Moods of Lockdown - 15 in Hindi Moral Stories by Neelima Sharma books and stories PDF | मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन - 15

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मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन - 15

मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन

कहानी 15

लेखक: अमरेंद्र यादव

बीमारी के दो दिन

चाय की तलब उसे किचन में खींच लाई. बड़े दिनों बाद इच्छा हुई थी, क्यों न उबली हुई चाय पी जाए. उबली चाय का मेघना कनेक्शन होने की वजह से उसने उसके जाने के बाद ग्रीन टी से नाता जोड़ लिया था. ख़ैर, उसने खौलते हुए पानी में चाय पत्ती डाली. फ्रिज में अदरक तलाशा. यहां-वहां देखने के बाद एक कोने में अदरक का डिब्बा दिखा. सूखा हुआ अदरक उबलते पानी में घिसकर डालने लगा.

‘साहब पौधों का ध्यान रखना. बड़े प्यार से हमने इन्हें बड़ा किया है.’ फ़ोन पर रतन की आख़िरी हिदायत उसके दिमाग़ में गूंजती है. उबलती चाय में दूध डालने के बाद छोटे-से बकेट में पानी लेकर ड्रॉइंग रूम की गैलरी में चला गया. कुम्हला रहे पौधों को देखकर एक बारगी आत्मग्लानि से भर गया. सूख रहे पौधों से ज़्यादा वह यह सोचकर सिहर जाता है कि रतन को क्या जवाब देगा. रतन उसका रसोइयां, हाउसकीपिंग स्टाफ़ और सलाहकार भी है. वह साथ ही रहता है इसलिए थोड़ा मुंह लगा है. लॉकडाउन से तीन दिन पहले यह कहकर निकला था कि,‘परिवार को देख आता हूं. बड़ी याद आ रही है.’ परिवार के बारे में सोचते ही उसका मन अजीब-सा कसैला हो आया.

उसने तीन गमलों में ही पानी डाला होगा कि उसे याद आ गया कि चाय उबल रही होगी. चौथे गमले में पानी डालने के बाद वह तेज़ी से किचन की ओर बढ़ा, पर उसके पहुंचने तक वह हो चुका था, जिसका डर था. चाय उबलकर बर्तन से बाहर आ चुकी थी. चाय बनाने की आदत छूट चुकी थी, पहले मेघना के लिए चाय बनाया करता था. उसे समय का जजमेंट ही नहीं रहा कि कितने समय में चाय उबलकर बाहर आ सकती है. इसी तरह की परेशानी उसने शादी के बाद के शुरुआती दिनों में फ़ेस की थी, तब भी अक्सर उसकी चाय उबलकर बाहर आ जाया करती थी. पर धीरे-धीरे वह चाय का बर्तन चढ़ाकर दूसरे काम निपटाकर उबाल आने के ठीक पहले किचन में वापस पहुंचने में निपुण हो गया था. उसे इस बात पर गर्व भी था. प्रैक्टिस छूटने पर क्या होता है, उसे समझ आया.

उसने किचन की खिड़की में सूख रहे पोछे से, जो सूखकर कड़क हो चुका था, से गैस साफ़ किया. चाय बहकर गैस के नीचे जा चुकी थी. उसने वहां भी साफ़-सफ़ाई की. बर्नर पर गिरी चाय को पोंछने के लिए बर्तन पर हाथ रखा कि अचानक दर्द से बिलबिला पड़ा. गर्म बर्नर छूने से उसका हाथ जल गया था. सिंक का नल खोलकर पानी हाथों को पानी के नीचे रख दिया. कुछ सेकेंड्स बाद दोबारा पोछा लेकर गैस के बर्नर को साफ़ करने में लग गया. थोड़ी-सी चूक से कितना काम बढ़ जाता है. छोटी-सी ग़लती को समेटना कितना मुश्क़िल होता है. उसने देखा पोंछने के बाद गैस का चूल्हा पहले से ज़्यादा चमक रहा है. फिर सोचा, काश हम अपनी पिछली ज़िंदगी को इतनी आसानी से पोंछकर चमका सकते!

***

वह चाय लेकर ड्रॉइंग रूम में चला आया. टीवी ऑन कर लिया. बाय डिफ़ॉल्ट उसकी उंगलियां न्यूज़ चैनल पर जाकर ठहरीं. नीचे बदल रहे कोरोना के स्कोर ने उसका मूड ऑफ़ कर दिया. समाचार पढ़ रहे ऐंकर के लहज़े में दुख होना चाहिए था, पर उसमें एक तरह का जोश अब भी है. उसे उसका लहज़ा इरिटेटिंग लगता है. वह चैनल चेंज करता है. दूसरे चैनल पर भी लाल डिब्बों में वही स्कोर और उसी जैसा जोशीला ऐंकर… वह एक बार फिर चैनल बदलता है. वहां भी डर का रिपीट टेलीकॉस्ट हो रहा है. उसका मन किया समाचार के बजाय कोई फ़िल्म ही देख ले. वैसे भी कई दिनों से उसने ढंग की फ़िल्म नहीं देखी. वह हॉलिवुड की फ़िल्में दिखानेवाले एक चैनल पर ठहरता है. स्क्रीन पर सुपरहीरोज़ दूसरी दुनिया से आए एलियन्स से दुनिया को बचाने में लगे हुए हैं.

