आघात
डॉ. कविता त्यागी
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पूजा की चिन्ता का विषय उस समय इतना महत्वपूर्ण था कि उसने अत्यन्त थकी हुई होने पर भी जागकर बच्चों की प्रतीक्षा करना आवश्यक समझा । उसकी चिन्ता का कारण प्रियांश का आई.आई.टी. में प्रवेश कराने के लिए आवश्यक धनराशि का अभाव था । पूजा की प्राथमिकता अब प्रियांश के प्रवेश के लिए धन का प्रबन्ध करना था । वह इस समस्या के समाधन के विषय में निरन्तर विचार-मंथन कर रही थी । दूसरी ओर, थोडी देर तक मस्ती करने के पश्चात् प्रियांश को स्मरण हुआ कि माँ उनसे कुछ कहना चाहती थी, इसीलिए मस्ती बन्द करके वे आराम करने के लिए कह रही थी । प्रियांश की आँखों में माँ का वह चिन्तातुर चेहरा उतर आया और उस क्षण की स्मृतियों की एक श्रृंखला-सी बनने लगी कि माँ कल की कार्ययोजना के विषय में कुछ बातें करना चाहती थीं । इन विचारों में तल्लीन प्रियांश की मुखमुद्रा गम्भीर हो गयी। उसने मस्ती करना बन्द कर दिया और पूजा के पास आकर माँ को किन्हीं विचारों में खोया हुआ पाया, तो अनुमान लगाया कि वे अवश्य ही किसी गम्भीर समस्या में उलझी हुई है !
अपने अनुमान के अनुसार प्रियांश ने पूजा से उस समस्या के बारे में पूछा, जिसने उसे चिन्तित किया हुआ था । बेटे की जिज्ञासा को शान्त करते हुए पूजा ने प्रियांश को बताया कि वह उसकी इंजीनीयरिंग की फीस के विषय में चिन्तित है कि इतनी बड़ी धनराशि का प्रबन्ध इतने कम समय में कैसे हो सकेगा ? प्रियांश भी थोड़े-से समय में एक बड़ी धनराशि के प्रबन्ध के विषय में सोचकर क्षण-भर के लिए चिन्ता में डूब गया । अगले ही क्षण जैसे उसे अचानक कोई पुरानी बात याद हो आयी थी, उसने कहा -
‘‘मम्मी जी, आप व्यर्थ में ही इतनी चिन्ता कर रही हैं ! मैंने आपको बताया था न, मेरी फीस के लिए बैंक से एजूकेशन लोन मिल जाएगा और वह भी कम समय में कम ब्याज पर ! बैंक मेरी शिक्षा पूर्ण होने तक जरुरत भर लोन दे देगा और शिक्षा पूर्ण होने पर मैं किश्तों में उसको वापिस कर दूँगा ! आपको किसी प्रकार की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है !’’
‘‘पर, बैंक से लोन नहीं हो सका तो ?’’
‘‘क्यों नहीं होगा ?आई.आई.टी. में मेरी इतनी अच्छी रैंक है और अब तक की सारी शिक्षा में मैनें प्रथम स्थान प्राप्त किया है ! कोई भी बैंक मुझे लोन देने में अनाकानी नहीं करेगा !’’
‘‘ईश्वर करे ऐसा ही हो ! कल बैंक में जाकर मैनेजर से मिलेंगे ! अब तुम सो जाओ ! मैं भी सोना चाहती हूँ ! बहुत थक गयी हूँ !’’
