कहानी किससे ये कहें!
नीला प्रसाद
(6)
‘मैं तो सिर्फ बातें करने आई थी।'
‘तो बातें ही करो न! पर स्पर्शों से’, अय्यर सहजता से ‘आप’ से ‘तुम’ पर उतर आए थे।
‘सर, मैं कोई बाजारू औरत नहीं हूँ।’
‘पता है।’
‘मैं आपको प्यार- व्यार भी नहीं करती। वह सब मेरे बस का नहीं है।’
‘पता है।’
‘अगर आप सोच रहे हैं कि आप मेरा शरीर ले ले सकते हैं और उसके बाद चैन से अपनी शादी निभाते जी सकते हैं, तो आप गलत हैं। मैं आपका जीना हराम कर दूँगी।’
‘पता है।’
‘तो फिर? क्यों लिया कमरा? क्यों बुलाया मुझे डिनर के बहाने?’ उमा उलझने लगीं।
‘क्योंकि तुम्हारी नाराज होने, अधीर होने की इन्हीं अदाओं को मैं पसंद करता हूँ। मैं तुम्हें बहुत पास से, एकांत में देखना चाहता हूँ। बिना किसी डिस्टर्बेंस के तुमसे बात करना, तुम्हें सुनना चाहता हूँ। क्या तुम्हें पता है कि तुम किन अदाओं से बात करती हो? कह देने की एक हड़बड़ी, तुरंत समझ लिए जाने की बेचैनी हर वक्त तुम्हें घेरे रहती है। अपनी बात जोर देकर कहने का एक खास अंदाज है तुम्हारा!! और तुमने अपनी चाल देखी है? नहीं न! तुम मोरनी की तरह नहीं, शेरनी की तरह चलती हो! जाहिर है, तुम एक दबंग ऑफिसर हो, कोई छुई- मुई नाजुक-सी दिखती अंदर से शातिर लड़की नहीं, जो मौका पाते ही पहले तो प्रेमी की गोद में ढेर हो जाती है, फिर धोखा खाने के नाम पर टसुए बहाती पति से झूठ बोलती सारा दोष प्रेमी पर डाल देती है। तुम तो अगर मिस्टर अय्यर के साथ सोओगी भी तो अपने पति के मुँह पर यह सच बंदूक की गोली की तरह ठाँय से दाग दोगी।’ अय्यर उंगली से बंदूक बनाते हँसे। अब जाकर उमा मुस्कराईं।
‘हां, मैं अपना कुछ भी शेयर करने या किसी को आधा-अधूरा पाने को तैयार नहीं रहती। आधा-अधूरा तो न पति चाहिए, न प्रेमी! मुझे पूरे का पूरा पुरुष पसंद है- पति हो कि प्रेमी! पति तो खैर कभी अपना हो नहीं सका और आप जैसा एकतरफा प्रेम करने वाला प्रेमी अपना हो नहीं सकता, इसीलिए... हम जैसे हैं, वैसे ही ठीक हैं। अनकहे प्रेम की खुशबू में जीते..’
‘अनकहे प्रेम की खुशबू...बहुत अच्छा डायलॉग है। कहाँ पढ़ा?’
‘कहीं न कहीं पढ़ा ही होगा, तभी बोल पाई।’ उमा खिलखिलाईं।
‘उमा, मैं तुम्हें चूमना चाहता हूँ- बस! क्या निर्णय है तुम्हारा? योर डिसिजन इज माई डेस्टिनि।’
उमा पास आ गईं- बिना हिचक। अय्यर ने उन्हें बहुत चाहत, बहुत कोमलता से बाहों में ले लिया और धीमे- धीमे चूमने लगे– होठों पर, गालों, गर्दन और बाहों पर.. जब वे उंगलियों के पोरों तक आकर भी नहीं रुके तो उमा बेचैन होती बोलीं–
‘मैं जा रही हूँ। देर हो रही है।’
‘पर खाना तो खा लो।’
‘नहीं। कहा न, देर हो रही है।’
‘पर ऐसे में, जब मैं जानता हूँ कि तुम्हें फिर से बुलाने की कामना व्यर्थ है, क्या यह अच्छा नहीं होगा कि हम साथ-साथ खाना खा लें और अच्छे दोस्तों की तरह विदा लें?’
उमा सोफे पर बैठ गईं। रूम सर्विस से खाना मँगाया गया। दोनों ने एक शब्द बोले बिना जल्दी-जल्दी खाना खत्म किया। उमा कमरे से निकलने लगीं तो अय्यर ने पूछा–
‘क्या मैं उम्मीद रखूँ कि दुबारा मेहमाननवाज़ी का मौका मिलेगा?’
