nai chetna - 15 in Hindi Fiction Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | नई चेतना - 15

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नई चेतना - 15



बाबू के सवालों के प्रत्युत्तर में अमर थोड़ी देर खामोश रहा और फिर एक गहरी साँस लेते हुए बोला ” काका ! अब चिंता की कोई बात नहीं है । धनिया को होश आ गया है और वह खतरे से बाहर है । ”

बाबू ने हाथ जोड़कर ईश्वर का शुक्रिया अदा किया और धनिया से मिलने की इच्छा जाहिर की । अमर ने बताया , " धनिया अभी गहन चिकित्सा कक्ष में है जहाँ मुलाकातियों को नहीं जाने दिया जाता । कल शायद उसे सामान्य कक्ष में लायेंगे तब हम लोग उससे मिल पाएंगे । "

बाबू कुछ समझा कुछ नहीं समझा । गहन चिकित्सा कक्ष की क्या आवश्यकता जब वह बिलकुल ठीक थी ? उसे तुरंत ही सामान्य कक्ष में दाखिल क्यों नहीं किया गया ? लेकिन उसके लिए यही समाचार सुखद था कि धनिया अब खतरे से बाहर थी ।

सुबह से अन्न का एक दाना भी अमर के मुँह में नहीं गया था लिहाजा अब उसे भूख भी सता रही थी । धनिया की तरफ से अब वह निश्चिन्त था और यहाँ के इलाज से वह काफी संतुष्ट भी था ।

शायद यह चौधरीजी की पहचान का ही असर था जो धनिया का इतना बढ़िया ढंग से ईलाज हो रहा था । अमर सोच रहा था कि अगर चौधरी जी उसे अस्पताल में नहीं दाखिल कराते तो क्या होता ? अधिक रक्त बहने से कुछ भी हो सकता था । लेकिन भला हो चौधरीजी का ! उनकी दखलंदाजी से उसे बढ़िया उपचार मिला । काश ! हर गरीब को ऐसा ही कोई चौधरीजी जैसा हितैषी मिल जाता !

सरकारी अस्पतालों में सामान्य लोगों से कैसा सलूक किया जाता है इससे अमर नावाकिफ नहीं था ।

बहरहाल अमर ने सरजू और बाबू को ईशारा किया और अस्पताल में ही स्थित कैंटीन की तरफ बढ़ गया । कुछ संकोच से ही सही लेकिन दोनों के पास उसके पीछे जाने के अलावा अन्य कोई विकल्प भी नहीं था । अभी उनकी बात जो अधूरी रह गयी थी ।

भोजन का समय समाप्त हो गया था सो कैंटीन पूरी तरह से खाली पड़ी हुई थी । एक कोने में पड़े ख़ाली टेबल के गिर्द पड़ी कुर्सियों पर तीनों बैठ गए । बेयरे से कुछ खाने के बारे में पूछने पर उसने खाने के लिए कुछ भी उपलब्ध न होने की बात कही ।

कुछ बिस्किट और चाय के लिए कह कर अमर एक बार फिर बाबू से मुखातिब हुआ ” बाबू काका ! एक बात जो मेरे मन में कल से ही खटक रही है आपसे पूछना चाहता हूँ । बहुत सोचा लेकिन मुझे इस बात का कोई जवाब नहीं मिला कि आखिर ऐसी क्या वजह थी कि आप लोग रातों रात गाँव छोड़ आये । किसीको कोई खबर नहीं हुई । क्या हमारे बाबूजी ने कोई धमकी दी ? क्या कोई जुल्म किया ? ”

” नहीं नहीं छोटे मालिक ! बड़े मालिक तो देवता हैं देवता ! अगर मेरे बस में होता तो मैं बड़े मालिक के लिए अपनी जान भी दे देता । भगवान करे मेरी भी उमर बड़े मालिक को लग जाये । शायद आपको नहीं पता है । मैं जब से बीमार पड़ा हूँ मेरी दवाई का पूरा खर्च बड़े मालिक ही उठाते रहे हैं । ”

” किसी को इस बात का पता नहीं चले इसलिए उन्होंने ही धनिया को फैक्ट्री में काम पर रखवाने की सलाह दी थी ताकि लोगो को यह लगे कि धनिया की कमाई से ही मेरे ईलाज का खर्चा निकल रहा है । लेकिन आप तो जानते ही हैं आज आम आदमी कैसे जी रहा है । बड़े मालिक के ढेरों अहसान हैं मुझ गरीब पर । मेहरबानी करके मेरे सामने ही उनपर आरोप मत लगाइए छोटे मालिक ! मैं आपके आगे हाथ जोड़ता हूँ । मुझे नर्क में मत धकेलिए छोटे मालिक ! ”

भावना में बहता बाबू अभी और पता नहीं कितना लालाजी का गुणगान करता कि तभी अमर बीच में ही टोक पड़ा ” लेकिन काका ! इसमे मेरी बात का तो कोई जवाब ही आपने नहीं दिया । ये सारी बातें तो मैं पहले ही जान गया था लेकिन बाबूजी को नहीं बताया था । आप मुझे यह बताइए कि आप गाँव छोड़कर गायब क्यों हुए ? ”

सरजू शांत बैठा दोनों की बातचीत सुन रहा था और अमर के लिए छोटे मालिक का संबोधन सुनकर कुछ हैरान सा अमर की हैसियत का अंदाजा लगा रहा था । बाबू ने एक गहरी साँस ली और बोलने जा ही रहा था कि तभी बेयरा चाय और बिस्किट लेकर आ गया । तीनों ख़ामोशी से बिस्किट खाकर और चाय पीकर कैंटीन से बाहर आ गए और अस्पताल के बाहर ही बने गार्डन में बिछी एक बेंच पर बैठ गए ।

यहाँ बैठते ही अमर ने फिर अपना प्रश्न दुहराया । पैर बेंच पर ऊपर लेकर बाबू ने एक गहरी साँस ली और शुरू हो गया ” परसों रात के लगभग दस बज चुके थे । मैं भोजन करने के बाद दवाई खाकर गहरी नींद सो रहा था ………..