प्रियांश के साथ अपनी चिन्ता को साझा करके पूजा स्वयं को हल्का-सा अनुभव कर रही थी । दिन-भर के कार्य से थकी होने के कारण वह चिन्ता के भार से मुक्त होते ही सो गयी और स्वप्न-लोक में विचरने लगी । सोने से पहले प्रियांश ने अपनी वाक् पटुता से पूजा के चित्त में आशा का ऐसा संचार किया था कि रात-भर उसको अपने लक्ष्य-प्राप्ति में सफलता के ऐसे-ऐसे सुखद सपने आते रहे कि प्रातः नींद से जागने पर वह प्रसन्नचित्त थी और स्वयं को तरोताजा अनुभव कर रही थी।
अपने आशावादी दृष्टिकोण के साथ पूजा प्रातः दस बजे प्रियांश को लेकर बैंक में पहुँच गयी। उसने मैनेजर के समक्ष प्रियांश के शैक्षिक प्रमाण-पत्रों को प्रस्तुत करते हुए उसकी इतनी प्रशंसा की, कि मैनेजर प्रियांश की ओर देखकर मुस्कराने लगा और उत्साहवद्धर्न करते हुए बहुत ही आत्मीयता से बोला -
‘‘मैने भी बारहवीं कक्षा में तुम्हारे विद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया था ! कल विद्यालय जाकर प्रतिवर्ष प्रथम स्थान प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों की सूची देखना, मेरा नाम सन् उन्नीस सौ अठ्ठासी ईस्वी के टॉपर लिस्ट में सबसे ऊपर मिलेगा !’’
पूजा और प्रियांश दोनों बैंक मैनेजर की आत्मीयतापूर्ण वार्ता-शैली से बहुत प्रभावित हुए थे ! लेकिन, उनके मस्तिष्क में एक प्रश्न अज्ञात भय के साथ बार-बार उठ रहा था - ‘‘लोन मिलेगा या नहीं ?’’ एक ओर, यह प्रश्न उन दोनों की बैचेनी को निरन्तर बढ़ाता जा रहा था, तो दूसरी ओर, बैंक मैनेजर परस्पर परिचय को आगे बढ़ाते हुए, मैत्री-स्तर पर आकर बातें करने लगा था और धीरेे-धीरे प्रियांश की पारिवारिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के विषय में आवश्यक जानकारी प्राप्त करने लगा था । पूजा अपनी प्रकृति से सत्यनिष्ठ एवं छल-छद्म से कोसों दूर थी, इसलिए उसने मैनेजर को अपनी स्थिति के विषय में सारी जानकारी सही और यथातथ्य दे दी। वह जानती थी कि सज्जन व्यक्तियों पर सज्जनता का जैसा प्रभाव पड़ता है, वैसा कपटपूर्ण व्यवहारों का नहीं पड़ता है ! इसके विपरीत पूजा की बगल में बैठा प्रियांश माँ द्वारा अपने परिवार के विषय में सबकुछ सच-सच बताने पर कुछ संकोच कर रहा था ! वह बार-बार पूजा को संकेत कर रहा था कि ऐसा न करें ! अपने संकेतों का पूजा पर कोई प्रभाव न पड़ता देखकर प्रियांश ने अपने प्रयास को विराम दे दिया । थोड़ी-देर तक वह शान्त बैठा रहा और कुछ कहने का अवसर तलाशने लगा । अपनी माँ तथा बैंक मैनेजर के बीच होने वाली बातों को वह ध्यानपूर्वक सुन रहा था और लोन मिलने की कितनी संभावना है ? इस विषय पर मैनेजर की दृष्टि का अध्ययन कर रहा था । तभी उनकी बातों से अपना संदर्भ जोडते हुए प्रियांश मैनेजर से बोला -
‘‘सर, लोन मिल तो जाएगा मुझे ?’’
