swayamsiddha in Hindi Moral Stories by Renu Gupta books and stories PDF | स्वयंसिद्धा

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स्वयंसिद्धा

स्वयंसिद्धा

सुखिया का पोर पोर आज बुरी तरह से दुख रहा था। रोम रोम में असहनीय दर्द की टीस उठ रही थी और वह सोच रही थी, यह मैंने क्या कर डाला। बिना सोचे समझे बिरजू जैसे लड़के से शादी कर ली। वह अभी तक रह-रहकर सुबक रही थी। स्पष्टता से सोच नहीं पा रही थी कि जिंदगी के इस कठिन मुकाम पर जब उसके लिए सारे दरवाजे बंद हो चुके हैं, वह क्या करे। तभी उसे स्कूल की अपनी प्रिय शिक्षिका रौशनी जी के शब्द उसके कानों में गूंजने लगे, "लाख मुश्किलें आएं, इंसान को अपने लक्ष्य से कभी भटकना नहीं चाहिए। एक बार जो ठान लिया उसे पूरा करके दिखाना चाहिए।" अपनी शिक्षिका के इन शब्दों ने उसे बहुत हिम्मत दी थी। उसने अपने आंसू पौंछे और उठ खड़ी हुई। मर्मांतक पीड़ा से दुखते बदन के साथ उसने मन ही मन निश्चय किया, बिरजू के साथ कोई भविष्य नहीं है। इसलिए उसे छोड़कर कोई और राह चुननी होगी। हिम्मत कर उसे यह कदम उठाना ही होगा और कोई मंजिल तलाशनी होगी उसे।

इस सोच ने उसके संतापग्रस्त मन पर मरहम का कार्य किया था और उसने रात के अंधेरे में धीमे से निःशब्द अपने बेटे कीरत को झकझोर कर उठाया और घर से बाहर निकल गई। उसके कदम अपने माता-पिता के घर की ओर चलते जा रहे थे। रात का एक बज रहा था।

, इतनी रात को बेटी और नाती को घर आया देख उसके मां बाबूजी चौक गए। लेकिन उन्होंने बेटी से कोई सवाल नहीं किया।

वह सारी रात सुखिया ने आंखों ही आंखों में करवटें बदलते काटी। कब उसका मन पखेरू बीते दिनों की ठौर पर भटकते हुए जा बैठा, उसे एहसास तक ना हुआ।

गरीब माता-पिता की इकलौती नाजों से पली संतान थी वह। माता-पिता को जीवन पर्यंत लक्ष्मी की कृपा नसीब नहीं हुई थी। बड़ी मुश्किल से घर के तीन प्राणियों को दो जून की रोटी मिल पाती। मां बताती थी, जब वह मां की गोद में आई तो उसने बड़े चाव से उसका नाम सुखिया रखा, यह सोचकर कि वह लक्ष्मी मैया के आशीष स्वरूप सुख की बरखा बन उसके घर आंगन में उतरी है। लेकिन ना जाने क्यों लक्ष्मी सदैव उनसे रूठी रही थी। घोर अभाव में पली बढ़ी सुखिया माता-पिता के अथाह लाड़ की छांव में बड़ी हो रही थी। कुशाग्र बुद्धि की थी तो किसी तरह माता-पिता और स्कूल के शिक्षक शिक्षिकाओं के प्रोत्साहन से उसने बारहवीं कक्षा उत्तीर्ण कर ली। फिर ट्यूशन कर और मां के साथ घरों में झाड़ू पोंछा और बर्तनों का काम कर कॉलेज की फीस जुटा कॉलेज में दाखिला ले लिया। मां बेटी जितना कमातीं सब पिता की दवाइयों में खर्च हो जाता। पिता शुरू से गठिया के गंभीर मरीज थे। लेकिन मां बेटी ने हार न मानी। घर-घर काम कर और ट्यूशन के दम पर किसी तरह घर चलए जा रहीं थी वे।

कालेज के आखिरी वर्ष में सुखिया की दोस्ती एक लड़के बिरजू से हुई, जो समय के साथ दोस्ती से कहीं बहुत आगे बढ़ गई। कुछ कच्ची उम्र का तकाजा, कुछ नई-नई चाहत की दीवानगी, दोनों ने अपने-अपने घरों में बिना कुछ बताए घर से भागकर मंदिर में शादी कर ली और फिर बिरजू उसे अपने साथ घर अपने घर ले गया। यहीं से शुरू हुआ सुखिया की जिंदगी का दूसरा दौर, जो एक दुखद मानसिक और शारीरिक यंत्रणा का पर्याय साबित हुआ।

