जी-मेल एक्सप्रेस
अलका सिन्हा
35. सवाल-दर-सवाल
“घर पर किसी ने महंगे तोहफों के बारे में आपसे कुछ पूछताछ नहीं की?” मधुकर के इस सवाल पर चरित कुछ पल को खामोश हो गया। चेहरे पर आड़ी-तिरछी रेखाएं उभर आईँ।
“मेरे पिता की जिंदगी उनके ऑफिस तक केंद्रित थी। अफसर बनने की लालसा लिए-लिए ही वे रिटायर हो गए,” चरित का जवाब मधुकर के सवाल से सीधे-सीधे तो नहीं जुड़ता था, मगर उसके भीतर का आक्रोश जरूर इस सवाल के साथ जुड़ा था, “मेरी तरफ उनका ध्यान गया ही नहीं कभी, वे तो हर बात में मुझे नाकारा साबित करने में लगे रहते।”
“नालायक,” चरित ने बताया, “उनका हर वाक्य इसी विशेषण से शुरू और इसी विशेषण पर खत्म होता था ...उलाहनों में छिपी उनकी कुंठा और उनके प्यार को मैं बहुत बाद में समझ पाया।” चरित सुबक पड़ा था।
मेरी आंखों में ट्रेनिंग के दौरान चरित की अपने पिता से फोन पर हुई बातचीत की घटना जीवंत हो उठी थी। पिता के प्यार और विश्वास के अभाव में कोई पुत्र इतने गलत रास्ते की तरफ बढ़ सकता है, यह मैं सोच भी नहीं सकता था। चरित ने कहा कि पिता की उपेक्षा और तानों ने उसके भीतर इतनी नकारात्मक भावना भर दी थी कि वह खुद को किसी लायक ही नहीं समझता था। ऐसे में रूबी मैम का उसके प्रति नरम बरताव उसके भीतर आत्मविश्वास भी जगाता था और खुद को प्यार करने के काबिल भी बनाता था।
‘ग्रोन अप, यानी प्यार के काबिल,’ ऐसा कई जगह लिखा था उस डायरी में जिसे चरित अपनी बता रहा था।
हतप्रभ-सा मैं उस डायरी की हकीकत सुन रहा था जिसका मेरी कल्पना से दूर-दूर तक भी कोई सामंजस्य नहीं बन पा रहा था।
मुझे याद आता है, जब मैं आठवीं-नौवीं में पढ़ता था, तब हमारे अंग्रेजी के मास्टर जी अकसर पढ़ाते समय हमारी क्लास की एक लड़की की सीट के पास आकर खड़े हो जाते और उसकी पीठ पर हाथ फेरते। परीक्षाओं में हमेशा उसके अच्छे नंबर आते। आज देख रहा हूं कि ऐसी ही असुरक्षा तो लड़कों को भी है। इन प्रलोभनों के जरिये गुरु-शिष्य की आदर्शवादी परंपरा को विकृत किया जा रहा है। अगर स्कूल में अच्छे नंबर चाहिये, हेड ब्वाय बनना है, तो टीचर को खुश रखना होगा और टीचर के खुश होने के पैमाने बहुत बदल गए हैं आजकल।
“क्या आपने इस संबंध में अपनी मां से बात करना जरूरी नहीं समझा?” पूछते हुए मधुकर की आवाज लड़खड़ाई थी, मगर तुरंत ही उसने खुद को संयत कर लिया।
चरित ने कहा कि उसने इस बारे में अपनी मां को बताया था, मगर वे उसे एक बच्चे के तौर पर ही देखती रहीं और उन्होंने इसे गंभीरता से नहीं लिया। दोबारा इस बारे में बात कर पाने में वह सहज नहीं हो पाया।
“अपनी महत्वाकांक्षा के चलते मेरे पिता ने देर से शादी की और मैं देर से पैदा हुआ। मेरे कॉलेज जाने तक मेरे पिता रिटायर हो गए थे,” चरित ने बताया कि आगे की पढ़ाई उसने अपने खर्चे से की।