‘‘प्रियांश ! तुम जैसे प्रतिभाशाली बच्चे को ऋण देने के लिए प्रत्येक बैंक तैयार हो जायेगा ! यहाँ तो तुम तो मेरे गुरु भाई भी हो, तुम्हें लोन अवश्य मिलेगा ! आप जैसे ग्राहकों को पाकर बैंक स्वयं को खुशकिस्मत ही समझेगा ! ईमानदारी और अपने परिश्रम से आगे बढ़ने वालों की सब जगह आवश्यकता है !’’ मैनेजर ने पूजा की ओर देखते हुए अपने अन्तिम शब्द कहे । उसके सकारात्मक उत्तर से प्रियांश और पूजा की चिन्ता कम हो गयी थी ।
पर्याप्त समय तक बातचीत होने के पश्चात् प्रबंधक ने पूजा और प्रियांश को ऋण की प्रक्रिया को पूरा करने के लिए आवश्यक प्रमाण-पत्र देने का निर्देश देकर भेज दिया । घर पर आकर प्रियांश ने अपने सभी प्रमाण-पत्रों की छाया-प्रति कराके बैंक में देने के लिए तैयार करके रख ली । अगले दिन वह उन प्रमाण-पत्रों को लेकर बैंक में गया । बैंक प्रबंधक ने प्रियांश के प्रमाणपत्र देखकर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और यथाशीघ्र ऋण देने की प्रक्रिया पूरी करने का आश्वासन दिया ।
प्रियांश ने बैंक से लौटकर अपने और प्रबंधक के बीच में होने वाली वार्ता का वर्णन जब पूजा के समक्ष किया तो वह प्रियांश की फीस के प्रति पूर्णतः निश्चिन्त हो गयी । अब उसे अपने सौभाग्य पर पूर्ण विश्वास हो चला था । अपने बेटे की प्रवेश-परीक्षा में बढ़िया अंक प्राप्ति के साथ ही उसकी शिक्षा के लिए बैंक से ऋण की स्वीकृति को वह अपने सौभाग्य का ही अंग मान रही थी ।
बैंक प्रबंधक के आश्वासन को बैंक से ऋण की स्वीकृति मानकर पूजा अपने सौभाग्य पर इठलाती हुई पूर्णतः निश्चिन्त थी । किन्तु, एक दिन उसको ज्ञात हुआ कि प्रियांश के शुल्क हेतु ऋण स्वीकृत होने में कुछ बाधा उपस्थित हो गयी है । इस नकारात्मक सूचना से पूजा को एक झटका-सा लगा । प्रियांश के प्रवेश की तिथि निकट आ गयी थी, इसलिए वह भी चिन्तित हो गया था । परन्तु, विवेकशील पूजा शीघ्र ही स्वस्थचित्त हो गयी। उसने स्वयं आशामयी बनकर अपने बेटे को भी निराशा की ओर अग्रसर होने से बचाते हुए कहा -
‘‘बेटा,केवल छोटी-सी बाधा ही तो है, तुम्हारा ऋण के लिए आवेदन अस्वीकृत तो नहीं हुआ है न ? छोटी-मोटी बाधएँ तो प्रत्येक कार्य में आती है ! उन बाधओं से डरकर अपने लक्ष्य से पीछे नहीं हटा जाता है ! कल चलकर बैंक प्रबंधक से बातें करेंगे ! जो समस्या होगी, उसका समाधन खोजेंगे !’’
पूजा ने बेटे को निराशा से बचाने के लिए आशावाद का भरपूर उपदेश दिया था । परन्तु स्वयं पूजा के मन में चिन्ता कम नहीं हो पा रही थी । माँ-बेटे दोनों ही जानते थे कि पूजा ने जो भी कुछ कहा था, वह सैद्धान्तिक दृष्टि से पूर्णतः उचित है, परन्तु व्यवहारिक रूप से अभी तक ऋण मिलने की कोई गारंटी नहीं है । जो पूजा ने कहा था, उसके अतिरिक्त उनके पास अन्य कोई उपाय भी तो नहीं था ।
अगले दिन पूजा और प्रियांश बैंक में जाकर पुनः प्रबंधक से मिले। मैनेजर ने उन्हें बताया कि प्रियांश का ऋण का प्रस्ताव स्वीकृत होने में एक छोटी-सी बाधा आ रही है, इसलिए उन्हें बैंक के दूसरे बड़े अधिकारी से मिलना पडे़गा ! पूजा और प्रियांश दोनों ही उस समय निराश होकर अनुमान लगाने लगे कि वह झूठा बहाना करके उन्हें टालने का प्रयास कर रहा है । अथवा रिश्वत लेना चाहता है ! अपने इस अनुमान को शब्दों में ढालते हुए पूजा ने कहा -
‘‘सर, यदि कुछ लेने-देने की बात हो, तो हमसे आप सीधे-सीधे कर लीजिए ! हमें इस विषय में अधिक ज्ञान नहीं है, पर किसी भी प्रकार मेरे बेटे की शिक्षा के लिए ऋण दे दीजिए !’’
