बहीखाता
आत्मकथा : देविन्दर कौर
अनुवाद : सुभाष नीरव
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एक लेखक की मौत
चंदन साहब चले गए। कुछ दिन उनके धुंधले-से अक्स दिखते रहे। कभी फोन बजता तो लगता कि शायद उन्होंने ही गालियाँ देने के लिए किया होगा। कभी बाहर जाती तो किसी की ओर देखकर लगता कि शायद वही हों। कुछ दिन मुझे अजीब-सी उदासी और एकाकीपन भी महसूस होता रहा। यद्यपि मैं पहले भी अकेली ही थी, पर कुछ गुम हो गया-सा महसूस होने लगा। फिर शीघ्र ही यह सब बिसरने लगा। ज़िन्दगी आम-सी हो गई। यह हादसा जैसे हुआ ही न हो।
चंदन साहब के अंतिम संस्कार के बाद मुझे किसी का फोन कम ही आया। वैसे तो यह सर्दियों के दिन थे और सर्दियों में लोग घरों के अंदर जा घुसते हैं। एक दूसरे से मिलने के अवसर कम ही मिलते हैं, पर जो भी मित्र मिला, उसने चंदन साहब के बारे में कोई बात ही नहीं की। हमारी सभा की बैठकें भी हुईं, अन्य महफ़िलें भी जुड़ीं, पर चंदन साहब गायब ही रहे। मैं सोचती कि उनके अंतिम संस्कार में तो इंग्लैंड भर के लेखक पहुँचे हुए थे, पर अब उसका कोई नाम ही नहीं ले रहा था। दाह संस्कार के समय एक उड़ती-सी बात मेरे कानों में पड़ी थी कि हम तो हरजीत अटवाल के कारण आ गए हैं। बाद में भी किसी ने कहा था कि हरजीत ही फोन करके सबको बुलाये जा रहा था कि आदमी जैसा भी था, पर उसको अलविदा ठीक ढंग से किया जाना चाहिए। अंतिम संस्कार में लेखकों की संख्या देखकर सोचती थी कि पता नहीं अब कितनी उनकी याद में शोक सभाएँ होंगी और पता नहीं कितने मर्सिये लिखे जाएँगे। परंतु ऐसा कुछ भी न हुआ। कभी एक गीत सुना करती थी कि ‘मरों को फूल चढ़ाती है, जिंदों की कीमत कुछ भी नहीं।’ यह गीत मुझे उलटा लगा रहा था। इसकी जगह यहाँ पंजाबी की एक कहावत कहीं अधिक लागू हो रही थी कि ‘खड़े का खालसा’।
अख़बारों या मैगजीनों में भी चंदन साहब के विषय में बहुत कुछ पढ़ने को नही मिला। हाँ, हरजीत अटवाल ने अवश्य एक बेहद भावुक-सा संस्मरण ‘शबद’ पत्रिका में छपवाया था जिसे सुभाष नीरव ने हिंदी में अनुवाद करके अपनी वेब पत्रिका ‘कथा पंजाब’ में प्रकाशित किया। जिंदर ने भी ‘कहाणीधारा’ में उसका रेखाचित्र लिखा। बाद में रजनीश बहादुर ने ‘प्रवचन’ का एक अंक उनके नाम पर निकाला। बाकी सब चुप। इंग्लैंड की लेखक सभाओं में से ‘अदारा शबद’ ने अपना एक प्रोग्राम चंदन साहब को समर्पित किया, पर शेष सभाओं ने चंदन का नाम तक न लिया। भारत में लेखक सभाओं ने तो कुछ करना ही क्या था। चंदन साहब की मौत के बाद मैं दिल्ली गई। बहुत सारे मित्रों से मिली। बहुत सारे फंक्शनों में भाग लिया, पर स्वर्ण चंदन कहीं भी नहीं था। किसी ने भी उसके विषय में बात नहीं की। मानो वह कभी हुआ ही न हो। हाँ, कुछेक मित्रों ने यह अवश्य कहा कि मुझे अपनी आत्मकथा लिखनी चाहिए। इसके अलावा, स्वर्ण चंदन के पुत्र अमनदीप ने भी मुझसे कई बार कहा कि मैं अपने जीवन के बारे में अवश्य लिखूँ। यद्यपि मैंने अपनी आत्मकथा वर्ष 2006 जब स्वर्ण चंदन जीवित थे, से ही लिखनी प्रारंभ कर दी थी, परंतु उसे धीरे-धीरे लिख रही थी कि चंदन साहब यूँ अचानक इस दुनिया से चले गए। पाठक, प्रश्न कर सकते हैं कि मैंने उनके जीवित होते इसे क्यों नहीं छपवाया। जैसा कि मैं कह चुकी हूँ, अभी यह आत्मकथा लेखन-प्रक्रिया में ही थी। आज जब मैं सोचती हूँ कि यदि मैंने इसे पहले प्रकाशित करवा लिया होता तो चंदन साहब के चले जाने के बाद के प्रसंग इसमें शामिल न हो पाते। मैं कई बार चंदन साहब घोर उपेक्षा के कारण खोजने लगती हूँ तो यही उत्तर मिलता है कि इसके कारण तो चंदन साहब के स्वभाव में ही पड़े थे।