“मेरे पास कमाई का कोई जरिया तो था नहीं, मैं फिर इसी राह पर चल पड़ा। अब तो निगाहें आदमी देखकर ही पहचान लेती थीं कि कहां बात बन सकती है, शायद इसी तरह कविता मैम ने भी मुझे पहचान लिया होगा और मेरी कमजोरियों का सहारा लेकर मेरा इस्तेमाल किया होगा,” वह अपने आप में बुदबुदाया था।
उसने बताया कि कॉलेज में उसकी मुलाकात वृंदा नाम की उस लड़की से हुई जिसके जरिये उसकी जरूरतें पूरी होने लगी थीं।
“मेरा उससे भावात्मक रिश्ता नहीं था, मगर मुझे जब भी पैसों की जरूरत होती, मैं उसकी ख्वाइश पूरी कर दिया करता। सब कुछ ठीक-ठाक चलने लगा था, मगर...” चरित फिर ट्रांस में जा रहा था।
वह उस रात की बात बता रहा था जिस रात वह बलात्कार की शिकार, अपनी मित्र नैना के पास रुका और जिसके माध्यम से वह ‘वर्जिन’ होने का मतलब समझ पाया। उसने महसूस किया कि चारित्रिक पवित्रता और दृढ़ता लड़कों के लिए भी समान रूप से मूल्यवान है।
उस रोज चरित को अहसास हुआ कि वह अब तक कुंठित स्त्रियों की हवस का शिकार बनता रहा। इस बात से वह इतना आहत हुआ कि उसे स्वयं से घृणा हो गई।
चरित ने कबूल किया कि एक लंबे समय तक वह अपने प्रति घोर निराशा और उपेक्षा के भाव से गुजरता रहा।
‘‘मेरे भीतर का दबाव मुझ पर हावी होने लगा, जबकि नैना दबावों से मुक्त होकर बहुत सहज हो गई थी,’’ चरित कह रहा था कि वह इस बात से तो संतुष्ट था कि वह नैना के सहज जीवन के लिए माध्यम बना था, मगर खुद भी अपने भीतर के दबाव से बाहर निकलने के लिए छटपटाने लगा था।
चरित ने बताया कि नैना ने उसे फेथ नाम की संस्था से जोड़ा जिसके प्रभाव से उसके भीतर सामान्य जीवन जीने की ललक पैदा हुई।
‘‘फेथ में हमें सिखाया गया कि हम अपनी कामनाएं एक डायरी में लिख लें और उनके लिए प्रार्थना करें। कामना पूरी होने के बाद उसे काट दें ताकि यह विश्वास बन सके कि हमारी हर कामना एक-एक कर पूरी हो रही है...’’
चरित ने बताया कि उसकी सबसे बड़ी कामना अपने भीतर के दबाव से मुक्त होने की थी। इसी क्रम में उसने अपने गुमराह जीवन का लेखा-जोखा इस डायरी के हवाले कर दिया और अपने जुर्म का इकरार करते हुए अपने कृत्यों के लिए माफी मांगी।
मैं जैसे चेतनाशून्य हो गया।
‘कन्फेशन’ शीर्षक से हुई इस डायरी की शुरुआत मेरे कई सवालों का अकेला जवाब थी। मुझे यह भी ध्यान आता है कि सारी डायरी ‘पास्ट टेंस’ यानी भूतकाल में लिखी गई है।
तो क्या यह सच में चरित की ही डायरी है?
मैं अपनी कल्पनाओं से बाहर निकलकर यथार्थ में आ खड़ा था।
मेरे रचे दृश्य परोक्ष में चले गए थे, आंखें क्वीना की जगह चरित को देखने की कोशिश कर रही थीं...
चरित के माध्यम से मैं कभी विगत तो कभी वर्तमान की दूरियां तय कर रहा था, क्वीना और चरित के बीच का अर्थ-अनर्थ तौल रहा था, ख्याल और हकीकत के साथ जूझ रहा था...