वह झुंझलाहट के साथ टीवी बंद कर देता है. ये दुनिया बचाएंगे हुंह!

अख़बार तो बंद है. सो वह फ़ोन में घुस जाता है. उसकी उंगलियां ऑटोमेटिक एक न्यूज़ बेवसाइट टाइप करती हैं. समाचारों का गहरा विश्लेषण करनेवाली उसकी पसंदीदा वेबसाइट भी कोरोना का स्कोर कार्ड स्क्रोल कर रही है. ‘जो हमें पसंद होता है, उसकी छोटी-मोटी खीझ दिलानेवाली ग़लतियां हम नज़रअंदाज़ कर देते हैं. ’ ऐसा अक्सर मेघना कहा करती थी. उसने भी कोरोना का स्कोर कार्ड इग्नोर कर दिया. कुछ इंट्रेस्टिंग पढ़ने के लिए दो बार ऊपर से नीचे गया और वापस होम स्क्रीन पर आकर उसकी आंखें ठहर गईं. वहां कोरोना के लक्षणों से जुड़ा एक आर्टिकल पढ़ने लगा. आर्टिकल किसी डॉक्टर से बातचीत करके लिखा गया था, पर जानकारियां बेहद जेनरिक-सी थीं. जो चीज़ें कई जगह, यहां तक कि व्हाट्सऐप फ़ॉरवर्ड पर कई दफ़ा पढ़ चुका है, वही दो नए नाम, एक डॉक्टर और एक पत्रकार के नाम के साथ दोबारा पढ़ गया. आर्टिकल के आख़िर में ब्लू कलर में हाइलाइट हो रहा एक लिंक था. उसे बायपास करने ही वाला था कि न जाने कैसे वह उंगली के मामूली स्पर्श से खुल गया. पता नहीं कैसी सेटिंग करते हैं ये लोग उसने सोचा. कोरोना के लक्षणों की तफ़सील से जानकारी देनेवाले उस आर्टिकल की गोद में छुपा बैठा यह लिंक बता रहा था कि किस चीज़ पर कितने समय तक ज़िंदा रहता है कोरोना का वायरस.

अगर उस हिसाब से देखा जाए तो चाय बनाने के लिए जिस दूध की थैली को उसने छुआ था, उसपर कोरोना का वायरस हो सकता था. घर के दरवाज़े का हैंडल भी कोरोना की सौगात देने के लिए काफ़ी था. उसी आर्टिकल में लिखा था कि पेपर पर कोरोना का वायरस कितने समय तक ज़िंदा रह सकता है उसके बारे में अभी तक यक़ीन के साथ कोई कुछ नहीं कह सकता. पर उसी आर्टिकल के नीचे एक और ब्लू लिंक था, जिसमें लिखा था पेपर एकदम सुरक्षित है. आप अपना अख़बार दोबारा शुरू कर सकते हैं.

फ़ोन पर बिताए क़रीब आधे घंटे ने उसे थोड़ा और कन्फ़्यूज़ कर दिया. उसने फ़ोन की बैटरी की तरफ़ देखा, जो 20 परसेंट के नीचे आ चुकी थी. इसके पहले कि वह चार्जिंग पर लगाता, 19 परसेंट का नोटिफ़िकेशन आ गया. यह बताते हुए कि आपके फ़ोन को तुरंत चार्ज करने की ज़रूरत है.

***

उसे याद आया दूध की थैली लेने के बाद उसने अपना हाथ नहीं धोया था. उसने साबुन से रगड़-रगड़ कर अपने हाथों को तीन बार धोया. नैपकीन से हाथों को पोंछने के बाद अचानक याद आया कि पिछली बार जब वह सब्ज़ी लेकर आया था, तब उसने इसी नैपकीन से अपने हाथों को पोछा था. काफ़ी ज़ोर डालने के बाद भी उसकी याददाश्त ने नहीं बताया कि तब उसने साबुन से हाथ धोया था या महज़ पानी से. उस आर्टिकल में लिखा था कि कोरोना का वायरस पानी से नहीं मरता. साबुन से हाथ धोना ज़रूरी है या सैनिटाइज़र से पोंछना. सैनिटाइज़र तो घर में था नहीं, क्योंकि मेडिकल स्टोर में कोरोना के वायरस को हराने के लिए आए नए-नए ब्रैंड के सैनिटाइज़र को लेने से उसने इनकार कर दिया था. यह कहते हुए,‘अब ऐसे टाइम पर भी लोग डुप्लिकेट सामान बनाकर लूट रहे हैं!’ मेडिकल स्टोर के काउंटर पर सुरक्षित दूरी बनाकर खड़े लड़के का मुंह तो नहीं दिख रहा था, पर उसकी आंखों में एक अलग तरह की हिकारत दिखी थी चंद सेकेंड्स के लिए. तो हां, उसने हाथ साबुन से धोया था या नहीं, याद नहीं आया और वह परेशान हो गया. नैपकीन को तुरंत डस्टबिन में डाल दिया. अपने हाथों को फिर से रगड़-रगड़कर धोया. वॉर्डरोब में जाकर एक रुमाल निकाल लाया और हाथों को सुखाया. फिर लगा कि वॉर्डरोब खोलने के लिए हैंडल को गीले हाथों से टच किया था. उसने रुमाल से हैंडल को पोंछा. रुमाल को साबुन लगाकर धोया. रुमाल को सूखने के लिए डालने के बाद अपने हाथों को अच्छे से रगड़कर धोया. और ड्रॉइंग रूम की बालकनी में आ गया. जहां धूप आ रही थी. उसने हाथों को उलट-पलटकर सुखाया.