ससुराल में सुखिया जितनी देर बिरजू के साथ रहती, वह मानो सातवें आसमान में रहती। बिरजू की लच्छेदार, चिकनी चुपड़ी बातें उसे एक दूसरी ही जादुई दुनिया में ले जातीं, जहां सिर्फ प्यार और प्यार से रौशन सुनहरा संसार था। लेकिन बिरजू के काम पर जाते ही सास ननद के साथ रहना उसे कतई रास न आता। उन दोनों ने उसकी मेहंदी का रंग फीका पड़ने से पहले ही उसे घर गृहस्थी के जुए में झोंक दिया। खुद दोनों कुछ नहीं करतीं, सिर्फ उस पर बैठे-बैठे हुकुम चलातीं और उसके हर काम में मीन मेख निकालतीं। विवाह कर वह मानो नर्क में आ पड़ी थी। आए दिन दोनों सास ननद उसे घर से भागकर विवाह करने का ताना मारतीं, और मायके से कोई दान दहेज न लाने का उलाहना देते न थकतीं । बात-बात पर उससे गाली-गलौज करतीं।

शुरुआत के कुछ वर्ष तो बिरजू उससे कुछ ना कहता। उसका रवैया नरम था। समय के साथ सुखिया एक प्यारे से बेटे की मां बनी। धीरे-धीरे बिरजू के ऊपर से सुखिया की मोहब्बत का रंग उतरने लगा और उसने भी सुखिया को अपनी असली फितरत दिखानी शुरू कर दी। वह अब सुखिया से कभी सीधे मुंह बात न करता और मां बहनों के दहेज न लाने के सुर में सुर मिलाने लगा। पिछले एक वर्ष से तो वह यदा-कदा सुखिया पर हाथ भी उठाने लगा और उस दिन तो उसने हद ही कर दी। मां बहन के कहने में आकर उसने एक मामूली सी बात पर सुखिया की बुरी तरह से पिटाई कर दी। सुबह होने आई थी और सुखिया अभी तक विगत दिनों की खट्टी मीठी कसैली यादों के भंवर में डूबती उतरती, अधसोई, अधजागी तंद्रा में थी कि तभी उसकी अर्धसुप्त चेतना को भेदते हुए बिरजू की गर्जना उसके कानों में पड़ी और वह हड़बड़ा कर उठ गई।

"सुखिया, इस बार तो तूने मेरे बेटे को अपने साथ लाने की हिमाकत कर ली। अगली बार उसकी तरफ आंख उठाने की जुर्रत भी तूने की तो तुझे काट पीट कर किसी कुएं में डाल दूंगा। कीरत मेरे घर का कुलदीपक है। मेरा इकलौता वारिस है। वह मेरी वंशबेल आगे बढ़ाएगा। उसे मैं किसी सूरत में तुझे नहीं दूंगा, याद रखियो और अब घर वापस आने की जरूरत नहीं है। तू हमारे लिए मर चुकी है," क्रोध में दहाड़ते हुए बिरजू ने सुखिया से कहा।

बिरजू के बेटे को ले जाने के बाद कीरत को याद कर सुखिया फूट-फूटकर रोई। उसे यूं लग रहा था मानो उसकी दुनिया लुट गई थी। लेकिन फिर अपने आंसू पौंछ उसने सोचा, वह अपनी स्कूल की शिक्षिका रौशनी जी से मिलकर अपने आगत जीवन की रूपरेखा तय करेगी। रौशनी जी ने ही उसे अभी तक जीवन के हर मोड़ पर आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया था और स्कूल की शिक्षा और कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के लिए कदम कदम पर उत्साहित किया था। उसे आज भी याद है, जब वह बिरजू से मंदिर में विवाह करने से पहले इस विषय में उनकी सम्मति लेने गई थी, तब उन्होंने उससे कहा था," सुखिया बिरजू से विवाह कर तुम कभी सुखी नहीं रह पाओगी। वह एक नितांत गैर जिम्मेदार, दिशाहीन और अपरिपक्व मानसिकता का लड़का है जो अभी तो तुमसे चिकनी चुपड़ी बातें कर तुम्हें एक सुनहरे भविष्य के सब्जबाग दिखा रहा है, लेकिन यकीन मानो, वह तुम्हें जिंदगी में दुखों के सिवाय और कुछ नहीं देगा। उसे खुद नहीं मालूम कि उसे जिंदगी में करना क्या है तो वह तुम्हें एक सुरक्षित सुखी जीवन की सौगात क्या देगा? अभी भी वक्त है, उसके शिकंजे से निकल जाओ। तुम जैसी समझदार सुलझी हुई महत्वाकांक्षी लड़की के लिए वह सर्वथा अनुपयुक्त है। उसकी बस सूरत अच्छी है, यकीन मानो सीरत से वह नितांत खोखला है।

