हलंत
हृषीकेश सुलभ
बात बहुत पुरानी नहीं है। कुछ ही महीनों पहले की बात है। वह हादसों का मौसम था। उन दिनों सब कुछ अप्रत्याशित रूप से घटता। जिस बात की दूर-दूर तक उम्मीद नहीं होती, वह बात सुनने को मिलती। जिस घटना की कल्पना नहीं की जा सकती, वह घट जाती। जिस दृश्य को सपने में भी देखना सम्भव नहीं था, वह अचानक आँखों के सामने उपस्थित हो जाता।
अजीब समय था। विचित्रताओं से भरा हुआ समय। यहाँ तक कि उन दिनों सुख भी अप्रत्याशित ढंग से ही मिलता। यानी, कुछ अच्छा भी होता तो ऐसे अचानक होता कि मन के भीतर भय की लकीर छोड़ जाता। सुख का स्वाद मिट जाता और मन को भरोसा नहीं होता कि ऐसा भी हो सकता है। उन दिनों सुख और दुःख के बीच का फ़र्क़ लगभग मिट चला था। यह अपने-आप में एक बड़ा हादसा था। सुख और दुःख की अनुभूति के बीच अंतर का नहीं होना सामान्य स्थिति तो नहीं ही मानी जा सकती। इससे ज़्यादा त्रासद और प्राणलेवा स्थिति शायद और दूसरी नहीं हो सकती। औरों के लिए यह चरम आध्यात्मिक स्थिति हो सकती है, पर मेरे लिए नहीं।
मैं उन दिनों को याद करता हूँ तो मेरी रीढ़ थरथराने लगती है। मेरे लिए भय और अवसाद के दिन थे वे। मैं अब अच्छी तरह महसूस कर सकता हूँ कि लोग ऐसी ही स्तिथि में आत्महत्या करते होंगे। सुबह आँखें खुलते ही मैं अपनी मृत्यु के बारे में सोचना शुरु करता, तो यह सिलसिला रात की नींद तक चलते रहता। नींद आती, पर गहरी नहीं, उचटी-उचटी आती। सपने आते। अजीब-अजीब सपने। इन सपनों के सिरे एक-दूसरे में इस तरह अझुराए होते कि इनमें से एक मुक्कमिल सपने को याद करना मुश्किल था। हाँ इन सपनों के केन्द्रीय कथ्य के रूप में मृत्यु की उपस्थिति ज़रूर होती। मैं इन सपनों के छोर पकड़ने की कोशिशें करता और इस कोशिश में अपनी मृत्यु तक जा पहुँचता। मरने के अनगिन तरीक़े सोचता। उन्हें विश्लेषित करता। आत्महत्या के समय होनेवाली पीड़ा के आवेग को कभी मन ही मन मापता, तो कभी आत्महत्या के बाद अपने बारे में होनेवाली चर्चा-कुचर्चा के ताने-बाने बुनता। यह सब चलते रहता और बीच-बीच में हादसे होते रहते।
एक रात मेरे इस क़स्बाई शहर के अहिंसा मैदान में विशाल गड्ढा बन गया। हुआ यूँ कि रात में भयानक विस्फोट हुआ और और देखते-देखते शहर के एक छोर पर स्थित इस मैदान में पोखरण उतर आया। एक भयानक आवाज़ हुई और मैदान के ऊपर का आकाश गर्द-ओ-गुबार से पट गया। दिन भर की उड़ान के बाद घोसलों में छिपे पंछी इतने भयभीत हुए कि बाहर निकल पड़े।
अज़ादी के दिनों में गाँधी बाबा जब-जब दिल्ली-कलकत्ता-बम्बई में अनशन पर बैठते, मेरे शहर के गाँधी परमानन्द दास भी इस मैदान में चादर बिछाकर बैठ जाते। उन्हीं दिनों इस भूखंड को अहिंसा मैदान नाम मिला। यहाँ बच्चे फुटबॉल-क्रिकेट खेलते। मेरे बाबूजी बताया करते थे कि अपने बचपन के दिनों में वे भी इस मैदान में कबड्डी खेला करते थे। उन दिनों इस मैदान के किनारे-किनारे पेड़ों की क़तार थी और उनकी डालें धरती तक झुकी थीं और वे अपने दोस्तों के साथ डालों पर झूलते हुए दोला-पाती भी खेला करते। बाबूजी बताते कि उन दिनों इस मैदान के किनारे ढेरों फलदार वृक्ष हुआ करते थे। आम के दिनों में शहर के बच्चों का हुजूम जुटा रहता। जेठ-वैशाख में लू के थपेड़े भी बच्चों को रोक नहीं पाते और टिकोलों की लालच में उनकी आवाजाही बनी रहती। फिर एक समय आया जब पेड़ों ने फल देना पहले कम और बाद में बिल्कुल ही बन्द कर दिया। सूखने लगे। लोगों ने काटकर उन्हें चूल्हों में झोंक दिया।
अब यहाँ का नज़ारा बदल चुका है। चुनाव के दिनों में यहाँ राजनेताओं के हेलिकॉप्टर उतरते और भाषण होता। बाँस के खम्भों में बँधे भोंपूओं से निकलती तरह-तरह की आवाज़ें पूरे शहर पर छा जातीं। यहाँ सती परमेसरी का मेला भी लगता था। मुझे याद है। अपने बाबूजी के काँधे पर सवार होकर मैं यह मेला घूम चुका हूँ। इस मेले की गुड़ की जलेबी का स्वाद आज भी मेरी जीभ पर ठिठका हुआ है। इस मेले में द ग्रेट बाम्बे सर्कस का तम्बू तनता और मेला उजड़ने के हफ़्तों बाद उखड़ता। मैंने पहली बार इसी सर्कस में दहाड़ते हुए बाघ को देखा था और मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई थी। बाबूजी की दहाड़ से दुबकी हुई अम्मा के भय का अर्थ भी मुझे उसी दिन मिल गया था। बाद के दिनों में अम्मा अक्सर मेरी भीरुता से खीझकर कहती ‘बाघ का बेटा खरहा’। पिछले कुछ दिनों से इस अहिंसा मैदान में एक नया काम होने लगा था। हत्या के बाद हत्यारे इस मैदान में लाशें फेंकने लगे थे। हत्या शहर के किसी भी कोने में होती, पर लाश इसी मैदान से बरामद होती। विस्फोट पहली बार हुआ था। मेरे शहर के लोग बेहद कल्पनाशील हैं। उनका मानना था कि किसी दूसरे ग्रह के प्राणियों ने पृथ्वी के बहुत क़रीब से गुज़रते हुए इस विस्फोट को अंजाम दिया है। शहर के चारपेजी अख़बारों ने इतना हो-हल्ला मचाया कि पुलिस ने इस हादसे की तफ़तीश शुरु की। तफ़तीश के बाद पुलिस ने यह तथ्य ढूँढ़ निकाला कि अहिंसा मैदान में उग्रवादियों ने विस्फोटकों का परीक्षण किया था।