हाथ सूखने के बाद अंदर आकर सोफ़े पर संभलकर बैठ गया. करने के लिए कुछ था नहीं तो दोबारा टीवी ऑन कर लिया. फिर से कोरोना ही कोरोना. पर इस बार जिस ख़बर ने उसे बेचैन कर दिया, वह यह कि कोरोना अब उसके इलाक़े से बहुत दूर नहीं है. उसे डर के मारे कंपकंपी छूट जाती है. हाथ में पकड़े रिमोट पर उसे कोरोना के वायरस हलचल करते से महसूस हुए. उसने रिमोट दूसरे सोफ़े पर फेंक दिया. एक पेपर लेकर टीवी का स्विच ऑफ़ किया. बाथरूम में जाकर रगड़-रगड़कर नहाया. साबुन की नई टिकिया थोड़ी-सी पतली होने तक. नहाकर बाहर आने के बाद भी वह पसीने में तरबतर था. उसने एसी को थोड़ा लो किया. एसी के रिमोट को हाथ लगाने के बाद दोबारा हाथ धोने की इच्छा हुई, फिर ख़ुद को आधे मन से समझाया,‘नहीं इसमें तो कोरोना नहीं होगा.’ शरीर का पानी पोंछने के बाद वह बेड पर पसर गया. बस यूं ही आंखें बंद कर लीं. और कुछ ही मिनटों में वह गहरी नींद में चला गया.

***

नींद लॉकडाउन की परवाह नहीं करती. वह हमें जहां चाहे ले जाती है. वह कहां है उसे नहीं पता, पर वह इतने सालों बाद भी मेघना को पहचान सकता था. कुछ देर यहां-वहां नज़र घुमाने के बाद जगह जानी-पहचानी लगी, शायद उनका गांव का पुश्तैनी मकान था. उन दोनों ने जब म्यूचुअली अलग-अलग रहने का डिसाइड किया था, तब वह अम्मा-बाबूजी के पास रहने के लिए गांव चली गई थी. म्यूचुअल क्या मेघना ने जाने का फ़ैसला किया और उसने रोका नहीं. मेघना उसकी पत्नी थी, है भी कह सकते हैं, क्योंकि दोनों ने तलाक़ नहीं लिया था. शादी के बाद अच्छी-ख़ासी पढ़ी-लिखी मेघना ने अपने आप को पूरी तरह से घर में व्यस्त कर लिया था. कभी-कभी वह सोचता क्या फ़ायदा इतना पढ़-लिखकर जब आपके अपने कोई सपने न हों. वह मेघना से बात करने के लिए उसकी ओर बढ़ता है, तब तक भागते हुए एक नौ-दस साल का लड़का मेघना के पास आ जाता है. उसे देख वह थोड़ा पीछे हट जाता है. अथर्व इतना बड़ा हो गया. देखकर उसे अच्छा लगा. वह मेघना और अथर्व की ओर बढ़ने ही वाला था कि उसने अपने शरीर को टटोला तो देखा कि कपड़े नहीं हैं. वह उस कमरे से निकला और भागते हुए बाहर आया. सामने का दृश्य पूरी तरह बदल गया. तेज़ धूप पड़ रही है. उसके पैर जल रहे थे. देखा तो पैरों में भी कुछ नहीं पहना है. लोग उसकी ओर देख रहे हैं, पर कोई कुछ कह नहीं रहा है. मानो वह उनकी दुनिया में हो ही नहीं. वह और तेज़ भागता है. पसीने से पूरी रह भीग जाता है. गरमी से बेहाल होकर वह गिरता है, पर ज़मीन पर नहीं. उसे अपना शरीर तैरता हुआ महसूस होता है. वह पानी में तैर रहा है, जैसे कोई पहाड़ी नदी हो. वह बहता ही जा रहा है. पानी की हरहराहट सुनाई देती है. नदी पहाड़ से नीचे की ओर गिरनेवाली है. वह नदी के साथ तेज़ी से नीचे गिरता है और एक तेज़ चीख के साथ उसकी नींद खुल जाती है. डर के मारे उसकी धड़कनें बढ़ी हुई हैं. एसी चल रही है, पर उसका पूरा शरीर पसीना-पसीना हो रखा है. उसने वाक़ई कपड़े नहीं पहने थे. भारी थकान के साथ उठता है और वॉर्डरोब से पजामा और टीशर्ट निकालकर पहन लेता है.

