गुनगुनी धूप सी बातें:
सहपाठी बोला करते हैं "वे दिन बहुत याद आते हैं।"न सुबह होने का पता होता था, न शाम होने का। कालेज की भाग्यशाली सीढ़ियों में फटाफट चलने का आनन्द अलग होता है। बचपन की भूतों की कहानियों से निकल, वास्तविक जीवन की कहानियां बनने लगती हैं। पीछे मुड़कर देखने का सुख-दुख कुछ और ही होता है जैसे रामायण और महाभारत को देखने-पढ़ने का।फेसबुक पर सहपाठियों ,शिक्षकों आदि को ढूंढना सरल हो गया है। बहुत बार मिलता-जुलता नाम एक आभासी सुख की खोज में निकल पड़ता है। बहुत बार उपनाम याद रहता है तो संशय के साथ बातें चलती हैं जैसे
तुमने डीएसबी में पढ़ा है क्या?
हाँ!
हमारे साथ पी. के, तिवारी, नीना, दिव्या, आर्या,श्वेता थीं।
"लगता है मैं उस साल नहीं था,मैंने इस इस वर्ष में किया था।"
ओह, मैं,तुमसे तीन साल पहले था। लेकिन तुम्हारे उपनाम का एक साथी था, हमारे साथ। मैंने सोचा, शायद तुम ही हो।
फेसबुक पर तलाब का चित्र भेजा गया है। तड़ागताल, चौखुटिया शीषर्क दिया है।टिप्णीयों और पसंद का सिलसिला आरम्भ होता है। मैंने लिखा तड़ागताल तो चौखुटिया(उत्तराखंड) से ८-१० किलोमीटर दूर है। गर्मियों में इसमें पानी बहुत कम हो जाता है। खाली क्षेत्र में गेहूँ उगाया जाता है। लेकिन बरसात में लबालब भरा रहता है। पानी के निकास के लिये पाँच सुरंगें बनी हैं। लोक कथा है कि द्वापर में भीम ने अपनी पाँच शक्तिशाली अँगुलियों से ये सुरंगें बनायी थीं। इन्हीं से निकले पानी से तड़ागताल का गधेरा बनता है,जो रामगंगा नदी में मिल जाता है। एक ऊँचे पहाड़ के ऊपर गोल वृत्ताकार क्षेत्र है जहाँ कोई वनस्पति नहीं है, दूर से हल्का मटमैला रंग का दिखता है उसे भीम की खातड़ि(गद्दा) के नाम से जाना जाता है। मान्यता है कि भीम ने अपनी खातड़ि यहाँ सुखाने रखी थी। बहुत से नौलों को भी पांडवों से जोड़ा जाता है।
चौखुटिया पहले वैराट के नाम से जाना जाता है। राजा मालूशाही और राजुला की प्रेम कथा लोक गायकी का अभिन्न अंग हैं। लोक कथा है कि मालूशाही और राजुला के माता-पिता को जब संतान नहीं हुयी तो वे मकरसंक्रांति के दिन बागेश्वर के बागनाथ मन्दिर(महादेव मन्दिर) में संतान की मन्नत माँगने गये थे। वहाँ उनकी भेंट होती है। मालूशाही के पिता और राजुला के पिता सुनपत शौक मन ही मन सोचते हैं कि यदि एक के यहाँ बेटा और दूसरे के यहाँ बेटी हुयी तो उनकी शादी कर देंगे।राजुला के पिता भोट के व्यापारी थे। समय बीता।वैराट में मालूशाही का जन्म होता है और सुनपत शौक के यहाँ राजुला का। ज्योतिषी ने बताता है कि मालूशाही अल्पायु होगा अतः उसकी शादी कर दी जाय तो यह काल टल जायेगा। मालूशाही की प्रतीकात्मक शादी राजुला से पाँचवे दिन कर दी जाती है। थोड़े समय बाद मालूशाही के पिता का देहांत हो जाता है।अतः राजुला को राजदरबारी अपशकुनकारी मानते हैं।समय बीतने के साथ दोनों जवान हो जाते हैं।राजुला रूपवान और अपूर्व सुन्दरी होती है। राजुला अपनी माँ से प्रश्न करती है कि राजकुमारों में श्रेष्ठ कौन है? तो उसकी माँ मालूशाही का नाम लेती है।