जी-मेल एक्सप्रेस
अलका सिन्हा
34. पहचान परेड
मैंने देखा, जांच कक्ष के भीतर वाले हिस्से में चरित को लिटा रखा था, नीली बत्ती ठीक उसकी आंखों के सामने थी। आत्मसाक्षात्कार की अवस्था में वह खुद से संवाद कर रहा था।
‘‘...तब मैं नाइन्थ में पढ़ता था। ‘रूबी मैम’ मुझे इंगलिश पढ़ाती थीं। रूबी मैम के कारण ही मेरा रुझान अंगरेजी कविता की तरफ हुआ और उसी उम्र से मेरी कविताएं स्कूल मैगजीन में प्रकाशित होने लगीं। मैं स्कूल की गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगा जिससे स्कूल में मेरी अलग पहचान बनने लगी। रूबी मैम मुझे खूब प्रोत्साहित करतीं, समय निकालकर मेरी कविताओं को सुधार दिया करतीं। कई तरह की सहायता के लिए मैं रूबी मैम से मिलता रहता। मैंने महसूस किया कि रूबी मैम मुझसे अकेले में मिलना अधिक पसंद करतीं। मौके-बेमौके वह मुझे अपने करीब ले आतीं, मेरे कंधे पर हाथ रख देतीं...
उस रोज हम डांस रूम में बैठे थे, मेरी एक कविता से खुश होकर उन्होंने मुझे बाहों में भरकर चूम लिया... उस आलिंगन में ऐसी जकड़ थी कि मैंने अचानक ही महसूस किया कि मैं बड़ा हो गया हूं...’’
मैं अवाक् सुन रहा था कि चरित की टीचर ने स्कूल के सालाना जलसे पर चरित की उस कविता को स्वरबद्ध कर, डांस के साथ प्रस्तुत कराया था। चरित हीरो बन गया था। उसने बताया कि प्रोग्राम के बाद रूबी मैम उसे अपने घर ले गईं।
“रूबी मैम ने ताला खोला और हम उस घर के भीतर चले आए जहां हमारे सिवा और कोई न था...”
चरित की निगाहें नीले बल्ब पर स्थिर थीं और वह अपने बीते जीवन को साफ-साफ देख पा रहा था...
“फंक्शन की कामयाबी के नाम रूबी मैम दो ड्रिंक बना लाईं। इससे पहले मैंने कभी ड्रिंक नहीं की थी। थोड़ी झिझक, थोड़ी जिज्ञासा के साथ मैंने ग्लास उठा लिया। स्वाद कुछ भाया तो नहीं मगर मैं घूंट भरता रहा। मैंने सुन रखा था कि इसका स्वाद धीरे-धीरे हावी होता है। रूबी मैम अपनी ड्रिंक खत्म कर चुकी थीं। मुझे जारी रखने को कहकर वे फ्रेश होने, साथ लगे बाथरूम में चली गईं। जब वह लौटकर आईं तो वाकई बहुत फ्रेश लग रही थीं। उनके गीले बालों से टपकता पानी, उनके झीने गाउन को और भी पारदर्शी बना रहा था। वह मेरे बिलकुल करीब सटकर बैठ गईं। उनके भीतर से आती मादक गंध मुझ पर नशे की तरह छाती जा रही थी और मैं सम्मोहित होता जा रहा था। एक अजब-सी ऐंठन मेरे पोर-पोर में समाती जा रही थी। मुझे डांस का एक बेहतरीन स्टेप सिखाते हुए, उन्होंने अपनी बाहें मेरी कमर में डाल दीं। मेरे शरीर में झुरझुरी होने लगी और सांसें रुक गईं मगर उनका सिखाना जारी रहा। मैं दम साधे देख रहा था कि वह एक-एक कर मेरे कपड़े उतारती जा रही थीं। मेरी निगाहें नीची थीं मगर मैं देख पा रहा था कि उनका गाउन भी कंधों से नीचे ढलक चुका था। कुछ देर बाद हमारे बीच