AVSAN in Hindi Poems by Ajay Amitabh Suman books and stories PDF | अवसान

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अवसान

जिन्हें चाह है इस जीवन में, स्वर्णिम भोर उजाले की,
उनके राहों पे स्वागत करते,घटा टोप अन्धियारे भी।
इन घटाटोप अंधियारों का, संज्ञान अति आवश्यक है,
गर तम से मन में घन व्याप्त हो,सारे श्रम निरर्थक है।
ऐसी टेड़ी सी गलियों में,लुकछिप कर जाना त्राण नहीं,
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं,
एक फूल का मिट जाना हीं,उपवन का अवसान नहीं।

इस जीवन में आये हो तो,अरिदल के भी वाण चलेंगे,
जिह्वा से अग्नि की वर्षा , वाणि से अपमान फलेंगे।
आंखों में चिंगारी तो क्या, मन मे उनके विष गरल हो,
उनके जैसा ना बन जाना,भाव जगे वो देख सरल हो।
निज-ह्रदय प्रेम से रहे आप्त,इससे बेहतर उत्थान नहीं,
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं,
एक फूल का मिट जाना हीं,उपवन का अवसान नहीं।

इस सृष्टि में हर व्यक्ति को, आजादी अभिव्यक्ति की,
व्यक्ति का निजस्वार्थ फलित हो,नही राह ये सृष्टि की।
जिस नदिया की नौका जाके,नदिया के हीं धार बहे ,
उस नौका को किधर फ़िक्र कि,कोई ना पतवार रहे?
लहरों से लड़ना भिड़ना, उस नौका का परित्राण नहीं,
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं।
एक फूल का मिट जाना हीं,उपवन का अवसान नहीं।

ना ईश बुद्ध सुकरातों से,मानवता का उद्धार हुआ,
नव जागरण फलित कहाँ ,ना कोई जीर्णोंद्धार हुआ।
क्यों भ्रांति बनाये बैठे हो,खुद अवगुणों को पहचानों,
पर आलम्बन ना है श्रेयकर,निज संकल्पों को हीं मानो।
रत्नाकर के मुनि बनने से,बेहतर कोई और प्रमाण नहीं,
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं,
एक फूल का मिट जाना हीं,उपवन का अवसान नहीं।

शिशु का चलना गिरना पड़ना,है सृष्टि के नियमानुसार,
बिना गिरे धावक बन जाये,बात न कोई करे स्वीकार।
जीवन में गिर गिर कर हीं,कोई नर सीख पाता है ज्ञान,
मात्र जीत जो करे सु निश्चित,नहीं कोई ऐसा विज्ञान।
हाय सफलता रटते रहने,में कोई गुण गान नहीं,
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं,
एक फूल का मिट जाना हीं,उपवन का अवसान नहीं।

बुद्धि प्रखर हो बात श्रेयकर,पर दिल के दरवाजे खोल,
ज्ञान बहुत पर हृदय शुष्क है,मुख से तो दो मीठे बोल।
अहम भाव का खुद में जगना,है कोई वरदान नहीं,
औरों को अपमानित करने,से निंदित कोई काम नहीं।
याद रहे ना इंसान बनते,और होते भगवान नहीं?
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं,
एक फूल का मिट जाना हीं,उपवन का अवसान नहीं।

एक गीत है गाते जाओ,राग ना होते एक समान,
एक रंग है एक लेखनी,चित्र भिन्न है भिन्न हीं नाम।
भाव भिन्न है चाह भिन्न है,राह भिन्न है व्यक्ति की,
भिन्न भिन्न समझो राहों को,भिन्न दृष्टि अभिव्यक्ति की।
भिन्न भिन्न राहों का होना,मंजिल में व्यवधान नहीं,
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं,
एक फूल का मिट जाना हीं,उपवन का अवसान नहीं।

जिस सीने में धड़कन हो,केवल पर कोई आग नहीं,
दूर दूर तक दर्शन का क्या,जब नयनों में ख्वाब नहीं?
दिल में है विश्वास नहीं फिर,शिष्य गुरु प्रशिक्षण का क्या,
लिए डाह जब गले मिलें फिर,वैसे प्रेम प्रदर्शन का क्या?
मात्र ताल पे सुर का रचना,गायन है पर गान नहीं,
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं,
एक फूल का मिट जाना हीं,उपवन का अवसान नहीं।

कुछ अन्यथा की चाह रखना,जो बना स्वभाव है,
कुछ न कुछ तो दृष्टिगोचित,कर रहा आभाव है।
तेरी मृग तृष्णाओं का हीं,दिख रहा प्रभाव है,
मार्ग का वो हीं फलन है,जो भी तेरा भाव है।
सब कुछ तेरा ही आरोपण,लेते तुम संज्ञान नहीं,
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं,
एक फूल का मिट जाना हीं,उपवन का अवसान नहीं।

रात दिन आते जाते हैं,कौन है आगे कौन है पीछे,
ग्रीष्म शीत में बेहतर कौन,कौन है ऊपर कौन है नीचे,
श्रम ना कोई छोटा होता ,कार्य ना कोई बड़ा महान,
सबकी अपनी अपनी ऊर्जा,विधी का है यही विधान,
मोर नृत्य से फूलों की,खुशबू होती गुमनाम नहीं,
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं,
एक फूल का मिट जाना हीं,उपवन का अवसान नहीं।

