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बाली का बेटा
बाल उपन्यास
राजनारायण बोहरे
जामवंत के किस्से
जामवंत कई किस्से सुनाते हैं बाली महाराज के। उन्होंने अपनी राजधानी पम्पापुर की सुरक्षा के लिए नगर के चारों ओर एक बड़ी चहार दिवारी बनबाई थी। जिसमें चार दरवाजे थे। चारों दरवाजे रात को दियाबाती के समय बंद कर दिया जाता और सुबह सूरज उदय होने के एक पहर बाद ही खोला जाता। भीतर आने वाले की पक्की जांच की जाती। हर दरवाजे पर सौ-सौ सैनिकों की टुकड़ी रखी जाती थी। इन सैनिकों को सेना में से बहुत चुन कर रखा जाता था, क्योंकि यहाँ हरेक को अच्छा तीरंदाज, कुशल तलवारबाज और देश-विदेश के बारे में अच्छी जानकारी रखने वाला होना जरूरी थी।
इस के बाद भी बाली ने हर बार कोई न कोई धोखा खाया या यूँ कहें कि अपने सारे सुरक्षा बंदोबस्त ध्वस्त पाये। जैसे एक बार की बात है कि जब बाली गर्मियों की लम्बी यात्रा से लौट कर पम्पापुर आये, तो उन्होने राजधानी की चहारदिवारी के मुख्य प्रवेशद्वार पर अपने राज का निशान सूरज के गोले वाला पीला झण्डा लगा नहीं पाया बल्कि वहाँ कोई और झण्डा फहराता हुआ देखा । बाली ने मुख्यद्वार पर खडे अंजान सैनिकों से झण्डा बदल जाने का कारण पूछा तो पता लगा कि इस बीच बाणपुर के राजा बाणासुर ने पम्पापुर पर हमला करके राजधानी पर अपना कब्जा कर लिया है।
बाली ने यह सुना तो न उन्हे दुख हुआ, न कोई चिन्ता। उन्होने जामवंत जी को दूत बना कर पम्पापुर के राजमहल पर कब्जा जमाये बैठे बाणासुर के पास अपना संदेश भेजा। वे नहीं चाहते थे कि सेनाओं में रण भूमि में युद्ध हो और निरपराध सैनिक मारे जायें। इसलिए उचित होगा कि न्याय की रक्षा करते हुए किष्किंधा राज्य उन्हें बिना खून बहाये वापस लौटा दिया जाय। यदि बाणासुर को अपनी ताकत का कुछ ज्यादा ही घमण्ड है तो वे खुद अकेले बाहर चले आयें और बाली से कुश्ती लड़ कर हरा कर दिखायें । बाली ने वचन दिया था कि अगर वे हार गये तो पम्पापुर छोड़ कर वापस लौट जायेंगे । पम्पापुर का राज्य बाणासुर संभालते रहें, बाली सबकुछ भुला देंगे।
जामवंत से बाली का समाचार सुना तो बाणासुर गुस्से और अभिमान में भरा हुआ पम्पापुर के बाहर चला आया । दोनों अपनी जांघ ठोंक कर एक दूसरे को कुश्ती के लिए ललकारने लगे थे। बाणासुर एक महाबली थे तो बाली भी बहुत ताकतवर थे । बाली के पास एक खास कला थी कि वे कुश्ती लड़ते हुए जब सामने वाले को पकड़ लेते, तो मानों सामने वाला व्यक्ति उनसे चिपक सा जाता था। लाख जतन करने पर दूसरा पहलवान उनसे छूट नही पाता था। इसी कला का लाभ उठा कर बाली हर बार अपने जोड़ीदार को हरा डालते। लोग कहते कि बाली को यह एक वरदान है कि जो उनसे कुश्ती लड़ने आयेगा उसका आधा बल खिंच कर बाली के बदन में चला आयगा, और इस तरह बाली अपने सामने वाले जोड़ीदार से डेढ़ गुने बल के साथा लड़ेंगे। जामवंत बताते हैं कि ऐसा कुछ न था बाली के पास कुश्ती की यही एक खास कला थी और इसी कला से उन्होंने बाणासुर को हरा दिया था और जमीन पर पटक दिया ।
बाली की एक बड़ी कमी थी कि वे जिससे चिढ़ जाते उसससे बहुत कटु वचन बोलते थे । उन्होंने बाणासुर को खूब खरी-खोटी सुनाईं। फिर उसे एक रस्सी से बाँध कर अपने साथ लेकर पम्पापुर में प्रवेश किया। अपने राजा को बंधा हुआ देख कर बाणासुर की सेना सिर पर पाँव रखकर भाग निकली । पम्पापुर के महल में खास तौर पर बनायी गई जेल में बाणासुर लम्बेसमय तक कैद रहा। लोग बताते हैं कि बाणासुर के बदन में दूसरों की तरह दो नहीं , नन्ही-नन्ही हजार भुजायें थीं, जो देखने में अजीब लगती थीं । ऐसे अजीब से जीव को देखने के लिए पम्पापुर के निवासी रोज ही राजमहल में चले आते थे।
दो से ज्यादा भुजायें तो लंका के राजा रावण की भी बताई जाती हैं, उसने भी ऐसी ही शरारत की थी।