कोई परदा नहीं बचा था। मैं अपने आप में सिकुड़ा जा रहा था। उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में थाम लिया और धीरे-धीरे सहलाने लगीं... उन्होंने मेरे हर अंग को प्यार से सहलाया... चूमा... मैं उत्तेजना से भर उठा... ऐन उस वक्त मुझे किसी ने रोका, जैसे मेरे कानों में कोई चीख रहा हो कि कुछ गलत होने जा रहा है, रुक जाओ... लगा, जैसे किसी ने मेरे हाथ बांध दिए हों... मैं जड़ हो गया हूं, मगर रूबी मैम का कोमल स्पर्श मेरी जड़ता से टक्कर ले रहा था। उन्होंने मेरा हाथ अपने कलेजे पर रख लिया, धड़क-धड़क-धड़क... मेरी हथेलियां उनकी धड़कनों को साफ सुन रही थीं... मैंने पलक झपककर देखा, एक अलौकिक कलाकृति मेरे समक्ष अनावृत खड़ी थी जिसकी अजानुबाहें मेरी हथेलियों को थामे, मुझे ऊंची-नीची घाटियों के पार लिए जा रही थीं। मेरे भीतर पंख निकल आए थे जो उड़ान भरने को आकुल थे, मैं आकाश की अनंत ऊंचाइयों को छू लेने को उद्यत था... कभी लगता, मैं सातवें आसमान पर जा पहुंचा हूं तो कभी लगता, समन्दर की तलहट छूकर आ रहा हूं... फूल-सा कोमल हिंडोला मुझे बादलों के पार लिए जाने को तैयार खड़ा था, मगर कोई था जो रोक रहा था मुझे... मैं क्यों नजरअंदाज कर रहा था उस आवाज को जो मुझे जड़ किए जा रही थी? और इस आवाज की दूसरी तरफ वह कौन था जो मुझे सम्मोहित किए जा रहा था? भीतर-ही-भीतर मैं आर-पार की लड़ाई लड़ रहा था। मैं किससे लड़ रहा था? किससे पार पाना चाहता था? मैं अपने आप से अनजान खड़ा था और वह मेरा हाथ थामे, मुझे मेरे भीतर से बाहर निकाल रही थी, मैं अपनी ही हदें तोड़कर बाहर आने के लिए लड़ रहा था... मगर यह कैसी लड़ाई थी जहां लड़ने के बदले मैं प्यार किए जा रहा था... बेतहाशा प्यार किए जा रहा था... यह कैसी लड़ाई थी जिसे जीतने की खातिर मैं खुद को हार जाने के लिए तैयार खड़ा था... मेरे भीतर एक समुद्र उफान ले रहा था जबकि बाहर एक अल्हड़ नदी लगातार उस उफान से टकरा रही थी... एक अनूठा संघर्षण मुझे पहाड़ की तरह सख्त और सुडौल किए जा रहा था, अपने भीतर ऐसी चट्टान मैंने आज तक नहीं देखी थी... रोमांचित होकर मैंने अपनी आंखें मूंद लीं और खुद को उस अनुपम नर्तकी के हवाले कर दिया जिसकी हरेक थिरकन मेरे भीतर की दीवारों को ढहाती जा रही थी। मैं अपने आप से बाहर आता जा रहा था और एक अलौकिक दुनिया में प्रवेश करते हुए महसूस कर रहा था कि मैं अब बच्चा नहीं रहा, ग्रोनअप हो गया था...”
‘ग्रोन अप’, ‘ग्रोन अप’ मेरे कानों में टंकार कर रहा था।
चरित की शब्दावली और डायरी की भाषा एक-दूसरे के रू-ब-रू थे।
गोपनीयता का आवरण झीना पड़ने लगा... रोहन की जगह तेइस-चौबीस साल की उस युवती का चेहरा उभरने लगा जो रूबी मैम के नाम से चरित की दुनिया में अनूठे प्रेम की अनूठी अभिव्यक्ति बनकर आया था!