लेकिन रौशनी जी के लाख समझाने पर भी सुखिया ने बिरजू का साथ नहीं छोड़ा। उसे बिरजू की हंसी मजाक भरी हल्की-फुल्की लच्छेदार बातें बहुत अच्छी लगती जो उसे जिंदगी की दुरूह उलझनों से दूर एक प्रीत प्यार भरी नशीली सपनों की दुनिया में ले जाती थीं। आगत जीवन की कठिन दुर्गम राहों से सर्वथा अनजान भोली सुखिया अपनी अनुभवी मार्गदर्शक शिक्षिका के शब्दों में छिपी कोरी सच्चाई पढ़ पाने में नितांत असफल रही और आखिरकार बिरजू के साथ एक सुनहरा प्यार भरा भविष्य साझा करने के लिए उसने उसके साथ बिना माता-पिता को बताएं मंदिर में सात फेरे ले लिए। अब आज वह पछता रही है। काश उसने रौशनी की बातें सुनी होती तो आज उसे यह दिन देखना न पड़ता।

वह रौशनी जी के घर गई और उनसे मिली। सुखिया का रात भर रोते रहने से सूजी आंखें, उजाड़, उदास चेहरा देख उसके बिना कुछ कहे वह सब कुछ समझ गई। सुखिया ने रोते-रोते अपनी पूरी कहानी उन्हें सुना दी जिसे सुनकर उन्होंने कहा "तो वही हुआ जिसका मुझे डर था। बिरजू जैसे असंतुलित, बड़बोली मानसिकता वाले व्यक्ति से और अपेक्षा ही क्या की जा सकती थी? चलो तुम्हें उसकी वास्तविकता बहुत जल्दी समझ में आ गई, यही गनीमत है। अब तुम यह बताओ, क्या तुम अभी उसके साथ रहना चाहती हो या फिर उससे अलग होना चाहती हो?"

"नहीं मैडम, उस जैसे छिछले, खोखले, बिना अपनी स्वतंत्र सोच और रीढ़ वाले इंसान के साथ रहने में कोई अक्लमंदी नहीं है। मैंने बहुत सोच विचार कर लिया है, अब मैं उससे हमेशा के लिए अलग होकर सिर्फ अपने बेटे के साथ जिंदगी बिताना चाहती हूं। लेकिन बिरजू कीरत को अपने साथ रखना चाहता है। तो मैं क्या करूं मैडम, जिससे कीरत मुझे मिल जाए?"

"उसके लिए तुम्हें कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ेगी, लेकिन चिंता मत करो, ऐसे मामलों में अधिकतर महिला की ही जीत होती है। तुम्हें अब बिरजू के खिलाफ शारीरिक, मानसिक उत्पीड़न और शोषण के आरोपों के साथ उस पर तलाक के लिए कोर्ट में अर्जी देनी होगी", रौशनीजी ने कहा।

रौशनी जी के मार्गदर्शन से सुखिया की राह अपेक्षाकृत आसान हो गई। अब उसकी जिंदगी का एकमात्र मकसद था, बिरजू से तलाक ले कीरत की कस्टडी लेना और फिर अपने पैरों पर खड़ा होना जिससे वह कीरत को एक सुखी, सुविधा संपन्न जीवन दे सके।

सुखिया ने एक ऐनजीओ से संलग्न एक नामी वकील के माध्यम से मुफ्त में बिरजू के खिलाफ मुकदमा लड़ा और कुछ ही अवधि में उसे बिरजू से हमेशा के लिए छुटकारा मिल गया। वह वो दिन कभी नहीं भूलेगी जिस दिन बिरजू और सास ननद को अंगूठा दिखाते हुए वह ससुराल से हमेशा के लिए कीरत को अपने साथ ले आई थी। बेटे के साथ उसका सूना मन आंगन बेपनाह खुशियों से गुलज़ार हो गया। कीरत को कलेजे से लगा कर उसे ऐसा लगा मानो उसकी वीरान, बियाबान जिंदगी को नया अर्थ मिल गया। बेटे के साथ बाकी जिंदगी हंसी खुशी गुजारने का मधुर सपना उसकी आंखों में झिलमिलाने लगा।

उन्हीं दिनों सिलाई और ट्यूशन कर कमाए गए पैसों से उसने बी.एड. में प्रवेश ले लिया। वे दिन सुखिया के लिए अत्यंत कठिन थे। दिन में बी. एड. की कक्षाएं और अध्ययन, शाम को ट्यूशन और रात को सिलाई, सुखिया के दिन और रात अत्यंत व्यस्त हो चले थे।