उमा ने जिन नजरों से देखा, उन्हें वे समझ नहीं पाए।
उस रात उमा ने सोचा। बहुत- बहुत सोचा। क्या है अय्यर में, जो खींचता है? क्यों गई थीं साथ डिनर करने, अगर यह अय्यर का एकतरफा प्यार है? क्यों चूमने की इजाजत दे दी? क्या इस सब के लिए निरंजन और उस दूसरी महिला के सामने- जो अय्यर की पत्नी है- जवाबदेह नहीं होना होगा? एक ओर अपने पति निरंजन हैं जो शादी के इतने सालों के बाद भी अबूझ पहेली हैं, और दूसरी ओर अय्यर- जो अब उमा को अच्छी तरह से समझ में आने लगे हैं, पर अपनाए नहीं जा सकते... अपनाने की चाहत के बिना चाहे भी नहीं जा सकते!!
*
ऑफिस में अब अय्यर से रोज-रोज भेंट नहीं होती थी, तब भी दिन दुश्चिंताओं में गुजर रहे थे कि जमाने बाद निरंजन की कार सुबह- सुबह घर के सामने खड़ी होते देख राहत मिली।
‘सोचा बहुत दिन हो गए बच्चों को देखे तो मिलता चलूँ’, निरंजन ने सफाई देने के स्वर में कहा। उमा हँसीं।
‘बहुत अच्छा किया, चले आए। दो-चार दिन रुकेंगे न?’
‘रुक सकता हूँ, अगर तुम्हें आपत्ति न हो।’ उनकी आवाज़ में एक साथ व्यंग्य और हास्य का पुट था।
‘मुझे आपसे कुछ बातें कहनी हैं।’ उमा ने व्यंग्य और हास्य को दरकिनार करते गंभीर स्वर में कहा।
‘ठीक है, सुन लेंगे तुम्हारी भी। पहले आज छुट्टी ले लो। बच्चों को भी स्कूल मत भेजो। कितने दिन हो गए साथ–साथ निश्चिंतता से एक पूरा दिन गुजारे!’
उमा को कानों पर भरोसा नहीं हुआ। क्या ऐसा कोई दिन उनकी जिंदगी की हकीकत हो सकता है? उन्होंने तुरंत आकस्मिक छुट्टी का आवेदन भेज दिया। बच्चों के स्कूल भी छुट्टी की अर्जी भेज दी गई। नहा-धोकर, नाश्ता करके, निरंजन बच्चों को साथ लेकर बाहर निकल गए। उमा रसोई में कुक को खाना पकाने के बारे में निर्देश देती सोचने लगीं कि कोई तो बात है निरंजन में कि उनके पीछे चाहे उन पर जितना गुस्सा कर लो, सामने उन पर नजर पड़ते ही मन का गुस्सा गल जाता है! किसी बच्चे की तरह रूठे इस पुरुष को मनाने का मन होने लगता है। सच यही है कि मैं निरंजन को छोड़ नहीं सकती। छोड़ना चाहती भी नहीं। अब तो यही ठीक रहेगा कि उनके कहे अनुसार कहीं और ट्रांसफर ले लूँ – हो सके तो ऐसी जगह, जो निरंजन को भी अपने बिजनस के लिहाज से सही लगे। अभी आते हैं तो बात करती हूँ इस बारे में। पूछती हूँ कि ट्रांसफर के मसले पर वे मेरी कितनी मदद कर सकते हैं! हो सकता है कि पापाजी की मदद से कुछ हो जाए...ऑफिस की रोज- रोज की परेशानियों, अफवाहों से छुटकारा.. अय्यर को लेकर दिल के भाव विश्लेषित करने की जरूरत से भी छुटकारा...बच्चों की सारी जिम्मेदारियाँ अकेले निबाहने से छुटकारा! अचानक यह भी लगने लगा कि अकेली यह सब सहती वे थक गई हैं और उन्हें किसी सहारे की सख्त जरूरत है- किसी पुरुष के सहारे की!! आखिर पिता के साये में किशोर शालिनी और मनस्वी का विकास ज्यादा सही तरीके से होगा। वे इन्हीं मीठी कल्पनाओं में खोई थीं कि नीचे कार का हॉर्न सुनाई दिया। निरंजन तमतमाए-से अंदर आए और जूते पहने ही रसोई में घुस गए।
‘सुनो’, वे कठोर स्वर में बोले ‘क्या यह सच है कि अय्यर यहाँ आए और रात भर यहीं रुके?’
‘किसने कहा यह?’
‘हाँ या ना?’
उमा स्तब्ध सोचती रहीं कि कैसे बात शुरु करें। पर निरंजन अधीर हो रहे थे।
‘मैं पूछ रहा हूँ, हाँ या ना?’
