Kahaani kisase ye kahe - 5 in Hindi Moral Stories by Neela Prasad books and stories PDF | कहानी किससे ये कहें! - 5

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कहानी किससे ये कहें! - 5

कहानी किससे ये कहें!

  • नीला प्रसाद
  • (5)
  • साहब ने कार का पिछला दरवाजा उमा के लिए खोल दिया और खुद ड्राइविंग सीट पर बैठ गए। उमा एक बार फिर असहज हुईं। इनका ड्राइवर कहाँ गया? ओह! वह तो पहले ही छुट्टी पर है- उन्होंने खुद को याद दिलाया। पर अंदर उधेड़बुन जारी थी। क्या उन्हें अय्यर साहब को अपने घर के अंदर चलने का निमंत्रण देना चाहिए? चाय के लिए पूछना चाहिए? पर अब तो रात के नौ बज चुके हैं, इतनी रात को चाय के लिए पूछने का मतलब है ही नहीं!!... पर पहली बार घर छोड़ने जा रहे किसी को अंदर आने को नहीं कहा जाए तो अजीब नहीं लगेगा क्या! कॉलोनी के मेन गेट से अंदर घुसकर अय्यर बोले–

    ‘मुझे आपके फ्लैट का नंबर या रास्ता मालूम नहीं है। आप रास्ता बताती चलिए।’

    उमा ने फौरन आदेश का पालन शुरु कर दिया। कई बार दाएँ-बाएँ मुड़ती कार जब घर के सामने आ गई तो वह बोली-

    ‘सर यहीं रोक दीजिए। मैं इसी में पहले तल्ले पर हूँ।’

    कार रुक गई तो उमा संकोच से बोलीं–

    ‘आज तो बहुत देर हो गई है, वरना आपको अंदर आने को बोलती। गुड नाइट सर! किसी दिन आएँ जरूर।’ वह जल्दी से जल्दी अय्यर से पीछा छुड़ाना चाहती थीं।

    ‘किसी दिन क्यों, आज ही चले चलता हूँ।’ उमा को हतप्रभ करते अय्यर कार से उतर गए।

    बच्चों की मेड रोज की तरह खाना पकाकर शाम छह बजे घर जा चुकी थी। बच्चे खाना खा चुके थे और नींद से बेहाल, माँ के इंतजार में जगे हुए थे। माँ की उपस्थिति की आश्वस्ति मिलते ही अपने-अपने बिस्तर पर जाकर तुरंत निढाल हो गए।

    ‘सर, आप कॉफी लेंगे?’ अय्यर साहब का दक्षिण भारतीय मूल और गेस्ट हाउस में साथ पी गई कॉफी याद करते उमा ने प्रस्ताव रखा।

    ‘आप चाहती हैं तो ले लूँगा। वैसे आप पहले बच्चों को सुला लें।’

    ‘सो तो वे खुद ही जाते हैं।’

    ‘क्यों आप कहानी वगैरह नहीं सुनातीं?’ उन्होंने परिहास से पूछा।

    ‘मुझे आती नहीं है।’ उमा ने सच्चाई बयान कर दी।

    अय्यर हल्के-से मुस्कराए और पास पड़ी एक पत्रिका के पन्नों में खुद को व्यस्त कर लिया, मानो उमा को कॉफी बनाने का समय और आदेश दे रहे हों। कुछ मिनटों के बाद उमा कॉफी लेकर प्रकट हुईं।

    ‘लीजिए सर!’ उमा इस बात पर खुश थीं कि कॉफी बनाने को किस्मत से फ्रिज में पर्याप्त दूध मिल गया था। उन्होंने कॉफी के बड़े मग के साथ बिस्किट, नमकीन वगैरह सजा दिए।

    ‘और आप?’ अय्यर साहब ने निहायत ही अनौपचारिक अंदाज में पूछा।

    ‘मैं रात को कॉफी नहीं लेती।’ उमा से यह सुनते ही अय्यर की भौंहें तिरछी हो गईं और होंठ खुलते-खुलते रह गए। कुछ क्षणों की चुप्पी के बाद वे बोले-

    ‘मैंने सुना है कि इन दिनों आपके पति यहाँ आते-जाते नहीं। एनिथिंग रॉन्ग?'

