bhadukada - 35 in Hindi Fiction Stories by vandana A dubey books and stories PDF | भदूकड़ा - 35

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भदूकड़ा - 35

कुन्ती और जानकी के गांव के बीच महज पांच किमी की दूरी थी. मिश्रा जी भी स्कूल में शिक्षक थे. ब्लॉक की मीटिंग्स में जब तब उनकी भेंट कुन्ती से हो जाती थी. स्टाफ़ वालों को जब पता चला कि कुन्ती अच्छी, सुसंस्कृत लड़की खोज रही, तो उन्होंने मिश्रा जी की बेटी- जानकी का नाम सुझाया. कुन्ती न केवल मिश्रा जी का घर देख आई थी, बल्कि जानकी को भी देख आई थी. जानकी थोड़े से भारी शरीर और गेंहुए रंग की थी, लेकिन नाक-नक्श बहुत प्यारा था उसका. बाल सुमित्रा जी की तरह बहुत लम्बे तो नहीं, लेकिन कमर तक लम्बी चोटी बनती थी उसकी. घर के काम-काज में बेहद निपुण थी, अपने घर की इकलौती बेटी जानकी.

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कुन्ती का प्रलाप सुन के जानकी पहले तो हक्की-बक्की हुई, फिर उसका मन जैसे डूबने लगा.... स्वागत ऐसा है तो आगे की ज़िन्दगी कैसी होगी! तसल्ली केवल यही थी कि घर की अन्य महिलाओं ने उसे हाथोंहाथ लिया था. कुन्ती का ये आरोप- कि मिश्रा जी ने धोखा किया, उसे सबसे ज़्यादा तक़लीफ़ दे रहा था. बाबू ने तो कोई धोखा किया ही नहीं. घर में लड़की दिखाने की प्रथा न होते हुए भी उन्होंने कुन्ती से जानकी को मिलवाया था. फिर किस बात का धोखा? ये तो झूठ हुआ न! मन ही मन व्यथित जानकी ने तय किया था, पहले ही दिन कि अब अगर दोबारा ऐसी कोई बात हुई, तो उसे खुल के जवाब देना होगा. ऐसे झूठ को नई बहू के लिहाज में चुपचाप ओढ़ नहीं सकती वो.

तमाम रस्मों-रिवाज़ों को निभाते, थक के चूर हुई जानकी ने उसी दिन किशोर को सारी बात बताई थी, ये कहते हुए कि अम्माजी का ये आरोप एकदम ग़लत है. हां आपने मुझे नहीं देखा था, मगर उससे क्या? मैने भी तो आपको नहीं देखा था! माना कि आप बहुत खूबसूरत हैं, लेकिन इसकी जगह काले-कलूटे, उजबक से भी तो हो सकते थे न? मैं तो हर हालत में स्वीकार ही ले के आई थी न अपने मन में? किशोर तो पहले ही बहुत कोमल हृदय का लड़का था. मां की बातें उसे बहुत नागवार गुज़री थीं, लेकिन बचपन से ही किसी भी बात का जवाब न देने वाला किशोर, उस वक़्त भी कुछ नहीं बोल पाया, इस बात की उसे ग्लानि है, ऐसा उसने जानकी से कहा.
पूरी रात किशोर, जानकी को कुन्ती के स्वभाव के बारे में ही समझाता रहा. उसे किस तरह मां के साथ रहना है, ये भी समझाया उसने. बड़े-बूढ़ों की तरह बोला था, सत्रह साल का किशोर-

“ देखो जानकी, ऐसो है कै जे हमाई अम्मा ज़रूर हैं, लेकिन इनके लच्छन मंथरा सें कम नैंयां. ऐसा कहना तो नईं चइये, लेकिन कह रहे हम काहे से वे हैंई ऐसीं. उनने घर में किये छोड़ो? सब उनके शिकार भये हैं कभऊं न कभऊं. ह्म औरन खों मौं खोलबे की आज़ादी नइयां. बे मरबे-मारबे पै उतर आतीं तुरतई. सो तुमे अपनी अकल सें काम लैनै. कैंसें पटरी बिठाहौ, अब जे तुमई जानियो. हां, अगर कौनऊ गलत बात में उनने तुमै फ़ंसाओ, तौ हम हैं तुमाय लाने, बस तुम कछु गलत न करियो.”
(कमश:)