Kuber - 28 in Hindi Moral Stories by Hansa Deep books and stories PDF | कुबेर - 28

Featured Books
Categories
Share

कुबेर - 28

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

28

कल की बात काल के गर्भ में थी मगर आने वाले कल को कौन जान सका है! आज में जीते हुए डीपी ने बीते कल को तो पीछे छोड़ दिया था परन्तु आने वाले कल की नियति को पहचान नहीं पाया। कोई नहीं सोच सकता था कि उपलब्धियों और सफलताओं के दौर की तेज़ गति को रोकने के लिए भी कुछ होने वाला है। रास्ते में एक बड़ा बैरियर आने वाला है। एक धमाका होने वाला था, ऐसा धमाका जो सर डीपी की बनी बनायी साख को काफ़ी नुकसान पहुँचाने की ताक़त रखता था।

एक ऐसा विस्फोट हुआ जिससे एक नहीं कई परिवार बरबाद हुए। एक धमाका जो डीपी की तेज़ गति को रोकने के लिए स्पीड ब्रेकर का काम कर गया। जबर्दस्त ब्रेक लगने से रुकना तो था ही मगर इससे औंधे मुँह गिरकर जबर्दस्त चोट खाने के आसार सामने थे। डीपी चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहा था।

एक पूरी इमारत जहाँ पर डीपी ने चार फ्लैट बुक किए थे, एक बड़े पचड़े में पड़ गई थी। इमारत बन गयी थी। मकान मालिकों को अपने-अपने फ्लैट दे दिए गए थे। सारा पैसा भरा जा चुका था। रजिस्ट्रीकरण यानि क्लोज़िंग समय पर हो गई थी। लोग रहने लगे थे। एकाएक इमारत का बाँया हिस्सा झुकने लगा। जान-माल के भयंकर नुकसान का अंदेशा था इसलिए प्रशासन हरकत में आ गया था। टीवी, अख़बार और रेडियो इस समाचार से सनसनी फैलाएँ उसके पहले ही सरकारी तबका क़दम उठा चुका था। अपने बचाव के लिए, अपनी पार्टी के बचाव के लिए और सरकारी जागरुकता को दिखाने के लिए मिसाल खड़ी की गयी। कागज़ातों को, फाइलों को एक मेज़ से दूसरी मेज़ का लंबा सफ़र तय नहीं करना पड़ा।

शहर की सरकार ने तत्काल इमारत खाली करने के आदेश दिए। जाँच पड़ताल हुई, डेवलपर के इंजीनियर, सिटी प्लानिंग के इंजीनियर सब भौंचक्के थे। यह कोई अविकसित देश की सरकारी इमारत तो थी नहीं कि सारा भुगतान पाकर पीसा की मीनार बन जाती। अमेरिका जैसे देश में ऐसा हो जाए, संभव नहीं लगता था, मगर ऐसा हो गया था। अब जब हुआ है तो पूरा तंत्र उसके पीछे के सच को उजागर करने के लिए काम पर लगा था। पता लगा कि पूरी इमारत कभी भी गिर सकती है।

यह कोई प्राकृतिक आपदा भी नहीं थी, बीमा कंपनी के अपनी देयता से बचने के ठोस तर्क थे। यह एक ऐसा बवंडर था कंस्ट्रक्शन वालों के लिए जिसका खामियाजा न सिर्फ़ वे भुगत रहे थे बल्कि आम जनता के कई लोग जो पहली बार अपने मकान का सुख ले रहे थे उन सभी पर यह गाज गिरी थी। बिल्डर्स अभी किसी से संपर्क नहीं कर रहे थे। उनके लिए भी यह एक अविश्वसनीय हादसा था। कहाँ, कब, कैसे, क्या चूक हुई इन सारे सवालों के जवाब पहले ख़ुद पता करें तब तो अपनी बिल्डिंग के मकान-मालिकों से बात करने की हिम्मत कर पाएँगे। कई परिवारों के पैसे लगभग डूब चुके थे और बैंको से लिया हुआ मोर्टगेज का क़र्ज़ उनके नाम पर अलग चढ़ा हुआ था।

वह इमारत जहाँ लोग रहने लगे थे, सुरक्षा के लिए खाली करवा ली गयी। सरकार ने तो सुरक्षा के तौर पर अपना कार्य कर लिया किन्तु अब घर से निकाल दिए गए वे लोग जाएँ तो जाएँ कहाँ। उनके जीवन की सारी कमाई अपने आशियाने को बनाने में यहाँ लगी हुई थी। डाउन पेमेंट में, क्लोज़िंग में, वकील की फीस में सारा जमा किया हुआ पैसा ख़त्म हो चुका था। ऐसे में वे बेघर होकर सड़क पर आ गए थे।

