Jindagi kuchh aur hi hoti in Hindi Moral Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | ज़िन्दगी कुछ और ही होती...

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ज़िन्दगी कुछ और ही होती...

ज़िन्दगी कुछ और ही होती...

मध्य दिसम्बर की एक संध्या।

सूर्य क्षितिज के पश्चिमी छोर पर बड़े से वृताकार में नीचे की ओर तेजी से जाता हुआ।

शहर का मशहूर पार्क जहां शहर के हर भाग से लोग घूमने-फिरने के लिये आते हैं। पार्क में प्रौढ़ तथा बुजुर्ग बैंचों पर बैठे हैं या टहल रहे हैं। बच्चे खेल रहे हैं, मस्ती कर रहे हैं।

एक बैंच पर एक पुरुष और एक स्त्री थोड़ी दूरी रखकर बैठे हुए हैं। उनके चेहरों से लगता है कि वे पति-पत्नी भी हो सकते हैं, जिनके बीच आपसी सौहार्द का स्थान क्षणिक मनमुटाव ने ले लिया हो और घर की घुटन से छुटकारा पाने के लिये जीवन की संध्या के कुछ पल बिताने के लिये पार्क में आ बैठे हों।

अचानक उनके पास एक कबूतर आहत अवस्था में आकर गिरता है। पुरुष देखता है कि एक शरारती बालक जिसके हाथ में गुलेल है, ने निशाना साधा था। बालक अपने शिकार को देखता है, किन्तु बैंच पर बैठे बुजुर्गों को देखकर नज़दीक आने का साहस नहीं जुटा पाता।

पुरुष - 'बदमाश, उच्चके।'

स्त्री - 'बेचारा कबूतर...'

पुरुष बैंच से उठता है। कबूतर को उठाता है। स्त्री को संबोधित करते हुए कहता है - 'आप एक मिनट के लिये ध्यान दूसरी ओर कर लीजिए।' और कबूतर की गर्दन के काग को दबाकर जल्दी से कचरे के डिब्बे में डालने चल देता है।

जब वह यह काम करके बैंच पर आकर बैठता है तो स्त्री कहती है - 'मैं यह नहीं कर सकती थी।'

पुरुष तत्काल कोई टिप्पणी नहीं करता और वे छोटी-मोटी बातें करते रहते हैं और बैंच पर उनके बीच की दूरी कम होते-होते बिल्कुल मिट जाती है।

स्त्री कबूतर को याद कर कहने लगी - 'आपने बड़ी दया की। लेकिन ऐसा करना अवश्य ही कठिन रहा होगा! मैं ऐसा नहीं कर सकती थी। मैं बुजदिल हूं....'

'हम सब कहीं-न-कहीं बुजदिल होते हैं।'

इसके बाद कुछ और घरेलू जीवन की छुटपुट बातें होती रहीं। शाम ढलने के साथ-साथ ठंड बढ़ने लगी। स्त्री घर जाने के लिये उठते हुए कहती है - 'अब चलते हैं।'

पुरुष भी उठ खड़ा होता है। कहता है - 'यदि एतराज़ न हो तो रात का खाना साथ खायें?'

स्त्री सीधे तौर पर अपनी सहमति न देकर पूछती है - 'आपकी पत्नी...?'

'वह खाना कहीं और खायेगी। पर आपके पति....?'

'वह ग्यारह बजे से पहले कभी घर नहीं आता।'

सुनकर पुरुष के मन में स्त्री के प्रति सहानुभूति पनपी। उसे अनुभव हुआ कि स्त्री अपने पति से खुश नहीं है, किन्तु इस विषय पर उसने कोई सवाल-जवाब नहीं किया। और वे एक होटल में चले जाते हैं।

खाना खाते हुए आज की शाम को लेकर दोनों अपनी खुशी जाहिर करते हैं। होटल से निकलने के बाद पुरुष कहीं और बैठकर काॅफी या चाय लेने को कहता है।

स्त्री अपने अन्तर्मन में प्रसन्न हैं कि इस व्यक्ति के मन में मेरे लिये कितना ख्याल है, किन्तु कहती बस यही है - 'अब काॅफी या चाय इससे अधिक हमें क्या देगी? यह शाम अपने आप में पूर्ण है। तुम्हारे व्यक्तित्व में सचमुच एक कोमल आत्मा का वास है....'