विस्फोट के बाद पुलिस की व्यस्तता बहुत बढ़ गई थी। जाँच में प्राप्त तथ्यों की पुष्टि के लिए साक्ष्य जुटाने में पुलिस लगी हुई थी। शहर में आतंक था। रात-बिरात अपने घरों से निकलने में डरते थे लोग। दिन में भी किसी चौक-चौराहे पर पुलिस का सामना हो जाता तो लोग नज़रें चुराते हुए निकल जाते। पुलिस बेवजह घूरती। ज़रा भी संदेह हुआ कि थाने ले जाकर घन्टों पकाती। इस विस्फोट के कारण राज्य सरकार के आला अधिकारियों का दौरे पर आना लगातार जारी था। इक्के-दुक्के बचे पुराने लोगों का कहना था कि अँग्रेज़ों के ज़माने से लेकर इस घटना के पहले तक कभी इतने अधिकारी ज़िले में दौरे पर नहीं आए। ज़िला के सारे थाने संवेदनशील घोषित हो चुके थे। ख़ुद राज्य के गृहमंत्री और पुलिस प्रमुख ने अपने दौरे के समय इसका एलान किया था। अब तक जिस पुलिस को असंवेदनशील माना जाता था, वह संवेदनशील हो गई थी। पुलिस की संवेदनशीलता अपना रंग दिखा रही थी। इस संवेदनशीलता का आलम यह था कि वे सारे लोग, जिनके घरों में शौचालय नहीं था और वे शहर के बाहरी इलाक़ों में टिन का डब्बा या प्लास्टिक की बोतलें लेकर फ़ारिग हुआ करते थे, संकटग्रस्त हो गए थे। ऐसे हाजतमंद लोग चोरों की तरह अपने घरों से निकलते और अपनी हाजत को जैसे-तैसे आधे-अधूरे निबटाकर वापस भागते। ऐसे परिवारों की औरतों का संकट और गहरा था। गश्त पर निकले पुलिस के जवान शहर की गश्ती छोड़कर साँझ का झुटपुटा होते ही बाहरी इलाक़ों में फैल जाते। औरतें अँधेरे का लाभ उठाने और दम साधकर बे-आवाज़ फ़ारिग होनेकी कोशिशें करतीं, पर पुलिसवालों की संवेदनशीलता उफ़ान पर थी और वे बे-आवाज़ क्रियाओं को भी सूँघ लेते और टार्च भुकभुकाने लगते। पुलिस की संवेदनशीलता का भारी असर शहर की रंडियों पर भी पड़ा था। उनके घूमने-फिरने पर कोई प्रतिबंध नहीं था, पर उनके साथ मटरगश्ती करनेवाले ग्राहकों की कमी हो गई थी। ऐसे मटरगश्ती करनेवालों पर पुलिस ने अपनी दबिश बढ़ा दी थी। पुलिस आधा-अधूरा संवेदनशील तो होती नहीं, सो वह हफ़्ता वसूलने के प्रति भी अतिरिक्त रूप से सजग और नियमबद्ध हो गई थी। कमाई के अभाव में रंडियाँ पुलिसवालों को ख़ुद को सौंपतीं। पर कुछ ही रंडियाँ ऐसा कर पातीं और अपने ठिकानों से निकल पातीं या अपने ठीयों पर रोशनी जला पातीं। बहुत बुरे दिन थे। बहुत बुरे। आतंकित करनेवाले बुरे दिन। इतने बुरे कि हल्की-फुल्की बीमारियों का असर भी इस आतंक के सामने फीका पड़ गया था। बस अड्डा और रेलवे स्टेशन के पॉकेटमारों और उचक्कों की जान भी साँसत में थी। पुलिस ने आला हाकिमों की लगातार आवाजाही में होनेवाले ख़र्चो का हवाला देते हुए हफ़्ते की रकम में बेतहाशा बढ़ोतरी कर दी थी। एक तो मुसाफिरों आवाजाही कम हो गई थी और ऊपर से रकम में यह बढ़ोतरी। उनकी जान निकल रही थी। शिकार को लेकर आपस मे ही झाँव-झाँव और मारकाट मची रहती थी। इस विस्फोट ने शहर की जड़ें हिला दी थीं।
मैं इन बुरे दिनों के गुंजलक से बाहर निकलना चाह रहा था। सच तो है कि मैं इस शहर से ही निकलने की तैयारी में था, पर एक के बाद एक घटनाओं का ऐसा सिलसिला शुरु हुआ कि मैं निकल नहीं सका। घटनाएँ बेड़ियों की तरह मेरे पाँवों को जकड़ती गईं। पहली बेड़ी तो बाबूजी ही बने। बचपन से ही उनके क्रोध का शिकार बनता रहा हूँ। क्रोध उनका स्थायी भाव था और उसे वे अपनी ताक़त मानते थे। और सचमुच उनका क्रोध बेहद ताक़तवर निकला। इसी क्रोध के हाथों वे पटखनी खा गए। ब्रेन हेमरेज हुआ और उन्हें लकवा मार गया। देह और दिमाग़ दोनों सुन्न। जिसके बिस्तर पर डर के मारे मक्खी तक नहीं बैठती थी, वह गू-मूत में लिथड़ा हुआ बिस्तर पर पड़ा था। गठिया से कराहती और निहुर-निहुर कर चलनेवाली अम्मा दिन-रात लगी रहती, पर यह सब अकेले उसके वश का नहीं था। मैंने बहुत धीरज के साथ बाबूजी की सुश्रुशा में अम्मा का हाथ बँटाना शुरु किया। बाबूजी चुपचाप बिस्तर पर पड़े रहते। बोलने की कोशिश करते पर शब्द गले में फँस जाते और अजीब-सी गों-गों करती आवाज़ निकलती। मैं जब भी उनके सामने होता, उनकी आँखें बहने लगतीं। वह लगभग तीन महीने तक इस यंत्रणा को भोगते रहे। पर इस तीन माह की यंत्रणा ने अम्मा की आँखों के आँसू पी लिये। बाबूजी की मृत्यु की प्रतीक्षा करते-करते अम्मा के मन की त्वचा भोथरी हो गई थी। कोई माने या न माने, पर मैं इस सच को नहीं झुठला सकता कि मन की भी, अदृश्य ही सही, त्वचा होती है। अम्मा ने अपने वैधव्य को सहजता से स्वीकार लिया। मृत्यु के बाद के रस्मी रुदन के सिवा और कोई ख़ास परेशानी उसने नहीं पैदा होने दी। उसका अपना स्वास्थ्य उस समय तक उसके वश में नहीं था, पर बाबूजी की मृत्यु के बाद जैसे-जैसे दिन बीतते गए वह अपने स्वास्थ्य को लेकर सतर्क रहने लगी। गठिया को तो जाना नहीं था और न ही झुकी हुई कमर सीधी होनेवाली थी, पर उसने बाबूजी की मृत्यु से पैदा हुए अवसाद को अपने भीतर पनाह नहीं दी।