***

धीरे-धीरे चलते हुए ड्राइंग रूम में पहुंचा. घड़ी देखा तो छह बजे हुए थे. यानी पूरी दोपहर सोता रहा. फ़ोन चार्जिंग में ही लगा था. बैटरी न जाने कब की फ़ुल हो चुकी थी. सोफ़े पर संभलकर बैठते हुए उसने फ़ोन की स्क्रीन पर रतन के पांच मिस्ड कॉल्स देखे. उसे अभी किसी से बात नहीं करनी थी, पर न चाहते हुए भी रतन का नंबर डायल कर दिया. कोरोना का पूरा मैसेज सुनाने के बाद वहां से जवाब मिला, जिस नंबर से आप संपर्क करना चाहते हैं, वह नेटवर्क क्षेत्र के बाहर है. बगल के सोफ़े पर फेंके हुए रिमोट को उठाना चाहा, पर पेट में से भूख का अलार्म ज़्यादा तेज़ बज रहा था. वह फ्रिज से पेर और एप्पल निकाल लाता है. उन्हें बेदर्दी से रगड़-रगड़ कर धोने के बाद सोफ़े पर हल्का-सा पसरकर खाने लगता है. कुछ देर यूं ही बैठा रहा. कमरे से रौशनी जा चुकी थी. अंधेरा उसकी जगह लेता जा रहा था. वह लाइट ऑन करने के लिए उठता है तो उसे चक्कर-सा आ जाता है. आंखों के आगे रौशनी-सी चमकती है. चलने में परेशानी महसूस करने के बावजूद वह धीरे-धीरे जाकर लाइट्स ऑन करता है. हल्का-सा चक्कर खाकर फिर से सोफ़े पर बैठ जाता है. सिर घूम रहा है. आंखें बंद कर लीं तो आंखें जलती हुई-सी लगीं. उसने हाथों को गले पर रखकर अपना टेम्प्रेचर चेक किया. उसे गरम लग रहा था. उसे बुख़ार जैसा लगने लगा. वह बेडरूम जाने के लिए उठा तो उसे कमज़ोरी-सी महसूस हुई. हल्के से खांसा और खांसने के बाद ख़ुद ही डर गया. ख़ांसी और बुख़ार! बेडरूम तक चलकर आने तक उसकी सांस फूलने लगी. उसे उसने दवाइयों के ड्रॉवर में रखा थर्मामीटर निकाला और टेम्प्रेचर चेक किया 99.8. यानी नॉर्मल से ज़्यादा. पर उसे बुख़ार आया क्यों होगा? इसका जवाब तलाशने लगा, वह अपनी एक-एक हरक़त को ट्रैक करके बस बुख़ार के कारण तक पहुंचने ही वाला था ड्रॉइंग रूम में रखा फ़ोन बजने लगा. धीरे-धीरे वहां गया. रतन का फ़ोन था.

आवाज़ सुनते ही रतन ने पूछा,‘‘क्या हुआ साहब, तबीयत तो ठीक है ना?’’

‘‘हां, ठीक ही है, क्यों?’’ यह इंसानी टेंडेंसी है कि हम हालचाल पूछनेवाले से पहले ख़ुद के ठीक होने की बात बताते हैं. वह ठीक नहीं फ़ील कर रहा, पर ख़ुद को अच्छा बताता है.

‘‘आवाज़ भारी है आपकी कुछ, इसीलिए पूछे!’’

‘‘हां, नींद आ गई थी. बस अभी उठा.’’

‘‘आप दिन में तो नहीं सोते. ठीक हैं ना?’’

‘‘हां, बस थोड़ी-सी हरारत है.’’

‘‘आप कभी टाइम से खाना खाते नहीं इसलिए ऐसा हुआ होगा. अपना ख़्याल रखिए. हम दो दिन से ट्राई कर रहे थे. आपका फ़ोन ही नहीं लग रहा था. आज भी दिन में फ़ोन नहीं उठाए. तो बहुत टेंसन हो रही थी हमको.’’

‘‘चिंता की बात नहीं, मैं ठीक हूं. तुम्हारे यहां सब ठीक?’’

‘‘हां, हमारे गांव में कोरोना फोरोना थोड़ी आएगा साहब. यह विदेसी बिमारी है. गांव की लाइफ के साथ अरजेस्ट नहीं कर पाएगी.’’ ज़ोर से हंसते हुए रतन ने कहा.

