Hone se n hone tak - 16 in Hindi Moral Stories by Sumati Saxena Lal books and stories PDF | होने से न होने तक - 16

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होने से न होने तक - 16

होने से न होने तक

16.

यश के साथ क्वालटी में खाना खाने के बाद लौटने लगी तो मुझे अनायास ध्यान आया था कि बहुत दिन से बुआ से मिलना नही हुआ है। मैंने वहीं से बुआ को फोन किया था और घर आने के बजाय उनके पास चली गयी थी। बुआ ने बहुत ख़ुश हो कर मेरा स्वागत किया था। इतने दिन तक न आने को लेकर उलाहना भी दिया था,‘‘क्यो बेटा बुआ से अब मिलने का भी मन नहीं करता। हम सोच ही रहे थे कि तुम्हारे कालेज फोन करें या फिर दीना को ही भेजें। भई तुम चाहे याद करो या न करो हमे तो याद आती ही है।’’

मैं अपनी सफाई देती रही थी। दीना चाय बना लाए थे पर वह हमेशा की तरह प्रसन्न नहीं लग रहा है। चेहरे पर सदा रहने वाली मुस्कान की जगह उदासी है। एकदम रोया रोया सा चेहरा।

‘‘तबियत ख़राब है क्या दीना ? बहुत सुस्त लग रहे हो,’’ मैंने पूछा था।

दीना चुप रहे थे। उसके जाने के बाद जवाब बुआ ने दिया था,‘‘मुह फूला हुआ है इनका,नाराज़ हैं।’’

‘‘नाराज़ हैं? किससे?’’मैंने पूछा था।

‘‘हम से। तुम्हारे फूफा से।’’

‘‘अरे’’ कह कर मैं चुप हो गयी थी। दीना को इस तरह से उदास होते हुए मैं पहले भी कई बार देख चुकी हूं। बुआ कभी किसी तरह से भी डॉट देतीं। फूफा गाहे बगाहे हाथ भी उठा देते। कारण पूछने का साहस नहीं हुआ था। बुआ आगे स्वयं ही बोली थीं‘‘असल में डिपार्टमैंण्ट में क्लास फोर की कुछ पोस्ट निकली हैं। इनको किसी ने आ कर बता दिया है। अब यह चाहते हैं हम इनकी नौकरी लगवा दें।’’ कुछ क्षण चुप रहने के बाद बुआ होंठ टेढ़ा करके मुस्कुरायी थीं,‘‘अब हम कोई गधे हैं क्या कि इनको सब सिखाया पढ़ाया और अब इनकी सरकारी नौकरी लगवा देंगे।’’

मुझको बुआ की बात अच्छी नहीं लगी थी। दीना के लिए दुख हुआ था पर बुआ से कुछ कह पाने की हिम्मत मेरे पास नही थी। थोड़ी देर बाद बुआ स्वयं ही बोली थीं,‘‘आफिस में नया बंदा रखेंगे तो हमे काम करने वाला एक और हाथ मिलेगा तो हमें चार और कामो में भी तो मदद मिलेगी।’’

मैं जानती हूं कि बुआ से इस बारे में कुछ भी बात करना बेकार है। इतनी ही मानवीय दृष्टि उनके पास होती तो स्वयं ही न सोंच लेतीं। मेरा मन एकदम से उदास हो गया था। बुआ इतनी असंवेदनशील कैसे हो सकती हैं। सात साल से दीना उनके पास हैं। निस्वार्थ भाव से सेवा करने वाला। उन लोगों को तो उसका भला स्वयं सोचना चाहिए था। मन में आया था कि जो लोग अपने माता पिता की पीड़ा नहीं समझ सके वे भला नौकर का सुख दुख क्या समझेंगे। लगा था वे लोग बाबा और दादी जैसे माता पिता और दीना जैसे सेवक को डिसर्व नहीं करते थे शायद। मैं उठ कर खड़ी हो गयी थी,‘‘चलती हूं बुआ। घर पहुंचने तक देर हो जाएगी।’’

