सुनो पुनिया
(4)
बलमा के ढोल का स्वर भी तेज से तेजतर होता जा रहा था. बलमा झूम रहा था. उसके हाथ स्वतः चल रहे थे---जैसे उनमें मशीन लगा दी गई हो.
और मशीन रामभरोसे के हाथों में भी जैसे लग गई थी आज. जितनी तेजी से उसके हाथ चल रहे थे, उतनी ही तेजी से उसका दिमाग भी गतिशील था.
’तो यही अवसर है पारस को सबक सिखाने का---पुनिया से उसे दूर करने का---जो मेरी है---उससे मिलने, बात करने, देखने का सबक मिलना ही चाहिए!’
कड़ाक---कड़ाक—कट---कड़ाक---पारस का प्रहार बचाने में दिमाग चकरघिन्नी हो गया रामभरोसे का. संभलकर वह प्रहार बचाने और करने लगा. क्षण भर के लिए विचार लड़खड़ा गए. लेकिन कितनी देर! वह फिर सोचने लगा—लेकिन खेलते समय प्रतिद्वंद्वी को चोट पहुंचाना—वह भी जानबूझकर—खेल की मर्यादा के विरुद्ध है. खेल की पवित्रता को नष्ट करना है. ऎसा करना अपने खेल को कलंकित करना हुआ रामभरोसे!
“वाह मेरे शेरो---वाह-वाह---!” भीड़ में से कोई बोला. रामभरोसे की विचार-श्रृखंला लाठियों की तड़तड़ाहट में फिर टूट गई. दिमाग एक बार फिर चकरघिन्नी की तरह घूम गया. संतुलन बिगड़ गया. वह संभल पाता, इससे पहले ही पारस की लाठी उसके सिर पर जा लगी. रामभरोसे गिर गया. कोहराम मच गया.
पारस अपराधी-सा एक ओर खड़ा हो गया. वह नहीं समझ पा रहा था कि वह सब कैसे हो गया. लोग क्या कहेंगे? बुधई काका---टोला—गांव—पुनिया—सब यही सोचेंगे कि पारस ने जानबूझकर मार दी होगी लाठी. वह कैसे यकीन दिलाएगा लोगों को कि वह ऎसा कभी सोच भी नहीं सकता था.
रामभरोसे के गिरते ही ढोल पर बलमा के हाथ रुक गए थे. वह चीख रहा था, “दौड़ो---दौड़ो---देखो रामभरोसे को---पारस बबुआ, ई का हुआ?”
पारस को जैसे लकवा मार गया था. वह हिले-डुले बिना आंखें फाड़कर देखता रहा. उसकी सारी शक्ति जैसे निचुड़ गई थी.
बलमा ढोल फेंककर दौड़ पड़ा था. आस-पास इकट्ठी भीड़ इधर-उधर भागने लगी थी. चीख-पुकार---शोर और शोर---लोग भागते समय यह भी भूल गए थे कि वे किसी दुकान का सामान रौंदते भाग रहे हैं. दुकानदार हड़बड़ाते हुए सामान बटोरने लगे थे. मिट्टी—प्लास्टिक के खिलौने, मूंगफली, गट्टी-रेवड़ी---सब धूल में बिखर गए थे. किसी की चप्पलें छूट गई थीं तो कोई अपना झोला छोड़कर भाग खड़ा हुआ था. झुंड के झुंड स्त्री-पुरुष---बच्चे-बूढ़े-जवान खेतों को रौंदते—पगडंडियों पर भागते दिख रहे थे.
“लाठी चल गई ---मेला में!” हांफते हुए सभी यही कह रहे थे.
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बलमा की गोद में रामभरोसे का सिर था और सिर से खून बहकर जमीन को गीला कर रहा था. उसकी सांसें तेज चल रही थीं---आंखें मुंदी हुई थीं. वह धीमे स्वर में पानी मांग रहा था. उसका एक साथी दौड़कर नदी से पानी ले आया था. दो घूंट पानी पीकर रामभरोसे शिथिल लेट गया था. बलमा ने अपना अंगौछा उसके सिर पर बांध दिया था.
