जो घर फूंके अपना
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विदेश यात्रा : अपने अपने टोटके, अपना अपना जुगाड़
आज की तरह ही उस ज़माने में भी केवल मंत्रियों और उनके चमचों का ही विदेश यात्राओं पर कब्ज़ा रहता हो ऐसा बिलकुल नहीं था. इस स्वादिष्ट हड्डी को विरोधी दलों के एक से एक बढ़कर भौंकने और गुर्रानेवाले नेताओं के मुंह में ठूंस दिया जाता था तो उनके मुंह से निकलती गुर्राहट फिल्टर होकर मीठी म्याऊँ म्याऊँ में बदल जाती थी. फिर इसके लिए वे केवल सरकारी कृपा पर ही नहीं निर्भर करते थे. साम्यवादी देशों में मास्को, हवाना (क्यूबा ), बेजिंग आदि की सैर करके अपने मानसिक ज्ञान और शारीरिक सुख को बढाने के अवसर उन्हें उन देशों की सरकारों से भी मिलते रहते थे. सोवियत रूस साम्राज्यवाद की निंदा करते करते अगर हंगरी या चेकोस्लोवाकिया पर चढ़ बैठता था या तिएन्मियेन स्क्वायर में ‘लाल चीन’ की धरती सरकारी दमन का विरोध करते युवाओं के रक्त से गहरे लाल रंग से रंग जाती थी तो ऐसे अवसरों पर भारतीय वामपंथियों को गलतफहमी न होने पाए इस ध्येय से सोवियत लैंड शान्ति पुरस्कार या अन्य किसी ऐसे ही पुरस्कार से नवाज़ा जाकर उसे वहाँ जाकर लेने के लिए उन देशों से नेवता मिलता रहता था. विदेशी मुद्रा की कमी भला इन देशों में राजकीय मेहमान बन कर जाने वालों को क्या सताती ! अकबर इलाहाबादी ने जब लिखा था कि “रंज लीडर को बहुत हैं मगर आराम के साथ, कौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ” तो उन्होंने भी देख लिया था कि वामपंथी और दक्षिणपंथी, सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों के लीडरों के डिनर खाने के ढंग में कोई अंतर नहीं होता. कुछ लोगों का ख्याल था कि असली मज़ा तो अमेरिका, इंग्लैंड घूमने में था. साम्यवादी देशों में वो बात कहाँ? पर ये महज़ उन बेचारों का अज्ञान था. रंगीनियाँ साम्यवादी झंडों के तले भी खूब उपलब्ध थीं.
इस तरह नेताओं,सरकारी अफसरों,शिक्षकों और कलाकारों का विदेश घूमने का डौल तो बनता ही रहता था. बचे बिचारे फ़ौजी. तो फौजियों को उस माहौल में विदेशभ्रमण के मौके देने के लिए एक संस्था से भारी मदद मिली. इस संस्था का नाम है डिफेन्स रिसर्च एंड डेवेलपमेंट ओर्गेनाइज़ेशन (रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन) संक्षेप में डी आर डी ओ. 1962 के चीनी हमले के बाद देश की सशस्त्र सेनाओं के आधुनिकीकरण और विस्तार की ज़बरदस्त ज़रूरत महसूस की गयी थी. बाद में 1965 और 1971 के भारत पाक युद्धों से स्पष्ट हो गया कि देश की सेनाओं को नवीनतम तथा अधिक गुणवत्ता वाले अस्त्र,शस्त्र,टैंक, हवाईजहाज़ और पानी के जहाज़ एवं पनडुब्बियों की जो आवश्यकता है उसे केवल विदेशों से या तो खरीदकर या भिक्षा के रूप में ही पाया जा सकता है. डी आर डी ओ की स्थापना के पीछे ये सोच थी कि शीघ्र ही सशस्त्र सेनाओं की सारी ज़रूरतों को देश के अन्दर पूरा करने की क्षमता आ जायेगी. पर डी आर डी ओ के देशभर में फैले हुए