पतझड़ में पत्ते जो झड़ते,ऋतु आने पे खिल आते हैं,
ग्रीष्म ताप जो हरता बादल,वारिश में फिर छा जाते हैं।
नृत्य करोगे तो पैरों के,घुँघरू भी झनकार करेंगे,
पर क्या टूट गए घुँघरू तो ,नर्तक भी इंकार करेंगे?
जो घुँघरू की खैर करे उस,नर्तक का कोई नाम नहीं,
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं।

कभी देख छोटा अड़हुल,ना पीपल शोर मचाता है,
और नही पीपल से विस्मित,अड़हुल भी हो पाता है।
पीपल पे कौआ, कोयल सब,सारे आश्रय पाते हैं,
पर कदाचित अड़हुल का,कोई परिहास मनाते है।
पीपल के पीपल होने से ,अड़हुल का अपमान नहीं,
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं,
एक फूल का मिट जाना हीं,उपवन का अवसान नहीं।

तेरे कहने से मौसम का,आना जाना क्या रुकता है,
तुम पकड़ो या त्यागो जग को,जो होना है वो होता है।
मिट्टी, जल, वायु, आग दग्ध है,सबमें पर संलिप्त नहीं,
स्वप्नों को आंखों से जकड़े तुम,हो सकते ना तृप्त कहीं।
जग सा थोड़ा तो हो जाते,इतना भी अभिज्ञान नहीं,
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं,
एक फूल का मिट जाना हीं,उपवन का अवसान नहीं।

पानी बादल बन कर नभ में ,समय देख छा जाता है,
बादल बन वारिश की बूंदे,आँगन में आ जाता है,
जिसका कर्म है जो सृष्टि में,अविरल करते रहते हैं,
बीज सूक्ष्म पर ऋतु आने पर,फूलों में फलते रहते हैं,
जबतक सागर से ना मिलती,सरिता को विश्राम नहीं,
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं,
एक फूल का मिट जाना हीं,उपवन का अवसान नहीं।

मन में ना हो भय संचारित,जब गर्दन तलवार फले,
हो हर्ष से ना उन्मादित,जब कलियों के हार चढ़े।
जीत हार की चाह नही हो,कर्ता हँस कर नृत्य करे,
लीलामय संसार तुम्हारा,तुझसे ना कोई कृत्य रचे।
दृष्टि द्रष्टा हीं बन जाए,इससे कोई कमतर त्राण नहीं,
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं,
एक फूल का मिट जाना हीं,उपवन का अवसान नहीं।

है तुझको ये ज्ञात गलत पर ,प्रतिरोध ना कह पाते हो ,
औरों को सच का पाठ पढ़ाते,पर विरोध ना सह पाते हो।
दिल में तेरे आग अगर तो ,बाहर थोड़ा आने भी दो ,
चिंगारी जो धधक रही है ,थोड़ा आग लगाने दो।
सांसों का आना जाना हीं ,जीवन है पर प्राण नहीं,
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं,
एक फूल का मिट जाना हीं,उपवन का अवसान नहीं।

एक हार ने तन पे तेरे,कैसा ये प्रहार किया,
निराशा की काली बदली ,क्यों तुमने स्वीकार किया?
देख जीत भी जीता है जो,कब तक चलता रहता है,
अगर जीत भी क्षण भंगुर तो,हार कहाँ टिक रहता है।
मात्र जीत के ना मिलने से,होते तुम नाकाम नहीं,
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं,
एक फूल का मिट जाना हीं,उपवन का अवसान नहीं।

मन है उत्साह ठीक पर,मन पे रोध जरूरी है,
अंधेरो में ना चलना कि,कुछ संबोध जरूरी है।
गर लोहे पे कुछ लिखने को,जब तुम जोर लगाते हो,
लोहा, पत्थर, छेनी, आदि,तब तब तुम ले आते हो।
बिना ज्ञान के लड़ मर जाना,मरना है, बलिदान नहीं,
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं,
एक फूल का मिट जाना हीं,उपवन का अवसान नहीं।

पुरुषत्व की सही परीक्षा,अरिदल में हीं होती है,
अग्नि राह की बारिश में और,प्रखरत्व में होती है।
जो आश्रित हैं तुमपे जितना,उतना हीं गुणगान करेंगे,
अगर हारकर छुप जाते हो,उसका भी अभिमान करेंगे।
छद्म प्रशंसा सुनते रहने,में कोई सम्मान नहीं।
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं,
एक फूल का मिट जाना हीं,उपवन का अवसान नहीं।

आगे बढ़ने की सीने में,छिपी हुई जो चाह है,
मरुस्थल में पानी भर दे,ये वो जीने की राह है।
पर मरु में पानी करने को,गगरी क्या नीर चढातें हैं ?
प्यास आप्त हो आवश्यक पर,बादल सिर क्या उठातें हैं ?
मुर्दों के सीने पे चलकर,होता कोई निर्माण नहीं।
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं,
एक फूल का मिट जाना हीं,उपवन का अवसान नहीं।

जीवन पथ की राहों में,घन घोर तूफ़ां जब आते हैं,
तब गहन निराशा के बादल,मानस पट पे छा जाते हैं।
पर इतिहास के पन्नों पे,वो ही अध्याय बनाते हैं,
जो पंथ पराजय पे चलकर,विजयी व्यवसाय चलाते हैं।
चोटिल हो गिर जाए बेशक,ना बिखरे जो इंसान वहीं,
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं,
एक फूल का मिट जाना हीं,उपवन का अवसान नहीं।