दूसरी बेड़ी रज्जो बनी। हालाँकि रज्जो का मुआमला बाबूजी की बीमारी से पहले शुरु हो चुका था। काफ़ी पहले। बल्कि मेरे बाबूजी इस मामले में एक सक्रिय तत्त्व थे। उन्होंने रज्जो के मुआमले से भी अपने क्रोध के लिए रसायन अर्जित किया था। रज्जो उन्हें पसंद नहीं थी। इसलिए नहीं कि वह कुरूप थी या अशिक्षित थी या फिर चाल-चलन की ख़राब थी बल्कि, इसलिए कि रज्जो के पिता जाति के धोबी थे और उनके साथ उनके ही ऑफिस में काम करते थे। दोनों ने एक साथ लोअर डिविज़न क्लर्क के पद पर ज्वाइन किया था। बाबूजी बमुश्किल घिसटते हुए अपर डिविज़न क्लर्क हो सके थे और बड़ा बाबू बनने ही वाले थे कि फालिज मार गया। जबकि, रज्जो के पिता उन्हें पार करते हुए एओ यानी एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफिसर बन चुके थे। वह बड़ा बाबू ज़रूर मेरे बाबूजी से पहले बने थे, पर एओ बनने के लिए उन्होंने डिपार्टमेंटल परीक्षा दी थी और पास होकर यह पद हासिल किया था। हालाँकि बाबूजी इसे पार करना नहीं, अपनी छाती पर पाँव रखकर आगे निकलना मानते थे।
मेरा और रज्जो का बचपन साथ-साथ गुज़रा है। हम संग-संग पले-बढ़े हैं। रज्जो बैंक की नौकरी के लिए परीक्षाएँ देना चाहती थी। उसने इकोनॉमिक्स आनर्स लेकर बी. ए. किया था और अच्छे नम्बरों से पास हुई थी। मैंने हिन्दी साहित्य में एम. ए. किया था और प्रोफेसर बनना चाहता था। ज़माने के चलन के हिसाब से मैंने पिछड़ी हुई फ़ालतू क़िस्म की पढ़ाई की थी, जिसका कोई भविष्य नहीं था। बाबूजी की इच्छा थी कि मैं सिविल सर्विसेज़ की परीक्षा दूँ और कलक्टर बनकर इसी शहर में आऊँ। बाबूजी जिलाधिकारी के दफ़्तर में ही काम करते थे। मैंने ‘हिन्दी कविता पर नक्सलवादी आन्दोलन का प्रभाव’ विषय पर पी. एच. डी. के लिए रजिस्ट्रेशन करा लिया था। बाबूजी की इच्छा का मान रखने के लिए मैंने सोचा था कि एक साल सिविल सर्विसेज़ की परीक्षा में बैठूँगा। पर मेरे बाबूजी को इस बात की भनक लग गई कि थी कि मेरे और रज्जो के बीच कोई चक्कर चल रहा है। बस, इतना ही काफ़ी था उनके लिए। उन्होंने ऐसा तांडव मचाया कि घर की दीवारें हिलने लगीं। अम्मा तो गौरैया की तरह इधर-उधर दुबकती फिरतीं और मैं पत्थर की मूर्ति की तरह निःशब्द उपस्थित रहता। मेरी छोटी बहन पुतुल, जो मेरे घर की प्रसन्नता की धुरी थी, बेहिस और बेजान-सी हो चली थी, पर वही एक थी जो बाबूजी का सामना करती। उसकी उपस्थिति में कुछ ख़ास था कि बाबूजी नरम पड़ जाते। ऐसे संकट के दिनों में वही बाबूजी को सम्हालती। और यह घर तो बाबूजी से ही था। उन दिनों हम सब यही मानकर जीते कि बाबूजी हैं, तो घर है। बाबूजी ख़ुश, तो घर ख़ुश।
बाबूजी के चलते काफी पहले से मेरे घर रज्जो का आना-जाना लगभग बन्द हो गया था। पहले पर्व-तेवहार के दिन आ जाया करती थी, पर धीरे-धीरे वह भी सिमट गया। हमसब एक ही कालोनी में पैदा हुए थे। नौकरी ज्वाइन करने के बाद मेरी अम्मा को लेकर जब बाबूजी इस कालोनी में रहने आए, मेरी बड़ी बहन गोद में थी। पर वह मेरे जन्म से पहले ही मर गई। उसे मलेरिया हो गया था। सुनते हैं कि उन दिनों इस ज़िले में यह बीमारी आम थी और अँग्रेज़ों के समय से चली आ रही थी। मेरी इस बड़ी बहन से बड़ा मेरा एक भाई भी था, जो शहर आने से पहले गाँव में ही पीलिया से मर चुका था। दो बच्चों की मौत के बाद जब मैं आया तो अम्मा ने ढेरों मनौतियाँ मानी। मैं बच गया। अम्मा बताती हैं कि जब मैं गर्भ में था तो मामला लगभग बिगड़ ही गया था, पर रज्जो की माँ ने दिन-रात उनकी देखभाल की। डॉक्टर ने अन्तिम तीन महीनों में बिस्तर पर से उतरने तक को मना किया था। बाबूजी ने जीवन में कभी चूल्हा फूँका नहीं था, सो एक दिन भात का माँड़ निकालते हुए हाथ जला बैठे। रज्जो की माँ उस दिन से मेरी पैदाइश के बाद अम्मा के सौर-घर से निकलने तक बाबूजी का भोजन अपनी रसोई से भेजती रहीं।