‘‘मैं जिंदगी को नए सिरे से शुरू करना चाहता था...’’ चरित की आवाज में अभी भी हताशा थी। वह कह रहा था कि अपनी इन्टर्नशिप के दौरान जब वह इस दफ्तर में आया तो देखा, यहां भी रास-रंग का वही खेल चल रहा था।
इस दफ्तर में आने के बाद उसने पाया कि इस तरह का भटकाव केवल किसी व्यक्ति के निजी जीवन तक सीमित नहीं है, यह तो समूचे समाज को भटकाव की तरफ लिए जा रहा है।
“बड़ी अधिकारियों की भूख शांत करने के ऐवज में पूर्णिमा लड़कों को एक घंटे के दस हजार तक की रकम देती थी।”
चरित ने बताया कि इस काम के लिए पूर्णिमा ने बाकायदा एक रणनीति तैयार की हुई थी जिसके तहत वह ट्रेनिंग पर आए नवयुवकों को किसी विषय पर चर्चा करने के बहाने से बड़ी अधिकारियों के सामने करती थी। फिर अधिकारियों की पसंद मुताबिक पूर्णिमा आगे का बंदोबस्त करती थी।
“स्थाई नौकरी और मोटी रकम का लालच अच्छे-अच्छे लड़कों को झुका देता था।”
चरित बता रहा था कि लंबे समय से चल रहे इस धंधे से पूर्णिमा ने भारी रकम कमाई थी और अच्छी-खासी प्रॉपर्टी तैयार कर ली थी। उसके गिरोह में ऐसे कई नौजवान लड़के शामिल थे जो पूर्णिमा के आदेश पर किसी भी समय हाजिर हो जाते।
पूर्णिमा के नजदीक जाने पर उसने यह पाया कि मेल-प्रॉस्टीट्यूशन का एक तगड़ा रैकेट यहां काम कर रहा है, जिसमें बड़ी-बड़ी महिला अधिकारी शामिल हैं। ऐसे में नौकरी के लालच में भटक रहे युवकों को इस चंगुल से बचा पाना और भी मुश्किल था।
पूर्णिमा पर बड़ी-बड़ी अफसरों का वरदहस्त था। उसे आसानी से घेरा नहीं जा सकता था। अपने प्रॉजेक्ट के दौरान वह पूर्णिमा और उसके गैंग का भली प्रकार अध्ययन करता रहा। पूर्णिमा की कार्य-प्रणाली और उसके खास अड्डों के बारे में सबूत इकट्ठा करता रहा। फिर पुलिस की मदद से उसके दफ्तर और दूसरे अड्डों पर छापा मारा गया जिसमें सारा खेल दुनिया के सामने उजागर हो गया।
क्या मतलब? मेरे दिमाग की नसें झनझना रही थीं, सोचने-समझने की शक्ति शून्य हो चुकी थी।
तो क्या चरित ने ही पुलिस को इस सारे कारनामे की जानकारी दी थी?
इसीलिए मधुकर उसकी हर बात को इतनी तरजीह दे रहा था, मगर साथ-साथ इस बात की जांच भी बराबर जारी रखी थी कि वह किसी को गलत तो नहीं फंसा रहा, या फिर कुछ छुपा तो नहीं रहा... छापे के दौरान मेरी दराज से मिली इस डायरी ने भी केस को एक नया मोड़ दे दिया।
मेरी आंखों पर पड़ा परदा पूरी तरह उठ चुका था।
चरित को अधनींदी-सी अवस्था में छोड़, मधुकर मेरे सामने आ खड़ा हुआ।
‘‘और कुछ जानना चाहते हो, कवि जी?’’
‘‘इससे पूछो कि वह अपने नाम की जगह ‘क्यू’ क्यों लिखता है?’’
‘‘यह क्यू नहीं, सीपी है, चरित प्रधान... ध्यान से देखो, सीपी को एक साथ लिखो तो क्यू जैसा दिखता है।’’
मैंने मन ही मन उंगली घुमाकर देखा, मधुकर ठीक कह रहा था।
सारा तूफान थम चुका था। शक की कहीं कोई गुंजाइश नहीं थी। अजीब-सी थकन पोर-पोर में उतर आई थी। डायरी का सच और चरित की हकीकत आईने की तरह आमने-सामने खड़े थे।
“क्या सोच रहे हो?” मधुकर मेरी आंखों में अपना अक्स टटोल रहा था।
“सोच रहा हूं, शरीर की भूख क्या सचमुच इतनी बड़ी होती है?”