रूबी मैम यानी उसकी दुनिया को रंगों और खुशबू से भरने वाली कलात्मक गाइड।
“प्रेम की बहुत-सी बारीकियां रूबी मैम ने मुझे सिखाईं और मैं आज्ञाकारी बालक की तरह उनसे सब सीखता रहा।”
चरित ने बताया कि रूबी मैम के परिवार में बहुत-सी जिम्मेदारियां थीं इसलिए वे शादी नहीं कर सकती थीं। चरित ने भी इस रिश्ते को आजीवन इसी तरह निभाने का संकल्प ले लिया। उसने मान लिया था कि प्रेम में किसी तरह की जाति, धर्म या उम्र की कोई सीमा नहीं होती और उनका यह शाश्वत प्रेम पिछले जनमों से चला आ रहा है।
“लगभग दो सालों तक हमारा प्रेम खूब परवान चढ़ा। ग्यारहवीं क्लास में जाने के बाद मैंने साइंस ले ली थी। अंगरेजी साहित्य के साथ-साथ रूबी मैम से मिलना भी छूटने लगा। धीरे-धीरे वह मुझसे कतराने लगीं। एक दिन पता चला, उन्होंने शादी कर ली है और स्कूल छोड़कर चली गई हैं। मैंने बहुत खोजा उन्हें, बहुत पुकारा, मगर मेरी आवाज उन तक नहीं पहुंच पाई। मैं बेहद टूट गया था...” चरित फफक पड़ा था।
नीली रोशनी में उसकी आंख से पिघलती नमी, टूटते तारे-सी चमक रही थी।
“स्कूल जाने का मन नहीं करता था, मेरी अटेंडेंस कम हो गई थी और पढ़ाई भी काफी गड़बड़ा गई थी। एक बार क्लास ने मास बंक किया, प्रिंसिपल ने पैरेन्ट्स को बुलाने का फैसला लिया। मैं डरता था कि अगर पापा स्कूल आए, तो उन्हें हर टीचर से मेरे बारे में शिकायत ही मिलेगी। ऐसे समय में कविता मैम ने संभाल लिया।”
‘...किसी ‘के’ ने आगे बढ़कर कमान संभाली और अपने तर्कों से प्रिंसिपल साहब को परास्त कर दिया,’ डायरी के कोड्स खुलकर सामने आ गए थे और कुणाल की जगह कविता मैम खड़ी थीं। हैरानी से भरा मैं सुन रहा था, किस तरह कविता मैम ने टूटते चरित को दोबारा खड़ा किया। वह चरित का बहुत ध्यान रखतीं। उसकी अनुपस्थिति में वह कोई महत्वपूर्ण विषय नहीं पढ़ातीं। इतना ही नहीं, उसके असाइन्मेंट न करके लाने पर, उससे नाराज होने के बदले वह पूरी क्लास को अतिरिक्त समय दे दिया करतीं। कई बार कोई कठिन विषय वह उसे एकांत में दोबारा समझातीं, उसके लिए नोट्स बना लातीं, महत्वपूर्ण सवालों का अंदाजा दे देतीं। और इस तरह चरित संभलने लगा। बेहतर रिजल्ट से उसका खोया आत्मविश्वास फिर जागने लगा।
“मैं टूटा हुआ तो था ही, कविता मैम ने इस पहलू पर भी मुझे दोबारा खड़ा किया,” चरित की पुतलियां फिर से नीले बल्ब पर स्थिर हो गई थीं—
“...उस रोज उनका जन्मदिन था, मैंने उनके लिए एक सुंदर-सी कविता लिखी। कविता पढ़कर वह बहुत खुश हुईं और अपना जन्मदिन उन्होंने सिर्फ मेरे साथ मनाया। वह मुझे एक बड़े होटल में ले गईं। इससे पहले मैं किसी होटल के अंदर नहीं गया था। वहां का खाना और उन्मुक्त माहौल मुझे उनके और करीब ले आया। उन्होंने वहीं एक कमरा बुक कर रखा था। कमरे में जाकर उन्होंने मुझे अपनी बाहों में कस लिया। एक अरसे बाद मैं इस तरह के