(गतांक से आगे..)
उस अनोखे से गाँव के यह चार बच्चे।
राजू और मुन्ना एक ही कक्षा के छात्र थे। संजू और जीतू उन दोनों से एक-एक कक्षा नीचे...परंतु चारो की मित्रता बड़ी सुदृढ़ थी।
इन बच्चों की गुरुकुल की परीक्षाएं अभी ख़त्म ही हुई थी। उन्हें छुट्टियों की तो जैसे प्रतीक्षा ही थी। गरमी की इन दुपहरियों में आम के वृक्षों से अंबिया तोड़ने की योजना उन चारों ने बना ही रखी थीं। इस बार वे शहर घूमना भी चाहते थे पर उधर शहर की बीमारी ने यह योजना धराशायी कर दी थी।
"हुर्रे...।"
सन्ध्या की चौपाल में कुँए की खुदाई की बात सुनकर वे ख़ुशी से झूम उठे थे।
साधुओं के कहने से अपने माता पिता से भी उन चारों को अनुमति मिल गई। चारों दोस्तों ने उस पुराने सूखे कुएँ की खुदाई का जिम्मा ले लिया। साधु बाबा ने बद्री काका और नट्टू भैया को उनके साथ रहने को कह दिया था। गाँव के लोगों ने उन बच्चों को समझाया--
" अभी बच्चे हो, यह बड़ा मेहनत का काम है, कैसे कर सकोगे..?" परंतु वे माने ही नहीं, जिद पकड़ कर बैठ गए।
गाँव वालों और उनके माता पिता ने भी यह सोचकर अनुमति दे दी कि दो दिन में हार थक कर खुद ही छोड़ देंगे।कहा--
" अच्छा! बद्री और नट्टू के साथ तुम चारो कुएँ में खुदाई करके मिटटी और पत्थर को तगारियो और बाल्टियों में भर देना ...हम सब उसे रस्सियों से ऊपर खींचते रहेंगे।"
बच्चो को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी, वे सब तैयार हो गए।
"ये रही न मजे वाली बात..." राजू मानो प्रसन्नता से फूला नहीं समाता था।
"अब आएगा आनंद... हम सब पूरी मस्ती करेंगे इन दुपहरियों में।" संजू चहका।
" सच में...मैंने तो अपनी कुदाल, कुल्हाड़ी, फावड़ा और तगारी भी तैयार कर ली है।" मुन्ना के मुँह पर भी उल्लास झलकता था।
"मेरे पास भी खुलपी है।"
"खुलपी...?"
मुन्ना ने आश्चर्य से संजू की तरफ देखा।
" अरे...यह जीतू खुरपी कह रहा है।" संजू ने मुन्ना को समझाया।
"अच्छाss..." मुन्ना ने जोर का ठहाका लगाया।
जीतू उन सबमें सबसे छोटा था, करीब तेरह साल का, पर थोड़ा सा तुतलाता भी था। संजू चौदह, मुन्ना पंद्रह और सबसे बड़ा राजू करीब सोलह साल का था।
कल सुबह से काम शुरू करना था...चारों बच्चों को रात भर उत्सुकता और रोमांच के कारण नींद नहीं आई।
इसके पहले कि सूरज उगता...वे चारो तैयार होकर, अपने अपने फावड़ों और कुदाल के साथ कुएँ की ओर चल दिए।
सुबह के अभी पाँच ही तो बजे थे, कभी न थकने वाले साक्षात् देव सूर्य भी अभी निकलने को तत्पर ही हो रहे थे। पूर्व दिशा के आकाश ने सिंदूरी होकर सूर्य के मार्ग में मानो लाल कालीन बिछा दिया था। मंद मंद सुगन्धित हवा से अलोपपुर की सुबह का वातावरण स्वर्ग से भी बढ़कर लग रहा था।
चारो मित्र एक दूसरे को साथ लेते हुए जब कुएँ के पास पहुँचे तो आश्चर्य में डूब गए।
उनको लगा था...इतनी सुबह सबसे पहले पहुँचने वाले वही चारो होंगे पर यहाँ तो सारा मामला ही उल्टा था। उन्होंने देखा--
वहाँ... इतनी सुबह-सबेरे उस कुएँ के पास तो गाँववासियों का मेला लगा हुआ था।
सबसे आगे थे उन सातों गुरुओं में से एक साधु बाबा...छोटा सा कद उनका था, यही कोई चार साढ़े फीट के आसपास। दुबला पतला शरीर भी। वजन यही कोई पैंतीस किलो से अधिक नहीं होगा।
भगवा वस्त्र और चेहरे पर अद्भुत तेज दिखाई पड़ता था। कम बोलने वाले साधु बाबा का गुणों के अनुसार ही नाम भी था...वामन देव।
मुन्ना ने फुसफुसाकर पूछा-
" राजू ! यह क्या हो रहा है?"