‘‘बुआ को क्या बस शकल दिखाने के लिए आयी थीं।’’ उन्होने शिकायत की थी और मुझसे एक दो दिन रुकने का आग्रह किया था।

कल सुबह मानसी जी मुझे लेने आऐंगी इसलिए मेरे रुकने का प्रश्न ही नहीं है,‘‘आज नही बुआ फिर कभी,’’ मैंने बुआ से केवल इतना ही कहा था और अपना सामान समेटने लगी थी। वैसे भी आज मेरा मन उचाट हो गया है। मैं जूठे बर्तन रखने के बहाने रसोई में गयी थी और दीना से मिल आयी थी। सारे समय मुझे दीना के लिए दुख होता रहा था। बुआ ऐसी क्यों हैं। कोई ऐसा कैसै हो सकता है। पापा तो उनके सगे भाई थे। क्या वे भी ऐसे ही थे? स्वार्थी और असंवेदनशील? क्या पता।

मैं मानसी जी के साथ रिक्शे पर बैठी ही थी कि उन्होने एकदम सीधा सवाल पूछा था,‘‘मीनाक्षी की शादी की बात चल रही है क्या कहीं?’’मैं अचकचा गयी थी। मैं न भी नहीं कर पाती और हॉ भी कहना नही चाहती,‘‘शादी की बात तो चलती ही रहती है मानसी जी। जब तक ठहर न जाए तब तक उसका मतलब ही क्या है ?’’

‘‘सो तो है ही,’’ उन्होने हामी भरी थी,‘‘पर यार शादी के लिए मीनाक्षी जैसी उतावली ज़रा कम लोगो मे ही दिखलायी पड़ती है।’’

मुझ को अच्छा नही लगता,‘‘ऐसा तो कुछ नही है मानसी जी।’’ मेरे स्वर में हल्का सा खिंचाव आ गया था।

मानसी ने जैसे सफाई देते हुए अपनी बात पूरी की थी,‘‘जब मीनाक्षी नयी नयी यहॉ आई थीं। बड़ा अजब सा परिचय दिया था उसने अपना। कहने लगीं मैं तो बहुत कम दिनों के लिए आयी हूं नौकरी करने। थोड़े दिन में तो मेरी शादी हो जाएगी और मैं चली जाऊॅगी,’’ मानसी जी ने बिल्कुल मीनाक्षी के स्वर और भंगिमा मे ही वह बात दोहरायी थी।

मैं जानती हूं मीनाक्षी ने बिल्कुल ऐसे ही और इन्ही शब्दों में यह बात कही होगी। एकदम बच्चे जैसी है वह भी...निश्छल और मूर्ख। जब तक कहीं बात तय नही हो जाती तब तक पता नहीं क्यों उस बात का इतना शोर करती रहती है। मैं सोच ही रही थी कि मानसी ने पूछा था ‘‘कनाडा का कोई मैच था शायद।’’मैं चुप रही थी। मानसी ने भी तुरंत ही उस प्रसंग को बदल दिया था और किसी नयी पढ़ी किताब के बारे में बात करने लगी थीं फिर कालेज पहुॅचने तक उसी पर हम दोनो की बात होती रही थी।

कालेज से मैं और मानसी जी साथ ही लौटे थे। घर पहुॅचे तो मेरे आग्रह करने के पहले ही वे मेरे साथ रिक्शे से उतर ली थीं,‘‘चलो यार आज तुम्हारे घर चल कर एक कप कॅाफी पीते हैं, फिर जाऐंगे।’’

मुझ को अच्छा लगा था। अगर मुझे पहले से पता होता तो मैं कुछ बना कर रख गयी होती या कुछ बाज़ार से ही मंगा लिया होता। मुझे दरवाज़े के ‘की होल’ में चाभी लगाते देख कर मानसी चतुर्वेदी आश्चर्य से मुझे देखने लगी थीं,‘‘इस समय तुम घर में अकेली हो ?’’उन्होने पूछा था।