और फिर बाबू यूँ बयान करने लगा जैसे उसके सामने कोई चलचित्र चल रहा हो ….
वक्त रात के लगभग दस बज रहे होंगे । लाला धनीराम पैदल ही रात के घुप्प अँधेरे में हरिजनों की बस्ती की तरफ बढे चले जा रहे थे । अमावस की रात थी । अँधेरा कुछ ज्यादा ही गहरा था । हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था । वातावरण पूरी तरह शांत था । किट पतंगों की अजीब सी स्वरलहरी वातावरण में गूँज रही थी । कभी कभार दूर कहीं किसी सियार के चिल्लाने की आवाज भी शांति भंग कर देती । अमूमन गाँव में लोग अँधेरा घिरते ही खा पीकर जल्दी ही सो जाते हैं । पुरे वातावरण पर अँधेरे का साम्राज्य फ़ैल जाता है । एक छोटी सी टॉर्च के सहारे लाला धनीराम सधे कदमों से बस्ती की तरफ बढे जा रहे थे । बस्ती में दाखिल होते हुए लालाजी काफी उहापोह में थे और आगे बढ़ते हुए उनके कदम डगमगा रहे थे ।

मस्तिष्क में विचारों के अंधड़ चल रहे थे । अँधेरे के साथ ही ख़ामोशी की भी इस साम्राज्य में भागीदारी थी । धीरे से चलते हुए लालाजी बाबू हरिजन की झोपड़ी के दरवाजे पर जाकर रुके ।

पहले तो अंदर की स्थिति का जायजा लेने की कोशिश की लेकिन कोई हलचल नहीं पाकर लालाजी ने धीरे से दरवाजा खटखटाया । कोई जवाब न पाकर उन्होंने पुनः दरवाजा खटखटाया । अबकी उन्हें कुछ हलचल महसूस हुई । थोड़ी ही देर में एक ढेबरी हाथ में लिए दरवाजा खोले धनिया सामने खड़ी थी और बाबू सामने ही जमीन पर लगे बिस्तर से उठने का प्रयत्न कर रहा था ।

” कौन है बेटी ? ” कहते हुए बाबू की आवाज लालाजी पर नजर पड़ते ही उसके गले में फंसी रह गयी ।

लालाजी को देखते ही बाबू न जाने कैसे स्वतः ही उठ खड़ा हुआ और दोनों हाथ जोड़ते हुए लालाजी का अभिवादन किया ” राम राम मालिक ! आप और यहाँ ! इस वक्त ! कौनो काम था तो हमको बुला लिए होते । आप खुद काहें तकलीफ किये ? ” धनिया पहले ही सिर पर पल्लू ठीक करते हुए अंदर की तरफ हो गयी थी ।

” अरे अब अंदर आने भी देगा कि बाहर ही खड़ा रखेगा ? ” लालाजी ने बाबू को अनसुना करते हुए जवाबी सवाल दाग दिया ।

बाबू तुरंत ही सामने से हटते हुए बोल पड़ा ” आइये मालिक ! सब आपका ही तो है । हम अपने खाल का जूता बनवाकर भी आपके पैरों में पहना दें तो भी आपका अहसान नहीं चूका सकते । ”

” बस बस ! अब रहने भी दे बाबू ! अभी पता चल जायेगा कि तू हमारे लिए कितना और क्या कर सकता है ? ” लालाजी ने कमरे में प्रवेश करते हुए कहा था ।
कमरे में पड़े एक टिन के डब्बे पर एक कपड़ा डालकर धनिया ने लालाजी के बैठने का इंतजाम कर दिया था लेकिन लालाजी उस पर बैठे नहीं । अपने गंभीर स्वर में बाबू से बोल उठे ” बाबू ! आज परीक्षा की घडी है मेरे लिए और तुम्हारे लिए भी । ” फिर धनिया की तरफ ध्यान जाते ही बात को घुमाते हुए बोले ” बाबू ! क्या थोड़े समय के लिए तुम मेरे साथ बाहर चलोगे ? एक जरूरी बात करनी है । ”

बाबू तुरंत ही उठ खड़ा हुआ ” क्यों नहीं मालिक ? आप जो हुकुम करें ।”
लाला धनीराम बिना कुछ बोले बाहर निकल गए और पीछे पीछे बाबू उनका अनुुुसरण करते चलने लगा । धनिया ढेबरी हाथ में लीये बड़ी देर तक दरवाजे से टिकी लालाजी की जलती बुझती टॉर्च दूर तक जाते देखती रही । लालाजी और उसके बापु अँधेरे में गुम हो गए थे । धनिया कुछ सोचती हुई सी नीचे ही बैठ गयी ।

क्रमशः