" शायद कुएँ का पूजन... " राजू धीरे से बोला।
"हम्म ! आओ देखते हैं।"
वह थोड़ा नजदीक गए। उनका अनुमान सत्य ही था।
"ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः...."
गुरु वामनदेव कुछ मन्त्र बुदबुदाते हुए गंगाजल, अक्षत और पुष्प के साथ कुएँ के चबूतरे की विधिवत पूजा ही कर रहे थे। आसपास लोग हाथ जोड़े खड़े थे। राजू, मुन्ना, संजू और जीतू के माता पिता भी वहीँ थे।
बच्चों के सहायक बद्री हलवाई और नट्टू पहलवान भी अपनी बड़ी कुदालों और औजारों के साथ वहीं थे।
वे चारो बच्चों को देख कर मुस्कुराए और अपने पास आने के लिए हाथों का इशारा किया।
चारो बच्चे चबूतरे के समीप आ गए।
तभी वामनगुरु ने कुछ संकेत किया और नट्टू सहित चार छह लोग आगे बढे।
उन्होंने आगे बढ़कर चबूतरे के मध्य से बड़ी-बड़ी पत्थर की पटिया हटानी शुरू कर दी।
करीब बारह बाई चौदह फुट के आयताकार रखे पत्थरो को हटाने पर अब कुएँ का गोल मुँह साफ दिखाई दे रहा था।
आगे बढ़कर लोगों ने कुएँ में झाँका।
कुआँ काफी गहरा था, उसका तला दिखाई न देता था।
फिर आनन-फानन में ही उसपर पाइप और घिरनी लगाई जाने लगी। जैसे सब कुछ पहले से ही तय कर रखा गया था।
चारों बच्चों को वामनगुरु ने अपने समीप बुलाया।
चारों ने पास आते ही गुरु को प्रणाम किया।
" आचार्य जी प्रणाम !"
गुरु हँसे और आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ उठाया।
" बच्चो! तुम अभी भी अपनी बात पर अडिग हो या विचार बदल गया तुम्हारा...? चलना है खुदाई करने...?"
गुरुदेव ने बारी-बारी से उनके मुख को पढ़ने का प्रयास किया।
" हम सब बहुत उत्साहित हैं आचार्यजी। "
राजू ने कहा तो सभी ने सहमति में अपना सिर हिलाया।
" देखो! कार्य कठिन है। दिन चढ़ते ही गरमी आरम्भ हो जायेगी। अंदर प्राणवायु भी कम हो सकती है।
कई दिन भी लग सकते हैं...महीने भी।"
वामनदेव ने पुनः उनके मुख का बारीकी से अध्ययन किया।
चारो बच्चों के चेहरे पर कार्य की कठिनाई सुनकर कोई प्रभाव नहीं जान पड़ता था। उन चारों को पूरी तरह उत्साहित और तैयार जानकर गुरूजी गाँव वालों की तरफ मुड़े।
" मैं स्वयं भी इनके साथ कुएँ में उतरूँगा।" वामन देव ने कहा।
लोगों को आश्चर्य हुआ..कल तक तो ऐसी कोई योजना नहीं थी, पर गुरुजी के निर्णय पर किसी भी प्रकार की ना नुकुर या प्रश्न का तो कोई कारण ही नहीं था।
" चौधरी ! ध्यान से सुनो कि कार्य कैसे आरम्भ होगा।
आप सब को ऊपर इस स्थान पर रहकर जो कार्य करना है उसे नोट कर लें, किसी भी विपरीत परिस्थिति में घबराने की आवश्यकता नहीं है। मुझे कुछ सामग्री की भी आवश्यकता पड़ेगी।" गुरु वामनदेव ने संजू के पिता को अपने पास बुलाते हुए कहा।
"जी महाराज! हो जाएगा, आप आदेश करें।"
"हाँ गुरूजी! आप सामग्री बताइये...मैं तुरंत मंगवाता हूँ।" चौधरी ने आगे आते हुए कहा।
साधु गुरु वामनदेव ने संजू के पिता को अपने पास बुलाते हुए अपने झोले से एक लिस्ट निकाल कर हाथ में दे दी, जिसे उसने चौधरी कहकर सम्बोधित किया था।
साधु वामन गुरु अब चौधरी के अधिक नजदीक आ गए थे। उसने धीमे स्वर में कुछ बोलना शुरू किया।
चार फुट लंबाई वाले गुरूजी की बात को ध्यान से सुनने के लिए छह फुट लम्बे चौधरी को आधा झुक कर अपने कानों को उनके मुँह के पास ले आना पड़ा।
" इस मेरे कमण्डल को गंगाजल से भरवाकर मँगवा लो। मैं उस जल को अभिमंत्रित करूँगा। साधु ने बड़ा सा कमण्डल चौधरी को थमा दिया।
छोटे कद के साधु के हाथ में वह एक फुट का बड़ा कमण्डल देख कर एक साधारण व्यक्ति अवश्य ही जोर से हँस देता परन्तु वहाँ या तो कोई भी व्यक्ति साधारण ही नहीं था या साधु के प्रति अत्यधिक आदर का भाव ऐसा था कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।
"जी...!"
