहनों ने ललचाई नजरों से एक बार उधर देखा...शायद भाई कोई कीमती तोहफे लेकर आया हो। अफजल ने कुछ पैकेट निकाले और बहनों की तरफ बढ़ाते हुए बोला-

‘‘ ये लो...तुम दोनों के लिए पोत के कपड़ों का हिजाब। सालों पहनोगी खराब न होगा। रजिया और शकीला के जैसे होश फाख्ता हो गए। बड़े ही बुझे मन से उसे ले लिया। अंदर कसैला पन धुल गया। उन्ने तो सोंचा था भाई लछके बूटे वाले सलोने पैरहन लेकर आएगा। सहेलियों को दिखाउंगी तो वो अलग हँसेंगी। तभी अफजल ने बैग से तशबीह की कई लरें निकालीं और उनमें से एक अम्मा की तरफ बढ़ा दिया।-

‘‘ अम्मी, यह आपके लिए है।‘‘ अम्मा ने हाथ बढ़ा कर ले लिया आँखों से लगा कर चूमा और शकीला को देती हुई बोलीं-

‘‘ शकीला, मेंरे कमरे में खूंटी पर टांग आ।‘‘ एक पैकेट और निकाला।

‘‘ शकीला, यह एक और हिजाब है। फरहाना आएगी तो उसको दे देना या घर पे ही दे आना ।

‘‘ ठीक है भाई जान।‘‘ और तीनों वापस बावर्चीखानें में चली गईं। पर अफजल के अंदर जैसे कुछ टूटा जरूर था। अपने ताहफों के लिए उसने अम्मा और बहनों की तरफ से बेदिली महसूस की थी। पर कुछ कह न सका। कुछ देर बाद बहनें आकर दश्तरख्वान पर नाश्ता लगा गईं। दोपहर बाद रजिया और शकीला की सहेलियों का आना जाना शुरू हुआ। रजिया और शकीला ने जो अपने भाई की तारीफों के पुल बांधे हुए थे वो टूट गये। कुल पाँच सहेलियां आगे पीछे आईं। अफजल को देखतीं। एकबारगी चैंकती और सीधे सलाम कर आगे बढ़ जातीं। मगर कमरे में जा कर वे रजिया और शकीला से यह पूछना नहीं भूलतीं-

‘‘ हे...तेरे भाई जान को प्राॅब्लेम क्या है?

‘‘ हे शकीला, तेरा भाई तो अव्वल दर्जे का मुल्ला लगता है। फरहाना ने क्या देखा था इसमें?

‘‘ पहले ऐसे नहीं थे।‘‘ रजिया ने मुँह बनाते हुए कहा और दीवार पर टंगी अफजल की तस्वीर की और इशारा कर दिया।

‘‘ यार...शादी उससे करनी है, तस्वीर से थोड़े ही करनी है। अब इस नमूने से कोई बेवकूफ ही शादी कर सकता है।‘‘

‘‘ खामोश.... चली जाओ यहां से।‘‘ वे लड़कियां मुँह बिचकाती वापस हो गईं। मगर शकीला और रजिया का चेहरा जैसे रोने-रोने का करने लगा। तभी फरहाना की काॅल आ गई। शकीला ने फोन रिसीव किया तो फरहाना की बेताबी से सनी आवाज सुनाई पड़ी-

‘‘ शकीला, क्या हाल है। सब ठीक है न?‘‘

‘‘ हाँ...‘‘

‘‘ क्या बात है शकीला, बड़ी बुझी-बुझी लग रही हो। तुम्हें तो चहकना चाहिए।‘‘

‘‘ हुं...ह...तुम्हारा भी यही हाल होने वाला है।‘‘

‘‘ क्या मतलब, साफ-साफ बताओ?‘‘

‘‘ कुछ नहीं, मजाक कर रही थी।‘‘

‘‘ ओह...शिट... अच्छा...मेरे लिए क्या लाया है?‘‘

‘‘ हिजाब‘‘

‘‘ क्या ?