पर जवाब में वह ‘‘हूं…’’ के आगे कुछ नहीं कह सका.

‘‘तो ठीक है साहब रखता हूं. आप खैरियत से हैं, जानकर अच्छा लगा. अब तो लाकडाउन के बाद ही मुलाकात होगी.’’

‘‘चलो अपना भी ख़्याल रखना.’’ कहकर उसने फ़ोन काट दिया.

फ़ोन रखते ही उसे और कमज़ोरी महसूस हुई. उसे कोफ़्त भी हुई रतन को क्यों नहीं बताया. कुछ देर और बात करता तो अच्छा लगता! पर उसे बताकर क्या होता? वह फ़ालतू में वहां परेशान होता. सच में टाइम पर न खाने की वजह से कमज़ोरी महसूस हो रही होगी.

मेघना को भी बड़ी शिकायत हुआ करती थी उसके टाइम पर न खाने की. सिर्फ़ चाय का समय फ़िक्स था उसका, खाने का टाइमटेबल कभी सेट नहीं हो सका. अब रतन के जाने के बाद रोज़ खाना बनाए कौन? वैसे उसने पिछली बार तीन दिन पहले कुछ बनाया था. कुछ क्या दलिया की खिचड़ी बनाई थी. एक तो आसानी से बन जाती है और उसका टेस्ट भी ठीक-ठाक ही होता है. उसके अकेलेपन के कम्फ़र्ट फ़ूड जैसी है दलिया की खिचड़ी.

***

गरमी से उसकी नींद खुली. मोबाइल स्क्रीन पर देखा रात के डेढ़ बज रहे हैं. बिजली चली गई है. रतन के बार-बार कहने पर भी इन्वर्टर न लगाने का ख़ामियाजा वह अब भुगत रहा है. गरमी ने उसे अपनी गिरफ़्त में ले लिया है. उसे तेज़ बुख़ार जैसा फ़ील हो रहा है. बदन दर्द के मारे टूट रहा है. हल्की खांसी भी आ रही है. कोरोना के लक्षण साफ़ दिख रहे हैं. पर वह तो लॉकडाउन के बाद किसी से मिला तक. ऐसा नहीं है कि वह सरकार की हर सही-ग़लत और बचकानी सलाह को माननेवाला आदर्श नागरिक है, पर वह थोड़ा आलसी तो है ही. इस आलस ने ही उसे लॉकडाउन का सही से पालन करनेवाला बना दिया है. वह दो दिन फल-सब्ज़ियां ख़रीदने बाहर निकला था बस. इसके अलावा घर में बाहर से सिर्फ़ दूध की थैली ही आती है. अंधेरे में वह एनालसिस कर रहा है. वैसे अंधेरे का कोई चेहरा नहीं होता, पर डर के कई चेहरे होते हैं. वह अस्पताल में भर्ती नहीं होना चाहता. घर पर भले ही अकेले रह रहा हो, पर अस्पताल के कोरोना आइसोलेशन वॉर्ड के बारे में सोचकर ही सिहर उठता है.

डर गुणात्मक होता है. मल्टीप्लाई होता है. कोरोना वॉर्ड में न जाने कैसी सुविधाएं मिलेंगी सोचकर उसका डर बढ़ता जा रहा है. अकेलापन डर का कैटलिस्ट है. डर के रेट को बढ़ा देता है. उसका दिमाग़ यहां-वहां की सोच-सोचकर उसके हार्ट रेट को बढ़ा रहा है. अगर मान लो उसने किसी को बताया ही नहीं कि उसे कोरोना है तो क्या होगा? कई आर्टिकल्स में उसने पढ़ रखा है कि कोरोना बुख़ार की दवाई यानी पैरासिटामॉल से ठीक हो जाता है. उसके पास पैरासिटामॉल तो है. यानी वह ठीक हो जाएगा. पर अगर नहीं हुआ तो क्या होगा? अस्पताल तो नहीं ही जाना है, यह तो तय है. बुरा से बुरा यह होगा कि वह मर जाएगा. मरने की बात सोचकर उसका दिल बैठ गया. दरअसल ज़िंदगी में पहली बार अपनी डेड बॉडी का ख़्याल आया था. आंखों के आगे वह सीन क्रिएट हो गया. या तो उसकी बॉडी बेडरूम, या ड्रॉइंग रूम या बाथरूम में मिलेगी. ‘बाथरूम में नहीं मिलनी चाहिए!’ उसने ख़ुद से कहा. वैसे पड़ोसियों को कितने दिन बाद पता चलेगा. अगर नहीं चल पाया तो उसकी डेड बॉडी लॉकडाउन के बाद रतन को ही मिलेगी. क्या रतन मेरी डेड बॉडी को हाथ लगाएगा? अगर लगाया तो क्या उसे भी कोरोना हो जाएगा. क्या पूरे घर को सैनिटाइज़ किया जाएगा? रतन कितने दिनों में ठीक होगा? क्या वह मेघना को इत्तला करेगा? पर उसके पास तो नंबर भी नहीं है. पड़ोसी भी तो बदल गए हैं. उनमें से भी मेघना का नंबर किसी के पास नहीं होगा. पर शायद पुलिस गांव में परिवार वालों को बताने का काम करे. उनके लिए कौन-सा मुश्क़िल है ऐसा कर पाना.