चौधरी ने सर हिलाया और एक व्यक्ति को बुलाकर तुरंत साधुबाबा का कमण्डल पकड़ा दिया।
एक और बात...वामन साधु फिर से चौधरी के पास आकर मद्धिम स्वर में बोले--
" चारों बच्चों के लिए एक थैले में ढेर सारे भुने हुए चने, गुड़ की डलियाँ, एक चाकू और थोड़ा नमक।"
" जी, हो जायेगा...। "
इस बार चौधरी ने अपनी पत्नी को इशारा किया।
वामनगुरु ने चौधरी को और नजदीक आने को कहा और चौधरी के कान में फिर कुछ बुदबुदाने लगे।
अब तक सामान्य अवस्था में गंभीरता से सुनते जा रहे चौधरी के मुख के भाव अचानक ही बदलने लगे थे।
उसके चेहरे पर आश्चर्य का भाव लहराने लगा था।
वह साधुबाबा को ऐसे देखने लगा जैसे कोई भूत उसके सामने हो।
वामन साधु की बात अभी भी खत्म नहीं हुई थी।
चौधरी के चेहरे को देखने वाले अन्य लोग भी उसके भावों के उतार चढ़ाव को परख रहे थे।
आगे साधु ने न जाने क्या कहा कि हट्टे कट्टे और मजबूत बदन वाले चौधरी के मुख पर घबराहट के लक्षण भी दिखाई देने लगे।
सुबह की शीतलता में भी उसके सारे शरीर ने पसीना उगलना आरम्भ कर दिया था। उसका शरीर अब जोर से काँप रहा था।
वामन साधु ने अपने सीने पर हथेली को रखकर थपथपाते हुए अपना सर हिलाया, शायद उन्होंने चौधरी को कुछ सान्त्वना देने जैसी कोई बात कही जो कोई अन्य व्यक्ति सुन न सका था।
अचानक वामनगुरु ने अपने झोले में से एक आरती करने वाला सात बत्तियों का पीतल का एक बड़ा दीपक निकाल लिया और उसे चौधरी को देकर फिर से उसके कान में कुछ कहा।
चौधरी ने कंपकपाते हाथों से उस दीपक को ऐसे पकड़ लिया जैसे उसे साधु ने कोई जहरीला साँप थमा दिया हो। उसका हाथ सँभालने के बाद भी जोर जोर से हिल रहा था।
चौधरी अभी तक संयत नहीं हो पाया था परंतु वह बड़े आदर और ध्यान से साधुबाबा की बातों को सुन-सुन कर अपनी गर्दन को सहमति में हिलाता जाता था।
बहुत सारे निर्देश दे चुकने के बाद वामन साधु ने आशीर्वाद की मुद्रा में चौधरी के माथे को छुआ और वापस कुएँ की ओर मुड़ गए
चौधरी ने हाथ जोड़ दिए, उसके हाथों और शरीर के कंपन को आसानी से अनुभव किया जा सकता था।
धीरे से बोला- " गुरुदेव! वह मेरा छोटा सा इकलौता बच्चा है।"
वामन गुरु वापस मुड़े।
" चाहो तो अपने बच्चे को...या इन सभी बच्चों को रोक लो...पर रोक नहीं पाओगे, यह कार्य इनके निमित्त ही तय है।"
" ऐसा नहीं है गुरुदेव..."