राजुला जिद्द कर अपने पिता के साथ वैराट आती है। और दूनागिरी में मालूशाही और राजुला की भेंट होती है।पिता को भेंट का पता चलते ही वे भोट लौट जाते हैं क्योंकि वे अपने व्यापारी मित्र से उसकी शादी करना चाहते हैं। दोनों एक-दूसरे के सपने में आते हैं।वह मालूशाही को भूल नहीं पाती है। वह अपनी माँ की सहमति से मालूशाही से मिलने आती है। वैराट में राजुला की आने की खबर सुनकर मालूशाही को नींद की जड़ी सूंघा दी जाती है।जब राजुला उससे मिलती है तो वह उसे जगा नहीं पाती है और हार कर अपने साथ लायी अँगूठी,फूलों की माला उसे पहना जाती है और एक पत्र उसके सिहराने रख जाती है। जब मालूशाही को पता चलता है तो वह जोगी भेष में अपने वीरों के साथ राजुला के यहाँ जाता है। वहाँ खीर में जहर मिला कर उन्हें चेतना शून्य कर दिया जाता है। गोरखनाथ जी की विद्या से उन्हें चेतना में लाया जाता है। विजय के साथ मालूशाही राजुला को वैराट ले आता है और राजशी धूमधाम से उनका विवाह हो जाता है। बहुत से लोकगीत उनके प्रेम पर गाये जाते हैं जैसे-
" मांग दिछा मांगि दियो बोज्यू,सुनपत शौकै की चेलि---।"
( पिता जी सुनपत शौक की बेटी की तरह सुन्दर,रूपवान कन्या को मेरी शादी के लिये मांग दो---।)
बचपन से सुनी ये लोककथायें कहीं न कहीं हमारे जीवन का अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती हैं। इनका रूप भी थोड़ा- बहुत अलग-अलग पाया जाता है।
मैंने मालूशाही और राजुला का संदर्भ दिया तो बहुतों को यह नयी जानकारी लगी।
एक दोस्त ने लिखा बी.एससी. उसने डीएसबी से की। मैंने लिखा मैंने भी इसी वर्ष किया। हो सकता है, हम अलग-अलग वर्ग(सेक्शन) में रहे होंगे।उसने कहा तीन लड़कियां भी थीं। एक बहुत सुन्दर थी।
मैंने उत्तर दिया," हाँ,तब तो एक ही सेक्शन रहे होंगे।वह लड़की अमेरिका चली गयी थी। मैं पढ़ने में उन दिनों औसत दर्जे का था।" फिर दो-तीन होशियार साथियों के नाम आये। पाँच-छ लड़के सेंट जोसेफ के पढ़े भी थे जो बी. एससी. प्रथम बर्ष में ही असफल हो गये थे। कभी-कभी कक्षा में नहीं भी जाते थे। कला संकाय में जाकर डाकघर के आगे के तपड़ में गुनगुनी धूप तापते थे। वहाँ लड़के-लड़कियां अपने-अपने समूह में बैठे रहते थे। बड़े-बड़े आँखों वाली, ओवरकोट पहने एक लड़की भी वहाँ आती थी,जो मुझे अब भी याद है।क्योंकि वह मेरी कहानी की नायिका सी लगती थी। तब मैं छोटी-मोटी कविताएं लिखा करता था। जैसे
"कुछ नहीं थमता है जो
वह है प्यार,
कुछ नहीं थकता है तो
वह है प्यार।"
उन दिनों कुछ-कुछ समाजवादी था, विचारों में।
चौंकाने वाली बात उस दोस्त ने की, जिसने कहा," मैं उस लड़की के साथ तल्लीताल से मल्लीताल तक गया,जब वह अमेरिका से लौटी थी कुछ दिनों के लिए।" मुझे बात गपशप सी लगी। आदमी पुरानी यादों में कभी-कभी कुछ काल्पनिक या गड्डमड्ड भी हो जाता है। मैंने कहा," मैं तो उसे रूमाल तक नहीं दे पाया जो प्रयोगशाला में छूट गया था उसका।लड़कियों से बात करने की परंपरा उन दिनों आम नहीं थी।"
*महेश रौतेला