‘‘हॉ’’ मैं हॅसी थी,‘‘इस समय ही नही मैं तो सब समय अकेले ही रहती हूं।’’

‘‘अरे ’’वे सवाल पूछती रही थीं और मैं उनको जवाब देती रही थी। हर उत्तर के क्रम में उन्हें मेरे बारे मे धीरे धीरे सब कुछ पता लगता गया था कि मेरे माता पिता भाई बहन कोई भी नही है-एक बुआ हैं जो घर से कई मील के फासले पर रहती हैं। एक मॉ की दोस्त हैं जो मेरी गार्जियन रही हैं। हर सूचना के साथ मानसी जी का चेहरा और अधिक पसीजता गया था और उनकी निगाहों में मेरे लिए एक अपनापन दिखने लगा था। बहुत देर तक रुकी थीं वे मेरे पास। हम लोगों ने पहले काफी पी थी। फिर कुछ समय बाद मैंने फ्रिज में से रात की रखी हुयी सब्जी निकाली थी, अण्डे की भुर्जी बनायी थी और दोनों ने मिल कर पराठे सेके थे। उस बीच न जाने कितनी बातें होती रही थीं,बेहद अतंरग और आत्मीय। अपने बारे में बहुत कुछ बताया था उन्होने, अपना पितृंवहीन बचपन,धन का अभाव। छोटी उम्र में भाई का नौकरी करना,दोनो बहनो की प्राईवेट पढ़ाई,‘‘वह तो हमारी किस्मत अच्छी थी जो बिना प्रापर स्कूलिंग के पढ़ गए और पढ़ाने के लिए डिग्री कालेज तक पहुच गये। हमने नौकरी की शुरुआत तो प्रायमरी सैक्शन से की थी। यहीं के बच्चों के सैक्शन से। शशि अंकल सारे सैक्शन्स के प्रैसिडैन्ट थे और न जाने कैसे हम उनकी निगाह में चढ़ गए। हम आगे पढ़ते गये और और वे हमें मौका देते गये।’’वे हॅस कर कालेज में अपना बीता समय और शशि अंकल के किस्से सुनाती रही थीं। वे हॅसी थीं ‘‘वैसे ही हमारी शादी हो गयी। न हमारी शक्ल और सूरत, न परिवार में ही कुछ ख़ास फिर भी चतुर्वेदी साहब मिल गए। कानपुर में उनकी कोठी में पीछे के एक छोटे से हिस्से में रहते थे हम लोग। कभी कभी किताबों का और नोट्स का आदान प्रदान होता था। हम तो सोच भी नही सकते थे कि यह हमें पसंद भी कर सकते हैं, शादी की तो बात ही छोड़ दो।’’ वे हॅसी थीं ‘‘इसी को तो कहते हैं ऊपर वाले का लिखा हुआ।’’

मुझे सुबह की केतकी की बात याद आयी थी। मैंने मानसी की तरफ देखा था ‘‘कुछ तो देखा ही होगा उन्होने आप में। कुछ तो अच्छा लगा ही होगा। ऐसा जो वे आप पर मुग्ध हो गए होंगे।’’

उनके चेहरे पर एक बड़ा ही मधुर सा भाव आया था,‘‘पता नही यार हममें तो कुछ भी ऐसा नहीं। हमारी बहन हमसे एक साल बड़ी हैं। वे काफी सुंदर हैं। चतुर्वेदी साहब के बड़े भाई को पसंद करती थीं,वे भी करते थे। उनकी तो हुयी नही हमारी हो गयी।’’वे घीमें से हॅसी थीं।चेहरे पर बहुत सारे मिले जुले भाव। मेरे समझ नही आया था कि उस क्षण वे अपने लिए ख़ुश हो रही हैं या अपनी बहन के लिए दुखी।