इस तरह की कॉलोनियों में अमूमन जैसा जीवन होता है, वैसा ही था हमारा जीवन। मेरे और रज्जो के प्यार में भी कुछ अनूठा या चकित करनेवाला या फिर चटपटा नहीं था। ऐसी कॉलोनियों में रहनेवालों के बच्चों के बीच जिस सहजवृत्ति से प्रेम पनपता है, वैसे ही पनपा था हमारा प्रेम। रज्जो विवाह के लिए उतावली तो नहीं थी, पर प्रेम में मेरे सर्दपन को लेकर उसके भीतर लगातार खीझ भरती जा रही थी। प्रेम ही नहीं, मेरे जीने के ढंग यानी जीवन के साथ मेरे बरताव को लेकर उसके भीतर एक निराशा भरती जा रही थी। वह मुझे चोट नहीं पहुँचाना चाहती थी। इसलिए वह मुझे सीधे-सीधे कायर या डरपोक तो नहीं कहती, पर उसके मन को भेदकर उसके चेहरे पर कुछ ऐसे ही भाव उभर आते। उसने अपेक्षाकृत एक बीच का शब्द मेरे लिए खोज निकाला था - मुंहचोर। जब बाबूजी जीवित थे और उनके आतंक के साये में पूरा घर थर-थर काँपते हुए जी रहा था, वह चाहती थी कि मैं अपनी माँ के पक्ष में तन कर खड़ा हो जाऊँ। जब रज्जो को लेकर पहली बार मेरे घर में बवाल मचा, वह स्वयं इस बाबत मेरे बाबूजी से संवाद करना चाहती थी। उसे अपने ऊपर भरोसा था कि वह उन्हें अपनी बातों से निरुत्तर ही नहीं बल्कि, अपने व्यवहार से विवश कर देगी कि वे उसे स्वीकार कर लें। उसे अच्छी तरह मालूम था कि मेरे बाबूजी उसके पिता से घृणा करते हैं, इसके बावजूद वह उनसे अपने लिए नमी की उम्मीद रखती थी। वह चाहती थी कि मैं अपने बाबूजी से अपने शोध का विषय “हिन्दी कविता पर नक्सलवादी आन्दोलन का प्रभाव” न छुपाऊँ। वह यह भी चाहती थी पिछले दस सालों से मैं जिन कविताओं को लिख रहा हूँ उन्हें प्रकाशित करने के लिए पत्र-पत्रिकाओं को भेजूँ। उसका मानना था कि मैं नाहक उन कविताओं की गुणवत्ता को लेकर चिन्तित और निराश रहता हूँ। वह अपनी इस धारण पर अडिग थी कि मेरे शोधगुरु प्रोफेसर रणविजय सिंह लम्पट और जाहिल हैं और वे तब तक मेरा शोध पूरा नहीं होने देंगे, जब तक मैं उनकी नीम पागल बेटी से विवाह के लिए राजी नहीं हो जाता।
बाबूजी के गुज़र जाने के बाद मेरे घर रज्जो के आने-जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं था, पर वह तभी आई, जब एक दिन अम्मा उसकी बाँह पकड़ खींच लाईं। उसके बाद वह आती, पर पहले की तरह मुझसे मिलने नहीं......अम्मा की खोज-ख़बर लेने या मेरी छोटी बहन पुतुल से मिलने-बतियाने। अजीब दिन थे......जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि सुख और दुःख का फ़र्क़ ही मिट चला था। पिता के विदा होने के बाद घर में चुप्पी थी। अजीब-सी चुप्पी, जिसका कोई ओर-छोर नहीं था। लगता, मानो अम्मा विश्रांति की चादर ओढ़े गहरी निद्रा में सो रही हों......और बहन जलकुम्भियों से भरे थिर पोखर की तरह अपनी उम्र की विपरीत दिशा में मौन बैठी हो।......और मैं......। मुझे लगता मैं हलंत की तरह बिना स्वर वाले व्यंजन की तरह के नीचे लटका हूँ। मैं अक्सर सारी-सारी रात जागता। नींद आती भी तो उचट-उचट जाती। पिता और रज्जो दोनों मेरी रातों की नींद में......टूट-टूट कर आने वाले सपनों में अझुराए हुए थे। आँख लगती तो साँकल खटखटाने की आवाज़ सुनाई पड़ती। जाने क्यों लगता कि रज्जो साँकल खटखटा रही है..... और नींद उचट जाती। यह जानते हुए भी कि किसी ने साँकल नहीं खटखटाई.......कोई आवाज़ नहीं हुई....रज्जो नहीं है दरवाज़े पर......मैं उठकर दरवाज़े तक जाता। दरवाज़ा खोलकर देखता। सोचता, इस पुराने सरकारी क्वार्टर के दरवाज़े में लगे इस साँकल को बदल दूँगा, पर.......। कभी नींद में खाँसने की आवाज़ सुनाई देती..... देर रात घने कुहासे में सड़क किनारे बैठकर खाँसते हुए किसी बूढ़े की आकृति दिखाई पड़ती। अस्पष्ट चेहरा....धीरे-धीरे पिता के चेहरे में बदलता हुआ चेहरा। खाँसी की तेज़ ढाँय-ढाँय करती आवाज़......जो धीरे-धीरे हँफनी में बदल जाती...... दर्द से लबरेज़ .....घुटती हुई हाँफ.....। यह प्राणलेवा अनुभव था।.....मृत्यु से ज़्यादा भयावह और आतंककारी अनुभव। मैंने पिता को कभी उनके जीवनकाल में इस तरह खाँसते-हाँफते नहीं देखा था। बीमारी के दिनों में भी नहीं। घर में जो कुछ था, पिता की बीमारी में छीज चुका था। बस अम्मा के गहने थे जिसे वह बेटी की शादी के लिए कलेजे से लगाकर बमुश्किल बचाए हुए थीं। फैमिली पेंशन के कागज़ात अभी दफ्तरों के चक्कर लगा रहे थे। रज्जो के पिता जी-जान से लगे हुए थे, पर मुआमला अकेले उनके वश का नहीं था। कागज़ातों को नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे भटकना था। पिता की जगह पर सहानुभूति के आधार पर नियुक्ति के लिए आवेदन देने के समय तमाम सामाजिक दबावों के विपरीत जाकर रज्जो ने मेरी मदद की थी। उसने अम्मा की ओर से दिए गए आवेदन में सबको समझा-बुझाकर बहन का नाम दर्ज करवाया था। मेरी प्रकृति का हवाला देते हुए उसने मुझे लोकापवाद से बचाने की कोशिश की थी। फिर अचानक एक अच्छा दिन हमारे जीवन में आया। राज्य की राजधानी स्थित अकाउन्टेन्ट जेनरल के ऑफिस से फैमिली पेंशन के काग़ज़ात स्वीकृत होकर आ गए। अम्मा और बहन, दोनों एक-दूसरे को अँकवार में भरकर रोती रहीं। उस समय रज्जो भी थी। चुपचाप खड़ी रही। हमने जी भर कर रोने दिया दोनों को।