‘क्या मेघना मेरे लिए रोएगी? वैसे मैंने ज़िंदा रहते ही मेघना को काफ़ी रुलाया है.’ आज पहली बार उसे मेघना की ग़लती नज़र नहीं आ रही है. बाक़ी उसने आज के पहले कभी भी अपनी बेवफ़ाई के लिए ख़ुद को दोष नहीं दिया. वह हमेशा मेघना को ही इसका दोषी मानता रहा. वह जितना ध्यान घर को सजाने-संवारने पर देती थी, उसका दस परसेंट भी ख़ुद पर देती तो शायद ऐसा न होता. अथर्व के पैदा होने के बाद से तो वह मां की भूमिका में इतनी खो गई कि भूल गई कि वह एक पत्नी भी है. अगर उसके और निष्ठा के बीच संबंध बने भी तो कहीं न कहीं ग़लती मेघना की ही थी. इंसानी फ़ितरत है अपनी बड़ी से बड़ी ग़लती से बचकर भागने का एस्केप रूट ढूंढ़ना. हम ग़लत होते हैं तो सबसे पहले कम ग़लत दिखने का रास्ता खोजते हैं और एक बार वह रास्ता दिख जाए तो ख़ुद को सही साबित करने के तर्क गढ़ने लगते हैं. उसने भी सालों से कई तर्क गढ़े थे, जिसमें मेघना की मां की भूमिका में खो जाने को सबसे असरदार तर्क मानता था. पर आज उसने ख़ुद ही उस तर्क के ख़िलाफ़ एक सवाल खड़ा किया,‘क्या शरीर की ज़रूरतें, भावनात्मक बॉन्डिंग से ज़्यादा अहमियत रखती हैं?’

जब मेघना को निष्ठा और उसके बारे में पता चला तो उसने पहले तो ख़ूब लड़ाई की. ख़ुद को घर-परिवार को संभालने में झोंक देने की बात कही. मेघना की बातों ने उसे सिर्फ़ एक रात के लिए विचलित किया था. अगली सुबह उसने अपने तर्क तैयार किए, पर उसके बाद मेघना ने उस बारे में कोई बात नहीं की. शायद उसने भी रातभर कोई तर्क गढ़े हों. उनके बीच ख़ामोशी की एक लंबी-सी चादर पसर गई. ख़ामोशी शुरू-शुरू में तक़लीफ़ देती है, पर ज़्यादा लंबा खींचो तो कम्फ़र्ट ज़ोन की तरह हो जाती है. कुछ बोलने या बातचीत की पहल करने के बजाय चुपचाप अपने रेग्युलर काम निपटाना ज़्यादा ठीक लगने लगता है. इस तरह एक ही छत के नीचे दो दुनियाएं समानांतर चलने लगीं. घर में पहुंचने के बाद वह अथर्व और मेघना को एक-दूसरे से बातें करते, खेलते देखता और उसके बाद अपनी दुनिया में खो जाता.

घर के अंदर रिश्ते कितने ही ख़ामोशी के साथ ठंडे पड़ते जा रहे हों, बाहर भनक लग ही जाती है. निष्ठा के साथ उसके रिश्ते की चर्चा कहां से होते हुए अम्मा-बाबूजी तक पहुंची उसे आजतक नहीं पता. पर जब बाबूजी उसे समझाने आए तब मेघना ने ही उसे आज़ाद कर दिया. यह कहते हुए,‘मैं इनके साथ अब नहीं रह सकती. आप लोगों को तक़लीफ़ न हो इसलिए अब तक आपको बताया नहीं. पर जब आप जान ही चुके हैं तो मेरा फ़ैसला यही है. मैं आपके साथ घर चलना चाहूंगी. अथर्व और मैं वहीं रहेंगे, आपके साथ, अपने घर में.’

उस दिन उसे बुरा लग रहा था, पर उसने मेघना को रोकने की कोशिश नहीं की. बाबूजी कुछ दिन सबकुछ ठीक होने की उम्मीद के साथ रुके थे, पर दोनों ओर से कोई पहल न होते देख मेघना और अथर्व को लेकर चले गए. तब अथर्व तीन साल का था. फ़ॉरेन में सेटल होने का ड्रीम रखनेवाली निष्ठा के जाने के बाद वह यहां बिल्कुल अकेला हो गया. पर कभी घर जाकर मेघना को मनाने का हल्का-सा ख़्याल आया भी तो उसके रूखे व्यवहार की सोचकर अपनी मौजूदा ज़िंदगी को ही सही मान लेता. आज उसने सोचा,‘मेघना ने लड़ाई क्यों नहीं की? उसे अपना हक़, अपना परिवार इतनी आसानी से नहीं बिखरने देना चाहिए था.’ मेघना की ग़लती यहां भी नज़र आई तो उसके दूसरे मन ने बताया कि यही काम वह ख़ुद भी कर सकता था. जब आपका दिमाग़ पुराने ख़्यालों में उलझ जाता है तो नींद कब आ जाती है, पता नहीं चलता.