चंदन साहब की मौत ने किसी दूसरे पर कोई असर बेशक न डाला हो, पर अलका और अमनदीप पर कई प्रकार की प्रतिक्रियाएँ हो रही थीं। चंदन साहब ने अलका के नाम पर अपनी सारी समपत्ति की वसीयत करा रखी थी। सो, यह उसको ही मिलनी थी। अमनदीप को जायदाद का कोई लालच नहीं था। उसने तो बल्कि चंदन साहब के फ्युनरल का सारा खर्च खुद ही उठाया था। अलका ने इसमें कोई हिस्सा न डाला। मेरी अमनदीप के साथ बाद में बात हुई थी, उसको कोई मलाल नहीं था। दाह-संस्कार तक और बाद में कुछ दिन तो दोनों बहन-भाई के संबंध ठीक रहे। चंदन साहब ने अलका के नाम वसीयत तो कर दी थी, पर अंतिम दिनों में कुछ ऐसा हुआ कि वह इस वसीयत को बदलना चाहते थे। शायद अलका के साथ ही कोई कहा-सुनी हो गई हो। मृत्यु के समय उन्होंने एक छोटा-सा नोट लिख दिया जिसमें उन्होंने अलका के नाम बनाई वसीयत पर एतराज जता कर सम्पत्ति दोनों में बाँट दी। अमनदीप को उस नोट का पता चला तो वह अपना हिस्सा लेने की तैयारी करने लगा। चंदन साहब के दो घर थे जिनमें से एक तो पहले ही अलका के नाम पर था। दूसरे घर की कीमत भी डेढ़-एक लाख पौंड होगी। अमनदीप ने अलका से बहुत कहा कि इस घर में से वह उसको हिस्सा दे दे। यहाँ बात पैसे की नहीं थी अपितु पिता की विरासत का हकदार कहलवाने की थी। अलका परों पर पानी नहीं गिरने दे रही थी। उसे भी चंदन साहब द्वारा लिखे अंतिम नोट की जानकारी थी। वकीलों ने उसको बता दिया था कि इस नोट की कोई अहमियत नहीं थी। अमनदीप ने भी वकीलों के संग परामर्श किया। वकील उसको भी केस जीत लेने का हौसला दिला रहे थे। आखि़र, उसने ऐसे वकील कर लिए जिन्होंने अपने पैसे तभी लेने थे, जब वे केस जीत जाते। उनकी फीस बहुत थी, पर अमनदीप को यही ठीक लगा कि यदि वह केस जीत गया तो फीस दे देगा, नहीं तो न सही। उधर अलका ने भी एक ऐसा ही वकील कर लिया। दोनों पक्षों की ओर से तैयारियाँ शुरू हो गईं। बहुत सारे लोगों के बयान लिए जाने लगे। केस की तारीख करीब आ गई। हालात ऐसे बने कि अमनदीप केस जीतता नज़र आ रहा था। दोनों वकीलों ने आपस में सुलह करके कोर्ट के बाहर ही समझौता करा दिया और घर दोनों में आधा-आधा हो गया। अमनदीप बहुत प्रसन्न था। वह केस जीत गया था। कोर्ट से वह खुश-खुश घर लौटा। वह सोच रहा था कि चलो, और कुछ नहीं तो यदि घर एक लाख पचार हज़ार में बिक गया तो वकीलों की फीस निकालकर करीब सत्तर हज़ार के आसपास तो उसके हाथ आ ही जाएगा। करीब दो दिन बाद वकीलों की फीस वाली चिट्ठी भी आ गई। दोनों पक्षों के वकीलों ने नब्बे हज़ार पौंड फीस के निकाल दिए। सो घर बेचकर पहले उनकी फीस दी जानी थी। सारी खुशी उदासी में बदल गई। घर सेल पर लगाया तो वह डेढ़ लाख में तो क्या बिकना था, कोई एक लाख भी देने के लिए तैयार नहीं था। इसका अर्थ यह कि दोनों पक्षों के हाथ कुछ नहीं आना था।