मेरा मन किया था पूंछू क्यों नहीं हुयी पर चुप रही थी। मैं ध्यान से मानसी जी की तरफ देखती हूं। गहरा सॉवला रंग,बेहद सुदंर नाक नक्श मगर रहने का अनगढ़ तौर तरीका। केतकी की टिप्पणी याद आयी थी ‘‘कॉटे ही कॉटे, पूरी की पूरी झाड़ झकाण।’’।मैंने फिर से उनकी तरफ ध्यान से देखा था। लगा था यह अगर कायदे से बाल बनाऐं, थोड़े तरीके से रहें तो काफी सुंदर लग सकती हैं। उनसे कही थी यह बात तो वे खिलखिलाकर देर तक हॅसती रही थीं।

कुछ दिन बाद वार्षिक उत्सव होने वाला है। उसके कुछ दिन बाद से जाड़ो की छुट्टियों के लिए लगभग तीन हफ्ते के लिए कालेज बन्द हो जाएगा। कार्यक्रम में पिछले सालों की तरह भव्य स्तर पर लगभग एक घण्टे का डॉस ड्र्रामा किया जा रहा है। बीस पच्चीस दिन से तैयारी चल रही है। लड़कियो को डॉस सिखाने के लिए कत्थक केन्द्र से कुमकुम चैटर्जी आ रही हैं। मुख्य कार्यक्रम में साजों पर संगत देने के लिए भातखण्डे संगीत महाविद्यालय के गुरूजन आने हैं। वार्षिक उत्सव की यह सांस्कृतिक संध्या शशिकान्त अंकल के लिए व्यक्तिगत सम्मान जैसी ही महत्वपूर्ण होती है। संगीतकारों व वाद्यकारों से वे स्वयं संपर्क करते हैं। नाटिका की स्क्रिप्ट सांस्कृतिक समिति के साथ बैठ कर स्वयं चुनते हैं और कई कई बार बैठ कर नाटिका का निरीक्षण करते हैं। उस पर सुझाव देते हैं और उसमे परिवर्तन कराते हैं। वे इस उत्सव की तैयारी मे शुरू होने के पहले से लेकर समापन तक जुड़े रहते हैं। मीनाक्षी ने भातखण्डे महाविद्यालय से संगीत विशारद किया है। जब से इस विद्यालय में आई है तब से हर कार्यक्रम में संगीत और स्वर वही देती है। कहते हैं शशि अंकल ने मीनाक्षी का चयन विशेष रूप से इसी कारण से किया था।

इतना समय यहॉ बिताने के बाद स्टाफ के बीच रिश्तों के विभाजन का बहुत सा गणित मुझ को समझ आने लगा है। इस विभाजन के कितने आधार हैं...पुराने और नए लोग,सांईस वाले आर्ट्स वाले, अंग्रेज़ी बोलने वाले और हिन्दी वाले, बहुत संपन्न घरों से आये लोग और मिडिल क्लास परिवारों के लोग, प्राचार्या और प्रबंधक के विशेष चहेते और बाकी लोग। यह भी सच है कि अंग्रेज़ी बोलने वाले ही उन लोगों के द्वारा अधिक पसंद किए जाते हैं। शायद इसलिए कि वे उन्हें अधिक स्मार्ट,अघिक बुद्धिमान और अधिक पढ़े लिखे से लगते हैं। क्या सच में ऐसा है? यह सुपिरियारिटी या फ्रस्टेशन व्यक्तिगत न हो कर समूहगत होता है शायद इसी लिए यह अधिक मुखर हो जाता है और शायद इसीलिए बड़े विभाजन का आधार बनता है। अपने स्टाफ रूम में भी शायद कई स्तरों पर दो तरह के समूह का आधार यही है। भाषा के आधार पर यह दूरी मुझे तकलीफ देती है। हमारे एजूकेशन सिस्टम में कहीं कोई गंभीर गड़बड़ तो है ही। बेहतर स्कूल और साधारण स्कूल का अंतर तो समझ में आता है। पूरी दुनिया में ही होता होगा वैसा अंतर। पर सब जगह सिस्टम तो एक सा ही होना चाहिए।

Sumati Saxena Lal.

Sumati1944@gmail.com