‘‘ उफ्...हिजाब...या बुर्का अब भी नहीं समझाीं?

‘‘ क्या बकती हो, दिमाग खराब हो गया है क्या मेरे अफजल का? उसे पता है मैं कितनी रोशन ख्याल हूंँ। वह खुद भी कितना तरक्कीपसंद इंसान है। क्या तुमहें नहीं पता?‘‘

‘‘...नहीं...‘ लगभग चीखते हुए रजिया ने फोन काट दिया।

..........................

रजिया से बात करके फरहाना का जी अजीब सा हो गया। एक अनजाना सा डर आस पास घेरा बनाने लगा था। वह बारहा अपने मन को समझाती पर न जाने कौन सी शय उसे डरा-डरा जाती। किसी तरह से रात कटी और वह सुबह होते ही अफजल के घर की तरफ निकल लीं। अभी सभी नाश्ता पानी से ही फारिग़ हुए थे कि दरवाजा खड़का। शकीला ने जाकर दरवाजा खोला और फरहाना को देख कर डर सी गई।

‘‘.....त...तुम..‘‘ उसको नज़रंदाज करते हुए फरहाना आगे बढ़ गई। अम्मा घर पर नहीं थीं। दोनों बहनें ही थीं। अफजल बरामदे की तरफ पीठ किए कमरे में बैठा डोल-डोल कर कुछ पढ़ रहा था। रजिया बरामदे में ही पलंग पर बैठते हुए उधर उचटती सी निंगाह डालते हुए बोली-

‘‘ ये मोहतरम कौन हैं...?‘‘ दोनों फिस्स से हँस दीं। बोलीं कुछ नहीं। तब तक अफजल आवाज सुन कर बाहर आ गया। फरहाना को सलाम किया। फरहाना एकाएक जैसे आसमान से गिरी हो। कुछ समझ न पाई। और जब समझ पाई तो उसके हाथ के तोते उड़ गए। -

‘‘ ऐ....ह...तु...तुम...ये क्या ग़त बना ली हैै ?‘‘

‘‘ क्या बकती हो। अल्लाह की खि़दमतक करने वाला बंदा हूं। ऊपर वाले ने सही राहे रसा पे डाल दिया है मुझे। मैं कितना गुनाहगार हुए जा रहा था।‘‘ फरहाना सिर पे जैसे हथोड़े बरस रहे थे। आँखों में बादल घिर आए। वह रूआंसी सी तड़प उठी...

‘‘...नहीं...नहीं कभी नहीं..या अल्लाह ये सब क्या है?‘‘

‘‘ शकीला, फरहाना को इसका तोहफा ला के दो जरा।‘‘ शकीला ने पैकेट ला कर थमा दिया फरहाना को। फरहाना ने बुझे मन से निकाल कर देखा और वैसे ही वापस लिफाफे में डाल दिया। अफजल उसका चेहरा पड़ रहा था। उसकी आँखों की तरफ इशारा करते हुए बोला-

‘‘ इन आँखों में बादल अच्छे नहीं लगते। इतने दिनों बाद देखा मुझे तो जज्बाती हो गईं। अब तो मैं तुम्हारे सामने हूं।‘‘

‘‘ नहीं, मैने जिससे मोहब्बत की थी वो कोई और था। मर गया वह।‘‘ इस दरम्यान बहनें अंदर खिसक ली थीं। फरहाना ने एक ठण्डी सांस खींची और खड़ी हो गई। अफजल ने उसका दुपट्टा पकड़ लिया-

‘‘ नहीं फरहाना...तुम्हारी सोंच गलत है। देखो इस बार मैं तैयारी से आया हूं। निकाह करके ही जाऊँगा।

‘‘ हुं....ह...‘‘ कहते हुए फरहाना ने उसके हाथ से दुपट्टा खींच लिया और चिल्लाई-

‘‘ आईना देखा है....?‘‘ और पांव पटकती हुई तेज कदमों से घर से बाहर हो गई। अफजल ठगा सा खड़ा रह गया।

..........................