चौधरी शर्मिंदा लग रहा था।
" मुझपर विश्वास है न...।"
कहकर वामन साधुबाबा धीमे से हँस दिए।
"जी, जी...गुरुदेव।"
एक व्यक्ति गंगाजल से कमण्डल को भरकर आ चुका था।
चौधरी ने आगे बढ़कर गंगाजल से भरा कमण्डल गुरु को थमा दिया और वामन गुरु के चरण स्पर्श किये।
गुरुदेव ने उसके माथे पर अपना हाथ रखा तो चौधरी का काँपता शरीर स्थिर हो गया। उसे स्वयं ही लगा कि उसकी सभी चिंताएँ अचानक ही समाप्त हो गईं हैं।
वामन देव ने और दो बार उसके माथे पर थपकी दी और फिर से कुएँ के पास आ गए।
अचानक ही शेष छः साधु भी वहाँ प्रकट हो गए। सबसे आगे थे ब्रह्मदेव, साक्षात् ब्रह्मा सा दिव्य स्वरुप, गंभीर मुखमुद्रा, श्वेत वस्त्रधारी सबसे लंबा कद लगभग साढ़े छह फीट। चाँदी की तरह सफ़ेद झक लंबी दाढ़ी और वैसी ही मूँछे। कंधों तक बड़े बाल। सब सफेद बगुले की भाँति।
कंधे पर रुपहला दुपट्टा उनके तेज को बढ़ा देता था। वही सबसे वरिष्ठ लगते थे। उनको देखकर ही श्रद्धा से नत होने लगते थे सब।
उनके पीछे छः फुट लंबाई वाले रुद्रदेव्...तगड़ी देहयष्टि के स्वामी थे, यक्ष स्वरुप, पेट थोड़ा निकला हुआ। औघड़ की मानिन्द बड़ी और क्रोध में भरी आँखे ऋषि दुर्वासा का स्मरण करा देती थीं। बड़ी बड़ी जटाओं जैसे उलझे बाल। वस्त्र सफ़ेद ही थे परंतु उतने उज्जवल नहीं और धोती को बहुत सलीके से पहने हुए भी नहीं थे, जैसे ब्रह्मदेव दिखाई देते थे।
उनके पीछे सामान्य से दिखने वाले एक जैसे ही चार साधु थे, लगभग एक जैसी ऊंचाई...साढ़े पांच फीट के आसपास। नाम थे विश्वदेव, अत्रिदेव, वसुदेव और सन्तदेव...। गुरुकुल में शिक्षा देने का अधिकांश कार्य यही चारो करते थे तो गाँव वालों से काफी हिले मिले से लगते थे।
चारों ने ही रक्त वस्त्र धारण किये थे। अधपके बाल। अवस्था ब्रह्मदेव और रुद्रदेव से थोड़ी कम लगती थी। दाढ़ी भी ज्यादा बड़ी नहीं थी। सौम्यता की मूरत। बड़े प्रसन्नचित्त दिखाई देते थे। सभी गांववालों ने उन्हें प्रणाम किया। उस नाटे वामन गुरु ने भी उन सबसे अभिवादन का आदान प्रदान किया।
वामन साधु की बताई सब सामग्री भी चौधरी की पत्नी तब तक ला चुकी थी। तीन बैग थे। काफी सामान था, फल और खाने पीने का भी ।
राजू, संजू और मुन्ना ने बैग अपने पीठ पर लाद लिए। नट्टू और बद्री अपने औजारों, सामानों के साथ पूरी तरह तैयार थे।
कुएँ पर रस्सी और गरारी फिट की जा चुकी थी। वामन साधु ने आसपास के ब्यक्तियों को पुनः कुछ निर्देश दिए और एक बड़ी बाल्टी को कुएं में लटकाया गया।
वामन साधु उस बड़ी बाल्टी में खड़े हो गए। उनके एक हाथ में कमण्डल था और दूसरे हाथ में एक बड़ी से पाँच सेल की टॉर्च।
चार पांच लोगों ने घिरनी के ऊपर उस रस्सी को पकड़ रखा था, वामन देव का वजन था ही कितना ?