अंतिम संस्कार के बाद मेरी अमनदीप और सिम्मी के साथ फोन पर अक्सर बातचीत होने लगी। वह कभी कभी मुझसे मिलने भी आ जाते। मैं भी उनके पास जाकर रह आती। मुझे इन बच्चों से अजीब-सा प्यार हो गया था। कई बार मैं विस्मित होकर सोचती कि चंदन के जीवित होते तो मैंने इनके बीच अच्छी तरह बैठकर भी नहीं देखा और अब कई कई रातें इनके यहाँ आकर रह जाती हूँ। अनीश भी मुझे बहुत प्यार करता है। फोन पर कितनी देर तक बातें करता रहता है। कई बार मैं अकेली बैठकर इस नए बने रिश्ते के बारे में सोचने लगती। (रिश्ता तो यद्यपि नया नहीं था, मेरी सोच में सदैव रहता था, पर अब मिलकर बैठने के अवसरों में कोई भाजी मारने वाला नहीं था।) बहुत सोच-विचार के बाद मेरे हाथ यह बात लगती कि शायद मेरे और इनके दुख साझे थे। चंदन साहब की कटु-मधुर यादें साझी थीं। अब भी मैं जब हेज़ अमनदीप के घर जाती हूँ तो हम बहुत सारी बातें चंदन साहब की ही करते हैं। यह बात अलग है कि बातें उनकी ज्यादतियों को लेकर ही होती हैं, पर इनमें से भी हम आनंद तलाश लेते हैं और खूब हँसते हैं। हमारी बातें सुनकर अनीश कई बार खीझने भी लगता है कि बाबा जी की नेगेटिव बातों के अलावा हमें दूसरी कोई बात क्यों नहीं आती। लेकिन कई बार यह भी सोचती हूँ कि दादा के बारे में ऐसी बातें सुनकर बच्चें पर कैसा प्रभाव पड़ेगा ?
कई बार अमनदीप पश्चाताप भी करने लगता है कि यदि मैं उस रात जाकर डैडी को ले आता तो शायद उनकी मौत न होती। फिर वह उसी वक्त कहने लगता कि यदि डैडी हमारे पास आकर रहने लगते तो संभव था कि वह हमारा जीवन नरक बना देते। हम एक दूसरे के साथ सहमत होते हुए कहते हैं कि ऐसी शख़्सियत का ऐसा ही अंत संभव था।
चंदन साहब के पास बहुत बड़ी और बहुत ऊँचे स्तर की लायब्रेरी थी। कई किताबें तो दुर्लभ थीं। उनमें बहुत सारी मेरी किताबें भी थीं। परंतु पूरी की पूरी लायब्रेरी यूँ ही व्यर्थ जा रही है। बहन-भाई के झगड़े ने घर में ताले लगवा दिए थे तो किताबों को किसी ने हवा क्या लगवानी थी। किसी लायब्रेरी वाले ने किताबें मांगी भी थीं लेकिन चाबियाँ अलका के पास थीं और अलका को इसके लिए कौन कहे। चंदन साहब की बहुत सारी अपनी और उनके पसंद की अनेक किताबें उनकी तरह ही गायब हो रही हैं। हालात की दीमक उनको भी खाये जा रही है। चंदन साहब का यह सपना कि वह अपने घर को पंजाबी साहित्य के विद्यार्थियों का मक्का बनाना चाहते थे, बेशक उस समय ही खत्म हो गया था जब उन्होंने पंजाबी भाषा को छोड़ दिया था और ‘प्रवचन’ मैगजीन को जारी रखने के लिए रजनीश बहादुर को पैसे भी भेजने बंद कर दिए थे। पर आज जब उस घर की हालत देखती हूँ कि वकीलों को पैसे देने के लिए उसको सेल पर लगा रखा है, सस्ते दाम में खरीदने के लिए भी उसका कोई ग्राहक नहीं मिल रहा है और जिस घर की एक एक ईंट खाकर वह मरना चाहते थे, आज वही घर खुद ही मिट्टी होता नज़र आ रहा है।
एक दिन मैं इंग्लैंड के पंजाबी उपन्यासकारों के बारे में लेख पढ़ रही थी। देखा कि चंदन साहब का कहीं नाम ही नहीं था। चंदन साहब की मौत के बाद मैंने इंग्लैंड भर में हुए अनेक साहित्यिक कार्यक्रमों में भाग लिया और साथ ही भारत में भी अनेक समारोहों में शिरकत करती हूँ, पर चंदन साहब की कहीं भी कोई बात नहीं हुई। मैं आए दिन इंग्लैंड और दिल्ली के लेखकों के साथ फोन पर बातें करती हूँ, पर चंदन साहब को लेकर कोई भी बात नहीं होती। कई बार हैरान भी होती हूँ कि क्या ऐसे भी किसी लेखक की मौत हुआ करती है ?
(जारी…)