डीपी ने लोकेशन को देखते हुए किराए की प्रॉपर्टी के रूप में लगभग दो मिलियन डॉलर लगाए थे उस इमारत में। उम्दा ले-आउट के साथ बिल्डर्स भी बहुत नामी थे इसलिए उसने दिल खोल कर निवेश किया था वहाँ। बिल्डर्स ख़त्म हो चुके थे, साथ ही कुछ समय के लिए अंतर्ध्यान भी। कहीं किसी का कोई अता-पता नहीं था। महानगर की वित्तीय साख पर एक सवाल था। निवेशकों के लिए एक चेतावनी थी। आम जनता के लिए बड़ा हादसा था और एक धमाका था रियल इस्टेट वालों के लिए। कई लोग उस भूचाल में ख़त्म हुए थे। हर पक्ष कोर्ट के दरवाज़े खटखटाने जा रहा था।

डीपी के लिए जबर्दस्त नुकसान था यह। उसकी भी सारी जमा पूँजी लग गयी थी और बैंक का इतना क़र्ज़ था सो अलग, अब क्या होगा। बहुत सारे अंडे एक बास्केट में डाल दिए थे और वे सारे टकरा-टकरा कर फूट रहे थे। इस टूट-फूट को बचाने का कोई रास्ता था ही नहीं। फूटे हुए अंडे कैसे जुड़ सकते थे भला। कोई ग़रीब देश की सरकार होती तो कुछ मुआवज़ा दे कर मामला साफ़ कर देती पर यहाँ तो मामला बेहद पेचीदा था।

डीपी अपनी शेष बचत की राशि तो भारत यात्रा में निवेश कर आया था। अपने मित्रों-ग्रामवासियों को रोज़गार की जो उम्मीद वह दे कर आया था उसे छीनने का कोई अर्थ नहीं था। अब ऐसा क्या करे कि इस भँवर से बाहर आए। जब कुछ नहीं था तो कुछ खोने का डर भी नहीं था। आज इतना कुछ है – पैसा भी है, प्रतिष्ठा भी है और वह सब कुछ है जिसके खोने का डर है। जब उसके पास कुछ नहीं था तो उसे मसीहा मिलते रहे थे, आज वह ख़ुद मसीहा बनना चाहता है तो कितने संकट आते जा रहे हैं। दादा के रास्ते में भी आए होंगे। भाईजी जॉन के रास्ते में भी आए होंगे। भाईजी भी तो अपनी ज़िम्मेदारी पर उसे एक नये देश में बसाने का साहस कर चुके थे।

एकबारगी तो ऐसा लगा कि सर डीपी फिर से धन्नू न बन जाए। उसकी अपनी ग़लतियों की वज़ह से उसके इतने बड़े परिवार को अभावों में न जीना पड़े।

“अब क्या करें भाईजी, मैं तो बुरी तरह फँस गया हूँ। कहीं से भी कोई भी बचाव का रास्ता दिखाई नहीं दे रहा।” भाईजी जॉन का एक ही फ्लैट था इसमें। उनका नुकसान उनके निवेश के हिसाब से बहुत कम था। वे भी जानते थे कि इससे उबरने में डीपी को समय लग जाएगा।

“यह तो एक दुर्घटना थी डीपी। न्यूयॉर्क के पूरे वित्तीय इतिहास में ऐसा कम ही हुआ था। इसमें तुम्हारी या किसी की कोई ग़लती नहीं है। समझ लो कि एक दुर्घटना घटी है और तुम्हें उसमें अधिक चोट लगी है। जो हो चुका है उसे व्यापार का हिस्सा समझो कि नफ़ा होता है तो नुकसान भी तो होता है। आगे-पीछे इसका हल तो निकलेगा। फिलहाल तो चोट के इलाज के बारे में सोचना ज़्यादा ज़रूरी है।”

“लेकिन मेरी समझ में नहीं आ रहा कि इस नुकसान की भरपाई करने के लिए मैं पैसा लाऊँ तो लाऊँ कहाँ से। अब बैंक वाले मुझे लोन नहीं देंगे भाईजी।”

“हाँ, जब तक फिर से तुम्हारा पोर्टफोलियो तैयार नहीं हो जाता।”

“तो अब कैसे शुरू करूँ मैं तो ज़ीरो पर आ गया हूँ, ज़ीरो से भी नीचे शायद!”

“वापस उठोगे डीपी, मैं हूँ यहाँ, चिंता मत करो।”

“नहीं भाईजी, आपका भी नुकसान हुआ है इसमें। मैं आपकी पूँजी भी ख़तरे में डालना नहीं चाहता। ग़लती मैंने की है, मैं ही व्यवस्था करूँगा।”

“इतना मत सोचो डीपी, हिम्मत रखो।”

“भाईजी मेरी हिम्मत पर इस नुकसान ने गहरा असर डाला है। मेरा दिल कर रहा है कि मैं भाग जाऊँ यहाँ से या फिर बैंकरप्ट्सी के लिए आवेदन कर दूँ, दिवालिया घोषित हो कर मैं फिर से खड़ा होने की कोशिश करता हूँ।”

“यह तुम्हारी सबसे बड़ी ग़लती होगी। निवेशकों के मन में तुम्हारे प्रति जो विश्वास है, यदि वह ख़त्म हो गया तो तुम्हारे फिर से कारोबार के अवसर भी क्षीण हो जायेंगे।”

“तो अब कैसे फिर से शुरू करूँ...?”