वामन देव का संकेत पाते ही उन सभी ने आहिस्ता आहिस्ता रस्सी को ढीला करना शुरू कर दिया।
हल्की गड़गड़ाहट के साथ बाल्टी नीचे उतरने लगी, साथ ही भगवाधारी वामनसाधु भी नीचे कुएँ में उतरते जा रहे थे।
कुछ ही क्षणों में वह नीचे पहुँच गए। कुएँ के तले पर पहुँच कर वह बाल्टी से उतर गए और रस्सी हिलाकर संकेत किया। रस्सी को ऊपर खींच लिया गया।
एक के बाद एक राजू, मुन्ना, संजू, जीतू और फिर बद्री हलवाई, नट्टू पहलवान अपने सामानों सहित कुएँ में उतर गए।
इधर ब्रह्मदेव ने एक बार आकार कुएँ में झाँका और रस्सी खींचने वाले पाँचों आदमियों की तरफ मुड़ कर कहा--
" वे कुएँ की खुदाई करके बाल्टियों को भरते जायँगे, तुम सब बाल्टियों को ऊपर खींच कर इस बैलगाड़ी में डालते जाना। कुएँ की यह मिटटी बहुत ही उपजाऊ होगी। हम इसे खेतों में काम में लेंगे।"
सभी ने गर्दन हिलाकर अपनी सहमति दी।
ब्रह्मदेव ने बचे हुए सभी गाँव वालों को कहा--
" आज से ही हम सब रुद्रदेव जी के प्रतिनिधित्व में वृक्ष लगाने का कार्य करने वाले हैं। दोपहर से यह आरम्भ होगा। आप सब समय पर गुरुकुल में पहुँचे। हम छः साधु और हमारे सहायक जमीन और पौधों की तैयारी अभी से आरम्भ कर रहे हैं। यह औषधियों के और स्वादिष्ट फलों के अतिविशिष्ट पौधे हैं, गुरुदेव रुद्रदेव का अद्भुत चमत्कार आपलोगों की प्रतीक्षा कर रहा है। यदि सकारात्मक मनःस्थिति से यह पौधे लगाए गए तो भविष्य में इसी गाँव नहीं बल्कि पूरे देश के लिए यह चमत्कारिक प्रगति देने वाला समय होगा। हम फिर से सोने की चिड़िया बन जायेगें।"
गाँव वाले ज्यादा कुछ समझ न पाए थे परंतु ब्रह्मदेव की बातों से अचंभित और प्रसन्न अवश्य थे और नित्य कामों से निवृत्त होकर जल्दी से वह सब गुरुकुल पहुंचना चाहते थे।
शीघ्र ही छहों साधु वहां से अदृश्य हो गए।
सभी ग्रामवासी भी वहां से अपने-अपने घरों को वापस लौटे।
संजू के पिता वह चौधरी और उसकी पत्नी तथा राजू, मुन्ना और जीतू के माता पिता अपने बच्चों के बारे में बातें करते हुए अपने-अपने घरों की ओर उदास मन से लौट रहे थे।
वे भी चाहते थे कि कुएँ की शीघ्र खुदाई पूरी हो, उसमें जल प्राप्त हो जाय और हम सबको अपने बच्चे।
उधर कुएँ में वामन गुरु का सबल नेतृत्व शुरू हो चुका था।
यह कुआँ अंदर से भी काफी बड़ा था।
सबने अपना बैग और सामान एक तरफ रखा और गुरुदेव की ओर देखने लगे। शायद उनके आदेशों की प्रतीक्षा थी।
नट्टू और बद्री ! तुम कुएँ की भीतरी दीवार पर स्थान देखकर तीन चार बड़ी कीलें और सरिये ठोक दो जिससे यह सब सामान उसपर टाँग दिया जा सके। राजू और मुन्ना तुम ईशान और आग्नेय दिशा में खुदाई शुरू करो, इधर की मिट्टी पोली और मुलायम दीख रही है। देखो ! कर पाते हो या नहीं।
नट्टू और बद्री सरिये लगाकर सामान टांगने के बाद पूर्व और दक्षिण में तुम्हारे समीप ही खुदाई करने लगेंगे। मैं उत्तर की ओर देखता हूँ। देखते हैं...आरम्भ अच्छा हुआ तो अन्त भी अच्छा ही होगा। संजू और जीतू तुम दोनों खुदाई की हुई मिट्टी को इन बाल्टियों में डालते जाओ।
जल्दी ही बैग और थैले सहित सामान को दीवारों पर टांग दिया गया। टॉर्च को जलाकर उसके ठीक सामने एक दर्पण को ऐसे टांगा गया था कि परावर्तित होकर उसकी रोशनी सब तरफ आ रही थी।
खुदाई का काम चालू था।
बद्री काम करते करते अपनी ही मस्ती में गुनगुना रहा था। कुएँ में उसकी आवाज प्रतिध्वनित हो रही थी।
उड़ जायगा ss...
उड़ जायsगा...
हंस अकेला,
जग दर्शन का ss मेला
जैसे पात गिरे तरुवर के ss