संस्थानो ने पिछले चालीस सालों से मेन बैटल टैंक और ऐडवांस लाईट अटैक हेलिकोप्टर आदि बनाने की लगातार चलती प्रक्रिया में बिना कोई सफलता पाए जुटे रहकर कछुए और घोंघे दोनो जंतुओं की चाल को अकेले ज़बरदस्त ढंग से हराया है. पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं. इस संस्था ने भी बहुत जल्दी ही संकेत दे दिया था कि इससे कोई विशेष उम्मीद न रखी जाए. अतः भारत अपनी गाढी कमाई इस संस्था के सुरसा जैसे खुले मुख में झोंकते जाने के साथ साथ ही सारी दुनिया से उन्नत हथियार पाने के प्रयत्न भी करता रहा. लेकिन पाश्चात्य देशों से उन्नत युद्धसामग्री खरीदने के लिए हमारी जेब में पैसे कहाँ थे? ऐसे कठिन समय में सोवियत रूस से हमें भरपूर सहायता मिली. भारतीय वायु सेना में रूसी उपकरणों का लगभग एकाधिकार सा हो गया. रूस से मिले मिग लड़ाकू हवाईजहाज़, आई एल-14, ए एन-12, टी यू-124 आदि परिवहन विमान, एम आई-4,एम आई-8 जैसे हेलीकाप्टर व सैम-2, सैम- 3 आदि भूमि से आकाश पर वार करने वाले प्रक्ष्येपास्त्रों को हटा दिया जाता तो भारतीय वायु सेना आजकल की जीरो फिगर वाली सुंदरियों जैसी केवल कंकाल नज़र आती. थलसेना और जलसेना में भी विदेशी, विशेषकर रूसी उपकरणों की कमी नहीं थी.
नतीजा ये कि हम फौजियों के लिए भारत मायका था तो रूस ससुराल बन गया. जो उपकरण रूस से आये उनका प्रयोग और रखरखाव सीखने के लिए भारतीय सेनाओं के बहुत सारे अफसरों को सोवियत रूस जाने का अवसर मिला. बाद में इन प्रशिक्षित टीमों ने भारत में ही आगे प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया और अगली पीढी के अफसरों के विदेशयात्रा के अवसरों का सफाया कर दिया. विदेशों से आयातित जिन हवाई जहाज़ों की एकाधिक पूरी की पूरी स्क्वाड्रन बनाई गयीं उनका पूरा रखरखाव करने के संयंत्र भी भारत में लगाए गए. इस मामले में हम वी आई पी स्क्वाड्रन वाले सौभाग्यशाली निकले. हमारी स्क्वाड्रन में कई ब्रिटिश टर्बो-प्रोप विमानों के अतिरिक्त रूस से मिले तीन टी यू-124 किस्म के जेट परिवहन विमान भी थे. केवल तीन विमानों के लिए सम्पूर्ण रखरखाव के संयंत्र लगाना तीन कप चाय बनाने के लिए भैंस पालने के जैसा ही होता. नतीजतन हमारे टी यू विमानों का उनके मायके से संपर्क बराबर बना रहा. जैसे समझदार सास- ससुर जबतक बहू खाना बनाने, झाडू पोंछा लगाने जैसे भारी काम गर्भवती होने के बावजूद कर पाती है तबतक उसे अपने पास रखते हैं और बाद में अर्थात नौवें महीने में उसके मायके भेज देते हैं कि प्रसव के पश्चात दुबारा घर गृहस्थी संभालने के लायक होने तक वहीं उसके माँ बाप उसकी सेवा सुश्रुषा करें. वैसे ही हम टी यू 124 विमान का साधारण रख रखाव (फर्स्ट और सेकण्ड लाइन सर्विसिंग) तो कर लेते थे पर थर्ड लाइन सर्विसिंग (ओवरहालिंग) के लिए उसे रूस ले जाते थे. विमान वहाँ ले जाकर हमें सर्विसिंग के बाद उसे उड़ाकर (एयर टेस्ट करके) जांचना परखना होता था और पूरी तरह संतुष्ट हो जाने के बाद ही उसे वापस भारत लाना होता था.