‘‘देखिए पूजा जी, मैं एक ईमानदार और सत्यनिष्ठ अधिकारी हूँ ! मैं आपकी सहायता करना चाहता हूँ और कर रहा हूँ ! लेकिन आप मुझसे इस प्रकार की घटिया बातें करेंगे, तो मैं आपकी कोई सहायता नहीं करुँगा !’’
बैंक प्रबंधक की अप्रसन्नता देखकर पूजा और अधिक दुःखी हो गयी। इस समय उसके दुख का कारण केवल ऋण मिलने में आने वाली बाधा ही नहीं थी, बल्कि वह दुखी थी कि उसकी बातों से बैंक प्रबंधक और अधिक नाराज हो गया था । अतः उसने तुरन्त अपने शब्दों को वापिस लेते हुए प्रबंधक से कहा -
‘‘मैनेजर साहब, मेरा उद्देश्य आपको कष्ट पहुँचाना नहीं था ! मैं तो केवल यह चाहती हूँ, मेरे बेटे की शिक्षा के लिए कर्ज मिल जाए ! जब आपने कल प्रियांश को बताया था कि ऋण स्वीकृत होने में कुछ बाधा आ रही है, तब हमें कुछ लोगों ने कहा कि कर्ज स्वीकृत कराना है, तो रिश्वत देनी पड़ेगी ! बस, इसीलिए हम आपसे इस प्रकार के शब्द कहने का दुस्साहस कर बैठे !’’
‘‘पूजा जी ! मैं मानता हूँ, जो कछ आपने अभी-अभी कहा था कि ऋण स्वीकृत कराने के लिए रिश्वत देनी पड़ती है, कई बैंको में यह भ्रष्टाचार फल-फूल रहा है । परन्तु, मैं ऐसा नहीं हूँ ! न ही मेरे बैंक में ऐसा करने का किसी में साहस है ! मैं आपको एक दूसरे बैंक का पता लिखकर देता हूँ, आप वहाँ जाकर हमारे एक वरिष्ठ अधिकारी से मिल लीजिए !’’
‘‘आप इस बैंक के प्रबंधक है ! आप चाहेंगे तो हमारा ऋण स्वीकृत हो सकता है ! फिर, आप हमें किसी बड़े अधिकारी से मिलने के लिए क्यों भेजना चाहते हैं ?’’
‘‘आप बस इतना समझ लीजिए कि मैं बैंक की केवल इस छोटी-सी शाखा का अधिकारी हूँ ! आपका ऋण प्रस्ताव स्वीकृत करने के लिए उस वरिष्ठ अधिकारी की सहमति अत्यावश्क है !’’
‘‘प्रबंधक साहब, वे कर तो देंगे ?’’
‘‘हाँ, आशा तो शत-प्रतिशत है ! यदि वे आनाकानी करेंगे, तो मैं आपकी पूरी सहायता करुँगा और प्रयास करुँगा कि आपका कार्य शीघ्र ही हो जाए ! वहाँ जाने से पहले आप मुझसे मिल लेना, मैं उनके लिए एक पत्र लिखकर दे दूँगा, जिससे आपकी राह आसान हो जाएगी !’’
‘‘सर, मेरे प्रवेश की तिथि निकट आ पहुँची है, इसलिए मैं चाहता हूँ कि शीघ्रातिशीघ्र मेरा ऋण स्वीकृत हो जाए ! यदि आप उचित समझें, तो आप अभी पत्र लिखकर हमें दे दीजिए ! हम आज ही उनसे जाकर मिल लेंगे !’’ अपनी परिस्थिति को समझाते हुए प्रियांश ने विनयपूर्वक निवेदन किया।
अपनी बात को पूर्ण आत्मविश्वास और बेबाकी से कहने की प्रियांश की शैली पर मुग्ध-सा होकर प्रबंधक ने उसकी ओर मुस्कराकर देखा और कहा -
‘‘ठीक है ! मैं अभी तुम्हें पत्र लिखकर देता हूँ ! तुम आज ही उनसे मिल सकते हो !’’