बड़ी मायूस सी फरहाना घर लौटी और अपने कमरे में जा कर फूट फूट कर रोने लगी। पीछे-पीछे अम्मी भी अफजल का हाल जानने के लिए दौड़ आई थीं। मगर फरहाना का हाल देख कर सहम सी गईं-

‘‘ क्या बात है बेटी। उसने कुछ कहा क्या?‘‘

‘‘नहीं‘‘

‘‘ तो क्या बात है, बाहर जा के कहीं और तो नहीं बझ गया है। मैं उसकी मैय्यत निकलवा दूंगी। बता तो...उसकी ऐसी की तैसी।‘‘

‘‘ नहीं अम्मी, अब मैं उससे शादी नहीं करने वाली।‘‘ वह सिंसकती हुई बोल गई। अम्मी के पैरों तले की जमीन निकल गई-

‘‘ या अल्लाह...ऐसा क्या हो गया। खुदा के लिए बता तो सही। मेरा जी बैठा जा रहा है...क्या कमी है मेरे उस चाँद से भांजे में‘‘

‘‘ तो खुद जा कर देख आओ अपने उस चाँद को।‘‘ रूखसाना बेगम सोंच में पड़ गईं। उनको पंखे लग गए। मगर अभी बेटों और शौहर से कुछ कहना मुनासिब नहीं समझा। सोंचा पहले खुद जा कर सूरत ए हाल जानूं आखिर माज़रा क्या है?‘‘

जैसे तैसे शाम हुई और वह बहन आमना के वहाँ जा पहुँची। दरवाजा इस बार अफजल ने ही खोला। उन्होंने एक उचटती सी निंगाह डाली उस पर। उसने सलाम किया। वह सलाम का जवाब देती हुई आगे बढ़ गईं और दालान में जा कर बैठ गईं। बहन और भांजियां भी सलाम करके उन्हीं की पलंग पर आकर बैठ गईं। कि रूखसाना बेग़म ने पूछा-

‘‘ कहाँ है अफजल, सोंचा कि फुर्सत निकाल कर मैं भी मिल ही आऊँ‘‘ तभी बहन ने इशारा किया-

‘‘ अरे आपा वो कौन है....जिसने आपको सलाम किया है।‘‘ कि तभी अफजल पीछे से आ गया। रूखसाना बेग़म ने पलट कर देखा और देखती ही रह गईं।चश्मा ऊपर नीचे किया फिर बोलीं-

‘‘ या मेरे खुदा, यह कौन सी शक्ल अख्तियार कर ली है। तुम तो गए थे काम करने वहाँ मुल्लों की मजार्टी ज्वाईन कर ली क्या?‘‘ अफजल तलमला गया-

‘‘ यह क्या बात है खाला जान इतनी बेअदबी से नाम लेती हैं आलिमों का। जो हम सबको सही राह दिखाते हैं।‘‘

‘‘...हुँ...ह...‘‘ वह जैसे कांप रही थीं। वह बोला-

‘‘ हम सबको अपनी आखिरत बनानी चाहिए। दुनियाबी चमक दमक हमारे काम थोड़े ही आएगी।‘‘ रूखसाना खाला भी भड़क उठीं-

‘‘ मुला रहने दो यह तक़रीर। जाओ अपना काम करो। मुल्ले कहीं के। खुदा को याद करने के लिए ये मदारियों की सी शकल बना लेना जरूरी था क्या। झाड़ू फिरे तेरी सूरत पर।‘‘

‘‘ खाला जान आप अपनी हद पार कर रही हैं।‘‘ वह तड़प उठा।

‘‘...ऐ...आवाज नीची...वर्ना वो थप्पड़ धरूंगी कि सात पुश्तें याद आ जाएंगी। आया है दीन पढ़ाने, लगता है हम सब बेदीनी हैं। ये भगल बना लेने से फरिश्ता हो जाएंगे। फिर वह बहन आमना बेग़म की तरफ मुड़ीं-