इस बीच और भी बहुत कुछ घटा था। जैसे, रज्जो ने बैंक के बदले सिविल सर्विसेज़ की परीक्षा की तैयारी शुरु की........और आरम्भिक परीक्षा में अच्छे रैंक से पास होकर मेन्स की तैयार में लगी थी। आरम्भिक परीक्षा पास करने और अच्छे रैंक लाने की ख़ुशी कब आई और कब चली गई पता ही नहीं चला। रज्जो का चेहरा इन दिनों भावशून्य हो चला था। वह चुप-चुप रहती। लगता मानो किसी ने चेहरे का सारा सत्त निचोड़ लिया हो। कभी-कभी तो मुझे उसके चेहरे से झाँकता हुआ अपनी अम्मा का चेहरा दिखने लगता। पिता जब जीवित थे अम्मा का चेहरा ऐसा ही बिना सत्त का दिखाई पड़ता था।
अम्मा के चेहरे पर रौनक कभी रही नहीं, सो अब भी नहीं थी, पर सुकून के भाव ज़रूर दिखने लगे थे। बस एक पुतुल थी,....पुतुल, मेरी छोटी बहन,.....जिसका चेहरा आश्चर्यजनक रूप से बदल गया था। बाबूजी की बीमारी.....फिर मृत्यु.....अम्मा के दुखों का मौन हाहाकार........घर का दैन्य.....मेरे निठल्लेपन से उपजी निःसंगता,..... यह सब झेलते हुए अपनी रंगत खो चुका उसका चेहरा इन दिनों अचानक दीप्ति से भरने लगा था। बया के खोते की तरह उलझे हुए उसके केश सज-सँवर कर लहराने लगे थे। उसकी आवाज़ महीन-मीठी और लयबद्ध हो चली थी। जब कभी वह सामने आती.......कभी चाय की प्याली लेकर या कभी नाश्ता-खाना लेकर........मेरे बहुत निकट,.....मैं उसे ग़ौर से देखता। अपने को ग़ौर से निहारते हुए मुझे पाकर वह अचकचा जाती।
जब रज्जो ने मुझसे कहा........
वह जाते हुए फागुन की साँझ थी। हमारी कॉलोनी के पीछे वाले हिस्से में एक छोटा-सा मैदान था। मैदान के एक किनारे शिरीष के कुछ पेड़ थे। उन पेड़ों की छाँह में पत्थर की तीन बेंचें थीं। बीच वाली बेंच पर बैठा मैं सामने मैदान में क्रिकेट खेलते बच्चों को देख रहा था कि रज्जो आती हुई दिखी। उसके हाथ में कोई किताब थी। वह पास आई। एक फीकी मुस्कान उसके चेहरे पर उभरी और वह मेरे बगल में बैठ गई।.....हवा.....हल्की हवा। मन को उत्फुल्ल करती हवा। शिरीष के पेड़ धुनिया बने रूई की तरह धुन रहे थे हवा को। सूरज जा चुका था। उसकी ललछौंही रोशनी की आस पसरी हुई थी, जैसे अभी-अभी लोप हुई किसी आलाप-घ्वनि का कम्पन पसरा हो। जाने क्यों मुझे औरों की तरह डूबता हुआ सूरज उदास नहीं करता। और ऐसी साँझ, जो हल्की हवा के पर लगाए तैर रही हो, अक्सर मुझे उत्फुल्ल बना देती है। सुबह होते ही जैसे चिड़ियों के पंख खुल जाते हैं, ऐसी साँझ में मेरे पंख खुलने लगते हैं। .......रज्जो का पास आकर यूँ बैठना मुझे बहुत अच्छा लगा था। अरसे बाद हम दोनों घर से बाहर...... शिरीष की छाँव में बैठे थे।
रज्जो ने मुझसे कहा......” पुतुल और हेमंत.....”
मैंने रज्जो की ओर देखा था और नज़रें झुका ली थीं। रज्जो के चेहरे पर दृढ़ता थी। इत्मिनान था। हमारे बीच कुछ पलों का मौन पसर गया था। “तुम अम्मा से बात कर लो।” रज्जो बोली।
“मैं?........तुम्हीं कर लो। अम्मा को भला क्या एतराज़ होगा!”
मेरी बात पर रज्जो के होंठ हिले थे। कोई आवाज़ नहीं। पर मैं समझ गया था कि रज्जो क्या कह रही है। कुछ देर तक फिर अबोला रहा हमारे बीच। रज्जो उठी। मेरी ओर देखती रही। मैं ख़ाली मैदान की ओर देख रहा था। बच्चे जा चुके थे। साँझ तेजी से रात में तब्दील हो रही थी। मेरी पीठ पीछे खड़े शिरीष के पेड़ों के ऊपर से......मैदान के दायीं ओर कॉलोनी की फेंस की दीवारों के उस पार से.....बायीं ओर मैदान के उस पार बने क्वार्टरों की छतों से उतर कर अँधेरा मैदान में भरने लगा था। अँधेरे को ठेलने की कोशिश में नाकाम हवा मुँह चुराकर जाने कहाँ छिप गई थी। कुछ देर पहले तक जो हवा मन-प्राण को उम्फुल्ल बना रही थी, उसका यूँ अचानक पराजित होकर छिप जाना मुझे बेचैन कर रहा था।
“यहीं बैठो रहोगे.......चलना नहीं?” रज्जे ने पूछा। उसका स्वर संयत था।
“नहीं..... अभी कुछ देर और बैठूँगा।......अम्मा से बात कर लेना.....जितनी जल्दी हो सके बात कर लेना......।” मेरा स्वर टूट रहा था।
“तुम चलो तो सही यहाँ से.....” उसका संयत स्वर स्वर दयार्द्र हो चला था।......” “रात-बिरात इस तरह मत भटका करो। देख ही रहे हो कि आजकल पुलिस बेवजह लोगों के पीछे पड़ी रहती है। कल हेमंत के एक दोस्त को सारी रात थाने में बिठाए रही पुलिस।..... चलो।”
हम दोनों साथ-साथ चल रहे थे शिरीष के पेड़ों के नीचे बनी पगडंडी पर। अँधेरे के बीच आकंठ डूबे थे हम दोनों, पर राह परिचित थी, सो चले जा रहे थे। जहाँ शिरीष के पेड़ों का सिलसिला ख़त्म होता था, वहीं से राह मुड़ती थी दाहिनी ओर और बायीं ओर क्वार्टरों का सिलसिला शुरु होता था।