प्रियांश के निवेदन पर बैंक प्रबंधक ने उसी समय पत्र लिखकर उन्हें दे दिया । वे दोनों उसी समय वहाँ से दूसरे बैंक के उस अधिकारी से मिलने के लिए चले गये, जिसके लिए प्रबंधक ने पत्र लिखा था । सौभाग्यवश उन्हें वह अधिकारी वहाँ जाते ही मिल गया । जिस समय वे वहाँ पर पहुँचे थे, उस समय वे उनकी ही फाइल पर चर्चा चल रही थी । वहाँ पहुँचने पर पहले तो प्रियांश और पूजा को उस अधिकारी के कक्ष में जाने से रोक दिया गया था, परन्तु बहुत अनुनय-विनय करने पर उन्हें अधिकारी से मिलने की अनुमति मिल गयी । अधिकारी से मिलकर उन्होंने अपनी स्थिति बतायी और ऋण-प्रस्ताव को स्वीकृत करने के लिए प्रार्थना की । अधिकारी ने कुछ समय तक मूकावस्था में कभी प्रियांश तथा कभी पूजा की ओर देखते हुए सोचा । तत्पश्चात् अपने सहायक से कहा -
‘‘कहाँ है इनकी फाइल ? अध्ययन किया है उसका ?"
‘किया है सर !"
"कब तक नम्बर पर आयेगी ?"
"सर, उसका नम्बर आने में तो अभी बहुत समय लगेगा !’’
अपने सहायक का उत्तर सुनकर उस अधिकारी ने पूजा तथा प्रियांश की ओर इस प्रकार नकारात्मक भाव से देखा कि उनका ऋण शीघ्र स्वीकृत नहीं हो पायेगा ! माँ-बेटे पर उस नकारात्मक दृष्टि का ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे शाखा प्रबंधक द्वारा दिये गये पत्र के विषय में भूल गये । अब पूजा ऋण प्रस्ताव को स्वीकृत कराने के लिए उस अधिकारी से चिन्तित-व्यथित और दीन होकर प्रार्थना करने लगी । लगभग रोने की-सी मुद्रा में पूजा के मुख से बैंक के शाखा प्रबंधक के विषय में कुछ शब्द निसृत हो गये, जिसने प्रियांश और पूजा को वहाँ भेजा था । पूजा के मुख से शाखा प्रबंधक का नाम सुनते ही प्रियांश को उस पत्र का स्मरण हो आया और उसने तत्काल अपनी जेब से वह पत्र निकालकर अधिकारी की ओर बढ़ा दिया।
‘‘यह क्या है ?’’ अधिकारी ने पत्र को खोलते हुए पूछा ।
प्रियांश ने प्रश्न का उत्तर नहीं दिया, उसने संकेतात्मक मुद्रा में अधिकारी की ओर देखा कि पत्र को खोलकर पढ़ लीजिए ! अधिकारी ने पत्र को पढ़कर पूजा की ओर सकारात्मक ढंग से गर्दन हिलाते हुए कहा -
‘‘ठीक है ! परन्तु......!’’
अधिकारी ने अपनी बात अभी पूरी नहीं की थी, इससे पहले ही फोन की घंटी बज उठी । फोन पर बात करते हुए अधिकारी के हाव-भाव बता रहे थे कि वह फोन-कॉल बैंक के शाखा-प्रबंधक की थी और फोन पर उनके बीच परस्पर प्रियांश के कर्ज-स्वीकृति से सम्बन्धित बातें चल रही थी । बातें समाप्त करने के पश्चात् अधिकारी ने पूजा की ओर मुखातिब होकर कहा -
‘‘आपके ऋण को स्वीकृत करने के लिए गारंटी के रुप में हमें आपकी सम्पत्ति आदि को अपने बैंक में गिरवी रखवाना पडे़गा, ताकि किसी अनचाही परिस्थिति में हम अपना धन वसूल सकें !’’
‘‘सर, ब्रांच मैनेजर ने हमें बताया था कि एजूकेशन लोन के लिए सम्पत्ति गिरवी रखने की आवश्यकता नहीं होती है !’’ पूजा ने कहा।
‘‘हाँ, उन्होंने आपको सही बताया है ! एजूकेशन लोन के लिए सम्पत्ति गिरवी रखने की आवश्यकता नहीं होती है, यह मैं भी जानता हूँ ! लेकिन यदि आपका बेटा पढ़ाई पूरी करने के पश्चात हमारा धन नहीं लौटाना चाहे, तब हम क्या करेंगे ? मैड़म, हमें ऐसी किसी परिस्थिति के विषय में पहले से ही सोचना पड़ता है !’’