पुरुष भी मन-ही-मन प्रसन्नता अनुभव करता है, किन्तु कहता कुछ नहीं।

उन्होंने एक-दूसरे का न पता पूछा न टेलीफोन नंबर। दोनों ने जान लिया - उनकी ज़िन्दगी में यह पल बहुत देर करके आया था। पुरुष टैक्सी बुलाता है और स्त्री को बिठा कर बाॅय-बाॅय करता है।

टैक्सी में घर जाते हुए स्त्री सोचती है - अब तक जीवन में क्या मिला मुझको? माता-पिता का प्यार ऊपरवाले ने बचपन में छीन लिया। रिश्ते में चाचा लगने वाले व्यक्ति ने माता-पिता की सारी सम्पत्ति हड़प ली और दुनियादारी की समझ आने से पहले ही एक ऐसे व्यक्ति के पल्ले बांध दिया, जो सर्व-अवगुण सम्पन्न हैं। एक बेटा हुआ, वह भी बाप पर गया। सोचा था, बेटे के विवाह के बाद बहू उसे संभाल लेगी, किन्तु बाप (ससुर) के हालात देखकर वह भी अपने पति को लेकर अलग हो गयी। पति द्वारा मारपीट का असर शरीर तक सीमित रहता है, लेकिन मेरे सामने दूसरी स्त्रियों को घर लाना मेरे अस्तित्व को नकारना व अपमानजनक लगता है, इसकी पीड़ा असहनीय है। मैं कभी कुछ कर नहीं पायी, आगे भी कभी कुछ कर पाऊंगी, ऐसी संभावना नहीं दिखती। बेटे के जन्म के बाद एक बार आस बंधी थी कि शायद कुछ ठीक हो जायेगा, किन्तु थोड़े समय बाद ही आशा की किरण कहीं अंधकार में लुप्त हो गयी। मैं वाकई ही बुजदिल हूं।

जैसी उम्मीद थी, वैसा ही हुआ। स्त्री जब घर पहुंची तो अन्दर वाले कमरे से आवाज़ें आ रही थीं। सोचने लगी - आज उसके पास कौन-सी लड़की होगी - प्रमिला या सविता या कोई अन्य?

वह अपने कमरे में सोने चली जाती है। बराबर के कमरे से हंसी के ठहाकों को अनसुना करने के लिये अपने कानों में रूई ठूंस लेती है। आंखें मींचकर सोचने लगती है - ज़िन्दगी कुछ और ही होती अगर कहीं पन्द्रह-बीस वर्ष पूर्व वह आज वाले बैंच पर बैठी होती और घायल कबूतर को पीड़ा से मुक्त करने वाले पुरुष को देख रही होती....।

पुरुष घर जाते हुए सोचता है - घर में वर्षों से हो रही किच-किच का सामना करना पड़ेगा। विवाह के बाद के कुछ महीनों को भूल जाऊं तो मुझे नहीं याद आता कि पत्नी ने कभी सीधे मुंह बात भी की हो, प्यार जताना तो दूर की बात है। मेरा क्या कसूर है कि परमात्मा ने हमें संतान का सुख नहीं बख्शा। एक यही कमी तो आपसी संबंधों को बोझ बनाने का कारण नहीं होना चाहिये।

सर्दियों की रात। साढ़े दस बजे ही आधी रात जैसा लग रहा है। गली में कहीं कोई दिखाई नहीं देता। घर पहुंचने पर उसने बेल बजाई, उसकी पत्नी ने दरवाजा खोला। उसके घर के अन्दर पैर रखते ही देर से आने की कैफियत लेने लगती है। वह उसे और बातों से टालने की तरकीब सोचने लगता है।

'क्या सोच रहे हो?'

'सोच रहा था, ज़िन्दगी कुछ और भी हो सकती थी....'

यह उस पुरुष का सबसे बड़ा शिकवा था जो उसने ज़िन्दगी के विरुद्ध आज पहली बार किया था, किन्तु उसकी पत्नी उसके भावों का मर्म नहीं समझ पायी।

*****

लाजपत राय गर्ग

मो.92164-46527