“ तुम सहेजो अपने को......” रज्जो ने चलते हुए मेरा हाथ पकड़ लिया। “........मैं तुम्हें बदलने को नहीं कह रही। जानती हूँ, तुम्हें बदल नहीं सकती......चाहती भी नहीं कि तुम बदलो,.....पर सहेज तो सकते हो अपने को।........पुतुल और हेमंत हमारे लिए साझा दायित्व हैं। हेमंत ने पापा से बात की है। मेरी माँ तो बहुत ख़ुश है।......पर माँ-पाप दोनों चाहते हैं कि पहले मेरी शादी हो जाए.....।”
रज्जो की हथेली का कसाव बढ़ता जा रहा था। मुझे मरते हुए अपने पिता की हथेली का कसाव याद आ रहा था। मरते समय उनके लकवाग्रस्त हाथों में जाने कहाँ से सौ-सौ हाथियों की ताक़त आ गई थी। उन्होंने अचानक मेरा हाथ पकड़ लिया था। अक्सर बंद रहने वाली उनकी आँखें विस्फारित हो गई थीं और उनमें क्रोध के बदले करुणा की बाढ़ आ गई थी। अपनी अस्फुट गों-गों करती हुई आवाज़ में वह कुछ कहना चाह रहे थे। ......मानो अपनी हथेलियों के कसाव और अपनी अस्पष्ट आवाज़ में कोई याचना कर रहे हों। रज्जो की हथेलियों के कसाव में भी याचना थी। अदृश्य याचना।
शिरीष के पेड़ों का सिलसिला ख़त्म हो गया था। रज्जो की हथेली का कसाव धीमा हुआ। हमें दायीं ओर मुड़ना था। यहाँ से क्वार्टरों की क़तारें थीं, जो आगे जाकर दायीं ओर मुड़कर मैदान के उस पार बने क्वार्टरों वाली क़तार से मिल जाती थी। घरों की खिड़कियों-दरवाज़ों से छनकर आती रोशनी के टुकड़ों की हल्की मरियल-सी उजास फैली हुई थी। वह रुकी। मेरी ओर देखा। वह अँधेरे को चीरकर मेरी आँखों की राह मेरी आत्मा के अतल में उतरती हुई बोल रही थी “.....मैंने पापा को कह दिया है कि मैं अभी शादी नहीं करुँगी।...हेमंत अगर तैयार है शादी के लिए तो मुझे कोई एतराज़ नहीं।.......पर.....अगर......”
रज्जो के इस ‘पर....अगर‘ में सवाल थे। अनगिन सवाल। मैं क्या जवाब देता भला! सवाल चाहे कितने भी सही और ज़रूरी हों, उनके जवाब हर बार मिल ही जाएँ यह ज़रूरी नहीं। मैं उसके सवालों के जवाब नहीं दे सकता था। जवाब थे भी नहीं मेरे पास। मैंने कहा, “ तुम अम्मा से बात कर लो......जितनी जल्दी हो सके......”
रज्जो ने मेरा हाथ छोड़ दिया था। हम दोनो आगे बढ़े। पहले रज्जो का क्वार्टर था। उसके बाद आगे की पंक्ति में बायीं ओर मुड़ने पर मेरा क्वार्टर, जिसे खाली करने के लिए अंतिम सरकारी नोटिस आ चुका था। मैं आगे निकला। मैं जानता था, रज्जो वहीं खड़ी मुझे जाते हुए देख रही होगी..... लगातार..... अपलक... । बायीं ओर मुड़ते ही मुझे रज्जो दिखी थी।
सचमुच अजीब दिन थे। विचित्रताओं से भरे हुए दिन। इस बीच पुतुल की नौकरी के कागज़ात आ गए। उसने यहीं...इसी शहर के उसी दफ़्तर में, जिसमें बाबूजी काम करते थे, कम्प्युटर डाटा ऑपरेटर के पद पर ज्वाइन किया। रज्जो के पापा ही उसके इमीडियट बॉस थे, सो सब कुछ बहुत सहजता से हुआ। जिस दिन पुतुल ने ज्वाइन किया उसी शाम मेरे शोधगुरु प्रोफेसर रणविजय सिंह ने मुझे बुलाया था और साफ़-साफ़ कहा था कि मैं उनके धैर्य की परीक्षा न लूँ........कि उनका धैर्य अब जवाब देने लगा है.......कि मुआमला सिर्फ़ शोध का नहीं है और उनके पास मुझे तबाह करने के और भी हथियार हैं......ऐसे अचूक हथियार जिससे मुझे कोई नहीं बचा सकता.....आदि.....आदि....।
ये अजीब दिन.....विचित्र दिन आगे सरकते रहे। अम्मा ने पुतुल और हेमंत के विवाह की अनुमति दी। रज्जो के माता-पिता ने उत्साह और सम्मान के साथ पुतुल को अपनी बहू बनाया। सब-कुछ सादगी के साथ सम्पन्न हुआ। पूरे प्रकरण में रज्जो किसी अनुभवी दादी-नानी की तरह सूत्र संचालन करती रही। हेमंत ने बमुश्किल बीए पास किया था, सो उसके पिता ने शहर के एक नए बने शॉपिंग कॉम्प्लेक्स् में उसके लिए स्टेशनरी की एक दुकान खुलवा दी। अम्मा ने हेमंत और पुतुल के विवाह के लिए राज़ी होने से पहले रज्जो के सामने शर्त रखी थी कि अब रज्जो और मेरे बारे में वह अपने जीते जी कोई बात नहीं सुनेंगी। यह रहस्य रज्जो ने नहीं, ख़ुद अम्मा ने पुतुल को विदा करने के बाद लगभग पश्चाताप के स्वर में खोला था और साथ ही अपनी बातों से यह भी संकेत दिया था कि वे अपनी इस शर्त पर जीते जी अडिग रहेंगी ताकि ऊपर जाकर पति का सामना कर सकें। बिना बाप की बेटी की ज़िम्मेदारी उनकी लाचारी थी, सो जो बन सका, उन्होंने किया या जो हुआ, उसे स्वीकार किया। ......पर मैं उनकी लाचारी नहीं था, सो मेरे पिता का मान रखने के लिए वे तय कर चुकी थीं कि मैं और रज्जो अब एक नहीं हो सकते।