अधिकारी की बाते सुनकर पूजा को शाखा मैनेजर की चेतावनी का स्मरण हो आया । उसने बताया था कि एजूकेशन लोन के लिए सम्पत्ति गिरवी रखने की आवश्यकता नहीं है, इसलिए बैंक के किसी भी अधिकारी को यह जानकारी न दें कि वह मकान पूजा के नाम पर रजिस्टर्ड है, जिसमें पूजा अपने दोनों बेटों के साथ रहती है। अतः पूजा ने सम्हलते हुए अपना सकारात्म्क पक्ष अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत किया -
‘‘सर, मेरा अपना सिलाई-उद्योग है, मैं अपने बेटे का ऋण चुकाने की गांरटी लेती हूँ !’’
‘‘प्रतिमाह उससे आपको कितनी इनकम हो जाती है ?’’
‘‘सर, लगभग आठ हजार प्रतिमाह हो जाती है !’’
पूजा का उत्तर सुनकर अधिकारी ने अपनी गर्दन हिलाकर संकेत दिया कि वह प्रियांश की शिक्षा के लिए कर्ज स्वीकृत करने पर विचार करेगा । तत्पश्चात् मेज पर से फाइल उठाकर अधिकारी ने पूजा से कहा -
‘‘इनकम टैक्स देते हो ?’’
‘‘नहीं, सर !’’ पूजा ने गर्दन हिलाकर कहा ।
‘‘आय प्रमाण पत्र है ?’’ इस बार भी पूजा ने गर्दन हिलाकर नकारात्मक संकेत दिया, तो अधिकारी ने कुछ सोचने की मुद्रा बनाते हुए अपनी गर्दन पीछे कुर्सी पर टिका दी और आँखे बन्द कर ली। कुछ क्षणोपरान्त जैसे किसी निष्कर्ष पर पहुँचकर पूजा की ओर देखते हुए कहा -
‘‘कल हमारे यहाँ दो व्यक्ति आकर आपका सिलाई उद्योग देखेंगे ! उसके बाद जो भी निर्णय होगा, आपको बता देंगे ! अब आप जा सकते हैं !’’
अधिकारी का उत्तर सुनकर पूजा और प्रियांश बैंक से बाहर आ गये । बाहर आकर उन दोनों ने परस्पर विचार-विमर्श किया और लौटकर घर जाने से पहले पुनः बैंक के शाखा प्रबन्धक से मिलने का निश्चय किया । तत्पश्चात् उन्होंने शाखा प्रबन्धक से मिलकर अधिकारी के साथ होने वाली अपनी प्रत्येक बात का यथातथ्य वृत्तांन्त सुना दिया । पूजा ने यह भी बताया कि किस प्रकार अधिकारी के सहायक ने उन्हें यह कहकर टालने का प्रयास किया था कि उनकी फाइल को नम्बर पर आने में बहुत समय लगेगा, जबकि फाइल उसी मेज पर रखी थी । शाखा प्रबन्धक ने फाइल दबाने के विषय में पूजा द्वारा पिछले दिन कही गयी बात का समर्थन करते हुए कहा -
‘‘कुछ लोग रिश्वत लेने के उद्देश्य से ऋण स्वीकृत करने में विलम्ब करते हैं, ताकि जरुरतमन्द व्यक्ति परेशान होकर स्वयं उनके समक्ष रिश्वत देने का प्रस्ताव रख दे। परन्तु, आपको चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है ! आपका ऋण स्वीकृत हो जाएगा ! ईश्वर पर विश्वास रखो !’’