पारस अभी भी चुप खड़ा था. किसी ने उससे कहा कुछ भी नहीं था, लेकिन वह अपने को अपराधी मान रहा था. उसके साथी उसके इर्द-गिर्द इकट्ठे हो गए थे---रामभरोसे के साथियों की ओर से पारस पर होने वाले संभावित हमले से उसकी रक्षा करने के लिए.
रामभरोसे के साथी उत्तेजित थे ही. वे बरगद के पेड़ के पास इकट्ठे होकर यह तय कर रहे थे कि कुछ भी क्यों न हो जाए, लेकिन पारस को वे साबुत जाने न देंगे. रामभरोसे के साथी कुछ करते, इससे पहले ही वहां रघुआ आ गया. रघुआ को जब रामभरोसे के घायल होने की खबर मिली उस समय वह मंदिर के उत्तरी छोर पर दूसरे गांव के कुछ वृद्ध लोगों के साथ गांजे की चिलम फूंक रहा था. खबर पाते ही वह दौड़ा आया था.
दलपत खेड़ा और अपने गांव के युवकों में तनाव रघुआ ने आते ही बांप लिया. उसने अपने गांव के युवकों को डांटा, “खड़े-खड़े मुंह क्या ताक रहे हो---एक-दूसरे का---उठाकर भरोसे को गाड़ी में लिटाओ और ले चलो सुजानपुर के डॉक्टर बाबू के पास.”
सुजानपुर वहां से आठ मील दूर था—जी.टी.रोड के किनारे. रघुआ की डांट सुन सभी युवक सक्रिय हो उठे थे. बुधई भी आ गया. रामभरोसे को गाड़ी में लिटा दिया गया. रघुआ के साथ बुधई और रामभरोसे के दो साथी भी गाड़ी में बैठ गए. शेष पैदल चले.
पारस वैसे ही अडोल खड़ा उन्हें जाता देखता रहा, जब तक बैलगाड़ी झाड़ियों की ओट में छुप नहीं गई.
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कुछ ही देर में वह सब घटित हो गया था. पुनिया हत्प्रभ थी---बेचैन भी, ’क्या पारस ने जानबूझकर रामभरोसे को लाठी मारी---लेकिन क्यों? पारस ऎसा नहीं कर सकता---लेकिन क्यों नहीं कर सकता? क्या तूने पारस के मन की सारी बातें पढ़ रखी हैं---कभी-कभी आदमी अंदर कुछ होता है और बाहर कुछ---फिर भी पारस ऎसा घृणित काम नहीं कर सकता---जरूर चूक से ही लाठी लग गई होगी—पारस का चेहरा भी यही बता रहा है---तब से वह अपराधी-सा खड़ा दिख रहा है----.’
तत्क्षण पुनिया के मन में विचार कौंधा, ’पारस के प्रति तेरे हृदय में जो भाव है---उसी के कारण तू यह नहीं सोच सकती कि पारस ने जानबूझकर ही रामभरोसे को घायल किया है---लेकिन क्यों? क्योंकि पारस तुझे चाहता है---वह नहीं चाहता होगा कि तू किसी और की---.’ वह जमीन पर बैठ गई और घुटनों के मध्य सिर रखकर धीरे-धीरे सुबकने लगी.
“रो क्यों रही है, पूनो---भरोसे ठीक हो जाएगा.” माई उसके सिर पर हाथ फेरने लगी, “चुप हो जा—बीर बाबा की किरिपा से सब ठीक हो जाएगा.”
पुनिया वैसे ही सिर रखे बैठी रही.
“उठ पूनो—घर चलें---बापू बैलगाड़ी के साथ गया है भरोसे को लेकर---चल, घर में कुछ काम-धाम बाकी है.” माई अभी भी उसके सिर पर हाथ फेर रही थी.
पुनिया वैसी ही बैठी रही.
सूरज डूब चुका था. स्टेशन के पश्चिम की ओर शुक्लों की अमराई के पीछे धुंधलका पेड़ों के नीचे उतरने लगा था—आहिस्ता-आहिस्ता.