पेंशन से अम्मा की गृहस्थी चल रही थी। इस बीच रज्जो इंडियन रेवेन्यु सर्विसेज के लिए चुनी गई। जिस दिन यह ख़बर आई हमारे परिवारों में पर्व-त्योहार का माहौल था। रज्जो की सफलता ने कई तरह की ख़ुशियाँ दी थी। ज़िलाधिकारी के कार्यालय में लोअर डिविज़न क्लर्क से एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफिसर बने रज्जो के पिता की हैसियत में उछाल आ गया था। मेरी अम्मा इस बात को लेकर ख़ुश थीं कि अब मेरी और रज्जो की हैसियत में आसमान ज़मीन का फ़र्क़ आ गया था, जिससे हमारे विवाह की सम्भावनाएं अम्मा के जीवन-काल के बाद तक के लिए मिट गई थीं। मैं ख़ुश था कि अब रज्जो को कोई यह नहीं कह पायेगा कि वह मेरे चक्कर में बरबाद हो गई।.........और रज्जो? एक रज्जो ही थी जिसके मन की थाह मुश्किल थी। अजीब है यह लड़की! अपने मन को अपनी मुट्ठी में भींचे रहती है। पहले ऐसा नहीं था। रज्जो ही थी जो पल-छिन में मौसम बदल देती थी। पंछियों की तरह फुदकती हुई चलती....... कभी झिर-झिर बहती पुरुवा की तरह लहराती तो कभी तेज़ पछिया की तरह उड़ती फिरती। कितने अलग थे वे दिन जब वह बात बे-बात मुझसे लड़ती......मेरे आलस्य और चीज़ों को बिखराए रहने की मेरी आदत पर बड़बड़ करती.......। बिजली-सी एक चमक, जो भरी रहती थी उसकी आँखों में.....जाने कहाँ छिटक कर चली गई! कदम्ब के फूल की तरह भरी-भरी सी अपनी देह को बिसार ही दिया था रज्जो ने। धीरे-धीरे बदलती गई रज्जो। कब और कैसे बदली, पता ही नहीं चला। जैसे आश्विन माह के निरभ्र आकाश में विहरते चन्द्रमा को लील जाए कोई, वैसे ही उसकी कांति बुझ गई थी। पुतुल और हेमंत ने रज्जो की सफलता पर पार्टी दी। कॉलोनी के बीच वाले मैदान में पंडाल बना था। पूरी कॉलोनी ने जश्न मनाया। रज्जो के पिता के भाग्य से ईर्ष्या करते हुए लोग आए और उन्हें बधाई दी। मैं सबसे अन्त में पहुँचा था। लगभग सारे लोग जा चुके थे और चीज़ें समेटी जा रही थीं। जिस दिन यह पार्टी थी, उसी दिन मेरे शोधगुरु प्रोफेसर रणविजय सिंह की नीम पागल बेटी ने छत से कूद कर आत्महत्या कर ली थी और मैं उसके दाह-संस्कार से लौटा था। ........ सच, कितने भयावह थे वे दिन!
रज्जो अपनी नौकरी के प्रशिक्षण के लिए दूसरे शहर चली गई। उसे विदा करने उसका सारा परिवार स्टेशन गया था। अम्मा भी थीं। मैं भी गया, पर ट्रेन खुलने पर। स्टेशन पहुँचा तो ट्रेन सरक रही थी। मैंने......हम दोनों ने एक-दूसरे को देख लिया था। दोपहर बाद की ट्रेन थी। मैं अमूमन शाम को घर में नहीं रहता था, पर उस शाम मैं कहीं नहीं गया। स्टेशन से सीधे घर लौटा और फिर घर से बाहर निकला ही नहीं। अम्मा रज्जो के घर पर थीं। बेटी के बिछोह में रोती-बिसूरती रज्जो की माँ को ढाढ़स देने में लगी थीं।
मुझे कई दिनों से लग रहा था मेरे भीतर कुछ सड़ रहा है और मैं उस सड़ाँध की बू से परेशान था। क्या बताता किसी को या क्या पूछता किसी से! ......यही कि मेरे भीतर कुछ सड़ गया है या सूँघ कर बताओ मुझे कि क्या सचमुच मुझसे कुछ सड़े हुए की बू आ रही? कई बार लगता घर में ही कहीं कुछ सड़ रहा है। उस शाम मैं घर पहुँच कर बहुत देर तक परेशान रहा। फिर कई दिनों से इधर-उधर बिखरी अपनी किताबों.... पुराने दिनों की कुछ तस्वीरों.....कुछ ख़तो.....अख़बारों की कुछ कतरनों....... कुछ कॅसेट्स.... सबको तरतीब देने में लगा रहा था। काग़ज़़ के टुकड़ों पर जहाँ-तहाँ पड़ी अपनी कविताओं को सहेजता रहा था। अरसे बाद कॅसेट प्लेयर को हाथ लगाया और फ़ैज़ को सुना....मक़ाम फैज़ कोई राह में जँचा ही नहीं......जो कूए-यार से निकले तो सूए-यार चले......। मन थोड़ा हल्का हुआ। सोच रहा था कि कुछ लिखूँ कि........। मैंने पहले ही कहा था न कि उन दिनों कुछ अच्छा भी होता, तो ऐसे अचानक होता कि मन के भीतर भय की लकीर छोड़ जाता।.... अब भला संगीत से अच्छा और क्या हो सकता है इस पृथ्वी, पर संगीत सुनते-सुनते मुझे किसी दूर देश में दिखने वाला वह कल्पित तारा सुहेल याद आ गया, जिसके उदित होते ही पूरी प्रकृति में एक गंध फैल जाती है.....मादक गंध और इस गंध से पृथ्वी के सारे जीव मर जाते हैं।....... मेरी देह काँपने लगी थी और मैं घुटनों में मुँह छिपाकर बिस्तर पर बैठ गया। अपनी थरथराती देह पर क़ाबू पाने की कोशिशें करता रहा। पर अन्दर बाहर सब काँपता रहा। मन मेरे वश में नहीं था और अपनी देह से अपरिचित ही रहा था अब तक, सो बहुत देर तक वैसे ही घुटनों में मुँह छिपाए बैठा रहा।......दरवाज़ा खुला था। सच कहूँ, मैं रज्जो की प्रतीक्षा कर रहा था। जाने क्यों मुझे लग रहा था कि रज्जो आ रही है। अगले किसी स्टेशन पर उतर कर उसने वापसी की ट्रेन पकड़ ली है और अब बस पहुँचने ही वाली है।..... घुटनों में मुँह छिपाए हुए उस रात कब मैं बिस्तर पर लुढ़क गया,....कब अम्मा घर लौटीं..... मुझे कुछ पता नहीं।
सुबह अम्मा की आवाज़ से नींद खुली। “उठ।.....देख पुलिसवाले आए हैं।.....पूछ रहे हैं तुझे.....।” अम्मा के चेहरे पर घबराहट थी। मैं कुछ जानूँ-समझूँ इसके पहले वे सब धड़धड़ाते हुए भीतर घुस आए। आठ-दस रहे होंगे। उनमें से एक शिकारी कुत्ते की तरह मेरे ऊपर झपटा था। उसने मुझे बिस्तर से नीचे खींचा और बेरहमी से मेरी एक बाँह मोड़कर पीठ पर चढ़ा दी थी।
“क्या नाम है तुम्हारा?”