“पहले इस जलजले को थमने दो और फिर से सैटल होने की कोशिश करो। सुना है कोर्ट बैंकों को यह अंतरिम आदेश दे सकता है कि वे संबंधित क़र्ज़ पर फिलहाल ब्याज़ न लगाएँ और किश्तों की वसूली स्थगित रखें। तुमने जो अन्य लोन लिए हैं और विशेष कर जो क्रेडिट कार्ड पर लिए गये लोन हों उनको तुम्हें समय पर देते रहना चाहिए। तुम ऐसे मासिक भुगतानों के लिए हमसे लोन लेते रहना। सफल कारोबारी बनना है तो अपनी साख को बचाए रखना बहुत ज़रूरी है। बैंकों का विश्वास बढ़ेगा और तुम्हारा काम फिर से लाइन पर आएगा। एक बार फिर से गाड़ी पटरी पर आने दो, बाद में जहाँ जाना हो चले जाना। बस अब बहुत सम्हल कर चलो, दौड़ो नहीं।”

अलग-अलग बास्केट में अलग-अलग चीज़ें हों, व्यवसाय का सबसे बड़ा नियम था यह। लेकिन रियल इस्टेट वाले अपने नियमों से चलते थे। उनके लिए हर नियम रियल इस्टेट से शुरू होता था और रियल इस्टेट पर ख़त्म होता था। इसी माहौल में रहते डीपी भी वही कर रहा था जो सब करते थे। “बैक टू स्क्वेयर वन” पर आ जाना और इस बार तो क़र्ज़ के बोझ के साथ फिर से शुरू करना था। दो से ढाई मिलियन का नुकसान सहन करके कमर एकदम टूट-सी गयी थी। एक हारा हुआ खिलाड़ी नहीं बनना चाहता था। चाहता था कि एक लड़ाके के रूप में आगे आए, हार कर जीतना लोग उससे सीखें।

फिर से अ आ से शुरू किया। पहले की तरह छोटे-मोटे सौदे करवाने लगा। लोग दो दिन बात करके चुप हो गए। उस परियोजना के अपने निवेशकों से वह नियमित रूप से संपर्क में रहता। उस बिल्डिंग के सभी निवेशकों ने मिल कर बिल्डर, सिटी और बीमा कंपनी के विरुद्ध क्लास एक्शन दावा दायर किया था। कोर्ट ने निवेशकों को कुछ अंतरिम रियायतें दी थीं। बस उनके बारे में निवेशकों को अपडेट करते रहने से कम से कम उसकी साख उन लोगों में बची हुई थी। उसे लोगों की परवाह ज़्यादा थी। परवाह थी तो भाईजी जॉन के पैसे लौटाने की, परवाह थी तो अपनी बैंक की साख को बनाए रखने की, परवाह थी तो अपनी खोयी इच्छा शक्ति को जगाने की, अपनी ग़लतियों से सबक लेने की।

एक सबक था महानगरीय अंधी दौड़ का जो ठोकरें तो खिलाती ही है पर ज़मीन पर गिराकर चारों खाने चित्त भी कर देती है।

इसमें डीपी को जो नुकसान हुआ था वह उसका व्यापार नहीं था। वह तो जीवन-ज्योत के लिए हर महीने भेजे जाने वाली रकम की स्थायी व्यवस्था थी जो किराए पर दिए गए फ्लैट से मिलती और ख़र्चे की कटौती के बाद की बचने वाली रकम जीवन-ज्योत को भेजी जानी थी। अब वह क्या करेगा, किस मुँह से कहेगा कि अभी वह मदद नहीं भेज सकता। अपनी प्रतिबद्धता का प्रश्न मुँह बाये खड़ा था।

यह सब क्यों हुआ, कैसे हुआ, कब हुआ, प्रश्न तो कई थे जो साइड लाइन में थे सिवाय जीवन-ज्योत के जो हर पल सामने आता कि क्या करे, कहाँ से पैसे लाए और वहाँ भेज दे, ताकि वहाँ के काम निर्बाध चलते रहें। कैसे व्यवस्था कर पाएगा इतने पैसों की। एकाएक सामने खड़े इस संकट से उबरने का कोई रास्ता नज़र नहीं आया तो भाईजी से कोई उपाय पूछने के अलावा चारा ही नहीं था – “भाईजी, यह तो ऐसी मुसीबत खड़ी है जिसके लिए कोई तैयारी ही नहीं की थी!”

“हिम्मत मत हारो डीपी, देखो तुम अकेले नहीं हो इस हादसे में, उन लोगों को देखो जो ख़ुशी-ख़ुशी अपने घर में आकर रहने लगे थे और अब बेघर हो गए हैं।”

“जी भाईजी, उनका दर्द तो मुझसे देखा नहीं जाता।”

“इसे अपने व्यापार की एक चुनौती समझो और फिर से दुगुने जोश से वापसी करो।”

“जी भाईजी” और कहता भी क्या डीपी। अगर अधिक चिन्ता जताता तो भाईजी अपनी मदद लेने के लिए दबाव डालते और वह इस समय उनका पैसा लेकर उन पर बोझ बनना नहीं चाहता था।

*****