वैसे तो हमारी यूनिट के जहाज़ विशिष्ट सवारियों को विदेशयात्रा पर भी ले जाते थे. पर विशिष्ट व्यक्तियों की उड़ान में प्रवास की अवधि बहुत कम होती थी. उनके साथ जाने पर उनके स्वागत में आयोजित सांस्कृतिक समारोहों आदि में जाने के अवसर हमें भी मिलते थे, यद्यपि अति विशिष्ट तौर के वे सांस्कृतिक आयोजन जिनमे भारत और मेज़बान देश की आत्मा और शरीर दोनों का सम्पूर्ण मिलन हो सके हमारे विशिष्ट व्यक्ति थोड़ा गोपनीय ढंग से करते थे जिनमे हमारे सम्मिलित होने का प्रश्न ही नहीं उठता था. विशिष्ट व्यक्तियों के साथ विदेश यात्रा करना बस इतना मजेदार हो सकता था जितना अपने पिताजी के साथ जाकर आइटम नंबरों से भरी हुई वयस्क फिल्म देखना. इसकी तुलना में अपनी स्क्वाड्रन के विमान को ओवरहालिंग के लिए रूस ले जाने का आनंद कालेज बंक करके अपने सहपाठियों के साथ उसी रंगीन फिल्म को देखने के आनंद जैसा होता था.
अपने जहाज़ को लेकर जाने पर रूस के अच्छे खासे लम्बे पड़ाव को रबर या किसी सरकारी परियोजना या चुनाव से पहले दिए गए झूठे आश्वासनों की तरह खींचकर और लंबा किया जा सकता था. प्रवास की अवधि बढाते जाने का सस्ता सुन्दर और टिकाऊ तरीका ये था कि जब सर्विसिंग के पश्चात हमें जहाज़ एयर टेस्ट के लिए सौंपा जाता था तो हम उसमे ढूंढ ढूंढ कर इतनी छोटी मोटी खराबियां निकालते थे जितनी कम दहेज़ मिलने की आशंका होने पर भावी बहू में लड़के की साधारण समझदार माँ भी निकाल लेती है. इसका भी ध्यान रखना पड़ता था कि एक ही बार में सारी खामियां न बता दी जाएँ. हर उड़ान के बाद कुछ खामियां बताकर जहाज़ वापस सौंप दिया जाता था कि रूसी इंजीनियर फैक्टरी में उन्हें ठीक करें और अगले एयर टेस्ट के लिए फिर तीन चार दिनों के बाद की तारीख मिले. खामियां निकालने में पायलट, कोपायलट, नेवीगेटर, फ्लाईट इंजिनीयर आदि एयरक्र्यू बारी बारी से अपना जौहर ऐसे दिखाते थे जैसे सीता स्वयंवर में भाग लेने वाले राजकुमार हों.
पहली बार जब ये गुरुमंत्र अपने सीनियर्स से मिला तो मैंने शंका प्रकट की कि रूसी इंजिनीयर हमारी चाल समझ कर हमारे विषय में क्या सोचेंगे तो उत्तर मिला “ तू भी यार पूरा पोंगा पंडित है. अरे उन्ही रूसियों से तो हमने ये नुस्खे सीखे हैं. उनकी कोई टीम हमारे यहाँ किसी तकनीकी समस्या के समाधान के लिए आती है तो पहले बता देती है कि उन्हें भेजा तो गया है तीन चार दिनों के लिए पर वे भी भारत की खुली हवा में कुछ दिन और सांस लेना चाहेंगे. उन्हें हमारे पांचसितारा होटलों में ठहरने का, स्विमिंग पूल के किनारे पसर कर धूप सेंकने का जो मौक़ा मिलता है वह उनके लिए बड़ी भारी नियामत है. ये समझ ले कि हमारा गणतंत्र और उनका समाजवाद, दोनों सरकारी माले मुफ्त को मज़े से उड़ाने में उतना ही विश्वास करते हैं जितना एक ज़माने में नम्बूदरी ब्राह्मण दलित महिलाओं के साथ मिलकर अस्पृश्यता की दीवारें तोड़ने में करते थे. दोनों तरफ है आग बराबर लगी हुई. उन्हें भी हमारी कजरारे नयनों वाली, काली जुल्फों वाली हिन्दुस्तानी कन्याएं उतनी ही सुन्दर लगती हैं जितनी हमें उनकी सुनहरे बालों वाली,नीली भूरी आँखों वाली सोवियत सुंदरियां. और हाँ ! तेरी टीम अगर जहाज़ की ओवरहालिंग जल्दी करा के लाई तो कोई इनाम नहीं मिलने वाला है. मगर यहाँ आकर जहाज़ में कोई कमी छुटी हुई मिली तो सब तेरी जान खायेंगे. तो फिर जा रहा है तो फुर्सत से वापस आइयो. “
क्रमशः ----------