मैंने अपना नाम बताया।
“बाप का नाम?”
मैंने पिता का नाम बताया।
“साले नक्सलाइट, घर में घुसरे बैठे हो.....बिल में घुसे हो चूहे की तरह और हम लोग महीनों से तुम्हारे लिए दर-दर भटक रहे हैं।...... चल साले तेरा खेल खतम। अब हमारा खेल चालू। चल......। बम पटकने में तो बहुत मजा आया होगा राजा ..... अब फटेगी स्साले तुम्हारी......” मैं चल रहा था, पर वे घसीटते हुए ले जाना चाहते थे, सो घसीटते हुए ले चले।
इसके बाद के दिन हस्ब-ए-मामूल गुज़रे। हाजत। हाजत में गाली-गलौज,.....मार-पीट। कोर्ट में पेशी। पुलिस रिमान्ड पर पन्द्रह दिनों तक रौरव नर्क की सी यातना। फिर जेल।.....रज्जो के पिता अपनी प्रतिष्ठा-हनन को लेकर क्षुब्ध और अपनी सरकारी नौकरी के कारण इस प्रकरण से तटस्थ। अम्मा के वश का कुछ था नहीं और हेमंत की सीमाएँ थीं। एक ओर पिता और दूसरी ओर उसका नया-नया शुरु हुआ व्यवसाय। उससे जितना भी सम्भव था, लगा रहा। आज भी मुक़दमे की पैरवी में कोर्ट-कचहरी के चक्कर वही काटता है। शुरु-शुरु में अम्मा हर हफ़्ते जेल में मिलने आती थीं और मुझे देखते ही रोने लगतीं। मैंने अम्मा से तो कुछ नहीं कहा, पर हेमंत को कहा कि वह अम्मा को समझाए कि हर हफ़्ते..........। पता नहीं हेमंत ने समझाया या स्वयं उन्होंने अपने को! धीरे-धीरे अम्मा के आने का अंतराल बढ़ता गया। ज़ख़्म भले न भरें, पर समय उन पर पपड़ी तो डाल ही देता है। और अम्मा तो ऐसे पपड़ियाए ज़ख़्मों के साथ जीने की अभ्यस्त थीं। पति का आतंक,......दो बच्चों की अकाल-मृत्यु......पुतुल का विवाह......। पहले लोअर कोर्ट ने बेल पेटिशन ख़ारिज किया और उसके बाद हाईकोर्ट ने। हेमंत की सारी कोशिशें बेकार गईं। हाईकोर्ट से बेल पेटिशन ख़ारिज होने के बाद मुझे ख़तरनाक प्रजाति का क़ैदी मानते हुए ज़िला जेल से राजधानी के सेन्ट्रल जेल में ट्रांसफर कर दिया गया था।
अब सब ठीक-ठाक है। वो अजीब समय......विचित्रताओं से भरा समय अब जा चुका है। अब हादसों का मौसम नहीं रहा। बाबूजी के पेंशन से अम्मा का गुज़ारा चल जाता है। देखरेख के लिए पुतुल है ही पास में। बाबूजी वाला क्वार्टर पुतुल के नाम अलॉट हो गया है। महीने दो महीने पर सबका हाल-समाचार देने हेमंत आ जाता है। वैसे भी अपने व्यवसाय के सिलसिले में उसका आना-जाना लगा ही रहेगा। पिछली बार वह अम्मा के हाथ के बनाए शक्करपारे लाया था। सुकून से कट रहे हैं मेरे दिन। जेल के साथियों को पढ़ाना चाहता हूँ, पर जेलर तैयार नहीं। उसका कहना है कि मैं बेहद ख़तरनाक़ क़ैदियों की कॅटेगरी में हूँ, सो मुझको इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती। पर उसने मुझे आश्वासन दिया है कि वह जेल आईजी को इस बावत लिखेगा। ....हाँ, रातों को अब भी नींद नहीं आती। पहले भी नहीं आती थी। बस इतना ही फ़र्क़ है कि आजकल अगर कभी नींद आती है, तो मुझे सपने में अपने शहर का वह अहिंसा मैदान दिखने लगता है और मैं चौंक कर जाग जाता हूँ। सोचने लगता हूँ कि विस्फोट से बना वह विशाल गड्ढा क्या सचमुच भरा जा सकता है?......क्या वे इसे भर सकेंगे?....... इतनी माटी लायेंगे कहाँ से वे?...... या फिर उस गड्ढे को मेरे शहर के हत्यारे भरेंगे लाशों से? मेरी गिरफ़्तारी से पहले मेरे शहर के स्थानीय समाचार पत्रों में एक ख़बर आई थी कि अहिंसा मैदान के बीच के हिस्से को पार्क में विकसित किया जायेगा और उसमें गाँधी की प्रतिमा लगेगी। वह गड्ढा ठीक बीचोंबीच तो नहीं, लगभग बीच में है। मैं सोचता रहता हूँ कि अगर हत्यारों ने उस गड्ढे को लाशों से भर दिया तो?.......तो क्या उसके ऊपर की माटी पर फूल लगायेंगे सब। अगर फूल लगे, तो कौन से फूल लगेंगे?......गुलाब?....मोगरा?.... सेवंती?....वैजयंती?......या फिर गोभी के?......जैसे भागलपुर में एक कुआँ को लाशों से पाटकर.....उसके ऊपर माटी डालकर गोभी के फूल उगाए गए थे!.......अगर मैं इस समय अपने शहर में होता, तो पता करता कि आख़िर वे क्या करना चाहते हैं! पर क्या मैं रज्जो के जाने के बाद.....अगर गिरफ़्तार नहीं होता तो भी,.....वहाँ रज्जो के बिना रह सकता था?
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