“यह भूख शरीर के जरिये जरूर पूरी की जाती है मगर यह शरीर की भूख नहीं है।” मधुकर अपनी कुरसी पर निढाल होकर बैठ गया, “भावात्मक लगाव के बिना अनजान व्यक्तियों के साथ बनाए गए संबंधों से तात्कालिक भूख तो मिट जाएगी मगर स्थाई भूख बनी रहेगी।”
मधुकर के चेहरे पर गहरी थकावट के निशान थे, उसकी आंखों में कई रातों का उनींदापन हावी हो रहा था।
‘‘तुम्हें आराम की जरूरत है दोस्त।’’ मैं उठ खड़ा हुआ।
मधुकर भी मेरे साथ खड़ा हो गया। उसने मेज पर रखी डायरी उठा ली।
‘‘यह एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है दोस्त। इसे दोबारा पढ़ो, फिर से गढ़ो...’’ मधुकर ने वह डायरी मेरे हाथों में थमा दी, ‘‘इस बार नए नजरिये से पढ़ना... और ऐसे लिखना कि चरित और मधुकर जैसे लड़कों की पीड़ा को पहचान मिल सके। जो मैं आज तक अपनी मां को नहीं बता पाया, उस दर्द को जबान मिल सके...’’
मैंने डायरी लेकर अपने कलेजे से लगा ली।
एक नई तरह की जिम्मेदारी और निष्ठा के साथ मैं दफ्तर की ओर लौट गया।
दफ्तर में सभी अपने कामों में व्यस्त थे।
मिसेज विश्वास और सोनिया के बीच पहले की तरह सवालों-जवाबों का सिलसिला जारी था, धमेजा बेबात ही ठहाके लगा रहा था...
सभी कुछ वैसा ही था, मगर मेरी नजर उसे नई तरह से देख रही थी। किरदार वही थे, दुनिया वही थी, मगर कहानी बदल गई थी...
छुट्टी का समय हो चला था। डायरी की शक्ल में एक नई दुनिया का अक्स, अपने हाथों में समेटे मैं दफ्तर से बाहर निकल आया।
गाड़ी की डैश बोर्ड के नीचे की पॉकेट खोलकर मैं डायरी वहां रखने लगा तो पाया, वैसी ही एक डायरी वहां पहले से मौजूद थी। मैंने हड़बड़ाकर उस डायरी को बाहर निकाला। हमशक्ल जुड़वां बहनों-सी ये दोनों डायरियां मेरे हाथों में थीं।
क्या मतलब? दिमाग चकरघिन्नी-सा घूम गया।
ध्यान आया, उस रोज इसी पार्किंग में गाड़ी खड़ी कर जब मैं डायरी निकालने लगा था, तभी डायरेक्टर साहब के ऑफिस से मजूमदार वाले केस की फाइल लेकर हाजिर होने का फोन आ गया था।
यानी दरियागंज से लाई डायरी तो मैंने अभी यहां से निकाली तक नहीं।
तो फिर मैं कौन-सी डायरी पढ़ता रहा?
और यह डायरी मेरे पास कैसे आ पहुंची?
मगर सवाल जितने बड़े थे, जवाब उतने मुश्किल न थे।
चरित अकसर अपनी कुरसी मेरी कुरसी के साथ लगाकर मुझसे काम सीखता-समझता था।
अब बात मेरी समझ में आ रही थी।
यानी जिस कथा को मैं पढ़ रहा था, उसका नायक बार-बार मुझसे टकराता रहा, उसका असल मेरी आंखों के आगे साक्षात् प्रस्तुत था, मगर मेरी निगाहें उसे पहचान नहीं पाईं।
धुंधलका छंट गया था... आंखों को नई दृष्टि मिल गई थी...
डायरी के पात्र नई भूमिकाओं के इंतजार में मेरे सामने खड़े थे, ‘‘हमें फिर से पढ़ो, हमें फिर से गढ़ो...’’
मैं शिराओं में हरकत महसूस कर रहा था...
‘‘इस बार नए नजरिये से पढ़ना... और ऐसे लिखना कि चरित और मधुकर जैसे लड़कों की पीड़ा को पहचान मिल सके। जो मैं आज तक अपनी मां को नहीं बता पाया, उस दर्द को जबान मिल सके...’’ डॉक्टर मधुकर की आवाज कानों में गूंज रही थी।
एक मकसद शक्ल अख्तियार करने लगा था...
(समाप्त)
* अलका सिन्हा
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