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गैस बत्तियों की रोशनी में रात देर तक चलने वाला मेला लगभग उजड़ चुका था. जो लोग कंबल लेकर रात भर रुककर नौटंकी देखने के इरादे से आए थे, वे भी लौटने लगे थे. डर था, कहीं पुलिस न आ जाए. कोई माइक से घोषणा कर रहा था, “भाइयो! बहनो! आप सबके लिए---रात नौटंकी---का इंतजाम---.!”
पुनिया अभी भी घुटनों के मध्य सिर रखे बैठी थी.
“उठ पुनिया, घर चलें.”
पुनिया ने सिर ऊपर उठाया. उसकी आंखें लाल थीं.
दोनों चल पड़ीं. इक्का-दुक्का लोग ही थे पगडंडियों पर. धुंधलका पूरी तरह खेतों पर उतर आया था. झींगुरों की आवाजें झाड़ियों में उभरने लगी थीं.
पुनिया ने उस रात कुछ नहीं खाया और सुबह भी वह देर से ही उठी. नींद उसे रात भर नहीं आई थी---सोचती रही थी पारस के बारे में, ’कैसे लगी पारस से लाठी?’ वह किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंची. इतना वह भी जानती थी कि खेलने वाले का उद्देश्य अगर खेलना हो तो एक-दूसरे को बचाकर ही वे खेलते हैं और ऎसे में कभी चूक से ही चोट लगती है किसी को.
रह-रहकर पारस का चेहरा पुनिया की आंखों के सामने घूमता रहा.
बुधई रात को लौटा नहीं था.
पुनिया सुबह उठी तो शरीर दर्द से टूट रहा था. माई बाहर जाने के लिए तैयार थी. पुनिया को जगा देख वह बोली, “मैं जा रही हूं—घर देखना—दाल रख दी है कटोरे मा---रोटी सेंक लेना---थोड़े से चावल भी—बापू आ जाए तो खिला देना.”
पुनिया ने कोई उत्तर नहीं दिया.
माई के जाने के बाद वह नहा पर बैठ गई और फिर सोचने लगी पारस के बारे में, ’क्या पारस ने मेरे लिए ऎसा किया---मैं नहीं मानती कि वह ऎसा कर सकता है---मुझको पाने के लिए---लेकिन क्या मालूम---बापू से तो कुछ वह कह नहीं सका था---ऎसे ही---.’ वह त्यधिक दुःखी हो उठी.
सूरज की किरणें छप्पर पर अठखेलियां कर रही थीं, और गौरेया मुंडेर पर फुदक रही थी. पुनिया गौरेया को देखने लगी. तभी बसंती ने उसे आवाज दी.
’शायद बसंती को कुछ मालूम हो इस बारे में---. कैसे लगी रामभरोसे को पारस की लाठी---जरूर मालूम होगा, और वही बताने वह आई होगी---.’ पुनिया ड्योढ़ी तक आ गई.
बसंती गली में खड़ी थी.
“अंदर आ जा---वहां क्यों खड़ी है!”
बसंती आने लगी तो पुनिया अंदर की ओर मुड़ गई. बसंती उसके पीछे-पीछे आंगन में आ गई.
“कल त बड़ा गज़ब हो गया, दीदी--- बीर बाबा ने ही बचा लिया रामभरोसे भइया को. नहीं त---पारस ने त मार ही दिया था!” नजरें इधर-उधर दौड़ाती बसंती बोली.
पुनिया चुप रही.
“रामभरोसे को तो रात ई पट्टी-वट्टी बांधरकर और कुछ दवाई देकर सुजानपुर के डॉक्टर बाबू ने शहर ले जाने के लिए कहा था---बोले थे कि शहर ले जाने से घाव जल्दी ठीक होगा—मेरे भइया भी साथ गए रहैं---उहां अस्पताल में भरती करवा के भइया सुबो-सुबो लौट आए हैं---बता रहे हैं, कौनो चिंता की बात न है---बुधई काका शाम तलक आवेंगे.”