‘‘ वही मैं कहूं कि छोरी क्यूँ बिदक गई।‘‘

‘‘ खालाजान उसे समझाईए‘‘

‘‘ रहने दे, अब मुझे खुद नहीं ब्याहना अपनी बेटी....तुझ नौटंकी के मिर्जा को। नाम मत लेना अब मेरी बेटी का।‘‘

‘‘क्या कमी है मुझमें, आपकी बेटी को खुश न रख पाऊँ तो कहना।‘‘

‘‘...हुँ...ह...आईना देखा है?‘‘ कहती हुई वह झप्प से उठीं और एक ही झटके में घर से बाहर हो गईं। दोनों बहनें, आमना बेग़म और अफजल एक बार फिर ठगे से देखते रह गए। रात को जब अम्मा अब्बू को सारी सूरते हाल बता रही थीं तो वह यही कहे जा रहे थे-

‘‘ इस वक्त उसे हमारी जरूरत है। उससे मोहब्बत और ख़ुलूस से बोलो। उसे कुछ एहसास न होने दो। चार दिनों बाद वह खुद ही जाने वाला है।‘‘

‘‘ मैं क्या करूं, वो जो एक बेलौस वाला पन था वह अब कहीं खेा सा गया है। उसके सामने जाती हूं तो लगता है किसी गैर के सामने खड़ी हूं। वो जो बेसाख्ता मेरे गले से लिपट जाता था, और मैं प्यार और दुलार से फटकारती रहती थी वो सारा बेबाक पन उन दाढ़ी मूंछों के पीछे कहीं खो सा गया है। यानि मेरा बेटा ही खो गया है। ये जो आलिम मेरे घर में है वो कोई फरिश्ता है, कोई फक़ीर है...जिसके सामने सिर्फ अदब से सर झुकता है, जी में प्यार नहीं उमड़ता...मैं क्या करूं...‘‘ कहते कहते आमना बेग़म रो पड़ीं।

दूसरे दिन दुकान जाते वक्त पिता उमर साहब उसे दुकान को आने को कह गए कि उसका थोड़ा मन लग जाएगा। जब वह दुकान पर पहुँचा तो अब्बू ने उसे कुरेदा-

‘‘ अफजल, तुम अपने घर में खुश तो हो?‘‘

‘‘ सच पूछो तो अब्बू, नहीं।‘‘ कुछ देर खामोशी रहीं। फिर उसी ने खामोशी तोड़ी-

‘‘ सब मुझसे ग़ैरों का सा बर्ताव करते हैं। जैसे मैने कोई ग़लत काम कर दिया हो। मैं कितने अरमान ले कर आया था। फरहाना भी खफा हो गई। ‘‘

‘‘ दरअसल गलती तुम्हारी नहीं, उनकी भी नहीं। बेटा, यह तो आदमी की फितरत होती है कि उसे नयी चीजों और नए हालात को कुबूल करने में थोड़ा वक्त लगता है। हम जब पहले से उन चीजों के लिए तैयार नहीं होते तो उन्हें अपनाने में भी वक्त लगता है। क्योंकि हम उसी चीज के आदी होते हैं। और फिर धीरे-धीरे हम उन चीजों से निकल कर दूसरे खाके में खुद को बैठा पाते हैं। इसलिए चीजें संभलने में थोड़ा वक्त लगेगा। पर सब ठीक हो जाएगा घबराना नहीं है।‘‘