एक बार बाली पन्द्रह दिन के लिए पम्पापुर से बाहर निकले तो लौटकर उस बार उन्होने लंकाधिपति रावण को पम्पापुर में कब्जा जमाये देखा। फिर क्या था कुपित बाली ने रावण को अपने साथ कुश्ती के लिए ललकार दिया । अपनी ताकत का घमण्ड रावण को भी कुछ ज्यादा ही था सो वह बेहिचक ताल ठोंकता पम्पापुर के बाहर चला आया। बाली ने अपने खास दांव से लंकेश रावण को पकड़ा और दांये हाथ के नीचे कांख में दबा लिया। रावण ने बहुत ताकत लगाई लेकिन अपने आपको छुटा नहीं पाया बल्कि उसका दम घुटने लगा तो उसने अपनी हार मान ली। लेकिन बाली नहीं माने उन्होने कांख में रावण को दबाये हुये ही वहां से घसीटता हुए अपने महल की ओर ले चले थे। सड़क पर घिसटते रावण का ऐसा अपमान भरा नजारा देख कर पम्पापुर में मौजूद रावण के सारे सैनिक व सुभट डर गये थे, और पम्पापुर छोड़कर भाग निकले थे। रावण भी लम्बे समय तक बाली की कैद में रहा और पम्पापुर निवासियों के लिए हंसी का विषय बना रहा था।
बाद में रावण के पिता के पिता पुलस्त्य मुनि जो संसार के बड़े विद्वान और सम्माननीय व्यक्ति थे उन्होने ाम्पापुर आकर बाली से निवेदन कर रावण को उस कैद से छुटकारा दिलाया था। रावण को छोड़ तो दिया लेकिन बाली अपनी आदत से बाज नहीं आये। उन्होने पुलस्त्य मुनि को बड़ी कड़बी बातें सुनाना शुरू कर दीं उम्र से बहुत बूढ़े हो चुके रावण के दादाजी ने इस बात का बुरा नहीं माना । उन्होने हंसते हुए बाली से कहा था, ‘‘ बेटा बाली, तुमने कसरत करके अपना बदन खूब ताकतवर बनाया है, यह अच्छी बात है। ईश्वर तुम पर कृपा बनाये रखे। लेकिन तुम इस तरह कड़बे वचन मत बोला करो।’’
बाली पर ऐसे उपदेशों का कोई असर नही पड़ता था। उनके लिए संसार में अपने यश या अपयश का महत्व न था। वे अपने बदन का बड़ा ध्यान रखते थे। खूब डट कर खाते। खूब कसरत करते। यही सब करने के लिए वे सुग्रीव से कहते थे।
हां, चाहे बाणासुर की घटना हो या रावण की बाली ने ज्यादा परवाह नहीं की।
ऐसी घटनाओं के बाद बाली अपने छोटे भाई सुग्रीव को जरूर खूब डांटते थे, जिन्हे वे अपने पीछे पम्पापुर का किलादार बना कर जाते थे। लेकिन जो बाली के न रहने पर इतने भयभीत रहते थे कि अंजान दुश्मन को सामने देखते ही उससे डर के हर बार किला सोंप देते थे। बाली जीत कर लौटते तो सुग्रीव हर बार अपने बड़े भाई से गिड़गिड़ा कर क्षमा मांगते थे और बाली उन्हे माफ भी कर देते थे।
एक बार बड़ी अजीब घटना हुई।
दुंदभि नाम के एक योद्धा ने पम्पापुर में आकर चौराहे पर खड़े होकर जब बाली को कुश्ती लड़ने की चुनौती दी तो बाली एक लम्बी हुंकार के साथ उसके साथ भिढ़ बैठे थे । अपनी उसी खास कला या दांव के सहारे उन्होंने दुंदभि को थोड़ी ही देर में हरा दिया। लेकिन दुंदभि ने पम्पापुर में बाली को चुनौती दी थी इस कारण नाराज बाली ने अपने हारे हुए प्रतिद्वंद्वी को यूं ही न छोड़कर अपने कंधे पर लादा और राजमहल के ऊपर चढ़ गये थे फिर वहां उन्होने दुंदभि को लादे-लादे ही तेजी से चकरी की तरह कई चक्कर काटे और एक हुंकार के साथ उसे दूर पहाड़ों की ओर उछाल दिया था।
उस पहाड़ पर सात ताड़ वृक्ष थे जिनसे टकरा के दुंदभि का शरीर नीचे गिरा तो चट्टानों से टकरा के उसके चिथड़े-चिथड़े उड़ गये थे और इन चिथड़ों से उछला खून आस पास के इलाके में फैल गया था।
लोग कहते हैं कि वहाँ कुछ मुनि लोग तपस्या कर रहे थे, जिनके ऊपर इस खून के छींटे पड़े तो वे गुस्सा हो बैठे थे और उन्होंने शाप दी थी कि बाली कभी भी इस जगह पाँव नहीं रख सकेंगे, जिस दिन वे यहां पाँव रखेंगे उनके सिर के सौ टुकड़े हो जायेंगे। कोई कहता है कि ताड़ वृक्षों के नीचे बाली के इष्ट देवता सूर्य का एक मंदिर था जिस पर दुंदभि का खून बुरी तरह फैल गया था और बाली इस बात से इतने दुखी हुए थे कि उन्होंने जिंदगी भर ताड़ वृक्षों वाले उस ऋष्यमूक पर्वत पर ना चढ़ने की कसम खाई थी। हालांकि कुछ लोग दबे स्वर में यह भी कहते हैं कि ऋष्यमूक पर्वत पर इस तरह खून से भरी लाश फेंकने के कारण वहाँ रहने वाली वनवासियों की एक दूसरी जाति के योद्धा बाली से नाराज हो गये थे और उन्होंने बाली को चुनैाती दी थी कि जिस दिन वे पर्वत पर आ गये उसी दिन मार दिये जायेंगे। वनवासी लोग मिलजुल कर रहा करते थे, सो बाली उस पर्वत से हमेशा दूर रहा करते थे।
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