*****

खिड़की से आ रही धूप ने उसे उठाया. बुख़ार और थकावट अब भी है. वह फ्रेश हो जाना चाहता है, ताकि नकारात्मक ख़यालों से बाहर आ सके. वह ब्रश करते हुए बेसिन के सामने लगे मिरर में देखता है. बस चार दिन में दाढ़ी इतनी बढ़ गई है, सोचते हुए उसने अपने चेहरे पर हाथ फिराया. बढ़ी हुई दाढ़ी बताती है, आप कितनी ज़िंदगी जी चुके हैं. दाढ़ी के आधे से ज़्यादा बाल सफ़ेद हो चुके हैं. यह सफ़ेदी एक आईने की तरह है, जो बता रही है कि समय बीत नहीं भाग रहा है. क्या सच में वह सिर्फ़ बयालिस की उम्र में ही मर जाएगा. मरने का ख़्याल आते ही हम अपनों के बारे में सोचना शुरू कर देते हैं. मेघना फिर से आ गई. ‘अगर सच में मर गया तो क्या मेघना आएगी? क्या इस तरह मरने पर टर्म इंश्योरेंस के पैसे मिलेंगे? क्या कोरोना इसमें कवर होगा? नॉमिनी मेघना और बाबूजी को बनाया है. अगर कोरोना से मौत कवर भी होगी तो क्या मेघना और बाबूजी क्लेम करेंगे? क्लेम किया भी तो क्या दो करोड़ उन्हें पूरे मिलेंगे या टैक्सेस काटकर? जितने भी पैसे मिले वे उसका इस्तेमाल किस काम के लिए करेंगे?’ दिमाग़ जब तर्क-वितर्क पर उतरता है तब चीज़ों के चित्र बनाकर स्पष्ट करता है. उसके दिमाग़ में चित्र बन रहा है बाबूजी, मेघना और अथर्व का. तीनों उससे कोई रिश्ता नहीं रखना चाहते. उसके पैसों की ओर देखते भी नहीं. बाबूजी ने कहा भी तो था अब तुम हमारे लिए मर चुके हो. पर क्या सिर्फ़ कह देने से कोई मर जाता है?

उसका बुख़ार बढ़ते जा रहा है. वह नीम बेहोशी की हालत में पहुंच रहा है. साथ में मेघना की मौजूदगी घर में महसूस होने लगी है. ऐसा लगता है जैसे वह अभी गीली पट्टी लेकर आती होगी. कुछ समय बाद उसे अपने माथे पर गीली पट्टी रखे जाने-सा महसूस हुआ. मेघना सिरहाने बैठी है. वह उसके बालों पर हाथ फिरा रही है. उसे अच्छा लग रहा है. वह सो जाता है.

***

नींद के साथ जब भूख की लड़ाई होती है, तब एक समय के बाद भूख जीत जाती है. दोपहर को भूख ने उसे जगाया. बुख़ार काफ़ी उतर गया है, पर हरारत बनी हुई है. भूख ने उसे बताया कि मेन डोर के बाहर दूध की थैली लटकी होगी, पर वह बाहर की किसी चीज़ को छूना नहीं चाहता. मैगी बनाने के लिए पानी उबालने लगता है. ‘ये आदमी लोग खाना बनाना कब सीखेंगे? मैगी भी कोई खाने की चीज़ है?’ मेघना का यह ताना हर बार मैगी बनाते हुए याद आ जाता है. मैगी खाने के बाद दिमाग़ में यह ख़्याल तैर गया,‘कैसे होंगे बाबूजी, मेघना और अथर्व? मैंने नहीं किया कभी फ़ोन तो उन्होंने भी तो मेरी खोज ख़बर लेने की कोशिश नहीं की!’ सोचते ही मेघना का नंबर दिमाग़ में डायल हो गया. उसे ज़रा भी ज़ोर नहीं लगाना पड़ा था याद करने के लिए. निष्ठा के जाने के बाद दो-तीन बार उसने मेघना से बात करनी चाही, पर उसका मेल ईगो हावी हो जाता हर बार,‘पहले मैं क्यों? इसमें मेरी ही पूरी ग़लती है क्या?’ इस तरह कहीं न कहीं न चाहते हुए भी उसका दिमाग़ यह तो स्वीकार कर चुका है कि ग़लती उसकी भी थी.