‘‘ क्या करें अब्बू, गया तो था कपड़े की कंपनी में काम करने मगर बद्किस्मती से पहले ही महीने में वो घाटे में चली गई और बंद हो गई। मैं वापस आ नहीं सकता था क्योंकि सब ने मुझसे इतनी उम्मीदें बांध रखी थीं। वहीं के एक लड़के ने बताया कि उर्दू अच्छी आती हो तो यहीं पर एक मदरसा है वहीं लग जाओ। मैं गया। और रख लिया गया। फिर मुझे वहीं के लिहाज से ही हुलिया चेंज करना पड़ा। मैं बाबू बन कर तो मदरसे में नहीं पढ़ा सकता था न। धीरे-धीरे मैं उसी में रम गया और फिर मुझे उसी खुदा की दुनिया में मजा आने लगा। क्या पता वहां मुझे बुलाने मे खुदा की ही कोई मसलहत रही हो कि वह मुझसे अपनी खिदमत करवाना चाह रहा हो। अब तो मैं खुदा की खिदमत करते-करते ही दुनिया से जाना चाहता हूंँ। वही रब्बुलआलमीन हम सबका बेड़ा पार करेगा। बाकी दुनिया तो फानी है। तो हम सब तो एक मामूली इंसान हैं। उसने अपनी खिदमत में मुझे लिया मैं उसका शुक्रगुजार हूँ‘‘

‘‘ ठीक है तुम्हारा फैसला अपनी जगह सही है। मगर तुम दूसरों को अपनी तरह जीने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। सबके जीने के अपने-अपने तरीके होते हैं। अगर तुम अपनी जगह सही हो तो वो लोग अपनी जगह सही हैं। अपनी माँ बहनों को उनके हिसाब से जीने दो।‘‘

‘‘ मगर यह गलत है। मैं उन्नहें तमाम बुराईयों से दूर अल्लाह की राह पर लाना चाह रहा हूँ। मेरे होते हुए अगर वो गलत रास्त्ेा पर चलती हैं तो मैं गुनहगार होंउगंा। खुदा के घर मेरी पकड़ होगी।‘‘

‘‘ तुम यह भूल रहे हो कि अभी उनका बाप जिंदा बैठा उनके लिए बेहतर सोंचने के लिए। अभी ये जिम्मेदारी सिर्फ मेरी है और यह काम तुम मुझ पर ही छोड़ दो। मेरी बीवी और बेटियां बहुत नेक और समझदार हैं। खुदा उनके लिए भी अच्छा ही करेगा। फिर बांधे बाजार नहीं लगती।‘ और हां, दायरों में अगर पानी को भी बांध कर रखो तो वो बदबू पैदा करने लगता है। वो पीने के लायक तभी तक रहता है जब तक उसमें रफ़तार होती है। तो हम सब तो एक इंसान हैं।

‘‘ ये आप कह रहे हैं?‘‘

‘‘ देखो बेटा, मैं तुम्हें गलत नहीं कह रहा। तुम्हारा फैसला बहुत अच्छा है। बाकी मैं सोंचता हूँ इंसान को दौर के लिहाज से चलना चाहिए। मुझ पर दो बेटियों की जिम्मेदारी है। और यह भी नहीं कि उन्हें यूंही कहीं फेंक देना है। एक बाप होने के नाते उनकी हाजिर से मुस्तकबिल तक कि सारी जिम्मेदारी मेरी है। मैं उन्हें कामयाब और सुकून की जिंदगेी देने का खाब देखता हूँ। इसके लिए उनको हर तरह से तैयार करना चाहता हूं। आजकल लोग जाहिल नहीं पढ़ी लिखी लड़की से ही शादी करना चाहते हैं। यही नहीं अब तो नौकरी पेशा को तरजीह दी जाती है। हम उन्हे पर्दे में बैठा के खुदा की राह में धकेल देंगे तो कोई उन्हें पूछने नहीं आएगा। मगर मैं एक बाप होने के नाते चाहता हूं कि हमारी बेटियां किसी भी तरह किसी से पीछे न रहें। वे पढ़ें लिखें आगे बढ़ें और खुश रहें। मैं उनका बाप हूं। उनकी जिम्मेदारी तुम मुझे ही निभाने दो।‘‘