अपनत्व भरे शब्दों में शाखा प्रबन्धक से आश्वासन पाकर पूजा और प्रियांश अपने घर लौट आये । उन दोनों का चित्त आज फिर बहुत अस्थिर था । जब वे शाखा प्रबन्धक के विषय में सोचते थे, तब चित्त में आशा का संचार होने लगता था । अगले ही क्षण उन पर यह सोचकर नकारात्मकता हावी होने लगती थी कि ऋण स्वीकृत करना शाखा प्रबन्ध्क के अधिकार क्षेत्र में नहीं है, इसलिए ऋण स्वीकृति में शंका है । रात-भर इसी चिन्ता के कारण उनका चित्त इतना अशान्त रहा कि दोनों में से किसी को नींद नही आयी ।
अगले दिन वे प्रातः काल से ही बैंक-अधिकारी के निर्देशानुसार दो बैंक-कर्मियों के आने की प्रतीक्षा करने लगे । शाम के तीन बज गये थे । बैंक से अभी तक किसी प्रकार की कोई सूचना अथवा कोई व्यक्ति नहीं आया था । इससे पूजा की नकारात्मक सोच उस पर और अधिक हावी होने लगी । उसने प्रियांश की ओर देखकर अपनी चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा -
‘‘लगता है, अब कोई नहीं आयेगा !’’
प्रियांश ने सहमति में अपना सिर हिलाया ही था, तभी दरवाजे की घंटी बजी । पूजा ने आगे बढ़कर दरवाजा खोला, तो देखा, दरवाजे पर दो व्यक्ति खडे़ थे । परिचय पूछने पर ज्ञात हुआ कि वे दोनों बैंक की ओर से आये हैं । पूजा ने उन्हें अन्दर बुला लिया और बातचीत होने लगी । उन दोनों व्यक्तियों ने पूजा के सिलाई-उद्योग का निरीक्षण किया और उसके विषय में आवश्यक जानकारियाँ लेकर वापिस जाने लगे। उनके वापिस लौटने से पहले पूजा ने उनसे जानने का प्रयास किया कि उसके बेटे की शिक्षा के लिए ऋण स्वीकृत होने की कितने प्रतिशत संभावना है ? पूजा के प्रश्न का उत्तर उसकी आशानुरूप उनमें से किसी ने नहीं दिया । उन्होंने कहा कि उनका कार्य केवल इतना ही है कि वे अपनी रिपोर्ट अधिकारी को दे । कर्ज-स्वीकृत करना अथवा नहीं करना उनके अधिकारीी का अधिकार- क्षेत्र है ।
अगले दिन पूजा ने बैंक के शाखा प्रबन्धक से सम्पर्क करके उनके अधिकारी की प्रियांश के कर्ज-स्वीकृति के विषय में प्रतिक्रिया जानने का प्रयास किया । परन्तु, वहाँ से उसे तत्काल कोई सन्तोषजनक उत्तर न मिल सका । शाखा मैनेजर ने बताया कि अभी तक उसे अपने अधिकारी की ओर से कोई प्रतिक्रिया प्राप्त नहीं हुई है । जब वहाँ से प्रियांश का कर्ज स्वीकृत होकर आएगा, वे स्वयं प्रियांश को सूचित करके बता देंगे ! परन्तु न तो प्रियांश को तथा न ही पूजा को इतना धैर्य था कि वे घर में बैठकर बैंक के शाखा प्रबन्धक की सूचना की प्रतीक्षा करते ।
प्रियांश प्रतिदिन बैंक में जाकर इस संबध में पूछताछ करता था । लगभग छः-सात दिन पश्चात् प्रियांश ने घर आकर अपनी माँ पूजा को यह शुभ सूचना दे ही दी कि उसकी शिक्षा के लिए बैंक से कर्ज स्वीकृत हो गया है। प्रियांश ने बताया कि बैंक प्रतिवर्ष संस्थान को सीधे ही उसके शुल्क का भुगतान करेगा । प्रियांश के हाथ में बैंक उस धन को नहीं सौंपेगा, जो उसे शुल्क के लिए ऋण के रूप में मिलेगा । पूजा को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी । अतः आवश्यक औपचारिकताएँ पूर्ण करके बैंक के शाखा प्रबन्धक ने यथासमय प्रियांश का शुल्क उसके शिक्षण-संस्थान को भेज दिया और
प्रियांश ने अपना अध्ययन आगे बढ़ा दिया ।
डॉ. कविता त्यागी
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