    उनके सवाल और प्रश्नवाचक निगाह पर उमा चुप लगा गईं। पहली बार घर आए अतिथि से क्या, कितना, कैसे कहें?

    ‘क्यों बंद कर रखा है उन्होंने आना-जाना?’ अबकी चिंता जताते हुए पूछा गया।

    ‘आपके कारण। यू आर द रीज़न। आपने घोला है जहर मेरी जिंदगी में।’ उमा एक साथ तीती और असहाय दोनों हो उठीं, पर आँखों में उमड़े चले आ रहे आँसुओं को उन्होंने जबरन रोके रखा।

    ‘ओह, आई ऐम सॉरी। खेद है मुझे। रियली, रियली सॉरी... कि मैं कारण बना। जब हम फील्ड में थे तो मुझे कुछ-कुछ सुनने में आता था, मैंने कभी कान नहीं दिया। क्या आपके पति अफवाहों के आधार पर जिंदगी के फैसले लेते हैं? वेरी फनी, वेरी सैड!!’

    वे चुप लगा गए और एक ही बिस्किट को बहुत देर तक कण-कण करके कुतरते रहे। फिर अचानक बोल पड़े–

    ‘और जहाँ तक मेरा सवाल है तो मैं खुद को सौभाग्यशाली मानता यदि अफवाहें सच हो जातीं! मैं आपको निश्चित तौर पर चाहता रहा हूँ... पर क्या मैंने कभी इंगित भी किया? क्यों नहीं किया? क्या मैं कायर या बेवकूफ हूँ? नहीं। पर समाज है, रिश्ते हैं...इजाज़त नहीं है कि बंधन में बँध चुके दो व्यक्ति उन्मुक्त होकर जिएँ। मन को बाँधे रखने का कायदा निभाना पड़ता है। सोचने पर वही सही भी लगता है... और परिवार द्वारा तय की गई शादी? वह तो एक क्रूर, अमानवीय और संवेदनहीन प्रथा है। जबर्दस्ती की जाती है कि किसी को चाहो- वह तुम्हें अच्छा लगता हो या नहीं। सम्बन्ध बनाए रखने के लिए खुद अपने व्यक्तित्व को तोड़ने की शर्त रखी जाती है। पर मैं इस तरह बोलता गया और आपने रोका नहीं तो मैं रात भर बोलता ही चला जाऊँगा’ , वे भावुक हो रहे थे। कुछ पल रुक कर वे मुस्कराते हुए कह रहे थे- ‘मैं कॉलेज के दिनों में अच्छा डिबेटर था, भाषण खूब दे लेता था। आज भी आपके पति को तर्कों में हरा सकता हूँ। लॉजिक से, युक्तियों से, उदाहरण से समझा सकता हूँ कि वे जो कर रहे हैं, गलत कर रहे हैं। आखिर मैंने अगर आपसे दिल का बंधन महसूसते हुए भी अपनी शादी बनाए रखी है, तो क्यों चाहूँगा कि आपकी शादी टूट जाए? और किसलिए? क्या किया है हमने? इस तरह के तनाव जिंदगी को आखिर कहाँ पहुँचाएंगे?.. न मेरी चाहना रोके से रुकेगी, न आपको नजरों के पास या दूर कर देने से बदल जाएगी.. तो हासिल क्या है?’