पुनिया ने लंबी सांस ली.
“भइया त रघुआ काका ते बोले रहैं पुलिस मा रिपोट लिखवावन खातिर---पन उनने मना कर दिया---रामभरोसे पर जानलेवा हमला अउर रघुआ काका की पारस के प्रति ई उदारता---अपने तो समझ मा न आवा--- भइया भी कह रहे हैं---.” हाथ मटकाकर बसंती बोली.
पुनिया फिर भी चुप रही.
बसंती की नजरें अभी भी इधर-उधर दौड़ रही थीं.
“कुछ चाहिए---?” पुनिया ने पूछ लिया.
“दीदी, थोड़ी-सी चाह की पत्ती हो तो---कोऊ आ गवा है.”
आने-जाने वालों के लिए पुनिया के यहां चाय पड़ी रहती थी. ढाई सौ ग्राम आती तो एक साल तक चल जाती. पुनिया रसोई में गई और एक छोटी कटोरी में चाय की पत्ती लाकर बसंती को दे दी.
“कटोरी अभी दे जाऊंगी, दीदी.” बसंती मुस्करा दी.
“कोई बात नहीं.” पुनिया को अपनी आवाज किसी गुफा के अंदर से आती प्रतीत हुई.
पुनिया बसंती को छोड़ने बाहर ड्योढ़ी तक गई. बसंती के जाने के बाद वह ड्योढ़ी पर बैठ गई और घास चरने के लिए जंगल जाते जानवरों को देखने लगी, जो गली में एक-दूसरे के आगे-पीछे जा रहे थे. गोबर से सनी भैंसें और घंटियां टुनकाती गाएं, कान फड़काते-डोलते पड़वे और उछलते बछड़े जा रहे थे. निश्चिंत ---पेट भरने के लिए---पीछे-पीछे मनकू अहीर था लाठी लिए. सारे टोला के जानवर मनकू ही घेरकर ले जाता है और महीने में उसे लोग प्रति जानवर कुछ रुपए दे दिया करते हैं.
पुनिया जानवरों को जाता देखती रही. धीरे-धीरे मेला का दृश्य फिर उसके दिमागे में उभरने लगा---मेला—मेला में दीवाली खेल---खेलते हुए पारस और रामभरोसे---और रामभरोसे पर पारस की लाठी का प्रहार---उसने स्वयं देखा था. रामभरोसे को गिरते उसने देखा था और चीखी भी थी वह---लेकिन किसी ने न सुनी थी उसकी चीख---क्योंकि चीखें तो चारों ओर से आने लगी थीं---.
“लाठी चल गई ---लाठी---भागो!” शोर करते लोग एक-दूसरे को धकियाते भाग रहे थे.
एक-एक दृश्य पुनिया की नजरों के समक्ष घूम रहा था. पुनिया खो-सी गई उसमें.
“पुनिया---!”
पुनिया अचकचा गई. सामने पारस खड़ा था. पुनिया की आंखें सुर्ख हो गईं. वह उठ खड़ी हुई और अंदर की ओर मुड़ी.
“सुनो पुनिया---.” उदास स्वर में पारस बोला और आगे बढ़ा.
“मुझे कुछ नहीं सुनना---चलो जाओ यहां से---मैं तुम्हारी शक्ल नहीं देखना चाहती.” पुनिया चीखी और उसने धड़ाम से दरवाजा बंद कर लिया.
“पुनिया, मेरी बात तो सुनो---मैंने जानबूझकर नहीं----.”
पारस की बात बीच में ही काटकर पूर्ववत स्वर में पुनिया चीखी, “मैंने कहा न---चले जाओ यहां से---मुझे कुछ नहीं सुनना---और यह भी सुनते जाओ---.”
पारस खड़ा रहा चुप.
पुनिया कुछ बोली नहीं. वह फफक-फफककर रोने लगी थी.
पारस कुछ देर तक दरवाजे के बाहर खड़ा रहा, फिर बुझे मन से वापस लौट पड़ा.
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