अफजल यकबयक सन्नाटे में आ गया। सहसा समझ नहीं पाया कि वह क्या कहे। क्या समझे। अब्बू ने आगे जोड़ा-

‘‘ हाँ, बाप होने के नाते तुम्हें भी एक मशवरा जरूर दूंगा कि यह तुम्हारा हुलिया तुम्हारे लिए भी घातक साबित हो सकता है,।‘‘

‘‘ अब्बू... बस बहुत हो गया। क्या आपको होश है कि आप क्या कह रहे हैं?‘‘

‘‘ बिल्कुल पता है बेटे। देखो, माहौल खराब चल रहा है। सरकार तो अपनी है नहीं। बखूबी जानते हो। हर दाढ़ी टोपी वाले को वो लोग शक की निंगाह से देखते हैं। जाने ऐसे कितने ही बेक़सूर नौजवानों को सिर्फ शक के बिना पर या दुश्मनी निकालने के लिए इन लोगों ने जेलों में भर दिया है। कुछ नहीं हुआ तो दहशतगर्द कह कर शूट कर देते हैं। सब जानते हो। दाढ़ी टोपी का मतलब ही आतंकवाद हो गया है। इस लिए संभल कर रहना। ग़ैर मुस्लिम इलाकों की तरफ भूल कर भी मत जाना।‘‘ कि तभी बगल में बैठे दुकान के लड़के ने चुटकी ली-

‘‘ भाईजान, अब भगवा पहना करो। एक अदद चुटिया भी रखवा लो। ‘‘

‘‘ चोप्प...‘‘ अब्बू ने डांटा। अफजल उसे घूर कर रह गया। बातें आई गई हो गईं। मगर अफजल के दिमाग पर अब्बू की बातें बैठ गईं जैसे। वह घर वापस आ कर कमरे में गुमसुम सा पड़ा रहा। ज़ेहन में आंधी तूफान चल रहे थे। शकीला, रजिया एक दो बार आ कर चाय को पूछ गई थीं। कुछ जवाब न मिलने पर अम्मा बहनें छनकीं। क्या बात हो गई। आखीर अम्मा ही गईं-

‘‘ क्या बात हो गई बेटा।‘‘

‘‘ कुछ नहीं अम्मी, सिर में थोड़ा दर्द है।‘‘ अम्मा बाहर गईं और एक डिस्प्रिन और गिलास में पानी ला कर उसे दे गईं। जी तो चाहा बहुत कुछ पूछने का मगर लगे जैसे किसी ने मुँह पर हथेली जमा दी हो। ये कैसा बेगानापन है कि एक दूसरे के बीच खाई से फासले खुद गए हैं। शकीला के हाथ चाय भेज दी। शकीला चाय दे कर वापस आ कर ओसारे मे बैठं गई। रजिया आकर धीमें से अम्मा के कान मे फुसफुसाई-

‘‘ अम्मी, ‘सास भी कभी बहू थी‘‘ कबसे छूटा पड़ा है।ं कित्ते एपिसोड निकल गए।‘‘ अम्मा ने ‘शी‘ की आवाज निकाली-

‘‘ चुप रह, अफजल सुन लेगा तो बड़बड़ाएगा।‘‘ वह ठुनक कर चली गई और दूर जाकर बैठ मुंडेर पे कबूतरों का कुकवाना देखने लगी।

जबसे अफजल घर में आया है तीनों औरतों का रूटीन ही बदल गया है। अलस्सुबह उठ कर फज्र की नमाज अदा करना। तिलावत करना। फिर घर के काम निबटाना। बीच-बीच में नमाज और अफजल की तक़रीरें। कितनी बोरिंग हो गई है लाईफ। टी.वी. खामोश, रेडियो खामोश, ज्यादह हुआ तो अब्बू शाम को न्यूज सुन लेते रेडियो पर। लगता है सारे रंग ही खो गए हैं। कहाँ कि एक वो दिन थे कि अफजल मोहम्मद रफी के नग्में गा-गा कर पूरा घर सिर पे उठा लेता था। अम्मा चीखतीं रहतीं-