    उमा निस्तब्ध सुन रही थीं। कानों से टकराते शब्द मानो किसी दूसरी दुनिया से आ रहे थे पर फिर भी पहचाने-से लगते थे। उनकी अपनी भावनाओं का, अपनी ही सोच का, किसी दूसरे पुरुष के शब्दों में अनुवाद भर थे। आश्चर्य कि उमा मन ही मन हँस रही थीं, खुश हो रही थीं कि अय्यर साहब जैसे कड़क पुरुष को उन जैसी साधारण नाक- नक्श की किसी महिला ने मोह लिया, जिसे उसका अपना पति कभी प्यार कर ही नहीं पाया। पर प्रकट तो वे रो रही थीं- दिखावे के लिए नहीं, दिल के अंदर भरे सचमुच के दुख से। जब अपना पति, सोने जैसा खरा पुरुष खो दिया तो सैकड़ों बार इस्तेमाल में आ चुके इस कमजोर दिल पुरुष को जीत लेने से भी क्या हासिल? इसका दिल, जो समाज के तमाम बंधन महसूसता और स्वीकारता है- ले लेकर भी क्या हासिल! पर उस क्षण का सबसे बड़ा सच यह था कि अय्यर ने उमा को बाहों से घेर रखा था और उमा ने कोई विरोध नहीं किया था। वे होश में थीं ही नहीं। खोई थीं कहीं, बाहों में ले लिए जाने के तथ्य से अनजान, या फिर किसी पुरुष द्वारा बाहों में लिए जाने को तरसी हुई एक स्त्री मात्र थीं वे!! दोनों एक-दूसरे की बाहों में अंदर-अंदर पिघल रहे थे पर उस पिघलाहट में वे दूर तक बहे नहीं। चाहत से चूम लिए जाने से उमा के अंदर उफनती कातरता, उनके दुख गल गए। उनके आँसू अपनी उंगलियों के कोरों पर ले ले रहे पुरुष की बाहों के घेरे में उन्होंने खुद को बहुत हल्का, तनावमुक्त महसूस किया। वे रोती- रोती सोफे पर ही निढाल हो गईं और अय्यर कब उनकी बगल में आकर बैठ गए, उन्हें पता तक नहीं चला। अय्यर शांति से सोफे पर बैठे, उमा को रोती हुई देखते रहे। फिर अपने लिए दूसरे सोफे पर जगह बना लुढ़क लिए। बहुत देर हो गई, आसपास के फ्लैट्स की सारी बत्तियाँ बुझ चुकीं, जब उमा झटके से उठीं। वे ड्राइंग रूम के सोफे पर हैं और अय्यर दूसरे सोफे पर टेढ़े-से लुढ़के बैठे, उन्हें एकटक देख रहे हैं- इस दृश्य से उन्हें तत्काल करंट लगा। दो-तीन बातों ने तीर की तरह उन्हें बेधा। एक– कि बच्चे अगर किसी कारण जागकर यह दृश्य देख लें और अपने पापा को बता दें, तो?? दो– कि अय्यर बिना बताए इतनी रात गए तक अपने घर से बाहर हैं, तो इनकी पत्नी क्या सोचेंगी?.. और तीन– कि वे तुरंत नहीं गए तो कौन जाने पड़ोसी नीचे खड़ी उनकी कार देखकर पहचान लें और फिर...!

    अय्यर की आँखें मुँदी हुई थीं। उन्हें पुकारते उमा को संकोच हुआ पर आधी रात बीत चुकी थी और उन्हें तुरंत वापस भेज दिया जाना जरूरी था। उमा ने पास जाकर, हल्के से छूते हुए जगाकर, अपनी तीनों शंकाएँ जता दीं। स्थिति की नज़ाकत समझ अय्यर ने तुरंत पाँवों में जूते डाले, बाथरूम का रुख करने की सोची, फिर ‘सी यू’ कहते खटाखट सीढ़ियाँ उतर गए। सुबह जब बच्चे जागे, उमा बाथरूम में नहा रही थीं।