हल्की-हल्की खांसी शुरू होते ही उसपर कोरोना का ख़ौफ़ हावी हो गया. दिमाग़ी रूप से परास्त होने पर सबसे पहले हमारा ईगो हारता है. जिन बातों के लिए दूसरों को दोष देने में एक तरह की तसल्ली मिलती है, उनमें हमें अपनी ग़लतियां नज़र आने लगती हैं. शायद इसीलिए क्या होगा, क्या नहीं सोचने के बजाय वह सिर्फ़ मेघना से बात करना चाहता था. कम से कम उसे पता तो हो, अंतिम पलों में उसे अपनी ग़लती का एहसास हो गया था.

‘‘हैलो…,’’ कमज़ोर-सी आवाज़ में उसने कहा.

दूसरी ओर कुछ सेकेंड्स के बाद हैलो सुनकर वह समझ गया कि मेघना ही है.

‘‘सॉरी मेघना… बहुत देर कर दी मैंने रियलाइज़ करने में.’’

‘‘…’’

‘‘जानता हूं अब ऐसा कहकर कोई मतलब नहीं, पर मुझे तुम्हें रोक लेना चाहिए था.’’

‘‘…’’

‘‘सच में सॉरी मेघना... मैं यह इसलिए नहीं कह रहा हूं कि तुम मुझे माफ़ करो. मैं इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि डरता हूं अगर कभी कहने का मौक़ा नहीं मिला तो…’’

‘‘…क्या हुआ तुम्हें. ठीक तो हो ना?’’ दूसरी ओर से सुबकती-सी आवाज़ आई.

‘‘हां, ठीक हूं. पर शायद ज़्यादा दिन तक नहीं.’’

‘‘क्या हुआ, बोलोगे भी?’’

‘‘शायद कोरोना. प्लीज़ मुझे माफ़ कर दो...’’ उसकी आवाज़ भर्रा आई.

‘‘वह सब ठीक है. तुम पहले ठीक हो जाओ,’’ आवाज़ में नमी घुली थी.

‘‘…’’

‘‘सुनो तुम ठीक हो जाओ. मुझे झगड़ा करना है. अभी पुराना हिसाब बराबर नहीं हुआ है.’’

‘‘…’’

‘‘…’’

‘‘…’’

‘‘तुम ठीक हो जाओगे तो माफ़ कर दूंगी.’’ लंबी ख़ामोशी की चेन को मेघना ने ब्रेक किया.

‘‘बाबूजी और अथर्व ठीक हैं?’’

‘‘हां…’’

‘‘कहना मैं सबका गुनहगार हूं.’’

‘‘हूं… तुम ठीक हो जाओ फिर मिलकर माफ़ी मांग लेना.’’

‘‘हां…’’ उसे दो दिन में पहली बार लगा कि वह कोरोना से बच सकता है.

दोनों ने फ़ोन रख दिया. वर्षों बाद रिश्ते के टूटे धागों को जोड़ने की कोशिश में इससे ज़्यादा और क्या बातें हो सकती थीं.

****

पर उस एक फ़ोन कॉल ने काफ़ी कुछ बदल दिया. दोनों ने कई दफ़े बातचीत की. लंबी-लंबी बातचीत. कॉलेज के नए-नए प्रेमियों की तरह लंबी-लंबी कॉल्स. हर बार रिश्ते पर चढ़ी धूल की परत कुछ और हल्की होती गईं. वह बेहतर महसूस करने लगा. कहते भी तो हैं बीमारियां दवाइयों से ज़्यादा सहानुभूति की भूखी होती हैं. उसका बुख़ार काफ़ी कम हो गया. वह हल्का महसूस करने लगा. रात को उसने फ़ोन पर मेघना से बतियाते हुए खाना पकाया. हां, अभी तक बाबूजी और अथर्व से बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया.

गुड नाइट कहकर सोया तो कई दिनों बाद उसे अच्छे से नींद आई. सुबह सोकर उठा तो उसकी आंखें कीचड़ से भरी हुई थीं. आंखें खोलने के लिए थोड़ा ज़ोर लगाना पड़ा. पर जब आंखें खुलीं तो वह नई ताज़गी से भरा था. वह ड्रॉइंग रूम में जाकर खिड़की खोलता है. बाहर की हवा में कोरोना नहीं, ज़िंदगी तैरती हुई दिखती है. उसने ड्रॉइंग रूम की बालकनी में खड़े होकर ज़ोर से ताली बजाई. मेघना को शुक्रिया कहा. ज़िंदगी को शुक्रिया कहा. कोरोना को शुक्रिया कहा, जिसने उसकी ज़िंदगी में उम्मीदों के दिए जला दिए.

लेखक परिचय

जन्म: 11 नवंबर 1983

शिक्षा: बी. एससी. (केमिस्ट्री)

संप्रति: टाइम्स ऑफ़ इंडिया ग्रुप की पत्रिका फ़ेमिना हिंदी में असिस्टेंट एडिटर

- फुल टाइम पत्रकार, पार्ट टाइम लेखक

- पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ और कविताएं प्रकाशित

- पहले फेसबुक उपन्यास 30 शेड्स ऑफ़ बेला का हिस्सा रहे