आगोश में जकड़ा था, मेरा रोम-रोम प्यार पाने और लुटाने के लिए तरस रहा था। रूबी मैम की जगह कविता मैम ने ले ली थी। हमारे बीच कोई परदा, कोई दीवार नहीं रह गई थी। उनकी एक-एक छुअन मेरे भीतर सोए पड़े संगीत को जगा रही थी और मेरा पूरा शरीर झंकृत हो उठा था। मैं चाहता था कि हर तार के छिड़ने को महसूस करूं, भीतर उठती हर लहर पर थिरक पड़ूं, प्यार की बरसात में भीगता रहूं... मगर कविता मैम का प्यार, उन्मादित आवेश था, सागर में उठने वाले ज्वार-भाटे-सा उद्दाम... वह कहीं ठहरना नहीं चाहती थीं। वह मुझ पर इस तरह हावी थीं कि मैं खुद को नागपाश में लिपटा महसूस कर रहा था। तेज सरसराहट के साथ वह मुझे अनेक कोणों से लपेटे जा रही थीं और मेरे अंगों पर प्रेम चिह्न अंकित किए जा रही थीं... उनके भीतर से प्रेम का जलजला फूट पड़ा था और मैं खुद को संभाल नहीं पा रहा था... मेरी ऐसी स्थिति उन्हें और भी उद्वेलित कर रही थी और उनका उत्साह दुगुना होता जाता था। उफनती नदी-सी वह मुझे बहाए लिए जा रही थीं...
वे मुझे सागर की अतल गहराइयों में ले जाने को उद्यत थीं जबकि मेरा हिमखंड ऊपरी सतह पर ही पिघलकर रह गया।
मैं जीतकर भी हार गया था।
उन्होंने दोबारा मुझे चुनौती दी। एक तरह की जिद के साथ इस बार मैं उन पर हावी हो गया। प्रेम के साथ मैं उन पर अपना दबाव बढ़ाता जा रहा था जिससे वह बेतरह आनंदित थीं, अत्यंत सावधानी के साथ मैंने उनके आवेश और अपनी उत्तेजना को साधने का प्रयास किया ताकि हम दोनों चरम के उत्कर्ष को एक साथ महसूस कर सकें। खुद को चरम पर साधने का एक नया अध्याय मैंने उस रोज सीखा था। मैं खुद को एक अनगढ़ पत्थर से सुडौल कृति में ढलता महसूस कर रहा था... उद्दाम लहर को काबू कर, उसे तृप्त करने की विशिष्टता का सुख, मेरे पौरुष को संतुष्ट कर रहा था...”
‘डॉंमिनेटिंग,’ मेरी आंखों में डायरी के पन्ने फड़फड़ा रहे थे।
“कविता मैम के पति उनसे बारह साल बड़े थे और इसलिए वे उनकी मांगों को उस अनुपात में पूरा कर पाने में समर्थ नहीं थे, जितनी उन्हें चाहत थी। कविता मैम की सेक्स डिजायर इतनी अधिक थी कि कभी-कभी तो वहशीपन की हद तक चली जाती।”
चरित कह रहा था कि कविता मैम को संतुष्ट कर पाना अगर कठिन काम था तो वे अतिरिक्त श्रम की कीमत भी अतिरिक्त दिया करती थीं।
“जब भी वह मुझसे प्रेम बनातीं, हर बार कोई बेशकीमती तोहफा भेंट करतीं। देने के मामले में उनकी दरियादिली का जवाब नहीं था। सिर्फ पैसा ही नहीं, मेरी अन्य जरूरतों का भी उन्होंने हमेशा ख्याल रखा। उन्हीं की वजह से मुझे बोर्ड प्रैक्टिकल में पूरे नंबर मिले।”
चरित ने कबूल किया कि जहां रूबी मैम के प्रेम में उसका भावात्मक जुड़ाव प्रधान था वहीं कविता मैम के साथ एक तरह की सौदेबाजी आ समायी थी जिसकी वजह से वह कविता मैम के तानाशाही प्रेम का कभी विरोध नहीं कर सका।
(अगले अंक में जारी....)