‘हाँ या ना के साथ सारी बातें सुनानी-समझानी पड़ेंगी न!! परिस्थिति को पूरी तरह समझे बिना कैसे.. ‘
‘यानी कि सच वही है जो कॉलोनी के चौकीदार ने कहा। तुम यहाँ तक गिर गईं?’
निरंजन ने अपना सूटकेस खींचकर उठाया और झटके से सीढ़ियाँ उतरने लगे। उमा ने पुकारकर कहा- ‘पूरी बात तो सुन लेते! चौकीदार के कहे से फैसले लेंगे क्या ? वे रात भर नहीं, आधी रात तक थे यहाँ और फिर..’
नीचे कार स्टार्ट हो गई। बच्चों को टाटा कर दिया गया। कार के पहियों से उड़ी धूल के साथ जिंदगी में जो गर्दोगुबार फैला, वह फिर कभी साफ नहीं किया जा सका। अंततः उमा ने अकेले ही पाला बच्चों को- बस कभी-कभार पिता के पास भेज देती रहीं। सास के बुलाने पर ससुराल भी गईं कई बार पर निरंजन ने कभी अपने कमरे की चौखट लाँघने नहीं दी। सास पूछती-पूछती इस दुनिया से विदा हो गईं कि आखिर हुआ क्या! बच्चे बड़े होने पर अपने-अपने हिसाब से सब कुछ को विश्लेषित करते जीते रहे। शालिनी की शादी निरंजन ने खुद तय की और कन्यादान अकेले किया- भले उमा वहाँ उपस्थित थीं। वैसे तो बेटा-बेटी दोनों उमा को बहुत चाहते हैं पर पिता के सामने किसी की चलती नहीं। बेटे की शादी उमा ने तय की, इसीलिए निरंजन आए तक नहीं।
जिंदगी बेस्वाद हो गई पर गुजर गई...और अय्यर? वह तो उमा से पैलेस होटल की मुलाकात के बाद कभी मिले तक नहीं। उन्हें टी.एस. की पोस्ट से मुलाकात के अगले ही दिन तत्काल प्रभाव से हटा दिया गया और उसके कुछ महीनों के बाद अय्यर, अगले प्रमोशन के साथ ट्रांसफर लेकर दूर चले गए। कुछ सालों के बाद वे रिटायर हो गए और उमा को पता तक नहीं चल पाया कि रिटायरमेंट के बाद कहाँ रहते हैं!
*
...और आज उमा रिटायर हो रही हैं। कार की पिछली सीट पर बैठी अतीत याद करती ऑफिस जा रही थीं कि झटका-सा लगा। आज तो भाषण देना ही पड़ेगा। ऑफिस में आखिरी दिन अपने सीनियर्स, कुलीग्स और जूनियर्स से मुखातिब होकर क्या वे अपनी जिंदगी का सच मंच से उजागर कर पाएँगी? सारी अफवाहों को विराम दे सकने वाले सच लोगों के मुँह पर मार दे सकने की हिम्मत जुटा पाएँगी? क्या निरंजन को भरोसा भी होगा कि सच यह है, जो उमा मंच से कह रही हैं- निरंजन ने जो सुना-समझा-जाना, वह नहीं?! अचानक एक मुस्कान दौड़ी चली आई। अय्यर ने कहा था- 'क्या आपके पति अफवाहों के आधार पर जिंदगी के फैसले लेते हैं? वेरी फनी, वेरी सैड!'
पर अब कहकर क्या होगा? क्या अब निरंजन का साथ संभव होगा भी? बेटा-बहू हैं, पोती है। एक सुविधाजनक ढर्रा बन चुका है जिंदगी का, जिसमें निरंजन कहीं नहीं हैं। पर एक कसक तब भी है कि जिंदगी किसी और तरह जी जा सकती थी। काश कि निरंजन साथ होते...आज रिटायरमेंट के दिन तो आ ही जाते... और फिर कभी नहीं जाते!!
कार ऑफिस पहुँच गई। उतरते ही लोगों ने घेर लिया। कंपनी की पहली लेडी जेनरल मैनेजर आज रिटायर हो रही थीं– कितना गर्व था फूल देती जूनियर लेडी ऑफिसर्स की आँखों में! कितने मनुहार थे, कितनी चाहना थी सबों की, कि वे अपने करियर की पूरी दास्तान सुनाएँ– उतार-चढ़ाव की कहानी! पर क्या ऑफिस में रिश्तों के घालमेल की कहानी सुनाई जा भी सकती है? आम लोगों की जिंदगी कोई फिल्मी कहानी नहीं होती कि अंत आते-आते सच उजागर हो ही जाए! उनकी जिंदगी का सच आज और हमेशा परदे में ही रहेगा- मिसेज़ चन्द्र को पता है।
(दोआबाः 2014)