‘‘ एै...हे रफीक मोहम्मद की औलाद, बंद भी कर।‘‘ और वह चिढ़ा कर कहता-

‘‘ अरे अम्मी, तुम भी लता मंगेश्कर से कम कहाँ हो। गा कर तो देखो। कितना सुकून मिलता है। मौसुक़ी तो दुनिया की रग़-रग़ में है अम्मी‘‘

‘‘बस्स, अब रहने दे तानसेन की औलाद।‘‘

अब्बू मुस्कुराते रहते। बहनें इस नोक झोंक का मजा लेती रहतीं। और एक ये दौर कि सब ख्वाब सा लगता रहता। जैसे सारे लोग दायरों के दरम्यां कहीं चस्पा कर दिए गए हैं। जहां से उठ कर जाना कठिन हैं। कहाँ चले गए वो रेशम से दिन। रजिया शकीला रोज बीच नींद से मुँह अंधेरे उठती हैं तो वजू बनाते हुए एक दूसरे से पूछती हैं-

‘‘ ये भाईजान कब जाएंगे। हम लोगों का काॅलेज भी छूटा पड़ा है। अब उस हिजाब को लगा कर कैसे जाया जाए।‘‘ इसी उजलत में उनके दिन बीत रहे थे।

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अफजल को आए लगभग नौ दिन हो गए थे। उस गुपचुप माहौल में उसका मन भी उक्ताने लगा था। कोई मिलने मिलाने आ जाता तो घड़ी भर उन सबके साथ उठ बैठ लेता बाकी खामोश ही रहता। कभी-कभी उसे भी बहनों के बेलौस कहकहे याद आते जो अब जाने कौन से समंदर में दफन हो कर रह गए थें। मगर वह भी अपने खोल से कहाँ निकल पाया था। अपने आस पास उसने ऐसा घेरा बना लिया था जिसे लांघ कर जाना न उसके वश में थ न ही बहनों में इतना साहस। अम्मा भी बेहद संभल-संभल के रहतीं। अब्बू आते तो वह रेडियो लेकर कमरे में चले जाते और कुछ देर सुन कर होड़ लपेट कर सो जाते। अजीब सूनापन तारी हो गया था।

ठीक बारहवें दिन वह अब्बू के कमरे में आया और बोला-

‘‘ अब्बू, मैं सुबह निकल रहा हूँ, मदरसे से फोन आया है कि फौरन आना होगा।‘‘

अब्बू ने समझ लिया कि अफजल अब खुद भी उक्ता गया है और यहाँ से भागना चाहता है। फिर भी कहा-

‘‘ क्यूँ, कुछ दिन और ठहर जाते छुट्टी मिल जाए तो। अब जाने कब आना हो।‘‘

‘‘.... नहीं अब्बू, अब मुझे जाना होगा। एक और बात कहनी है। फरहाना से कई दफा बात करने की कोशिश की मगर नहीं हो पाई। उसने किसी से कहलाया है कि वह एक ही शर्त पर बात कर सकती है जब मैं पुराने रास्ते पर लौट आऊँ, जो मुमकिन नहीं है। इसलिए आप खाला से कह दीजिएगा कि वह फरहाना का रिश्ता कहीं और करने के लिए आजाद हैं।‘‘

‘‘...ठीक है, जिसमें तुम्हारी बेहतरी हो वही करो। तुम भी समझदार हो। मै कह दूंगा।‘‘ अम्मा हालांकि अंदर से काफी बुझ सी गईं उसके जाने की खबर सुन कर। मगर कहा कुछ नहीं। बहनों को लगा जैसे कोई ठंडी फुहार सी आकर उन्हे भिंगो गई है।

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