    उस दिन उन्हें ऑफिस जाते संकोच हो रहा था मानो उनके होठों, गालों और देह के दूसरे हिस्सों पर लिखी चुंबनों की दास्तान लोग पढ़ लेंगे। पर जाना जरूरी था। उन्होंने दिल कड़ा किया। अय्यर ने बस चूमा भर ही तो था! वे अपनी सीट पर बैठी ही थीं कि पी.ए. आकर पूछ गया कि कल वे ठीक से पहुँच तो गई थीं न! साहब का मूड ठीक तो था? उमा चौंकीं। पर अगले ही क्षण बात साफ हुई कि दरअसल वह ड्राइवर जो कल ड्यूटी से बिना बताए गायब हो गया था, बहुत डरा हुआ था कि कहीं साहब का मूड खराब हुआ तो मेमो दे देंगे।

    ‘अरे नहीं, नहीं। वैसा कुछ लगा तो नहीं! कुछ होगा तो मैं बात कर लूँगी’, उमा ने कहा। फिर भी ड्राइवर डर के मारे, दो बार आकर उमा से माफी माँग गया। कहा कि आगे से कभी शिकायत का मौका नहीं देगा, बस इस बार उसे बचा लिया जाए। उमा मुस्कराईं। आखिर यह समझना कतई गलत नहीं होता कि कल रात जो कुछ भी हुआ, उसका असली जिम्मेदार यह ड्राइवर ही था। न यह काम से गायब हुआ होता, न अय्यर साहब के साथ घर लौटने की नौबत आती, न.. पर जो कुछ हुआ, वह सही हुआ या गलत! वे सोचकर भी तय नहीं कर पा रही थीं। पक्ष और विपक्ष में तर्क और कुतर्क चल रहे थे। पाँच दिन बीत गए। छठे दिन अय्यर ने अपने कमरे के इंटरकॉम से उमा को फोन करके कहा कि उनका परिवार पंद्रह दिनों से बाहर गया हुआ है। परिवार में दो शादियाँ हैं, उसके बाद बच्चे अपनी माँ समेत दादा- नाना से मिलने चले जाएँगे। इसी कारण वे पिछले दो सप्ताह से अच्छा खाना खाने को तरसे हुए हैं। नौकर के हाथ का बना खाना खा-खाकर और शामें अकेले गुजार- गुजारकर बोर हो गए हैं। क्या उमा आज रात डिनर उनके साथ बाहर कहीं लेना पसंद करेंगी? बच्चों के सोने का समय होने से पहले ही वे उन्हें घर छोड़ देंगे। उमा ने मना नहीं किया। साथ ही राहत की साँस ली कि उस रात जब अय्यर ने उनके सोफे पर आधी से ज्यादा रात गुजारी, अय्यर की पत्नी घर पर नहीं थीं। इस तरह उस रात उनके वहाँ होने का पता किसी को नहीं चला- न उमा के घर, न अय्यर के... और आज उनके मिलने का पता भी किसी को नहीं चलेगा- न निरंजन, न अय्यर की पत्नी को! उमा से ‘पैलेस’ में मिलने की बात तय हुई, जो शहर से लगभग बाहर था। ‘ठीक छह तीस पर’- अय्यर ने कहा। उमा सवा छह बजे ही पहुँच गईं ताकि अय्यर के आते ही साढ़े छह से साढ़े सात के बीच खाना निबट जाए और वे आठ बजे तक घर पहुँच जाएँ। अय्यर साढ़े छह बजे पहुँचे और एक नजर यह देख लेने के बाद कि उमा वहाँ हैं, सीधे रिसेप्शन पर जाकर कमरे की चाबी माँगी। उमा चौंकी। उन्हें ऐसी उम्मीद कतई नहीं थी पर वे वहाँ कोई सीन क्रियेट करना नहीं चाहती थीं। बेयरे के ‘चलिए प्लीज’ के जवाब में उठकर पीछे-पीछे चली गईं। लिफ्ट से छठी मंजिल तक पहुँचे और कमरे का दरवाजा खोलकर उनके अंदर आते ही अय्यर ने बेयरे से कहा। ‘खाना हम कुछ देर बाद खाएँगे। तब तुम्हें रूम सर्विस से फोन करके बता देंगे।’ बेयरा विदा हो गया। अय्यर पास आते उसके पहले ही उमा चिढ़ती-सी बोलीं–

    क्रमश...

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