देखते ही देखते दो वर्ष गुजर गए। उसे बी.एड. की डिग्री मिल गई। मात्र कुछ दिन उसने एक निजी स्कूल में शिक्षिका के पद पर नौकरी की और फिर उसकी पास के शहर में सरकारी नौकरी लग गई। अपनी अच्छी तनख्वाह के दम पर उसने अपने माता-पिता को भी अपने पास बुला लिया और पूरा परिवार हंसी खुशी एक साथ रहने लगा।

अब उसकी जिंदगी का एकमात्र लक्ष्य था बेटे को पढ़ा लिखा कर सही मायनों में एक अच्छा भला इंसान बनाना और समाज में उसे एक प्रतिष्ठित मुकाम दिलवाना। कीरत शुरू से अपनी कक्षा के सारे सेक्शन में अव्वल आता था। दसवीं कक्षा में वह पिचहत्तर प्रतिशत नंबर लाया और बारहवीं कक्षा में उसे लगभग तिहत्तर प्रतिशत नंबर मिले। बारहवीं के बाद उसने एक अत्यंत प्रतिष्ठित कॉलेज से इंजीनियरिंग की पढ़ाई समाप्त कर ली। इंजीनियरिंग पूरी करने के बाद उसने कड़ा परिश्रम कर पूरी तैयारी के साथ आई. ए. एस. की परीक्षा दी और वह भी उत्तीर्ण कर ली। सुखिया अब जयपुर के एक सरकारी स्कूल में प्रधानाध्यापिका बन गई।

कीर्तेय ने अपने जीवनसाथी के रूप में एक लड़की यशी चुन ली। उसने कीरत के साथ ही आई.ए. एस. की ट्रेनिंग की थी। ट्रेनिंग समाप्त कर दोनों हफ्ते दस दिन के लिए मां के साथ रहने के लिए जयपुर आज ही आ रहे थे।

सुबह सवेरे सुखिया आराम कुर्सी पर बैठे हुए कीर्तेय और यशी की प्रतीक्षा कर रही थी। कि तभी उसे मां की आवाज सुनाई दी, "सुखिया घर की दहलीज पर रंगोली बना दे। यह रही फूलों की पंखुड़ियां। होने वाली बहू को कोरी दहलीज से घर में बुलाएगी क्या?"

मां की तेज आवाज से सुखिया तंद्रा से जागी और रंगोली बनाने लगी। तभी सामने एक गाड़ी रुकी। उसमें से हंसते चहकते कीर्तेय और यशी उतरे। दोनों ने झुक कर उसके चरण स्पर्श किए। उन्हें सीने से लगाकर उसे यूं महसूस हुआ मानो उसे जिंदगी की सारी खुशियां मिल गईं थी। यशी बहुत जल्दी सुखिया और उसके माता-पिता से घुलमिल गई।

भावी बहू के सुखद सानिध्य में उनके साथ बातचीत और गपशप में समय कैसे शीघ्रता से गुजर गया, उसे पता न चला था।

उस दिन मकर संक्रांति का त्यौहार था। पुरानी यादों को ताजा करते हुए कीर्तेय वह काटा, वह काटा के शोर के मध्य छत पर अपने पुराने संगी साथियों के साथ पतंग उड़ा रहा था। सिंदूरी लाल परिधान में सजी संवरी यशी कान में बड़े-बड़े झुमके पहने बेहद आकर्षक लग रही थी। देव प्रतिमा समान अपूर्व सौंदर्य की प्रतिमूर्ति सुयोग्य, सहृदय भावी बहू को सुदर्शन बेटे के पार्श्व में देख सुखिया को लग रहा था, विधाता से कुछ और मांगना शेष न रहा था। जिंदगी का जो हंसी सपना उसने खुली आंखों से ताउम्र देखा था, और जिसको पूरा करने के लिए उसने अपनी सारी जिंदगी होम कर दी थी, वह सपना आज पूरा हो गया था। एक स्वयंसिद्धा की उम्र भर की तपस्या पूरी हो गई थी।

अनायास खुशी के अतिरेक से भीग आई आंखों से मुस्कुराते हुए वह मन ही मन बुदबुदा उठी, "हे सर्व शक्तिमान, मेरे बच्चों पर यूं ही अपने आशीर्वाद का वरदहस्त बनाए रखना। उनके सारे गम मेरे आंचल में डाल देना और मेरे हिस्से की सारी खुशियां उनकी झोली में डाल देना।"

यह कहानी राजस्थान साहित्य अकादमी की मासिक पत्रिका मधुमती में दिसंबर, 2016 में प्रकाशित हो चुकी है।